Saturday, 3 June 2023

कितने दिन हो गये...

 घर से निकले हुए कई वर्ष हो गये| गाँव में रहते हुए शहर बार-बार आकर्षित करता रहा| किसी को जब देखता आते हुए तो मचल-मचल जाता था| दूर से ही देखकर दौड़ लेता था और जब तक उसे घर तक लाकर छोड़ नहीं देता और उनके द्वारा लाई गयी मिठाइयाँ खाकर पानी नहीं पी लेता, संतोष नहीं होता था| कई बार जब मिठाई नहीं होती थी तो इस आशा में वापिस आता कि शायद बाद में मिले| फिर कई दिन तक इंतज़ार रहता| बचपन था तो कुछ भी सम्भव था| इंतज़ार भी, निराशा भी और एक हद तक गुस्सा भी|

अब जब अतीत में होकर सोचता हूँ तो कितना कुछ बदला-बदला पाता हूँ| शहरों में रहते-घुमते हुए आकर्षण का केंद्र अब कोई गाँव से आया हुआ व्यक्ति हुआ करता है, परिवार का कोई सदस्य या फिर पहचान का कोई चेहरा| आगमन की खबर सुनकर ही उमंगों में हो जाता हूँ| आगवानी करने के लिए उत्प्लावित रहता हूँ| कभी जब कोई यात्रा स्थगित करता है तो निराशा में भी जाता हूँ और चिंतित भी रहता हूँ| कोई आता है तो उनको देखकर दौड़ पड़ता हूँ| पाकर खिल उठता हूँ| बतियाकर अभिभूत हो जाता हूँ| अपनी कम उनकी अधिक सुनकर स्वयं वही हो उठता हूँ| न जाने और क्या-क्या होता है, क्या-क्या होता हूँ, क्या-क्या बताऊँ, क्या-क्या सुनाऊँ|
एक बात कहूं...इन दिनों बहुत हतप्रभ-सा हूँ| मन नहीं लग रहा है| दिल तो बिलकुल भी अपने कहे में नहीं है| न सुन रहा है कुछ और न ही तो लग रहा है कहीं| शहरों की तंग मिजाजी में सूरदास का ‘ऊधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीं’ बार-बार याद आ रहा है| इतना कि गाँव का आकर्षण तीव्र से तीव्रतर होता जा रहा है और शहर से मोहभंग उसी क्रम में| अब फ़्लाइओवर पर उड़ने का शौक हवा है और पगडंडी से गिरना-पड़ना स्वप्न| पक्के महलों का ख्वाब दिल-दिमाग से उतर चुका है और झोपड़ी का सुख फिर से परवान चढ़ा है| यह और बात है कि गाँव में पक्के महल और सड़कों की सुविधा अब सुलभ हो चुकी है और छान-छप्पड़ दुर्लभ, बावजूद इसके मन कल्पना में लीन है| यहाँ की कोई शानदार मिठाई गाँव के गुड़ के फेल है|
मैं इधर सोच रहा हूँ और मुक्त होना चाह रहा है हूँ तमाम प्रकार की अनधिकृत आशाओं और अपेक्षाओं से| खुद की दुनिया में अब खो जाना चाहता हूँ| बंदिशों से मुक्त होकर स्वच्छंद होना चाहता हूँ| राम की प्रतिमा से कहीं दूर कृष्ण होना चाहता हूँ| मैं चाहता हूँ कि पेड़ों से लिपटकर बचपन को आमंत्रित करूं| संगी-साथी के साथ खेल-कूदकर कहीं से आऊँ और फिर बड़ों से डांट खाऊँ| सबसे बड़ी विसंगति स्वयं को बड़ा होते पाना है| बहुत दिन हुआ जब कोई डांटा हो| इधर समझाते भी कहाँ हैं लोग| घर इस मायने में याद आता है| गाँव याद आता है| गाँव के लोग याद आते हैं| मैं वहां होना चाहता हूँ| खोना चाहता हूँ वहां| रमना चाहता हूँ|

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