Monday 13 February 2017

कविता की शाश्वत एवं जीवंत भूमिका का निर्वहन


    
         कविता मात्र वैयक्तिक भावनाओं की अभिव्यक्ति भर नहीं है और न ही तो स्वान्तः सुखाय की प्रवृत्ति को प्रमुखता देने का एक ऐसा साधन ही है जिसके माध्यम से जो चाहे कह दिया जाए | आज के इस अस्वाभाविक समय में, जहाँ कुछ भी घटित होना आश्चर्य की बात नहीं रह गयी है जैसा कि आज के कुछ दशक पहले हुआ करती थी;  यह कहीं गहरे में समझने का विषय है कि कवि स्वतंत्र हो सकता है लेकिन कविकर्म स्वतंत्र नहीं होता | इसका अपना सामाजिक दायित्व है, अपनी भूमिका और अपनी जिम्मेदारी है | लाख चाहने के बावजूद भी कवि न तो अपने सामाजिक दायित्व से विमुख हो सकता है और न ही तो अपनी भूमिका से | जिम्मेदारी तो उसको हर हाल में निभानी ही है क्योंकि अपने स्वभाव तथा व्यवहार में पहले वह एक सामाजिक व्यक्ति है और दूसरे यथार्थ स्थिति का अन्वेषक भी | एक कवि के लिए यहाँ अन्वेषक शब्द इसलिए प्रयुक्त करना उचित दिखाई दे रहा है क्योंकि वह उन्हीं विषयों को अपनी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाता है जो विषय सामाजिक महत्त्व के होते हैं | मनुष्य जिन सामाजिक दायरे में बंधकर अपना जीवन निर्वाह कर रहा होता है कई बार वे दायरे इतने अधिक संकीर्ण हो जाया करते हैं कि मनुष्यता के विकास के लिए संभावनाएँ लगभग न के बराबर दिखाई देती हैं |
          जिन पाशुविक प्रवृत्तियों को त्यागकर सभ्य होने की सामान्य स्थिति को वह बड़े श्रम के साथ प्राप्त करता है; उन स्थितियों को इस तरह आसानी से अपने अतीत अनुभवों एवं संस्कारों में ढलता देख जब उस सामान्य प्रक्रिया पर कोई प्रश्न चिह्न लगाने का प्रयत्न करता है तो कहीं गहरे में एक कवि की भूमिका का निर्वहन कर रहा होता है | यहीं से कविता अपना आकार प्राप्त कर रही होती है और कवि, कविकर्म की अनिवार्यता में स्वयं को ढाल रहा होता है | यहाँ कवि के स्वभाव और व्यवहार में एक बड़ा परिवर्तन होता है जो कालांतर में अपने परिवर्तित हो रहे समय को जीने और बदलने के लिए ही जाना जाता है | इन्हीं संस्कारों में रचते-बसते वह कवि अपने उस समय का सबसे बड़ा विद्रोही और समकालीन आततायी शक्तियों का सबसे बड़ा प्रतिरोधी दिखाई देता है | कबीर का व्यक्तित्व इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जो सम्पूर्ण मध्यकाल में अकेला तमाम विरोधों और अवरोधों को सहने के लिए स्वयं को प्रतिबद्ध करता है और बाद में अपने जैसे कई बड़े प्रतिबद्ध रचनाकारों को जमीनी चिंतन करने के लिए प्रेरणा का माध्यम बनता है |
           आधुनिक काल के विद्रोही कवियों में शुमार निराला और नागार्जुन कबीर की प्रेरणा से ही प्रभाव ग्रहण करते हुए दिखाई देते हैं | मुक्तिबोध का रचना-संसार अपनी बनावट तथा बुनावट में कबीर के संघर्षशील व्यक्तित्व का ही अवतार कहा जा सकता है |  समकालीन हिन्दी कविता में भी कई बड़े कवि-व्यक्तित्व हुए हैं जिनको युग की समस्त विडम्बनाओं से लड़ते, सामाजिक अस्तित्व को स्थिरता प्रदान करने के लिए संघर्ष की राह पर चलते हुए पाया गया है |
         यदि कविता के माध्यम से रचनाधर्मिता की वर्तमान संघर्षशीलता को जानने और समझने की कोशिश की जाए तो एक नाम बड़े सिद्दत के साथ उभरकर सामने आता है, वह है—कवयित्री सरला माहेश्वरी का नाम, जो कविता संग्रह “आसमान के घर की खुली खिड़कियाँ” के द्वारा यथार्थात्मक कल्पना के माध्यम से जटिल होती जा रही सामाजिक विसंगतियों को बड़ी सूक्षमता से विश्लेषित करती हैं | सुप्तप्राय मानवीय अनुभूतियों को जगाने का सफल उपक्रम करती हैं | एक प्रयास करती हैं पशुवत व्यवहार में तब्दील होती जा रही मानवीय संवेदना को जीवित रखने का | इस प्रयास की यथार्थ स्थिति ‘दुआ करो’ कविता में कुछ तरह व्यंजित हुआ है—यथा,
“दुआ करो
प्रतिशोध और प्रतिहिंसा में उठे हाथ
काँप-काँप जाए
दुआ करो
अहंकारी अट्टहास का बादल फटने से पहले
मासूम मुस्कान की धूप खिल-खिल जाए
दुआ करो
द्वेष की दीवार उठने से पहले
दरक-दरक जाए
दुआ करो
नफ़रत की आग भड़कने से पहले
इंसानियत बरस-बरस जाए |”
         ‘नफ़रत की आग’ मानवीय संभावनाओं को मटियामेट करने के लिए पर्याप्त होती हैं | इंसानियत की वर्तमानता इस आग को शीतल करने का कार्य करती है | आज सबसे बड़ी कमी इसी इंसानियत की है | कवयित्री यदि वर्तमान पीढ़ी को ‘दुआ करो’ के लिए निवेदन करती है तो इसलिए क्योंकि प्रेम और हिंसा के मध्य का वातावरण अपनी सम्पूर्णता में  भयानक रूप ले चुका है | ऐसे वातावरण में
“अब तो
न झरनों में संगीत है, न फूलों में रंगत है
न डल झील में शिकारों की हलचल है
अब तो बस बन्दूक और बूटों की टहल है
ख़ामोशियों की चहल-पहल है |”
यहाँ यथार्थ स्तब्ध है, मौन है और बेबस है जबकि दिखावापन ही असलियत के रूप में परिभाषित हो रहा है | सूक्ष्मता से देखने के ऐसा आभास जरूर होता है कि प्रेम’ में ‘हिंसा’ है और ‘हिंसा’ में ‘प्रेम’ है | ये आवरण इतने सघन और अपारदर्शी हैं कि वास्तविकता लाख प्रयत्नों के बावजूद भी सामने निकल कर नहीं आ पाती | ऐसे में कवि-हृदय में इस प्रश्न का उठना तो जायज है ही
“झूठे
दोगले
कपटी
स्वार्थी लोग
कौनसा जादुई शीशा रखते हैं कि
हमेशा
असली चेहरा
छिपा लेते हैं?”
ये ऐसे ही लोग हैं जो अमन-शान्ति का पैगाम लिए पूरे परिवेश में नफ़रत का ठीका लेकर घुमते हुए दिखाई देते हैं; इस विश्वास के साथ कि जैसे इनके जैसा हमदर्द इस पूरे आवाम में कोई और न हो |
         यह चेहरा इतने अधिक झूठों और फौरेबों के मिश्रण से ऐसे सांचे में ढाला गया होता है कि आज के इस परिदृश्य में यह पहचानना भी मुश्किल हो गया है कौन ‘प्रेम’ करने लायक है और कौन ‘हिंसा’ | किसे सत्य का संरक्षक समझा जाए और किसे असत्य का पोषक | किसे पुण्य का लाभार्थी माना जाए और किसे पाप का उत्तरदायी | किसे प्रेम का प्रचारक घोषित किया जाय और किसे घृणा और आतंक का प्रसारक | ‘नारायण काम्बले’ कविता के माध्यम से सरला का यह कहना अकारण नहीं है कि
“यहाँ
पाप और पून्य
निर्ममता और मानवता
भलाई और बुराई
हत्या और आत्म-हत्या
सच और झूठ में
इतना घालमेल हो चुका है कि
किसी में कोई अंतर ही नहीं रह गया है |”
         ‘अंतर’ का ख़त्म होना और एक ‘शाश्वत व्यवस्था’ में ‘घालमेल’ का वास्तविक आभास होना कवयित्री के यथार्थ स्थिति के प्रति गहरी जागरूकता को दर्शाता है | निश्चित ही इस जागरूकता में अन्य युग के कवियों के समान भावुकता भर नहीं है और न ही तो ‘घड़ियाली आँसू’ बहा भर देने का ढोंग ही है; यहाँ सच को सच की तरह कहने का साहस है | कवयित्री के इस साहस में कई विशिष्टताओं के दिग्दर्शन होते हैं | एक तरफ जहाँ संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए यह आभास होता है कि उसकी कविताएँ “अकेली जलती हुई मशाल” हैं और यह भी कि
“अंतर में है उसके
जंगल को सुलगाने की आग
देना चाहती
हजारों उठे हुए हाथों में
जलते हुए सवाल”
      वहीं उसकी कविताओं में प्रतिबिम्बित समकालीन जीवन-विसंगतियों के मुहावरे कबीर की तरह बीच बाजार में खड़े होकर मानों उन सभी से यह जानना चाहती हो कि “है कोई जवाब” क्यों हजारों जिंदगियां जो करोड़ों मिन्नतों के बाद मुश्किल से मिली होती हैं रंच मात्र वहशीपन की वजह से तबाह होने के लिए विवश और मजबूर हैं? इन जिन्दगियों की तबाही के जितने भी हुक्मरान हैं वह सबको जानती है और यह भी मानती है
“आखिर सभी देवता
चाहे वे जन्नत के हों या जहन्नुम के
सभी एक ही रसायन के बने होते हैं
इसलिए विल्कुल निर्विकार, निःशब्द
देख रहे थे गोलियों की यह ‘रासलीला’|’
       देवताओं के पास मौन होती है, निःशब्दता होती है लेकिन ‘रासलीला’ का यह मौन उत्सव कुरुक्षेत्र के रुदन में तब बदलता जब देवताओं के घर पर वही गोलियों की पिचकारी खुनी रंगों की बरसात कर रही होती | न्हास देवताओं का भी होता है और महाशक्तियों की भी सवाल बस उस सवाल और उस सवाल के समझ का है, जो सरला माहेश्वरी देना चाहती हैं |
        वर्तमान मन्दिर और मस्जिद की तरह राजघराने सेफ और सुरक्षित हैं, जनता के घर और बस्तियां जलाई जा रही हैं | कवयित्री का मानना है कि नेता “विल्कुल ईश्वर जैसे” होते हैं जो “आँधी आये या तूफ़ान/ अकाल आये या भूचाल/....मूर्तिमत् जीवन के/ निष्प्राण पत्थर जैसे/ सतत तपस्या में लीन” रहते हैं | “नहीं सताती उन्हें भूख-प्यास की आग/ नहीं जलाती उन्हें चिंताओं की आँच/ ईश्वर की ही तरह पहने रहते मोटी खाल/ नहीं बनते कभी किसी भूखे-प्यासे की ढाल |” ठीक उस ईश्वर की तरह जनता के कमाई का हक़ ये अपना पैत्रिक अधिकार मानते हैं, जो मन्दिर में बैठे-बैठे साधारण जनमानस के घरों का राशन अपने आवरण में समेटने की पूरी क्षमता रखता है | इस दृष्टि से किसानों पर लिखी गयी कविताएँ अपने स्वभाव तथा व्यवहार में ठीक ‘होता है जैसा’ वास्तविक दिखाई देती हैं जहाँ किसान मानते हैं कि ‘बदनसीब हम’ मात्र दूसरों के ‘हार की जीत’ के माध्यम भर होते हैं जो किसी न किसी दिन अपना हक़ मांगने पर ‘देवीराम’ बनाकर सभी अधिकारों से वंचित कर दिए जाते हैं |
          समकालीन हिन्दी कविता में इन दिनों ऐसा कहा जाता रहा है कि किसानों के दुःख-दर्द को अभिव्यक्ति देने का बहुत कम साहस दिखाया गया है | यह इसलिए भी क्योंकि कवि को भी तो रहना उसी देश-परिवेश में है जहाँ कि वे सभी शक्तियां वर्तमान हैं, जिनके सामने सभी घुटने टेकते हुए चलने के लिए विवश हैं...इसलिए भी कि कहीं वे भी देश-विरोधी गतिविधियों में सक्रिय न करार दे दिए जाएं | विकास का सारा सम्बन्ध मौजूद भूमि के क्षेत्रफल से है | भारतीय परिवेश में भूमि किसानों के जीवन-यापन के साधन तो हैं ही देश की समृद्धि के लिए आवश्यक भी हैं | सरकारें बनती हैं और समाप्त हो जाती हैं | किसानों की स्थितियाँ वहीं की वहीं बनी रहती हैं | पूँजीपति वर्ग और शासन-सत्ता के पंजों में पूर्णरूप से आ चुके किसानों के यथार्थ स्थिति पर सरला महेश्वरी की कविता ‘होता है जैसा’ में समकालीन प्रभुत्व के सामने असहाय और संघर्ष कर रहे किसानों की साकार परिदृश्य को अभिव्यक्त किया गया है | सरला के अनुसार विकास, मँहगाई और भूमण्डलीकरण के चकाचौंध में उलझा किसान, जो सभी सुख-सुविधाओं का मूल है, आत्महत्या कर रहा है, मर रहा है, बावजूद उसकी सहायता के सरकारें उसे छोड़ने और विवश होने की ही फरमाईस करती दिखाई देती हैं
“पर ये पृथ्वी का भगवान् तो
है सबसे बड़ा शैतान
मौत ही जीवन का निदान
सुना रहा फरमान
जल, जंगल, जमीन
सब पर उसके अरमानों का राज
बेधड़क, कर रहा एलान
उधार के खातों में जमा कर रहा
जिंदगी का हिसाब |”
   इस हिसाब से जीवन कितना विसंगतियों का वर्तमान हो उठा है, यह सोचने और चिंतन करने का विषय है|   
        सौंदर्य और प्रेम की बात की जाए तो सरला माहेश्वरी का कवि-कर्म बनावटी वसूलों एवं दिखावटी रिवाजों के खिलाफ है | लगता है कि उसके लिए वर्तमान मनुष्य की मानवीयता के सृंगार से अधिक रुचिकर कोई विषय नहीं है |  संग्रह के व्यापक सरोकारों में धार्मिक उन्माद में जार जार होती मानवीयता के प्रति तीव्र आक्रोश है तो स्त्रियों के बदहाल होते जीवन के प्रति, उनकी संघर्षधर्मिता और जिजीविषा के प्रति समर्पण भी है | संग्रह की कविताओं को पढ़कर एक बार यह एहसास फिर से वर्तमान हो उठता है कि स्त्री के यथार्थ और उसके दुःख को सही अर्थों में यदि कोई समझ सकता है तो वह स्त्री ही है | सरला के यहाँ की स्त्रियाँ सदियों से शोषण के आंच में पिसती, जलती और भुनती हुई स्त्रियाँ हैं | भीड़ में हैं फिर भी शोषित हैं और अकेली हैं फिर भी शोषित हैं | कवयित्री का मानना है कि “एक अकेली औरत का होना/ खतरे की सारी संभावनाओं के/ योग का संभव होना” है | वह यह भी मानती है कि “दुनिया के सभी धर्मों के नजर में/ औरत सबसे बड़ी बुराई है, कि/ खुदा ने औरत को पैदा ही किया है/ आदमी को सुख भर देने के लिए|” सुख देने की लालसा में औरतों ने सदैव अपनी इच्छाओं एवं आकांक्षाओं को दमित किया है | यह सभी को पता है कि सेवा करते करते ही आज से नहीं सदियों से सदियों की मांग पर “चिता की तरह/ सज गयी औरतें/ लकड़ी की तरह/ जल गयी औरतें/ मंदिर की मूर्ति बन गयी औरतें |” ये वही औरतें हैं जो पुरुषों द्वारा दिए जा रहे प्रेम को यह नहीं समझ पायीं कि “इस प्यार को मैं क्या नाम दूँ?” यथा-
हमारा दिल दहल जाता है
दिल उनका बहल जाता है
पहाड़ टूटता है हम पर
उन्हें मजाक सूझता है
जान पे बन आती है हमारे
उन्हें इसमें कोई बात नजर नहीं आती
हम बेमौत ही मरते जाते हैं
बस यूँ ही आते जाते हैं
हमारे जीवन का क्या है मानी
सब तो है उनकी मेहरबानी
इस प्यार को मैं क्या नाम दूँ
बेदाम की ये जिंदगी उन पे वार दूँ |” 

          भाव एवं भाषा की दृष्टि से यह कविता-संग्रह पूर्ण रूप से प्रतिबद्ध साहित्य की कोटि में देखा परखा जा सकता है | काव्य-पाठ के दौरान कई जगह यह आभास होता रहा है कि कवि-हृदय वैचारिक-उग्रता के मोह-जाल से बाहर नहीं निकल पा रहा है जो शायद कवयित्री का अपना स्वभाव और व्यवहार भी हो सकता है | इन सबके बावजूद अपने समष्टि में कवि एवं कविता की शाश्वत एवं जीवंत भूमिका का निर्वहन “आसमान के घर की खुली खिड़कियाँ” में देखा जा सकता है | मेरे ख्याल से जब भी समकालीन हिन्दी कविता में जनधर्मी भूमिका के निर्वहन की बात आएगी सरला माहेश्वरी के इस संग्रह का नाम जरूर लिया जाएगा |  

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