Monday 7 September 2020

फेसबुक का सूची दौर और साहित्यकारों का पागलपन

 

इधर दो-तीन दिनों से कवि-सूची और व्यंग्यकार-सूची देखकर हँसी आ रही है| व्यापारी अपने व्यापार के लिए कोई भी हथकंडा अपना सकता है लेकिन कवि और साहित्यकार इतने स्तरहीन और सस्ते हो जाएंगे, मैंने कल्पना नहीं की थी| इन कलाकारों के लिए इस समय सबसे बड़ी आपदा सूची में शामिल होना और न होना रह गया है, सारे मुद्दे गए जहन्नुम में|

सूची में शामिल होते हुए कुछ लोग जहाँ खुश होकर अखबारों में प्रविष्टियाँ देने लगे हैं वहीं कुछ लोग मातम मानने में लग गए हैं| सूची में होने न होने को लेकर कुछ लोग तो जैसे खाना-पीना ही छोड़कर बैठ गए हैं| युवाओं में नाम आने न आने का उत्साह तो समझ आता है लेकिन अस्सी-नब्बे वर्ष के बुजुर्ग भी जिस तरह धमा-चौकड़ी मचा रखे हैं, उन्हें कवि-साहित्यकार माना जाय या नहीं, अब ऐसा सोचने लगा हूँ|

माना जाए तो किस तरीके से माना जाए? न माना जाए तो फिर किस स्तर में फिट किया जाए, ऐसा भी मन सोच रहा है| कई बार सोचने पर निष्कर्ष निकलता है कि इनसे अच्छे तो वे लोग हैं


जो लिख पढ़ नहीं रहे हैं| कम से कम इस संकट के समय में कुछ विचार कर तो रहे हैं| लोगों की सहायता करने और जरूरत के सामान उपलब्ध करवाने का उपक्रम तो कर रहे हैं?

चरित्र-पतन तो सुना था लेकिन कर्तव्य-पतन के स्तर पर लेखकों के पतन का ऐसा दौर कभी न सुना था और न देखा था| कभी एक दौर था कि सूचियाँ किसी रोष या प्रतिरोध के लिए निकला करती थीं और लोग उसमें शामिल होने के लिए जी-जान लगा देते थे| एक आवाज उठती थी और लगता था कि हम जिन्दा समाज में हैं| किसी खास विचारधारा में शामिल होने के बावजूद आफत-विपत में यही सूची हमें प्रेरणा देती थी आगे बढ़ने के लिए| संघर्ष करने के लिए|

यह वाकई समझने की बात है कि जो स्वयं निष्क्रिय होकर लड़-भिड रहे हैं, अपनी योग्यता को साबित करने के लिए सूचियों का सहारा ले रहे हैं, उनसे उम्मीद भी क्या की जा सकती है? फिर वह आम आदमी की चिंता वाली बात? दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श और स्त्री विमर्श वाली बात? किसान की चिंता और मजदूर की चिंता वाली बात? तो इन सभी मुद्दों का जो रोना था क्या वह सब एक प्रोपोगेन्डा मात्र था? यह कितनी विडंबना है कि जिसका अपना ही पहचान संकट में है वह भी दूसरों के पहचान को स्थायित्व देने के लिए संघष का ढोंग लेकर घूम रहा है?

ऐसे दौर में, जब आम आदमी एकदम सड़क पर है, रोजगार छिन रहे हैं, तनख्वाह में कटौती लगातार जारी है, ये कवि और लेखक नामक प्राणी कर क्या रहे हैं? जिस परिवेश में घर से बेघर हो रहे हैं लोग, रात की नींद और दिन का चैन गायब है, इन साहित्यकार और कवियों की आत्ममुग्धता समझ से बाहर है| ऐसे लोगों को कैसे साहित्यकार कहा जा सकता है जो अपनी ज़मीर बेचकर खा रहे हैं और सो रहे हैं| कहीं खाने की रेसिपी साझा कर रहे हैं तो कहीं ऐय्यासी के तरीके| हद है| मान और ईमान से गिर चुके ऐसे लेखकों के पास न विरोध का साहस है और न ही प्रतिरोध का विकल्प|

कोई इन्हें साहित्यकार कह क्यों रहा है? यह प्रश्न आपको भले न सही लगे, भले न दिखाई दे, मुझे दिखाई दे रहा है| 40 वर्ष के नीचे के साहित्यकारों में ऐसा पागलपन तो समझ में आता है भला 50 से लेकर 80 वर्ष के साहित्यकार भी इस आत्मालाप से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं? ये वही लोग हैं जो दिन रात छाती पीट-पीटकर चिल्ला रहे हैं मीडिया सत्ता की गोद में बैठी है| ये वही लोग हैं जो आए दिन कहते रहते हैं कि आम आदमी की परेशानियों को मीडिया क्यों नहीं दिखा रही है?      

मीडिया को दिन रात गाली देने वाले ऐसे लोग अपने कर्तव्यों को किस तरह निभा रहे हैं...इस पर विचार करने की जरूरत है| विचार करने की जरूरत है कि क्या वाकई साहित्य में प्रतिरोध की शक्ति है? यदि है तो फिर इन प्रचारकों को किस कोटि में रखा जाएगा? ये प्रश्न ऐसे हैं जिनके दायरे में लगभग लोग आते दिखाई देंगे...मैं भी इसी के इर्द-गिर्द उपस्थित हूँ, इसमें कोई दो राय नहीं है|

फेसबुक और व्हाट्सएप के दौर से यही कुछ उम्मीद थी| यही कुछ होना था इधर की अति सक्रियता से| कुछ व्यवहार छिपा हुआ था साहित्यकारों का लेकिन इधर सब नंगे हुए हैं| कपडे उतारकर टहल रहे हैं| कोई ज़िम्मेदारी नहीं है| कोई कर्तव्यबोध नहीं है| अपराध है| भ्रष्टाचार है| दुर्व्यवहार है| व्यभिचार है| जो साहित्यकार इन सभी के प्रतिरोध में होने चाहिए वह सब इनके समर्थन में हैं|

इधर कोरोना ने सब कुछ बदल दिया है| बहुत कुछ तहस-नहस कर दिया है| हमारे स्वप्न हमारी इच्छाएं सब हवा हो गयी हैं| अभिलाषा तो कुछ रही ही नहीं दो वक्त की रोटी को छोड़ कर| सरकार अपनी मस्ती में मस्त है| साहित्यकार अपनी मस्ती में व्यस्त हैं| तो सवाल है कि विकल्प क्या है हमारे पास? संघर्ष का, प्रतिरोध का और प्रतिशोध का भी? पूंजीपतियों से क्या अपेक्षा? क्या अपेक्षा धनपशुओं से? जनता लावारिस थी, लावारिस है और लावारिस ही रहेगी, क्या यह मान लिया जाए?   

हम ऐसा भी नहीं मान कर चल सकते| फिर? जनता को अपना मार्ग स्वयं चुनना है| कोई उसकी सहायता के लिए नहीं आने वाला है| जो कुछ है वह सब व्यापार है| प्रपंच है| लोभ है| जो बोलेंगे वे मारे जाएंगे| न बोलने का एक ही तरीका है कि सूची में शामिल हो जाओ| जश्न मनाओ| नहीं होते हो तो सूची बनाने वाले का विरोध करो, बहिष्कार करो| नाम भी होगा और प्रशंसा भी मिलेगी|

इन सबके अतिरिक्त और चाहिए भी क्या इधर के साहित्यकारों को? अब निराला, नागार्जुन, मुक्तिबोध का समय नहीं है| संघर्ष और प्रतिरोध के रास्ते पर कब्ज़ा करके प्रचारकों को जनवादी और मानवतावादी बनाने का दौर है यह| यह दौर फेसबुक कवि-सूची और व्यंग्यकार सूची में शामिल होने का दौर है|  

2 comments:

जगदीश पंकज said...

बहुत सही मुद्दे को उठाया है आपने । साहित्यकार अपनी प्रतिबद्धता और सरोकारों को छोडकर सुविधाजनक विकल्प अपना रहे हैं। खाते-पीते सुविधाभोगी साहित्यकार अपनी प्राथमिकता बदलकर निरापद रास्ते पर चलना पसंद कर रहे हैं।सही समय पर सही विषय को विमर्श के केन्द्र में लाने के आपके प्रयास को प्रणाम !-- जगदीश पंकज

Unknown said...

सच में चिंतनीय, साहित्यकार का मौकापरस्त और सुविधाभोगी होना निंदनीय।