Monday 2 July 2018

कबीर जी !

कबीर जी
दूर दूर तक नहीं रहे तुम
न रहा तुम्हारा वह बाज़ार
सबकी खैर मांगते हुए कभी
खड़े होकर जहाँ दिए थे व्यवहार
न काहूँ से दोस्ती न काहूँ से बैर का

कबीर जी
सब कुछ नहीं है तुम्हारे समय का हमारे समय में
जैसे तुम नहीं हो अपने समय का इस समय मे
मठ में, गुरुद्वारे में, मंदिर में , मजार में
हर जगह तो दिख रहे हो भरमते भरमाते
क्या काबा, काशी और क्या हरिद्वार में
सब बेच रहे हैं तुम बिक रहे हो
तुम्हारी बीनी चदरिया हो रही है इस्तेमाल व्यभिचार में

कबीर जी
घर बार छोड़ छाड़ सब आ गए हैं बाजार में
झुकाए सिर खड़ा है प्रेम राजा प्रजा खरीद रहे हैं
ठगिनी माया ही बनी है संगिनीं
गुरु स्वयं को मान बैठे हैं व्यवसायी
शिष्य इंतजार नहीं करते ईच्छा-दीक्षा का बिधिवत गरियाते हैं

कबीर जी
तुम्हारे नाम पर कई वशीयत हैं
बैनामा बहुतों ने करा लिया है
तुम्हारे आचार विचार का सर्वाधिकार सुरक्षित है उनके पास
तुम वहाँ कहीं बैठे हो ये सब यहाँ ऐंठे हैं
तुम्हारे ही नाम पर जगह जमीन सब गैंठे हैं

सुनो कबीर
नाहक डींग हांकते थे उस समय तुम
इस समय होते तो भगा दिए गए होते कब के ही
वो कुछ और लोग थे जो सुन लेते थे
बदलने का जज़्बा तुम्हारा था साथ उन सबका
अब सब अपनी जाति के हिमायती हैं
देशी तो खैर रहे नहीं स्वभाव के सब बिलायती हैं

कबीर जी
सब तुम्हें याद कर रहे हैं
तुम्हारे लिए समय अपना बर्बाद कर रहे हैं
निष्फल तो नहीं जाएगा यह वे भी जानते हैं
तुमसे ज्यादा इसीलिए राम रहीम, रामपाल, आशाराम को मानते हैं
चूक जाते थे तुम कई बार अपने सिद्धांतों से
ये वही करते हैं जो पहले ठानते हैं

कबीर जी
तुम भले न जानो किसी को
समाज के लोग सब तुमको जानते हैं
तुम्हारे नाम पर बसती है यहां की बस्ती
तुम्हारे नाम पर होती है यहां पर मस्ती
तुम्हारे नाम पर सब खाते पीते हैं
तुम्हारे नाम पर लगभग गये बीते हैं

सुनो कबीर
रूपयो की है पैसों की है
यह दुनिया किसी भी रूप में नही तुम जैसों की है
तुम तब भी चिल्लाते थे अब भी चिल्लाते हो
भटकते थे खुद अब भी भटकाते हो
पता नहीं किस मिट्टी के बने हो
पहले भी थे अब भी चले आते हो
न खाने देते हो किसी न खुद ही खाते हो