Tuesday 26 April 2016

समकालीन हिंदी कविता : सामाजिक सच की तलाश



            जीवन-प्रयासों का साहित्य के अन्य विधाओं की अपेक्षा कविता में घटित होने की संभावनाएं अधिक होती हैं | घटना कोई भी हो वह अपने स्वरुप में समाज सापेक्ष होती है | समाज का अभिप्राय मनुष्य के संगठित समूह से है | घटनाएँ समाज में रहने वाले मनुष्य के साथ घटित होती हैं | इन्हें अक्सर सामाजिक घटनाओं के नाम से अभिहित किया जाता है | मनुष्य घटनाओं को वहन करता है, झेलता है | घटनाओं के वहन करने और झेलने की यह प्रवृत्ति समाज में घटित होती है | घटनाओं का घटित होना साश्वत है | इनको झेलना मनुष्य की नियति और समाज का स्वभाव होता है | स्वभाव में अपनाने की प्रवृत्ति प्रबल होती है तो नियति में मजबूरी का प्राधान्य होता है | कविता में ये सभी प्रवृत्तियाँ स्वभावतः विद्यमान होती हैं | यह इसलिए क्योंकि कवि घटना, समाज और मनुष्य का एक अविभाज्य अंग होता है | पहले वह मनुष्य है; फिर समाज है; और इन दोनों के मध्य घटित होने वाले घटनाओं का, भुक्तभोगी, वाहक और अंततः एक हद तक झेलने की प्रक्रिया में सबसे संवेदनशील व्यक्तित्व भी है | कविता के सम्बन्ध में इसीलिए कहा जाता है कि जिस कविता में मानव-जीवन की संगति-विसंगति, वेदना-संवेदना, दुःख-दर्द गहरे यथार्थ से जुड़कर न व्यंजित हुआ हो, वह कविता नहीं हो सकती, बाकी चाहे जो हो |
             सामाजिक परिवेश का यथार्थ हमारे दैनिक जीवन में घटित होने वाली घटनाओं का साकार रूप होता है | हमारे जीवन की यह भी एक विशिष्ट विशेषता है कि जिस समय घटनाएँ घटित होती रहती हैं, हमें इनका आभाष नहीं होता | घटित होने के बाद हम उन्हीं घटनाओं के प्रति अधिक सक्रिय दिखाई देते हैं जिसके प्रति उसके वर्तमान होने से पहले लापरवाह होते हैं | कवि-हृदय वर्तमान को बड़े बारीकी से जीता है | जीने की स्थिति में बारीकी की पड़ताल अतीत के अनुभवों से उत्पन्न होती है | अतीत की घटनाएँ उसे वर्तमान के प्रति अधिक संवेदनशील बने रहने के लिए एक विशेष दृष्टि प्रदान करती हैं | वह इसी दृष्टि से भविष्य का रूप-संवरण करता है | समाज का नेतृत्व रूप-संवरण की इस प्रक्रिया से होकर गुजरती है | साहित्य को इसीलिए समाज का दर्पण कहा गया और कविता को मानव-जीवन का सबसे संवेदनशील हमसफर | 
           सामाजिक परिवेश में कविता का उत्पन्न होना अब महज कल्पना की प्रगाढ़ता भर नहीं कहा जा सकता | यह इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि कविता की रचना अब अनायास नहीं होती, सायास होती है | वह मन बहलाने का एक विकल्प न होकर परिवर्तन का एक संकल्प बनकर रची जा रही है | विकल्प की स्थिति में लापरवाही होती है | किसी भी स्थिति के प्रति गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार इसके केंद्र में होता है | ऐसी अवस्था में समय सापेक्ष घटनाओं से जूझने के बजाय उससे मुंह मोड़ लेने की प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है | पलायनवादी प्रवृत्ति यहाँ प्रमुखता के साथ व्यंजित होती है | जबकि संकल्प के धरातल पर विकल्प का अभाव होता है | यहाँ जो है, जैसे है उसे करना है | अधूरा छोड़कर हटना नहीं, अपितु पूर्णता प्रदान करना है | पूर्णता के लिए व्यक्ति को संघर्ष करना होता है | संघर्ष के केंद्र में होने से पलायन के बनिस्बत यहाँ स्थायित्व की प्रबलता होती है | रचनाकार को किसी भी स्थिति से घबड़ाकर या मुंह मोड़कर हटने के बजाय प्रतिबद्ध होकर उसे झेलने और एक हद तक विजय प्राप्त करने के लिए तत्पर रहना पड़ता है |
            तत्परता का यह भाव हिन्दी साहित्य के समकालीन कवियों में/आज के कवियों में यथार्थतः विद्यमान है | और यह सब कवियों द्वारा समाज और घटना के प्रति स्वयं के संकल्पबोध को अनुभव के धरातल पर व्यंजित करते हुए जनसामान्य के अनुभूति के साथ बने रहने की प्रतिबद्धता से संभव हुआ है | इस सन्दर्भ में प्रो० रतन कुमार पाण्डेय द्वारा समकालीन कवि एवं कविता के विषय में कही गयी यह उक्ति ठीक प्रमाणित होती है “समकालीन कविता का एक बड़ा हिस्सा संकल्पबोध और दायित्वबोध से जुड़कर आज हमारे सामने आ रहा है | इस कारण इन रचनाओं में सामाजिक परिवर्तन की अदम्य लालसा हमे दिखाई पड़ती है | यहाँ उपस्थित रचना-संसार मानवीय सरोकारों, सकारात्मक मूल्यों और आत्मीय सम्बन्धों का संसार है, जो पूंजीगत दबावों और इतर कारणों से निरंतर क्षरित हो रहा है | समकालीन कवि मानवीय मूल्यों और मानवीय न्याय के संघर्ष में अपनी रचना की उपयोगिता जांचना-परखना चाहता है |”1
           कविता के समकालीन परिदृश्य और वर्तमान जीवन-परिवेश में सामाजिक विकास के साथ-साथ घटनाओं की संख्या में कुछ अधिक वृद्धि महसूस की गयी है | ये घटनाएँ राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक धरातल पर अपने विशिष्ट एवं विविध रूप में हमारे सामने समय-समय पर उपस्थित होती रही हैं | जिस प्रकार की सामाजिकता की बात हमारे सिद्धांतों में आये दिन की जाती है उस सामाजिकता के सम्बन्ध में यह गौर करने का विषय है कि देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लेकर आज तक घटित होने वाली समस्त घटनाओं में, जिसके केंद्र में आम आदमी और धर्म का मुद्दा विशेष तौर पर सुमार रहा है, व्यावहारिक धरातल पर सामाजिकता का भाव बहुत हद तक दूषित हुआ है | सामाजिक आकाओं की चर्चाओं में आम आदमी को जितनी तीव्र गति से शामिल करने की होड़ मची, मुख्य धारा से वह उतनी ही तीव्र गति से कटता गया | ऋतुराज की एक कविता है ‘हसरुद्दीन’ इसमें सच्चाई को अभिव्यक्त करने का प्रयास बड़े ही सलीके से किया गया है| कवि कहता है-
हसरुद्दीन !!
समझे कुछ?
कि हसरुद्दीन होने में
यहाँ कितना टोटा है घाटा है
रोज़ा है फटा मोजा है
लुंगी और अँगोछा है
धूल कीचड़ में कंचे खेलते
तुम्हारे बच्चे हैं
क्या कभी किसी ने पूछा है?...
दरअसल, हसरुद्दीन, उन्हें तो
तुम्हें सफाई से अलग करना था
और तुम्हें उनसे दूर
बिलकुल बाहर
इस पोखरे के किनारे
अपना पेट भरना था|”2
     ‘बिलकुल बाहर’ होकर जीवन यापन करने की प्रक्रिया ने जनसामान्य के हृदय में असंतोष का भाव लेकर आया | यह वही समय है जब इस देश में नक्सलवाद की समस्या अचानक उभर आती है| आतंकवाद का आतंक अपना विकराल रूप लेने लगता है और फिर उसके बाद तमाम हसरुद्दीन को बलि का बकरा बनाने की कवायद यहीं से प्रारंभ होती है | उन्हें नक्सलवादी, आतंकवादी, उग्रवादी अनेक ऐसे नामों से विभूषित करना प्रारंभ किया जाता है, जिनका वे स्वप्न भी नहीं देखे होंगे| जबकि उनकी लड़ाई किसी से नहीं थी और दुश्मनी भी किसी से नहीं थी | उनसे किसी को खतरा भी नहीं था | गलत था तो बस इतना कि अपने अस्तित्व के लिए, जीवन के लिए और वह भी जिन्दा रहने के लिए मात्र अपना हक़ मांगने की कोशिस कर रहे थे| अपने हक़ की माँग करना किसी अपराध से कम नहीं है | लेकिन हक़ को प्राप्त करने के बजाय उससे मुंह फेर लेना भी एक बड़े अपराध की श्रेणी में आता है | सवाल ये है कि आम आदमी अपराध से अपराधियों के शक्ल में लड़ने या जूझने के बजाय बार बार बचाव की ही मुद्रा में क्यों आता है? बार-बार झिडके जाने और शोषित होने के बावजूद वह स्वयं को दुबारा और फिर फिर शोषित होने के लिए प्रस्तुत करने पर आमादा क्यों रहता है? दिनेश कुमार शुक्ल के कविता संग्रह ‘आखर अरथ’ की एक कविता है ‘बचते-बचाते’, इस कविता में कवि ने आम आदमी की इस प्रवृत्ति का बखूबी चित्रण किया है जहां वह स्वयं को शोषण के लिए आमंत्रित करने की आदत का शिकार है-यथा-
भीतर भरी ग्लानि से छुपकर
आते हैं वे समर्थ के द्वार
त्योहार की जोहार करने
अपनी बीमारियों से नज़रें चुराकर
पर्दा उठाकर भविष्य में झाँकते हैं
और घड़ी भर आगे भी जाती नहीं नज़र,
अपनी निराशा को झुठलाते हुए
बचकर निकल आते हैं वे
सभ्यता-समीक्षा के कुहराम में
और अपने दुखों को रख आते हैं ऊँचे ताक पर...
कर्ज वसूलने वालों/और मदद माँगने वालों
और उम्मीद रखने वालों से
बचते बचाते वे भागते हैं कभी
सातवीं शताब्दी में तो कभी पच्चीसवीं शताब्दी में,
अपने भविष्य से छिपते
छिपते हुए अपने वर्तमान से
वे भागते हैं अतीत की कन्दरा में
और अतीत उन्हें दबोच लेता है
और उठाकर वापस फेंकता है लहूलुहान वर्तमान में ||”3  
     अतीत में आम आदमी के लिए संरक्षण नहीं है और वर्तमान लहूलुहान है | समय को लहूलुहान करने की चाहत आम आदमी कम ही होती है क्योंकि उनेक पास एक मोह होता है, वो सबको अपना समझते हैं सबको प्यार करते हैं | उनका भी जो उनका शोषण करता है और उनका भी जो पग पग पर उनको छलता है | छलना और शोषित होना नियति बन गयी है उनकी | यह आसानी से समझ जा सकता है कि आम आदमी जो हाशिए पर है, वह अपराध करना नहीं चाहता, अपराध से बचना चाहता है लेकिन उसे बड़े सलीके से अपराधी घोषित कर दिया जाता है | हालांकि अपराधी होने की प्रक्रिया में वह अंतिम समय तक यह नहीं समझ पाता कि आखिर उसका दोष क्या है? वह भूख से लड़ रहा होता है | अपने समय के सच से टकराने की हिम्मत जुटा रहा होता है क्योंकि यही हिम्मत उसके साथ-साथ उसके परिवार के कई लोगों को जिलाने का साधन है | संसाधन उसके पास और कुछ भी तो नहीं लेकिन इस हिम्मत पर भी पहरा, समाज की यह प्रवृत्ति उसे तो अचंभित करता ही है उसके साथ हमदर्दी लिए एक कवि को भी हैरत में डालता है | अपराध का सियापा खड़ा करने वालों के प्रति अपनी अभिव्यक्ति देते हुए लीलाधर जगूड़ी यह विस्मय प्रकट करते हुए कहते हैं कि—
“जो लोग कहते हैं कि अपराध बढ़ रहे हैं वे एक बार भी नहीं कहते कि
गरीबी बढ़ रही है
हर ठोकर के बाद वह दोहराता है
कि आदमी गुजारे लायक अमीर और कष्ट उठाने लायक गरीब बना रहे
तो मनुष्यता फिर से कायम की जा सकती है
अभावग्रस्त स्थिति में भी काम करके नाम कमाने की परंपरा
कुछ बची रह सकती है
वह उन सबको थर्रा देना चाहता है जो गरीबी से असहमति दिखाते हुए
गरीब से ढाढस बनाए रखने को कहते रहते हैं ||”4
        भूख को ख़त्म करने की लालशा लिए आम आदमी पहले तो सडकों पर आता है और फिर उसके बाद विकल्प न मिलने की स्थिति में संघर्ष का दामन पकड़ता है | इस संघर्ष में उसे बार-बार तिरोहित होना पड़ता है, अपमानित होना पड़ता है | एक तो आतंकवादी या नक्सलबाड़ी के तमगे से विभूषित होने का दुःख और दूसरे ‘आम’ होने का संताप ये दोनों स्थितियाँ जनसामान्य के जीवन की बहुत बड़ी घटनाएँ हैं | सरकारी दफ्तरों आदि में एक तो इनका चयन ही नहीं होता और यदि होता भी है...या तो किसी के दया पर निर्भर रहा करते हैं या फिर तमाम व्यंग्यों, अपमानोक्तियों को सहते, लाचार दयनीय और दीनहीन रहकर किसी तरह अपना समय व्यतीत किया करते हैं | समय व्यतीत करने की प्रक्रिया भी खासी मंहगी साबित होती है उनके लिए यह इसलिए भी क्योंकि पेट भरने तक का अनाज और तन ढकने तक के वस्त्र तो बड़े मसक्कत ते नशीब होते हैं ऊपर से परिवार का खर्च भी उन्हीं के जिम्मे| यहाँ झेलना होता है | जीवन को और उस समय को| इन स्थितियों के प्रति असंतोष उस समय के कवियों में और उसके बाद के कवियों में देखा जा सकता है| कहीं न कहीं इस प्रकार की व्यवस्था के शिकार हैं तो वे भी| उदयप्रकाश की एक कविता है “जीवनदास”, इस कविता में कवि ने जीवनदास के बहाने जीवन-ताण्डव में उलझे और अनवरत स्वार्थलिप्सा के शिकार होते आम आदमी के दबे-कुचले व्यक्तित्व को इस तरह प्रश्नों के केंद्र में उत्साहित करता दिखाई देता है--
“कब तक अकेले दफ्तर से
लौटोगे गंजे-गुस्सैल बाबू की
मेज वाली घंटी पर हांफते-झींखते
 कब तक कैरियर में
खाली झोला भूखा कनस्तर
झुलाए लौटोगे
कब तक बच्चों के गाल में
खाली थपकियाँ बजाओगे
कब तक औरत को ठोंक-पीट कर
सुलाओगे
शहर की नीयत और
मोहल्ले की चाल-चलन पर
कब तक भरोसा करोगे जीवन दास? कब तक
आखिर कब तक  
यूं खोए-लुटे 
थके रुआँसे रहोगे?”5
         घुटी-पिटी जीवन जीने की इच्छा से अच्छा होता है सीधे तौर पर प्रतिकार करना उनकी नीतियों एवं प्रणालियों का बहिष्कार और बहुत हद तक प्रतिरोध करना | इस स्थिति से मूल्यांकन किया जाए तो आम आदमी को मुख्य धारा में लाने की जद्दोजहद इस समय के कवियों में विशेष तौर से देखी, परखी और अपनाई गयी | वे उनके अन्दर विद्यमान आतंरिक शक्तियों को पहचानने और बढ़ाने में अधिक सक्रिय हैं उन्हें पता है कि इस अस्तित्त्व के गिरते और लगभग लुप्त होते समय में एक मात्र साहस ही है जो उन्हें लड़ने और जूझने के लिए प्रेरित कर सकता है | यह साहस कविता के शक्ल में ही दिया जा सकता है यह भी उन्हें पता है | ‘सर्कस’ कविता में ऋतुराज ने आम आदमी के अंतरतम को जगाते हुए कहा हैं-
सिर्फ साहस और कौशल के द्वारा
लड़ सकता है मनुष्य अपनी तुच्छता और शोषित स्थिति से
सिर्फ ‘अचरज’ की निरंतर रचना ही
निर्लज्ज और दम्भी शोषक के मन में हीनता भर सकती है
सिर्फ कई साहसी सजग जीवों का परस्पर संगठन
उन्हें इस उत्पीड़न से मुक्त कर सकता है |”6
             इस समय तक पहुँचने के बावजूद भी, जब अभिव्यक्ति के संसाधनों और तरीकों में बड़े बदलाव हुए हैं, कुछ कवि ऐसे भी हैं जो जनता के दुःख-दर्द से दूर होकर काल्पनिक कवि-कर्म में संलिप्त हैं | यहाँ कहना यह भी शायद ही गलत हो कि बहुत से कवि उस हाशिए पर धकेले जा चुके आम आदमी के करीब आने के बजाय स्वयं को सामाजिक आकाओं के आवरण में सुरक्षित करने के प्रयास में सक्रिय हैं | इन्हें कविता के समकाल में रखने का औचित्य नहीं बनता | यहाँ तक आते-आते शोषक और शोषित का जो नारा मार्क्स-दर्शन से प्रभूत हुआ था, अपने स्पष्ट और साकार रूप में सबके सामने मौजूद दिखाई देने लगता है | अब चिंतन का आधार मार्क्स-दर्शन ही नहीं अपितु अपने समय की यथार्थ स्थिति हो चुकी है जिसमें कवियों का अपना चिंतन और अपनी विचारधारा है | हालाँकि प्रभाव उसका अब भी कहीं न कहीं इनके चिंतन में वर्तमान है | यह समकालीन चिंतन और कवि-समाज की एक बड़ी घटना है | इस घटना से इस समय का प्रत्येक समकालीन कवि स्वयं को सम्बद्ध रखता है और वह कामयाब भी होता है | एक समय था जब नागार्जुन ने जनसामान्य से जुड़कर चिंतन करने के लिए खुले रूप में उद्घोष किया था | उनका वह उद्घोष आज के कवियों के चिंतन का आधार है इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता | यह बात अवश्य ध्यान रखने की है कि नागार्जुन की प्रतिबद्धता का उद्घोष मात्र नागार्जुन का नहीं अपितु वर्तमान समय के सभी सक्रिय समकालीन कवियों का उद्घोष होना चाहिए-
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ प्रतिबद्ध हूँ
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त
संकुचित ‘स्व’ की आपाधापी के निषेधार्थ
अविवेकी भीड़ की ‘भेड़िया-धसान’ के खिलाफ
अन्ध-बधिर व्यक्तियों को सही राह बतलाने के लिए
अपने आपको भी व्यामोह से बारम्बार उबारने की खातिर
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ शतधा प्रतिबद्ध हूँ||”7
          ‘अन्ध-बधिर व्यक्तियों को सही राह बतलाने’ और ‘बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त’ अपनी प्रतिबद्धता को कायम रखने वाले रचनाकारों को ही समकालीन कवि की कोटि में देखा जाना चाहिए और उन्हीं को रखा भी गया | जो तत्कालीन समय-समाज में विद्यमान इन समस्याओं से दूर रहे, वे चर्चा की मुख्य धारा से दूर रहे | यह डॉ० अश्विनी पराशर के इस वक्तव्य से और भी स्पष्ट हो जाता है- “एक तरफ सुविधाभोगी जीवन की ललक है | समझौतावादी दृष्टिकोण है, सत्ता की शक्ति को हथियाने की होड़ है तो दूसरी तरफ बढ़ती हुई गरीबी और बेरोजगारी की बदहाली और शोषण से त्रस्त समाज की महत्वपूर्ण इकाई है | तथा काठ का उल्लू, अदना आदमी और उसकी दास्तान है | इन दोनों छोरों से घिरे हुए आदमी और उसके जीवन को लेकर आज का कवि और उसकी कविता चिंतित है | यह चिंता की एक ऐसी रेखा है कि जो भी विचारक, स्वप्नद्रष्टा दार्शनिक, कवि इसके जितना अधिक नजदीक है वह उतना ही अधिक समकालीन है और जो जितना अधिक दूर है वह उतना ही अधिक अप्रासंगिक |”8 आम आदमी के नजदीक होने की ललक मात्र समकालीन कवियों में ही परिलक्षित होती है  और वह इस ललक को वर्तमान रखने की पूरी कोशिश में है | इसीलिए वह अपने समय के तमाम प्रश्नों से सीधे तौर पर जूझता है | चुनौती देता है समय और समाज को | हाशिए पर लाए गए जनसमुदाय पक्ष में खड़े होकर वह संघर्ष करता है, संघर्ष के दिनों में वह यह भी नहीं सोचता कि प्रतिरोधी पक्ष का क्या रुख होगा? उदय प्रकाश की ‘बचाओ’ कविता में अपने समय के बड़े सच से सामना करने का यह साहस देखा जा सकता है-
“वैसे खड़ाऊँ, दातुन और पीतल के लोटे को
बचाने की इतनी सख्त जरूरत नहीं है
रथ, राजकुमारी, धनुष ढाल और तांत्रिकों के
संरक्षण के लिए भी जरूरी नहीं है कोई कानून
बचाना ही है तो बचाए जाने चाहिए
गाँव में खेत, जंगल में पेड़, शहर में हवा, पेड़ों में घोंसले, अख़बारों में सच्चाई, राजनीति में
नैतिकता, प्रशासन में मनुष्यता, दाल में हल्दी,
क्या कुम्हार, धर्मनिरपेक्षता और
एक-दूसरे पर भरोसे को बचाने के लिए
नहीं किया जा सकता संविधान में संशोधन
सरदार जी आप तो बचाइए अपनी पगड़ी
और पंजाब का टप्पा
मुल्ला जी, उर्दू के बाद आप फिक्र करें कोरमे के शोरबे का
जायका बचाने की
इधर मैं एक बार फिर करता हूँ प्रयत्न
कि बच सके तो बच जाए हिन्दी में समकालीन कविता ||”9      
           हिंदी काव्य साहित्य में समकालीन आन्दोलन अपने जिन उद्देश्यों को लेकर गतिशील हुआ था और जिन प्रतिबद्धता के लिए उसकी अपनी अलग पहचान बनी थी उसे वर्तमान रखने का प्रयास हमारे अपने समय के (इक्कीसवीं सदी के कवियों में भी) विद्यमान है|
ऐसा होना बहुत आवश्यक है क्योंकि कविता होने की पहली शर्त ही है उसका जनधर्मी होना| अपने समय के सच को अधिक से अधिक जानने के लिए प्रयत्न करना और सच के मार्ग पर आने वाले बाधाओं से, फौरेबों एवं संकीर्णताओं से लड़ने का साहस दिखाना | ये तो समकालीन कविता की जन धर्मिता है | इसे सभी ने स्वीकार किया है परन्तु ध्यान देने का विषय यह भी है कि यह समय, विशेषकर जिस माहौल और जिस दौर में हम जीवन यापन कर रहे हैं या करने को बाध्य हैं (कुछ समकालीन कवियों की दृष्टि में), किसी भी रूप सहज और सरल नहीं है | जब समय सहज और सरल नहीं है तो फिर ऐसे समय में न तो स्वतंत्रता पूर्वक रोया जा सकता है और न ही तो स्वतंत्रता पूर्वक हँसा जा सकता है | हंसने और रोने की स्थिति में इसका भी जवाब जनता हमसे मांगती है | फिर किसी भी संवेदनशील विषय पर कविता लिखने से पहले और लिखने से ज्यादा उस पर बोलने से पहले (आज के कवि कुछ हद तक लिख कम और बोल ज्यादा रहे हैं) आज के कवियों को एक बार आत्म-मंथन जरूर कर लेना चाहिए | हालाँकि कविता हृदय की आवाज होती है लेकिन यह अब गुजरे जमाने की बात हो गयी है | समय इतना संवेदनशील और लोग इतना लापरवाह और धूर्त हो गए हैं कि उनके रोने की शक्ल में आंसू नहीं बहाया जा सकता | क्या पता उनके आँसू घडियाली आँसू ही हों |  दिखाने भर के ही हों और उसका हकीकत किसी को छलने के लिए रहा हो? ऐसी स्थिति में हमें सोचने की आवश्यकता है | आतंकवाद और नक्सलवाद की समस्या पर महादेव टोप्पो द्वारा लिखी गयी एक कविता है ‘वह’ निश्चित ही इस कविता में कोरी भाउकता है और जन संवेदनाओं से खिलवाड़ करने का दुःसाहस है | इसे जन्धार्मिता नहीं कहा जा सकता-यथा-
एक और क्रन्तिकारी
नहीं, नहीं आतंकवादी मारा गया
नहीं, नहीं एक नक्सलवादी मारा गया
अखबारों में छपा फोटो

जैसा कि पुलिस ने बताया—
उसके बैग से मिले कुछ विस्फोटक
एक देशी कट्टा, दो विदेशी रिवाल्वर,
हाँ, कुछ नकदी भी
लेकिन, उसके झोले के अन्दर
कुछ और भी था
प्रेम कविता पर एक किताब
था उसके अन्दर सूखा गुलाब
सुगंध जिसकी किताबों के पन्नों में थी फ़ैली
हाँ, था वह शहीद, था क्रन्तिकारी, था एक प्रेमी
नहीं, नहीं था वह आतंकवादी
नहीं, नहीं वह एक युवक था
और प्रेम की उसे भी थी दरकार
न पुलिस समझती है
न दुनिया समझती है और न सरकार ||”10
     आतंकवादी यदि क्रन्तिकारी होता है, शहीद होता है, प्रेमी होता है और यदि उसे भी प्रेम की दरकार होती है तो वो क्या होता है जो इनके बदले की हिंसा का शिकार होता है | इसका जवाब इस कवि के पास शायद नहीं हो? दुनिया और सरकार यदि उसे प्रेम दे तो फिर उसे क्या दे जो इनका शिकार हो रहा है? इसका जवाब भी शायद इस कवि के पास न हो? यह कोरा आत्मालाप है | हालाँकि नया ज्ञानोदय के साहित्य वार्षिकी में छपने के बाद इस कवि को ढेरों बधाइयां दी गयी होंगी और यह कवि स्वीकार भी किया होगा बड़ी आत्मीयता से; पर क्या इस आत्मालाप से पड़ने वाले प्रभाव के प्रति यह कवि एक बार भी आत्मचिंतन किया होगा? यह एक विमर्श का विषय है खासकर इस संवेदनशील समय में | आतंकवादी वह है जो सबको निरपराध मारता है या फिर वह है जो निरपराध मरता है? यथार्थ के नाम पर सच के साथ ऐसा छलावा एक भावुकता ही कर सकती है | यथार्थवादी और आतंकवादी सच को अनिल गंगल की कविता “पानी से भरे घड़े” में इस तरह भी देखा जा सकता है-यथा-
न धर्म हैं वे कोई
न कोई जाति
न नस्ल हैं वे आर्य या यहूदी
न सवर्ण और शूद्र
वे प्रान्त भी नहीं हैं कोई
न ही कोई भाषा या लिपि

सभ्यता के आरम्भ में ही
वे सिर्फ पानी से भरे घड़े हैं
प्यासे मनुष्य की प्यास बुझाने को ही
उन्होंने माना है अपना चिरन्तन धर्म
न शिया हैं वे, न सुन्नी
न आर्य हैं वे, न सनातनी
 कैथोलिक या प्रोटेस्टेंट तो नहीं ही हैं वे
दुबोया हो जिन्होंने इतिहास को एक खूनी समन्दर में ||11
       इस कविता के अन्दर और कवि की दृष्टि में निरा भावुकता न होकर निरपेक्षता और स्पष्टता है | इस प्रकार के निरपेक्षता और स्पष्टता की आवशकता आज के समय के कवियों में होनी चाहिए | इसकी अपेक्षा जनता को भी है, देश और समाज को भी | इसमें कोई शक नहीं कि सामाजिक संभावनाओं को स्वच्छ और निष्पक्ष बनाए रखने के लिए विभिन्न प्रकार के सामाजिक संस्थाओं का निर्माण किया गया | कई प्रकार के संगठन और दल अस्तित्व में आए | दुर्भाग्य यह रहा कि जिस उद्देश्य के तहत विभिन्न संस्थाओं की प्रतिस्थापना और पोषण का कार्य किया गया, वह उद्देश्य धीरे-धीरे अपने मूल स्वरुप में अवसरवादिता का शिकार होता गया | सामाजिक संस्थाओं की प्रतिस्थापना में अवसरवादिता का निचले स्तर तक गिरकर इस्तेमाल करना सामाजिकता के स्थान पर असामाजिकता को आमंत्रित करना होता है | आमंत्रण का यह स्तर इस देश के कवियों एवं साहित्यकारों द्वारा भी बड़े पैमाने पर अपनाया गया | समय आ गया है कि संवेदनशील समय में अब अवसरवादी प्रवृत्ति को त्यागकर त्यागमयी विशेषताओं का वरण किया जाय | यह एक विशेष प्रकार का सच होगा | इस सच से टकराने का साहस यदि आज के कवि करते हैं तो निःसंदेह आने वाला समय सत्यम् शिवम् और सुन्दरम् की भावना से परिपूर्ण समय होगा |

सन्दर्भ-संकेत

      1.      पाण्डेय, रतन कुमार, समकालीन कविता : प्रकृति और परिवेश, दिल्ली, अनंग प्रकाशन, 2002, पृष्ठ-57
      2.      ऋतुराज, कवि ने कहा, नई दिल्ली, किताबघर प्रकाशन, 2008, पृष्ठ-26-27
      3.      शुक्ल, दिनेश कुमार, आखर अरथ, नई दिल्ली : भारतीय ज्ञानपीठ, 2009, पृष्ठ-153-154
      4.      जगूड़ी, लीलाधर, ख़बर का मुँह विज्ञापन से ढका है, नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन, 2008, पृष्ठ-65 
      5.      प्रकाश, उदय, सुनो कारीगर, नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन, द्वितीय संस्करण-2007, पृष्ठ-27
      6.      ऋतुराज, कवि ने कहा, नई दिल्ली, किताबघर प्रकाशन, 2008, पृष्ठ-47
      7.       
      8.      डॉ विनय, डॉ० अश्विनी पराशर (सं.) समकालीन हिन्दी कविता संवाद, अश्विनी पराशर का लेख (लीलाधर जगूड़ी : सवालों के जत्थों से जूझता आदमी) दिल्ली, सन्मार्ग प्रकाशन, 1983, पृष्ठ-140
      9.      प्रकाश, उदय, कवि ने कहा, नई दिल्ली : किताबघर प्रकाशन, 2008, पृष्ठ-93
    10.    मंडलोई, लीलाधर (सम०),  नया ज्ञानोदय, महादेव टोप्पो की कविता (वह) साहित्य वार्षिकी 2015, पृष्ठ-290
    11.    मंडलोई, लीलाधर, (सम०), नया ज्ञानोदय,  अनिल गंगल की कविता (पानी से भरे घड़े), अंक-जून 2015, पृष्ठ-84

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