Friday 5 August 2016

स्त्री जीवन का यथार्थ : आत्महत्या के क्षणों में

                                                 
        प्राप्त परंपरा से हमें यही ज्ञात है और लगभग प्रत्येक स्त्री को यह पता है कि उनका जीवन मात्र बनाने के लिए होता है, बिगाड़ने के लिए नहीं | संवारने के लिए होता है उजाड़ने के लिए नहीं | संवारना और बनाना ही उसके सम्पूर्ण संस्कार और व्यवहार में दृष्टिगत होता है इसके बावजूद कि सामाजिक जीवन का यथार्थ उसे कितनी भी यातना और कितनी भी प्रताड़ना क्यों न दे| सच यह भी है कि सदियों से मिलती आ रही यातना और प्रताड़ना को ही भारतीय परिवेश में स्त्रियाँ अपनी नियति मान बैठी हैं | उन्हें कुछ भी हो वे एक तो परिवार को नहीं त्यागना चाहतीं और दूसरे परिवार के नीति-नियंता घोषित हो चुके पति परमेश्वर को नहीं छोड़ सकतीं | इन दोनों को छोड़ने या त्यागने की स्थिति में उनके जीवन यापन हेतु मिल रही सुरक्षा पर प्रश्न चिह्न खड़ा होने लगता है| समाज पहले तो अनाथ समझकर बड़ी मुश्किल से यदि कहीं गुजारा देने के लिए राजी हो भी जाता है तो परिवार उसे चरित्रहीनता के तमगे से विभूषित कर देता है | परिवार वह नहीं जहाँ उनका जन्म होता है अपितु वह जहाँ उन्हें अब तक के विकसित अथवा मान्य परंपरा के अनुसार जन्म लेना पड़ता है | जन्म होना और जन्म लेना दोनों में बड़ा अंतर होता है | जन्म का होना जहां प्रकृति और ईश्वर का दिया हुआ वरदान माना जाता है वहीं पर जन्म लेना एक विशेष प्रकार की विवशता कही जा सकती है |
        भारतीय परिवेश में एक स्त्री के रूप में जन्म लेने की स्थिति कई बार तो स्त्री-जीवन में सुखद अहसास दे जाती है लेकिन कई बार मृत्यु से भी दुखद स्थिति को आमंत्रित कर जाती है | सुखद अहसास के अवसर जीवन में कम ही होते हैं जबकि दुखद स्थितियां उनके सम्पूर्ण जीवन काल में उनका पीछा नहीं छोडती | यह तो हो सकता है कि ऐसी स्थितियों से वे स्वयं अपना पीछा छुड़ा लें लेकिन समाज नैतिकता की दुहाई देते हुए अनैतिक मापदंडों के आधार पर हाशिए पर उन्हीं को लाकर खड़ा करता है | चरित्रहीनता से लेकर संस्कार हीनता तक का आरोप उन्हीं पर लगाया जाता है | आरोप-प्रत्यारोप से गुजरते हुए स्त्रियाँ यदि आत्महत्या भी करना चाहें नहीं कर पाती क्योंकि परिवार, समाज और स्वयं के चरित्र की पवित्रता उसके हृदय में नया आकार लेने लगती हैं | विवशताएँ नए रूप में प्रकट होकर विचलित करने लगती हैं | विचलित होने की ऐसी स्थिति स्त्री जीवन का अपना यथार्थ है |
       मनजीत शर्मा ‘मीरा’ द्वारा लिखी गयी कहानी ‘आत्महत्या के क्षणों में’ इसी यथार्थ स्थिति को बयान करती है | इस कहानी के भावभूमि में उन सम्पूर्ण भारतीय स्त्रियों का यथार्थ व्यंजित होता है जो ‘घरेलू हिंसा’ का शिकार हैं, दहेज़ उत्पीडन का शिकार हैं, पुरुष मानसिकता का शिकार हैं और शिकार हैं जो सदियों से चली आ रही घिसी-पिटी मान्यताओं को ढोने और लादकर चलने के लिए | जो लाख असमानताएँ झेलने के बावजूद मूक-बधिर होकर सहने के लिए अभिशप्त हैं | यह अभिशप्तता किसी एक स्त्री की नहीं सभी की है | शहर से लेकर गाँव तक, नगर से लेकर महानगर तक, भाग्य की यह विडंबना कहीं-न-कहीं विचलित सभी को करती है | विचलन की स्थिति दिलो-दिमाग में अस्थिरता लाती है | अस्थिर हुए दिमाग में कुछ भी सोचने और समझने की क्षमता नहीं रह जाती | इस राह से गुजरते हुए एक मार्ग बचता है और वह है ‘आत्महत्या’; लेकिन सवाल यह भी है कि क्या कोई आसानी से अपने जीवन का अंत कर देने की शौक रख सकता है? उस जीवन की जो बड़े सौभाग्य से प्राप्त होता है...जिसको प्राप्त करने के लिए देवता भी स्वप्न देखता है? इस कहानी में एक ऐसी स्त्री के जीवन को केंद्र बनाया गया है जो सभी प्रकार की प्रताडनाओं को सहने के बाद अंत में आत्महत्या का निर्णय लेती है और यह लिखती है कि “मैं अपनी मर्जी से आत्महत्या कर रही हूँ | मेरी मौत के लिए कोई जिम्मेदार नहीं है |”
      निश्चित ही आत्महत्या का निर्णय कोई सामान्य निर्णय नहीं होता और न ही तो इसके विषय में कोई आसानी से कल्पना ही कर सकता है | किसी को मरते, गिरते या फिर पिटते हुए देखने मात्र से हमारे हृदय में कम्पन और भय का संचार हो उठता है फिर जब हम स्वयं उस प्रक्रिया से गुजरना चाहें तो यह आसानी से सोचा जा सकता है कि हमारे मन-मस्तिष्क  पर क्या प्रभाव पड़ेगा? यह सच है कि मृत्यु सत्य है; इस सत्यता को स्वीकार करना भी हमारी अपनी विवशता है लेकिन तब, जब मृत्यु स्वयं आ जाए | मृत्यु को स्वयं बुलाने और स्वीकार करने की स्थिति मानव जीवन की सबसे विडंबनात्मक स्थिति मानी गयी है | यह स्थिति तब और भी अधिक हावी होती है जब हम अकेले होते हैं | अकेलापन मानव जीवन में कुंठा और संत्रास को जन्म देता है | कुंठा और संत्रास वर्तमान व्यक्ति के जीवन को घुन और दीमक की तरह अन्दर ही अन्दर खोखला कर देता है | सांवरी की जीते-जागते व्यक्तित्व को इसी प्रकार खोखला बनाया गया | भरे-पूरे परिवार में उसे अकेलेपन के शिवाय कुछ भी नहीं देने का प्रयत्न किया गया | संभव है कि उसने अपने जरूरत के वस्तुओं की मांग की हो...संभव है कि उसने यह इच्छा जाहिर की हो कभी अपने पति के सामने कि वह भी मनुष्य ही है...संभव यह भी है कि किसी कार्य को करने में देरी उसके द्वारा हो जाती हो लेकिन यह कहाँ की संभवता है कि इन सब वजहों के लिए उसके साथ पशुओं का-सा व्यवहार किया जाय?
         आत्महत्या की स्थिति तक पहुँच चुके सांवरी के प्रमुख वजहों को अभिव्यक्त करते हुए लेखिका बताती है की—“सांवरी द्वारा आत्महत्या जैसा इरादा करना कोई दूध का उफान नहीं था और ना ही एक दिन के गुस्से का नतीजा | इसकी नींव में पहला पत्थर तो उसी दिन लग गया था जब वह तीन माह की गर्भवती थी और उसके पति ने किसी बात पर कलेश करने के बाद उसके पेट में लात मार दी थी | दूसरा पत्थर तब जुड़ा था जब चाय बनाने के लिए उठने में जरा-सी देर होने पर आग-बबूला हुआ उसका पति उसे बेइज्जत कर उसके मायके छोड़ आया था | तीसरा पत्थर तब जब बस स्टैंड पर सब लोगों के सामने तमाचा खाया था | उसके बाद तो बेरहम वक्त की रफ़्तार के साथ-साथ पत्थर पर पत्थर जुड़ते गए और एक ईमारत खड़ी हो गई जो बहुत बार हिली, कांपी, थरथराई पर ढही नहीं|”
       न ढहना स्त्री की साहसिकता कही जाती है और सबकुछ घटित होने के बावजूद चुपचाप सहते रहना उसकी धैर्यता | भारतीय परिवेश में धैर्यता की यह संभावना पुरुषों के बनिस्बत मात्र स्त्रियों से ही की जाती है | लेखिका ने सांवरी के इस धैर्य को ‘गाय’ और ‘कुत्ता’ के धैर्य और एक सीमा के बाद उसके ‘प्रतिरोध’ से उपमित किया है | ‘उसने अपने पति से कभी जुबान नहीं लड़ाई थी | तू-तड़ाक करना तो बहुत दूर की बात है | पर वह जितनी उसकी इज्जत करती उतनी ही अपनी बेइज्जती करवाती | और ज्यादती जब हद से गुजर जाए तो गाय भी सींग मार देती है | कुत्ते को भी एक बार दुत्कार दो तो वह दोबारा उस घर का रुख नहीं करता | फिर वह तो इंसान थी | उसके अन्दर का रौद्र रूप आज पूरे शिखर पर था |’ यह घटना पाठकों का ध्यान आकर्षित करती है और सोचने के लिए विवश करती है | गाय कितना भी क्रोधित क्यों न हो ले लेकिन दूध-दुहाने के लिए बाड़े में उसे जाना ही पड़ता है; यहाँ केंद्र में गाय का मालिक या फिर उसके रौद्र रूप का भाजन बनने वाला कोई और नहीं अपितु उसका बछड़ा होता है जिसे चाहकर भी वह भूखा और भूख से तड़पता हुआ नहीं देख सकती | और कुत्ता कितना भी क्यों न काटने दौड़े लेकिन एक समय के बाद पेट भरने के लिए फिर उसी द्वारे पर आना पड़ता है | स्त्री के साथ हमारे अपने परिवेश में ये दोनों परिस्थितियाँ एक साथ घटित होती हैं | कुत्ते की-सी समस्या से एक हद तक वह मुक्त भी हो जाए और लगभाग हो भी रही हैं परन्तु गाय की-सी समस्याएँ उसे बांधकर रखती है | बच्चे के घुंघराले बाल को देखना, पसीने से लथपथ बच्चे के लिए पंखे का चलाना, और बाद में एक भिखारिन के पुत्र का रोता चेहरा देख/सुनकर द्रवित हो जाना, आत्महत्या की कल्पना का टूटना स्त्री के गाय-रूप को ही दिखाता है |
         निश्चित ही मनुष्य ने अकेलेपन से उपजे कुंठा और संत्रास से बचने के लिए घर और परिवार की परिकल्पना की थी | यह परिकल्पना यथार्थ और साकार रूप लेने के बाद उसके जीवन को सुखी और संपन्न बनाना प्रारंभ कर दिया | सुख और सम्पन्नता प्राप्त करने के बाद मनुष्य  घर’ को घर’ और परिवार को परिवार न मानकर अपना प्रतिद्वंदी स्वीकार करने का अभ्यासी बन बैठा | जिस स्त्री और पुरुष को एक दूसरे का पूरक माना गया था वही एक दूसरे के स्वभाव के विपरीत आचरण करने लगे| यह आचरण कलह और कलुषित मानसिकता का पर्याय बन बैठा | पुरुष स्त्री को अपनी निजी संपत्ति और स्त्री स्वयं को एक वस्तु मान बैठी | निजी संपत्ति’ और वस्तु’ की भावना ने दोनों के मनोभावों को बदल कर रख दिया | बदले हुए मनोभाव घर में अशांति फैला दिए | परिणामतः जो एक-दूसरे के  थे वे एक-दूसरे के खिलाफ रणभूमि में उतर पड़े | रणभूमि में क्षत-विक्षत स्त्री-पुरुष दोनों को होना पड़ा, कुंठाएं दोनों पर हावी हुई हैं और दोनों के द्वारा घर के अस्तित्व पर प्रहार किया गया |  घर का कलह और डाह तो वैसे भी व्यक्ति के व्यक्तित्व को कुंठित और पंगु बना देता है | फिर इस कलह और डाह का शिकार घर की चाहर्दीवारों के अन्दर सबसे अधिक स्त्रियों को ही होना पड़ता है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता| घर के बाहर वाले जिस स्त्री के रूप को देखकर मुग्ध होने की कल्पना करते हैं घर के अन्दर उसी स्त्री के अस्तित्त्व और मान-सम्मान पर कुठाराघात किया जाता है | इस कुठाराघात की विडंबना को न तो वह रोकर बहा सकती है और न ही तो किसी को सुना सकती है | सुनाना और रोना दोनों उसके चरित्र पर अंगुली उठाते हैं जो पति के इस जवाबी हमले से और भी स्पष्ट हो जाता है—“साली, गंवार औरत...लोगों को सुनाती है? तेरा कोई यार तुझे यहाँ बचाने नहीं आने वाला...समझी? तेरे जैसी अनपढ़ औरतें किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं | बस तमाशा कर सकती हैं | साली, दसवीं फेल | काम की न काज की, ढाई मन अनाज की |’’
          यहाँ दो शब्द अचंभित करते हैं एक-‘यार’ और दूसरा ‘दसवीं फेल’| ध्यान देंने की बात है कि दो (पति-पत्नी) के मध्य तीसरे (यार) की परिकल्पना ने कई घरों को तबाह कर दिया है | इस तथाकथित सभ्य समाज में एक स्त्री के लिए ‘तीसरे’ की परिकल्पना सबसे अधिक घातक सिद्ध हुआ है | इस परिकल्पना के आवरण में विचरण करते हुए पुरुषों द्वारा कई बार उनके प्राण तक ले लिए गए हैं तो कई बार उनको अपना सम्पूर्ण जीवन निर्वासितों की तरह अकेले रहते हुए व्यतीत करना पड़ा है | हालाँकि यह इस परिवेश में आज से नहीं सदियों से होता आया है, लेकिन ऐसा और कब तक होता रहेगा और वह भी तब जब हम अपने स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार और समानता देने/दिलाने के लिए प्रतिबद्ध होने लगे हैं, चिंतन और विमर्श करने का विषय है |  
         दूसरा शब्द है—‘दसवीं फेल’| पढ़े-लिखे पुरुष को पढ़ी-लिखी औरत चाहिए ये बात तो जायज है लेकिन जायज क्या यह नहीं है कि उस पढ़-लिखकर आगे बढ़ रही स्त्री को अपने समकक्ष उभरते हुए सहन करने की क्षमता भी पुरुषों में होनी चाहिए | यह अक्सर और खासकर इसी देश में ऐसा होता है कि स्त्रियों के लिए घर की चाहरदीवारी सबसे सुरक्षित मानी जाती है | जब वे आगे बढ़ने या निकलने की बात करती हैं तो अक्सर हम उन्हें घर सम्हालने की हिदायत देने से बाज नहीं आते जिसे इस कहानी में पति के हाथों पिटती हुई सांवरी ने बड़ी आक्रोशित मुद्रा में कहा भी है—“मैं दसवीं फेल नहीं पास, हूँ | जब मैनें आगे बढ़ना चाहा तो तूने ही कहा था कि तू झाड़ू-बर्तन करने के लायक है | गंवार तो तूँ है, पढ़ा लिखा गंवार |’’ ऐसे पढ़े-लिखे गंवारों की संख्या आज भी कम नहीं है | इतना अधिक विकसित और आगे निकल जाने के बावजूद भारतीय ग्रामीण परिवेश का यथार्थ अभी बहुत कुछ वैसा ही है, यदि कुछ कम हुआ है तो उनके शहरों में प्रवास करने की वजह से |
      स्त्री का अनपढ़ रह जाना, दरअसल यह समस्या सम्पूर्ण समाज की अपनी समस्या है | इसे विकसित और विकराल रूप देने का कार्य कहीं न कहीं हम सबने किया है लेकिन झेलने की प्रक्रिया में मात्र औरतें ही आती हैं या मात्र उनको ही आना पड़ता है, पुरुषों का यह आरोप हतप्रभ भी करता है और हैरान भी | ये उलाहने किसी एक सांवरी पर किये गए उलाहने मात्र न होकर सम्पूर्ण स्त्री-समाज के यथार्थ स्थिति पर एक करार व्यंग्य है जिसे आए दिन उन्हें सहना और सुनना पड़ता है | जब सहने और सुनने से इनकार की स्थिति आती है तो फिर पति के कोप का भाजन किसी भी रूप में उसे बनना पड़ता है |   
        कोप भाजन बनने की भी सीमाएं होती हैं | गुस्से में आकर दण्डित करने का भी एक दायरा होता है | सभ्य समाज ने उन सभी सीमाओं एवं दायरों का अतिक्रमण ही कर डाला | अतिक्रमण की भयावहता को सहने के बाद अंततः सांवरी का हृदय यह सोचने पर विवश हो उठता है कि “रोज इतने लोग मरते हैं, दुर्घटना में, भूकम्प में, बाढ़ में, आगजनी में, गोलीबारी में.....| मुझ अभागी को ही मौत नहीं आती |” दरअसल आत्महत्या का प्रयास करने के बाद के समय स्त्रियों के लिए और भी दुखद होते हैं | अभी जब जीवन में सबकुछ करते और सहते रहने पर उसकी कोई नहीं सुन रहा फिर जब वह न मर सकी और उसका कोई अंग-प्रत्यंग काम करने में सफल न हो सका, फिर उसे कौन पूंछेगा? कौन रखेगा ख्याल उसकी जरूरतों का? स्त्रियाँ यह भी सोचने के लिए विवश हो उठती हैं कि “....और फिर दुर्भाग्यवश जान न निकली तो पूरी जिंदगी एक अपाहिज की तरह | नहीं...नहीं...यहाँ अच्छे-भले की क़द्र नहीं | फिर ऐसा कौन-सा तरीका है जिसमें दर्द कम से कम हो | कुछ ही पलों में जिंदगी से मुक्ति मिल जाए | अगर बदकिस्मती से बच भी जाऊं तो शरीर का कोई अंग कम-से-कम टूटे-फूटे तो ना |”
       कहानी के पात्रों की स्थिति पर यदि ध्यान दिया जाय तो इस कहानी में पात्रों की संख्या कहानी-मर्यादा के सर्वथा अनुकूल है | घटनाओं को साकार करने में सभी पात्र अपने-अपने स्तर से सक्षम हैं | सांवरी का पति जहां मध्यवर्ग एवं निम्न मध्यवर्ग की पारिवारिक एवं पारिवेशिक संकीर्णताओं को अभिव्यक्त करने में सफल हो पाया है तो वहीँ सांवरी भारतीय परिवेश के बड़े भाग में पशुता का जीवन जीने को अभिशप्त हो चुकी एक लाचार और असहाय स्त्री की मानसिक यंत्रनाओं को सशक्त रूप में अभिव्यक्त करती है | सम्पूर्ण कहानी में कथ्य की मर्यादा के अनुरूप पात्रों को कोई बात बोलने या छिपाने के लिए कथाकार द्वारा बाधित नहीं किया गया है अपितु ऐसा लगता है जैसे सारा का सारा संवाद हमारे आँखों के सामने बोला जा रहा हो | सम्पूर्ण कहानी को पढ़ते हुए कुछ घटनाएँ तो ऐसी घटित होती हैं यह भी नहीं आभास हो पाता कि हम कहानी पढ़ रहे हैं या फिर कहानी को घटित होते हुए देख रहे हैं |
           कहानी का परिवेश निश्चित ही शहरी वातावरण का है | सुखना लेक कहीं और नहीं चण्डीगढ़ का एक प्रसिद्द्ध झील है जहाँ प्रताडनाओं एवं उलाहनों से तंग आकर लोग अपने जीवन की इतिश्री कर बैठते हैं | पी.जी.आई. कहीं और नहीं चण्डीगढ़ का ही एक प्रसिद्ध हॉस्पिटल है जहां अक्सर लोग जीवन की विसंगतियों से तंग आकर मृत्यु का वरण कर लेते हैं| हमारे परंपरा और परिवेश में निर्जन स्थान स्त्रियों के लिए सुरक्षित नहीं माने जाते | ऐसे स्थानों पर जीना स्त्रियों के लिए गांवों में जहाँ बदनाम होने का खतरा होता है वहीं शहरों में गुमनाम होने का भय बराबर बना रहता है | एक और बात महानगरों में ऐसे निर्जन स्थान ‘धंधेवाली औरतों के मिलने का स्थान’ के रूप में भी कल्पित किया जाता है जहाँ बगैर कुछ बोले और कहे खरीददार पहुँच जाते हैं और कुछ इस तरह व्यवहार करते हैं जैसे इनसे बड़ा सम्वेदनशील व्यक्तित्व संसार में कोई और नहीं | लेखिका ने इस शहरी परिवेश को बहुत ही सुन्दर तरीके से अभिव्यक्ति किया है—यथा,—“वह सड़क से हटकर पास ही सड़क के किनारे लगी लोहे की रेलिंग से सटकर खड़ी हो गई | आसपास से गुजर रहे लोग उस पर एक दृष्टि डालकर ही आगे बढ़ते | एक मोटर साइकिल वाला, जो काफी भोंडा सा दीखता था, ने अपनी मोटर साइकिल के ब्रेक बिलकुल उसके पास आकर लगाए तो उसने सिहरकर रेलिंग पकड़ ली | वह आदमी कुछ देर तक अपनी मोटर-साइकिल को वहां खड़ा कर उसका मुआयना करता रहा जैसे कि मोटर-साइकिल खराब हो गई हो और फिर बहाने से उसके पास आकर बोला—‘चलेगी.....?’ उसे झुरझुरी-सी हो आई | वह सहम गई और फुर्ती से कुछ दूरी पर बने बस स्टॉपेज की ओर बढ़ गई जहाँ कुछ लोग बस के इंतजार में खड़े थे |”  
             यथार्थतः स्त्री यथार्थ को आज के परिदृश्य में इस कहानी के माध्यम से देखा जा सकता है | यह मानना और एक हद तक स्वीकार करना पड़ता है कि स्त्रियों पर अत्याचार की सीमाएं अब भी नहीं हैं | कई घटनाओं को वे सह जाती हैं | अन्दर-अन्दर स्वयं को जलाते हुए एक भरे पूरे परिवार को टूटने से बचा ले जाती हैं | लेकिन उनके यथार्थ को समझने का प्रयत्न हम कितना कर पाते हैं...? यह चिंतन का विषय है जो इस कहानी के माध्यम से बड़ी ही संजीदगी से उठाया गया है | विश्वास है कि यह कहानी आप सभी को पढ़ने के बाद सोचने, चिंतन करने और विमर्श करने के  लिए मजबूर करगी |