Friday 11 September 2020

हमारे यहाँ कुछ भी आन्दोलन जैसा नहीं है

 दलित विमर्श हो या स्त्री विमर्श, सब महज फैशन है यहाँ पर| सेलेक्टिव विरोध सेलेक्टिव राजनीति| एक मुद्दे पर चुप्पी और एक मुद्दे पर हाय तौबा| इसीलिए कई बार ऐसे मुद्दों पर मैं नहीं बोलता| जानता हूँ कि सब राजनीति है| सब उठने-उठाने, गिरने-गिराने की प्रवृत्ति जैसा| आप सोच रहे होंगे कि ये क्या मैं उल्टा-सीधा बोल रहा हूँ? तो रुकिए दो उदहारण देता हूँ|

जौनपुर में पिछले दिनों दलितों की बस्ती सरेआम दबंग मुस्लिमों द्वारा जला दी जाती है| दसियों बार पोस्ट करने के बाद भी कोई आन्दोलन करता नहीं दिखा| बड़े से बड़े दलित चिंतक महज पोस्ट देखकर गायब हो गए| निर्दयता से सब कुछ हुआ था, इसका अंदाजा उस पोस्ट में जले पशुओं को देखकर लगाया जा सकता है|

रिया के अपराध में संलिप्त होने की आशंका होती है, तो जांच होगी ही| उस एक सीधे से मामले को कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया गया, लगा स्त्री विमर्श की सारी कृपा बस इसी में केन्द्रित है| मीडिया के लिए हर कोई एक अच्छा गोस्त है जिसे हर


स्तर पर उतर कर खाना चाहती है|मजे की बात ये है कि हम सब भी उससे अलग अपनी छवि नहीं रख पा रहे हैं| कोरोना काल में जब आम आदमी के पक्ष में पूंजीपतियों को घेरने का समय था, हमारे बुद्धिजीवी रिया-रिया में व्यस्त रहे|

उन्नाव में जो कुछ हुआ सेंगर मामले में वह भी किसी से छिपा नहीं है| भाजपा की नेत्रियों द्वारा जो एकपक्षीय रवैया अपनाया गया वह भी किसी से छिपा नहीं है| तब स्त्री विमर्श और स्त्री-अपमान का किसी को ख्याल नहीं आया| भाजपा वालों का मामला था इसलिए उधर से किसी के न बोलने की पूरी उम्मीद थी| लेकिन विपक्ष जमकर के बवाल काटा| क्रांतिकारी स्त्रियों ने भी कम कमाल नहीं किया|

कंगना के साथ जो कुछ भी हुआ वह उचित नहीं था| सब जानते हैं| सब जान रहे हैं| जो ऑफिस अब तक वैध था वह अचानक कैसे अवैध हो सकता है? यह भी सबको पता है| उसके पक्ष में नहीं बोला गया| उसे दक्षिणपंथी बता दिया गया| हँसी तो तब आई जब बड़ी महिला पक्षधर कहाने वाली लेखिकाओं ने उसके भाजपा एजेंट होने की बात की| सीमा से बाहर जाकर बोलने की नसीहत दी| यही उनके साथ हुआ होता तो अब तक ज़मीन आसमान एक कर देतीं|

खैर, तो कहना यही था कि ऐसे मुद्दों पर अपना समय न बर्बाद करें| ज़मीन से जुड़ें और परिवर्तन को वहां तक पहुँचने दें जहाँ से कंगना जैसी नायिकाओं का उदय हो| स्त्री विमर्श तभी मजबूत होगा| दलित विमर्श के लिए भी यही सोचता हूँ कि गांवों में निकलकर उन्हें चेतना के पाठ पढ़ाए जाएँ ताकि हिंदी साहित्य की अवसरवादी राजनीति से बचते हुए वे स्वयं मजबूत स्तम्भ बन सकें और सक्रिय नागरिक के तौर पर हर क्षेत्र में प्रतिनिधित्व करें|


Monday 7 September 2020

फेसबुक का सूची दौर और साहित्यकारों का पागलपन

 

इधर दो-तीन दिनों से कवि-सूची और व्यंग्यकार-सूची देखकर हँसी आ रही है| व्यापारी अपने व्यापार के लिए कोई भी हथकंडा अपना सकता है लेकिन कवि और साहित्यकार इतने स्तरहीन और सस्ते हो जाएंगे, मैंने कल्पना नहीं की थी| इन कलाकारों के लिए इस समय सबसे बड़ी आपदा सूची में शामिल होना और न होना रह गया है, सारे मुद्दे गए जहन्नुम में|

सूची में शामिल होते हुए कुछ लोग जहाँ खुश होकर अखबारों में प्रविष्टियाँ देने लगे हैं वहीं कुछ लोग मातम मानने में लग गए हैं| सूची में होने न होने को लेकर कुछ लोग तो जैसे खाना-पीना ही छोड़कर बैठ गए हैं| युवाओं में नाम आने न आने का उत्साह तो समझ आता है लेकिन अस्सी-नब्बे वर्ष के बुजुर्ग भी जिस तरह धमा-चौकड़ी मचा रखे हैं, उन्हें कवि-साहित्यकार माना जाय या नहीं, अब ऐसा सोचने लगा हूँ|

माना जाए तो किस तरीके से माना जाए? न माना जाए तो फिर किस स्तर में फिट किया जाए, ऐसा भी मन सोच रहा है| कई बार सोचने पर निष्कर्ष निकलता है कि इनसे अच्छे तो वे लोग हैं


जो लिख पढ़ नहीं रहे हैं| कम से कम इस संकट के समय में कुछ विचार कर तो रहे हैं| लोगों की सहायता करने और जरूरत के सामान उपलब्ध करवाने का उपक्रम तो कर रहे हैं?

चरित्र-पतन तो सुना था लेकिन कर्तव्य-पतन के स्तर पर लेखकों के पतन का ऐसा दौर कभी न सुना था और न देखा था| कभी एक दौर था कि सूचियाँ किसी रोष या प्रतिरोध के लिए निकला करती थीं और लोग उसमें शामिल होने के लिए जी-जान लगा देते थे| एक आवाज उठती थी और लगता था कि हम जिन्दा समाज में हैं| किसी खास विचारधारा में शामिल होने के बावजूद आफत-विपत में यही सूची हमें प्रेरणा देती थी आगे बढ़ने के लिए| संघर्ष करने के लिए|

यह वाकई समझने की बात है कि जो स्वयं निष्क्रिय होकर लड़-भिड रहे हैं, अपनी योग्यता को साबित करने के लिए सूचियों का सहारा ले रहे हैं, उनसे उम्मीद भी क्या की जा सकती है? फिर वह आम आदमी की चिंता वाली बात? दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श और स्त्री विमर्श वाली बात? किसान की चिंता और मजदूर की चिंता वाली बात? तो इन सभी मुद्दों का जो रोना था क्या वह सब एक प्रोपोगेन्डा मात्र था? यह कितनी विडंबना है कि जिसका अपना ही पहचान संकट में है वह भी दूसरों के पहचान को स्थायित्व देने के लिए संघष का ढोंग लेकर घूम रहा है?

ऐसे दौर में, जब आम आदमी एकदम सड़क पर है, रोजगार छिन रहे हैं, तनख्वाह में कटौती लगातार जारी है, ये कवि और लेखक नामक प्राणी कर क्या रहे हैं? जिस परिवेश में घर से बेघर हो रहे हैं लोग, रात की नींद और दिन का चैन गायब है, इन साहित्यकार और कवियों की आत्ममुग्धता समझ से बाहर है| ऐसे लोगों को कैसे साहित्यकार कहा जा सकता है जो अपनी ज़मीर बेचकर खा रहे हैं और सो रहे हैं| कहीं खाने की रेसिपी साझा कर रहे हैं तो कहीं ऐय्यासी के तरीके| हद है| मान और ईमान से गिर चुके ऐसे लेखकों के पास न विरोध का साहस है और न ही प्रतिरोध का विकल्प|

कोई इन्हें साहित्यकार कह क्यों रहा है? यह प्रश्न आपको भले न सही लगे, भले न दिखाई दे, मुझे दिखाई दे रहा है| 40 वर्ष के नीचे के साहित्यकारों में ऐसा पागलपन तो समझ में आता है भला 50 से लेकर 80 वर्ष के साहित्यकार भी इस आत्मालाप से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं? ये वही लोग हैं जो दिन रात छाती पीट-पीटकर चिल्ला रहे हैं मीडिया सत्ता की गोद में बैठी है| ये वही लोग हैं जो आए दिन कहते रहते हैं कि आम आदमी की परेशानियों को मीडिया क्यों नहीं दिखा रही है?      

मीडिया को दिन रात गाली देने वाले ऐसे लोग अपने कर्तव्यों को किस तरह निभा रहे हैं...इस पर विचार करने की जरूरत है| विचार करने की जरूरत है कि क्या वाकई साहित्य में प्रतिरोध की शक्ति है? यदि है तो फिर इन प्रचारकों को किस कोटि में रखा जाएगा? ये प्रश्न ऐसे हैं जिनके दायरे में लगभग लोग आते दिखाई देंगे...मैं भी इसी के इर्द-गिर्द उपस्थित हूँ, इसमें कोई दो राय नहीं है|

फेसबुक और व्हाट्सएप के दौर से यही कुछ उम्मीद थी| यही कुछ होना था इधर की अति सक्रियता से| कुछ व्यवहार छिपा हुआ था साहित्यकारों का लेकिन इधर सब नंगे हुए हैं| कपडे उतारकर टहल रहे हैं| कोई ज़िम्मेदारी नहीं है| कोई कर्तव्यबोध नहीं है| अपराध है| भ्रष्टाचार है| दुर्व्यवहार है| व्यभिचार है| जो साहित्यकार इन सभी के प्रतिरोध में होने चाहिए वह सब इनके समर्थन में हैं|

इधर कोरोना ने सब कुछ बदल दिया है| बहुत कुछ तहस-नहस कर दिया है| हमारे स्वप्न हमारी इच्छाएं सब हवा हो गयी हैं| अभिलाषा तो कुछ रही ही नहीं दो वक्त की रोटी को छोड़ कर| सरकार अपनी मस्ती में मस्त है| साहित्यकार अपनी मस्ती में व्यस्त हैं| तो सवाल है कि विकल्प क्या है हमारे पास? संघर्ष का, प्रतिरोध का और प्रतिशोध का भी? पूंजीपतियों से क्या अपेक्षा? क्या अपेक्षा धनपशुओं से? जनता लावारिस थी, लावारिस है और लावारिस ही रहेगी, क्या यह मान लिया जाए?   

हम ऐसा भी नहीं मान कर चल सकते| फिर? जनता को अपना मार्ग स्वयं चुनना है| कोई उसकी सहायता के लिए नहीं आने वाला है| जो कुछ है वह सब व्यापार है| प्रपंच है| लोभ है| जो बोलेंगे वे मारे जाएंगे| न बोलने का एक ही तरीका है कि सूची में शामिल हो जाओ| जश्न मनाओ| नहीं होते हो तो सूची बनाने वाले का विरोध करो, बहिष्कार करो| नाम भी होगा और प्रशंसा भी मिलेगी|

इन सबके अतिरिक्त और चाहिए भी क्या इधर के साहित्यकारों को? अब निराला, नागार्जुन, मुक्तिबोध का समय नहीं है| संघर्ष और प्रतिरोध के रास्ते पर कब्ज़ा करके प्रचारकों को जनवादी और मानवतावादी बनाने का दौर है यह| यह दौर फेसबुक कवि-सूची और व्यंग्यकार सूची में शामिल होने का दौर है|  

Friday 4 September 2020

दुनिया ऐसी ही है इधर की


1.

आस्था तुम लेते हो
लेगा अनास्था कौन?
अंधायुग में विदुर के ये प्रश्न
आशंका जताते हैं
आस्था-अनास्था
सब कहने भर के शब्द हैं
अँधेरी गुफा में छोड़
महज ढांढस बंधाते हैं
न जाने क्यों मन
इधर सोच रहा है बार-बार
जीतने की प्रत्याशा में
हर बार मिलती है हमें हार
हम हैं कि
दिखाते हैं आस्था
और बाद उसके खुद ही
अनास्था में मरे जाते हैं
2.

सुनो! कुछ नहीं है इस युग में
श्रद्धा और विश्वास जैसा
किसी का जुड़ना और टूटना भी
महज प्रारब्ध है

इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं
उठो और निश्चिन्त हो जाओ
जो करना चाहते हो
करो खुलकर
यह न कहो कि है कोई
और देख रहा है ध्यान लगाकर
प्यार, और घृणा जो भी मिलेगा
महज तुम्हारे किये पर
काँटें उग रहे हैं उर्वर भूमि में, कहीं
बंजर में भी फूल खिलेगा
चलो एक कदम तो बस चलते जाओ  

3.

जब भी कहा
बरसने के लिए सावन को
नहीं बरसा
प्रेमी मन मसोस कर रह गया मेरा
तमन्ना थी चाँद की रौशनी में
प्रिय-मिलन की
लुका-छिपी खेला चाँद
और मैं ठगा-सा
देखता रहा समय की गिरफ्त में
अब कुछ भी नहीं कहता
तमन्ना भी नहीं है
तो बरसता है सावन, और
निकलता है चाँद
मन तृप्त-सा खड़ा रहता है किसी कोने
दुनिया ऐसी ही है इधर की
अब सोचता हूँ
कुछ इच्छा होती है समय साथ नहीं होता
समय होता है साथ
इच्छाएं हो जाती हैं ठूंठ बंजर ज़मीन की मानिंद

Wednesday 2 September 2020

बिम्ब-प्रतिबिम्ब सृजन संस्थान, फगवाड़ा, पंजाब का पहला आयोजन

 प्रेस विज्ञप्ति-


हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में बिम्ब-प्रतिबिम्ब सृजन संस्थान, फगवाड़ा, पंजाब का प्रथम ऑनलाइन हिंदी भाषण प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है| आप सभी सादर आमंत्रित हैं| यह निर्णय संस्थान के निदेशक अनिल कुमार पाण्डेय और अध्यक्ष श्री दिलीप कुमार पाण्डेय द्वारा आज की बैठक में लिया गया| 

विचार इस बात पर भी किया गया कि इस आयोजन में वही भाग ले सकेंगे जो उम्र में 25 वर्ष से कम होंगे| इसके लिए प्रतिभागी को अपना जन्म-प्रमाण पत्र भी देना होगा| कोरोना प्रभाव के कारण प्रतियोगिता का आयोजन 13


सितम्बर को ऑनलाइन रखा जाएगा| समय और शर्तें आपको प्रतियोगिता के एक हफ्ते पहले बता दी जाएँगी| 

इस आयोजन में हिंदी भाषा एवं साहित्य के वर्तमान स्थिति पर चर्चा-परिचर्चा होना सुनिश्चित हुआ है| कुछ विषय दिए जाएंगे और प्रतिभागी को उन्हीं विषयों को केन्द्र में रखकर अपना विचार रखना होगा| इस प्रतियोगिता में कुल तीन पुरस्कार दिए जाएंगे 

प्रथम पुरस्कार : रुपये 1500  

द्वितीय पुरस्कार : रुपये 1000  

तृतीय पुरस्कार :  रुपये 500 

इसके अतिरिक्त समकालीन हिंदी कविता के 

महत्त्वपूर्ण कवि राजेश जोशी के चयनित कविताओं के संग्रह ‘कवि ने कहा’

कवि मदन कश्यप के चयनित कविताओं के संग्रह ‘कवि ने कहा’

 कवि श्रीप्रकाश शुक्ल के चयनित कविताओं का संग्रह ‘कवि ने कहा’ की एक-एक प्रति और 

‘रचनावली’ त्रैमासिक पत्रिका की वार्षिक सदस्यता 

साथ-साथ संस्थान द्वारा प्रमाण-पत्र भी दिया जाएगा| नकद राशि प्रतियोगिता के एक हफ्ते के अंतराल में सीधे अकाउंट में प्रेषित किया जाएगा जबकि काव्य-संग्रह की प्रति और संस्थान का प्रमाण पत्र कोरियर द्वारा प्रेषित किया जाएगा| इस हेतु आपका सहयोग अपेक्षित होगा| 

इस प्रतियोगिता के लिए एक निर्णायक मण्डल होगा जिसका अंतिम निर्णय ही सर्वमान्य होगा| यह कार्यक्रम गूगल मीट पर आयोजित किया जाएगा| प्रतियोगिता के सन्दर्भ में शेष सूचनाएं आपको जल्द ही दी जाएँगी| तब तक बने रहें सृजन संस्थान के साथ|

फ़ार्म भरने के लिए इस लिंक का प्रयोग करें 

https://docs.google.com/forms/d/e/1FAIpQLSe031lHjFclFk6n14iFE4812FAyKBj2u0LmFNgjVpRLg5lrtQ/viewform?fbclid=IwAR3xTrt_zoHTS-gw2D4HXvamflRtSrL4IqTqsTwne7WDA4bq6Q4KtkTgYjc