Wednesday 13 July 2016

नवगीत : सांस्कृतिक विघटन का यथार्थ


          मनुष्य अपनी आवश्यकताओं का स्वयं निर्माता और स्वयं आपूर्तिकर्ता है | ये उक्ति मनुष्य की सुविधाओं को ही ध्यान में रखते हुए कही गयी है कि ‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है |’ जब भी किसी चीज या वस्तु की आवश्यकता उसे पड़ती है, उसका निर्माण मनुष्य अपनी सुविधानुसार कर ही लेता है | अब तक की सभ्यता के विकास से स्पष्ट भी यही हुआ है | आज वह अपने साभ्यतिक संसार को इतना अधिक विस्तृत और विकसित कर लिया है कि यदि कुछ दिन अथवा कुछ वर्ष वह न कुछ करे फिर भी उसकी समृद्धता में किसी प्रकार का कोई अभाव नहीं खटकेगा | मनुष्य द्वारा विकसित किए गए इस संसार की यह भी एक सच्चाई है कि अतीत के माध्यम से जीवन को जीते हुए वर्तमान में उसके द्वारा सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है | इसी वर्तमान के आधार पर भविष्य की सम्भावनाओं का न्हास एवं विकास होता है | जो व्यक्ति अतीत एवं वर्तमान में समंजस्य की भावभूमि तैयार कर लेता है यदि वह कुछ न भी करने लायक है; उसे किसी द्वारा उसकी जरूरत की चीजों को उपहार भी दिया जा सकता है | यही मानव समाज है और यही उसकी सामाजिकता है |        
         आज हम इस समाज और सामाजिकता की भावना को ताक पर रखकर अपना कदम कहीं और बढ़ा चुके हैं | इस बात को माधव कौशिक भी मानते हैं कि ‘एक अनजाने/क्षितिज की ओर/अपना पाँव है |’1 यह क्षितिज विकास का भी हो सकता है और हमारे सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन के अवसान का भी हो सकता है | विकास की अपेक्षा अवसान की संभावनाएं अधिक होती हैं | यह तो स्पष्ट है कि जिसके विषय में हमें कोई जानकारी नहीं है उस रस्ते, मार्ग अथवा गंतव्य को अपना समझना समझदारी भी हो सकती है और एक विशेष प्रकार की नासमझी भी | इसमें कोई शक नहीं है कि हम एक नासमझी के दौर से गुजर रहे हैं | जहाँ भटकाव है, स्थिरता नहीं है | हम अपने वास्तविक स्वरूप को इस क्षितिज की तरफ आने के बाद विस्मृत कर चुके हैं | ‘क्षितिज की ओर’ नवगीत में इस वास्तविकता को बड़े ही सुन्दर तरीके से अभिव्यक्त किया गया है—यथा,
रिस रहा है |
रक्त तलुवों से
मगर गतिमान हैं हम
आने वाले सत्य
से परिचित नहीं
अनजान हैं हम
धुप में झुलसी हुई
पेड़ों की घायल छाँव है |
सांस लेने की
इजाजत भी नहीं
देता समय अब
जाने अपने दर्द को
अनुभव करेगा
आसमाँ कब
अब न कोई
ठोर अपनी
अब न कोई ठाँव है |”2    
           ‘ठोर’ और ‘ठाँव’ को प्राप्त करने के लिए सामाजिक जीवन में सहभागिता और समन्वय का होना आवश्यक है जबकि “आज स्थितियां बदल गयी हैं | परिस्थितियां पूर्ण रूप से मानव-समुदाय पर हावी हैं | आज के इस बदलते दौर में यह किसी को भी नही मालूम कि वह क्या कर रहा है और उसे क्या करना चाहिए क्योंकि उसके जो आदर्श, जो मानदंड, जो संस्कार थे एक समाज विशेष में जीवन यापन करने के लिए, और जिनके माध्यम से वह जीवन-मार्ग पर बढ़ने की प्रेरणा पाता था आज वह उनको या तो भूलता जा रहा है या फिर उसकी उपेक्षा कर रहा है |”3 मानव-समुदाय को आदर्शात्मक पटल वापस लाने के लिए  लिए सबसे बड़ी बात उसका परंपरा एवं पारंपरिक मान्यताओं के अस्तित्त्व को स्वीकार करना है | नवता के पक्षधर आधुनिक मानव का परंपरा से मोहभंग होता जा रहा है | जो पुराने हैं वे परम्पराओं को अपने जीवन का आधारस्तंभ स्वीकार करते हैं, तो जो नए हैं वे परम्पराओं को कुछ समझते ही नहीं हैं | यहाँ आकरके सामाजिक संवाद का अभाव खटकने लगता है | यह अभाव हालाँकि नवताप्रिय नवांकुरों को सुनहरा और मधुर आभासित होता है परन्तु परंपरा-प्रियता को वरण करने वाला हृदय छटपटा उठता है |
            माधव कौशिक सरीखे कवि, जो दोनों स्थितियों के वास्तविक सत्य से साक्षात्कार कहीं गहरे में उतरकर कर चुके हैं, जीवन के अपने बचे हुए दिन को ठीक ठीक व्यतीत होने में ही शंकाकुल हो उठते हैं | उनकी यह शंकाएँ मात्र उनकी ही नहीं अपितु सम्पूर्ण उस परिवेश की शंकाएँ हैं जिसमें हम सभी वर्तमान हैं और अपना जीवन-यापन कर रहे हैं | माधव कौशिक का यह कहना अकारण नहीं हैं कि ‘जाने अब कैसा बीतेगा/जीवन रहा-सहा |’ यह इसलिए भी क्योंकि जैसे-जैसे हम समझदारों की श्रेणी में आते गए हैं, शिक्षित होते गए हैं, हमारे अन्दर संवादों का अभाव होता गया है | एक-दूसरे के समक्ष रहते हुए भी उसके साथ संवाद की स्थिति में न होना हमारी प्रवृत्ति सी होती गयी है | इस दृष्टि से यदि विचार किया जाय तो संवादों का टूटना परिवार के अस्तित्त्व के समाप्ति का कारण बन जाता है | जितने भी संजोए हुए रिश्ते होते हैं, अमर्यादित होकर बिखरने लगते हैं | हरा-भरा वातावरण कुंठा, संत्रास एवं विघटन का शिकार होने लगता है | ये स्थितियाँ निश्चित ही उसके लिए दुखदायी होती हैं जिसने जीवन के एक एक पल को विविध संघर्षों में काटते हुए परिवार के सांस्कारिक वातावरण का निर्माण किया होता है |—यथा
बचपन की गन्दी गाली भी
लगती मधुर सुहाली
कब तक यूँ बीते लम्हों की |
करते रहें जुगाली
चलते चलते थक जायेगा
जीवन रहा सहा |
मौसम किसी बाँझ इच्छा का
खड़ा ठूँठ सा बौड़म
अंगारों के घर गिरवी है
आशाओं की शबनम
ढीला होकर खुल जाता हर
बंधन रहा-सहा |
छत को निगल गईं मुंडेरें
दरवाजा-दीवारें
खिड़की रोशनदान से उलझी
ईंटें ताना मारें
चारदीवारी से शंकित है
आँगन रहा-सहा |”4  
          ‘हर रहे-सहे बंधनों का ढीला होकर खुल जाना’ और ‘रहे-सहे आँगन का चारदीवारी से शंकित होना’ एक तरफ जहाँ सामाजिक परिवेश में अनुशासन का अभाव होना है वहीं दूसरी तरफ पारस्परिक विश्वासों का धीरे-धीरे ही सही अविश्वास के रूप में परिणत होना भी है | यह दोनों स्थितियां सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से भारतीय परिवेश के लिए घातक हैं | ‘बंधन’ जहां हमें सामाजिक मर्यादाओं का पाठ पढ़ाते हैं वहीं ‘चारदीवारी’ का अस्तित्त्व हमारी मान-मर्यादा को सुरक्षित रखने के लिए हुआ | पर ये दोनों यदि अपने नियत कर्त्तव्य से विमुख हो रहे हैं तो चिंता का विषय तो है ही | यह चिंता इसलिए भी गहरा होता जाता है क्योंकि हम न तो पूर्ण रूप से नवता के पक्षधर हो पा रहे हैं और न ही तो परंपरा का | हमारे लिबास तो आधुनिक हैं परन्तु आवरण परंपरा का लटकाए हैं | यहाँ सवाल परम्पराओं के नकार का नहीं है सवाल है उस स्थिति का भूल जाना जिसके माध्यम से हम बड़े और समझदारों की पंक्ति में खड़े होने लायक हुए | इस भूल का एहसास जिस दिन हमें हो जाए हमारे अन्दर कभी किसी प्रकार की अमानवीयता का प्रवेश हो ही नहीं सकता | एक हद तक तो हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सभ्यता के इतने लम्बे पड़ाव को तय कर जाने के बाद भी हमारा जन-जीवन उसी वजह से सुरक्षित तथा अनवरत पुष्पित और पल्लवित हो रहा है जिन वजहों को आज हम अपने विकास-मार्ग का रुकावट मान रहे हैं | कौशिक के इस गीत में यही भाव व्यंजित हुए हैं—यथा,
खुली डोर से बंधीं पतंगें
जाने कहाँ पड़ें
पेड़ों से जुड़कर ही इतनी
गहरी हुई जड़ें
जाने किसको क्या दे जाए
मौसम खुले विकल्पों का |”5
        ‘विकल्प’ हर समय हमें आगे बढ़ने के लिए जिज्ञासु बनाते हैं | हमारे अन्दर सुविधाओं के चयन की एक समझ पैदा करते हैं | लेकिन जिज्ञासु प्रवृत्ति और समझ का सदुपयोग हम तभी कर पायेंगे जब हम आत्मिक दृष्टि से सबल और व्यावहारिक दृष्टि से सक्षम होंगे | सबलता और सक्षमता ये दोनों स्थितियां एक नियत समय पर हमारे अन्दर प्रवेश करती हैं | उम्र के एक विशेष पड़ाव पर प्राप्त होती हैं | अनुभव की सामर्थ्य यहीं काम देता है | जिस व्यक्ति के पास जीवन का, समय का और समाज का जितना अधिक अनुभव होगा सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से वह व्यक्ति उतना ही सबल और सक्षम होगा | अनुभव विकल्प से नहीं स्थिरता से प्राप्त होता है | विकल्प हर समय भ्रम और भटकाव की स्थिति उत्पन्न करते हैं | वर्तमान पीढ़ी इस भ्रम और भटकाव का शिकार हो रही है | इस आवरण में उलझकर वे अपना सर्वस्व लुटा रहे हैं | हालाँकि उन्हें लगता है कि वे अर्जन कर रहे हैं परन्तु अर्जन करना जीवन-मूल्यों को विनष्ट करना नहीं उनका संवरण करना होता है | हम अपनी ही नीतियों एवं सिद्धांतों का परिष्कार न करके उसका अवमूल्यन कर रहे हैं | यही वजह है कि जीवन-यापन के जो सिद्धांत हमें शांति देते थे आज हम उन्हें नकार कर अशांति फैलाने वाले सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं | और यह सब विकल्पों के बहुतायता में हो रहा है स्थिरता के लिबास में नहीं—माधव कौशिक की यह अभिव्यक्ति कितनी सार्थक अभिव्यक्ति है वर्तमान समय के प्रति—यथा,
क्या जाने
कब रुक पायेगा
मूल्यों का
यह अवमूल्यन |
गिरते-गिरते धरा
रसातल तक आई
सर की पगड़ी उछली
पायल तक आई
मानव का पर्याय
हो गया खालीपन
नई पीढ़ियों की खातिर
ये सूत्र निराले छोड़े
बारूदों के पाँव लगाकर
अग्नि-पथ पर दौड़ें
विध्वंसों में ढूँढे
अक्सर चन्दन-वन |”6
        निश्चित रूप से हमारे मूल्य और आदर्श क्षत-विक्षत हुए हैं | त्याग, श्रद्धा, करुणा, सम्मान, तितिक्षा, आदि का भाव समाप्त हो चुका है |7 इन भावों को समाप्त कर नवता के अन्वेषी युवाओं एवं समाज सेवकों पता होना चाहिए कि विध्वंसों में चन्दन-वन की नहीं भटकन की स्थितियाँ जरूर प्राप्त हो सकती है | वर्तमान मानव समाज विध्वंसों के नोंक पर खड़ा है, शक इसमें भी कुछ नहीं है | जो थोड़ी-बहुत संवेदनाएं हमारे परिवेश में बची-खुची थी उसे विज्ञानवाद ने लील लिया है | टेक्नॉलाजी ने ख़त्म कर दिया है | विज्ञानवाद और टेक्नॉलोजी आधुनिकता के पर्याय हैं | डॉ० रामदरश मिश्र के शब्दों में कहें तो “विज्ञान का विकास इस काल की प्रमुख घटना है | विज्ञान के आविष्कार और विकास ने ही आधुनिक युग के समस्त मूल्यों का निर्माण और विकास किया है | धर्म का स्थान अर्थ ने ले लिया है, कल्पना का स्थान प्रयोग ने, नैतिकता का यथार्थ ने, भावुकता का बौद्धिकता ने | इस तरह पूरा का पूरा आधुनिक युग विश्वास, आस्था, श्रद्धा के स्थान पर संदेह, वितर्क, अनास्था और प्रयोग को लेकर चला है |”8 और कौशिक की दृष्टि से देखें तो—यहाँ
गहरी नागफनी उग आई
मन में गहरे संशय की
झुठलाई आँखों ने उजली
तस्वीरें सब परिचय की
अनजानें आकर ले गयी
रेखाएं अनुबंध की |”9
          आस्थाओं के देश भारत में विज्ञान का हावी होना और जन्संवेद्नाओं का पूर्ण रूप से उसके अधीन हो जाना एक तरह से पश्चिम का पूरब से अनुबंध ही था | यह उस अनुबंध का ही परिणाम है कि संवादों के आपसी समझ में जहाँ बड़े से बड़े झगडे सुलझा लिए जाते थे; मोबाइल-संस्कृति के बढ़ जाने से जहां झगडे जैसे माहौल की संभावना नहीं भी होती, हो जाती है | परिणामतः शहर जंगल और गाँव शहर का रुख अख्तियार कर चुके हैं | जो गाँव या शहर अभी इन स्थितियों से बचे हैं वे भी तेजी के साथ इस तरफ बढ़ते जा रहे हैं| व्यक्ति-मन शहरी-गंवई के आवरण में मदमत्त है जबकि उसकी आवश्यकताएं उसे न तो शहरी रहने दे रही हैं और न ही तो गंवई अपितु इन दोनों स्थितियों से दूर जंगली और वन-मानुष के रूप में परिवर्तित करती जा रही हैं | यह उसी जंगली परिवेश और वन-मनुषता का परिणाम है कि—रिश्ते अजगर जैसे
फनियर
लील गये परछाई
अंधे मोड़, अधूरी राहें
 नहीं दरख्तों को
मिल पाता
कड़ी धुप में साया |”10
        इन स्थितियों को लालचंद गुप्त मंगल के अनुसार विचार करने का प्रयत्न किया जाय तो “हाय री अंधी दौड़! गांवो का नगरीकरण, नगरों में लुप्त होते गाँव और नगरों का महानगरीकरण-इस प्रक्रिया में हमारे गाँवों का क्या-क्या गायब नहीं हुआ हमारे शहरों में? सचमुच ‘गांवों का इतिहास-भूगोल समाप्त हो गया है | परिणामस्वरूप ‘पत्थर-दिल-पत्थर जैसा है शापित महानगर |”11  यह दृश्य गाँव और शहर दोनों जगंह वर्तमान है—कवि इन स्थितियों की विकरालता को देखते हुए चिर-निद्रा में सोए रहने की परिकल्पना करता है | यदि व्यक्ति कभी भी नहीं जागेगा तो कम से कम आत्मीयता के जो रहे-सहे सम्बन्ध बचे हैं, सुरक्षित रहेंगे अन्यथा भूख का ज्वार उनको भी खा डालेगा—यथा,
टूट गए/आत्मीयता के धागे|
खिड़कियों से भोर/नहीं झाँकती
आदमी को धूप/नहीं आँकती
इस अँधेरे-युग में/यह सही रहे
नींद से/न कोई कभी जागे
भूख ने पसार दिये/पाँव भी
डूब गया सूखे में/गाँव भी
पेट के लिए/सियार की तरह
दुम दबा के/लोग शहर भागे |
जिंदगी लकीर की/फ़कीर है
बंदी सीखचों में/अब जमीर है
सैकड़ों कुएँ हैं पीछे/राह में
खाइयाँ भी होंगी/और आगे |”12     
       कुएँ से स्वयं को सुरक्षित रखना और आगे की खाइयों से बचकर निकलना मानव-जीवन के लिए आवश्यक भी है और उसकी मजबूरी भी | इसके लिए हमें एक-दूसरे की संवेदनाओं को समझने का प्रयत्न करना होगा | एक-दूसरे की आशाओं एवं आकांक्षाओं को जानने का प्रयत्न करना होगा, उनसे उलझने का नहीं | एक-दूसरे के रहन-सहन में सहभागी होना होगा, प्रतियोगी नहीं | सहभागी होने से हम व्यक्ति-हृदय के करीब पहुँचते हैं जबकि प्रतियोगी होने से हमारे अन्दर अहम् और विरोध की भावना जन्म लेती हैं | यह समय विरोध और प्रतिरोध का नहीं सहयोग और सामंजस्य का है | स्वाभाविक व्यवहार भी मनुष्य का यही है कि एक दूसरे के दुःख को देखकर दुखी हो और सुख को देखकर सुखी | कवि जयशंकर प्रसाद ने भी कहा था “औरों को हँसते देखो मनु/हँसो और सुख पाओ/ अपने सुख को विस्तृत कर लो/ सबको सुखी बनाओ |”13 कवि माधव कौशिक ‘ऐसे जीवन बीते’ नवगीत में इस स्वभाव को यथावत बनाए रखने की आशा व्यक्त करते हैं—यथा,
नैसर्गिक विश्वास
कभी भी,
जड़ होकर न टूटे
नाजुक सिरा, किसी
ऊँगली में
फँस कर कभी ना छूटे
कभी न चौंकाये
सपनों को
दावानल का त्राटक |”14
          जब हम कठिन विषमताओं को मेटते हुए आगे बढ़ेंगे, हमारे व्यवहार में सहयोग की भावना स्वयमेव बढ़ती जाएगी | ऐसी स्थिति में देने की लालसा अधिक होगी | जहाँ देने की लालसा होगी वहाँ स्वार्थता और व्यक्ति-प्रियता का भाव न होकर सामाजिकता का प्रबल उद्वेग होगा | इस उद्वेग में अपनी आवश्यकता की जरूरतों में से निकालकर दूसरे को देने का भाव प्रबल हो उठेगा | लेकिन यह भी तो समय की एक सच्चाई है कि किसी को अपने अंश से निकालकर उपहार वही दे सकता है, जो समृद्ध हो | जिसके पास धन या ऐसी किसी भी वस्तु का अभाव न हो जिसे कि दूसरा प्राप्त करना चाहता है | एक हद तक तो लेन-देन की यह व्यावहारिकता दोनों के आपसी व्यवहार पर निर्भर करता है | संभव है कि एक अपना सबकुछ दूसरे को सुखी देखने के लिए अर्पित करना चाहता हो जबकि दूसरा उसके अर्पण को महज स्वार्थता की दृष्टि से ही देखता हो? अपना काम निकल जाने के बाद दूसरे की सुध कहाँ तक रहती है? संभव यह भी है कि ऐसी स्थिति में उसके प्रति एहसानमंद न होकर उसके अर्पण को समय की नियति मात्र समझता हो और स्वयं को सबसे बड़ा चालाक और चतुर | आज के ऐसे समय में समृद्धता की परिभाषा पूर्ण रूप से बदल चुकी है | अभाव की स्थिति हर तरफ दिखाई दे रही है | पूर्ण करने की इच्छा लिए व्यक्ति अपना सम्पूर्ण जीवन गुजार ले जा रहा है; इसके बावजूद एक विशेष प्रकार का खालीपन उसका पीछा नहीं छोड़ती | बार-बार आभास तो होता है उसे लेकिन इसके बावजूद अभिशप्त होता है जीवन की विसंगतियों को झेलने और सहने के लिए | ‘जीवन भर की विषम विषमता’ नवगीत में माधव कौशिक ने इस यथार्थ को कुछ इस तरह अभिव्यक्त किया है—यथा,
जीवन भर की
विषम विषमता
मरते दम तक ढोई
पैर मिले तो
रास्ता गायब
राह मिली तो पाँव गये
अपने घर की
इच्छा लेकर
जाने किसके गाँव गये
पलभर को यदि
अधर हँसे तो
सदियों पलकें रोईं |”15
          अधरों का रंच मात्र हंसना और पलकों का सदियों तक रोना नियति हो गयी है मानव जीवन की | प्रत्येक संत्रास एवं दुःख को सहना उसकी प्रकृति हो गयी है | वर्तमान समाज की यह स्थिति मानवीय संबंधों में दिन प्रतिदिन आ रही गिरावट भी हो सकती है तथा मानवीयता का विकास करने वाली संस्कृति का क्षरण भी | नवगीतकार माधव कौशिक के नवगीतों में मानवीय संबंधों के हाशिए पर धकेले जाने की व्यथा और मानवीयता का विकास करने वाली संस्कृति के क्षरण की अंतर्व्यथा का अंकन यथार्थ के धरातल पर देखने को मिलता है | “माधव कौशिक के नवगीतों में तेजी से बढ़ रही तिजारती संस्कृति का संकट, महानगर की भागदौड़ में आदमी की गम होती अस्मिता, गाँव-दिहात का बदलता चरित्र, आदमी-आदमी का अपनी जड़ों से काटने का कटुतम यथार्थ, सिमटते हुए भूगोल के साथ बदलते हुए इतिहास के खतरे, मूल्यहीनता को मूल्य के तौर पर स्थापित करने की साजिश का पर्दाफास प्रखरता से हुआ है | विश्वव्यापी आतंक से पैदा होते सन्नाटे के बावजूद आस्था की अलख जगाते माधव कौशिक के नवगीतों का अपना बुनियादी चरित्र है |”16 इस बुनियादी चरित्र में यह यथार्थ इतना वास्तविक और वर्तमान है, इसे स्वीकार भर किया जा सकता है, नकारने का रंच मात्र भी प्रयास करना मनुष्यता के विकास की संभावनाओं को मेटकर दानवता की समस्त स्थितियों को आमंत्रित करना होगा | समय की यथार्थता को उसके पूर्ण अर्थवत्ता के साथ इस नवगीत में देखा जा सकता है—यथा,
कैसे कोई सुर
को साधे
वीणा का
हर स्वर धीमा है |
प्रतिभूतियाँ और
घोटाले
पावों में दुर्दिन के छाले
रोने वाले कब तक
रोते
रोने की भी एक सीमा है |
जाने के अधिकार
संभाले
मिले राम को देश-निकाले 
मरने वाले तिल-तिल
मरते/कहने को जीवन बीमा है |
दिन से ज्यादा
लम्बी रातें
कलयुग में त्रेता की बातें
कितना कोई स्वयं को
बदले
परिवर्तन की भी सीमा है |”17       
         यथार्थता को परिवर्तन के खांचे में फिट नहीं किया जा सकता | ऐसा करने के लिए सच को नकारना होगा | सच को नकारने की प्रवृत्ति व्यक्ति को दिवालिया और समय को झूठा बना देती है | समय के साथ खिलवाड़ करना न तो अतीत के साथ ईमानदारी होती है और न ही तो वर्तमान के साथ न्याय | भविष्य के स्तर पर भी हम अँधेरे में खो जाने के लिए विवश हो उठते हैं | इस प्रकार की स्थितियाँ समाज में विघटन की प्रवृत्ति को जन्म देती है | हमारे यहाँ की प्रवृत्ति विघटन की नहीं संगठन की रही है | वैयक्तिकता की नहीं सामूहिकता की रही है | यहाँ की धरती पर निवास करने वाला प्रत्येक प्राणी हमारे लिए उतना ही उपयोगी है जीतनी कि हमारी उपयोगिता उसके लिए है | यदि ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना और सत्यं, शिवं, सुन्दरम् की परिकल्पना इस देश की संस्कृति के प्राण-तत्त्व माने जाते हैं तो उसके पीछे सबसे बड़ी वजह यही है कि त्रिण से लेकर आसमान तक जितने भी जीव-जंतु-प्राणी हैं वे सबके सब हमारे लिए पूज्य हैं, आवश्यक हैं | वे हमारा भरण-पोषण करते हैं तो फिर उनकी सुरक्षा-रक्षा करना हमारा कर्त्तव्य तो बनता ही है | हमारे नीति-नियंताओं के मन-मस्तिष्क में समाज-निर्माण की प्रक्रिया में यही भावना सर्वोपरी थी | हम उसकी अनुपालना अभी तक तो करते आए हैं संभव है कि आगे भी करते रहें | माधव कौशिक का यह गीत इस संकल्प-बोध को और भी पुख्ता कर देता है—यथा,
हम घटनाओं-दुर्घटनाओं के इतने अभ्यस्त हो गए
लगता है अनहोनी के भी सभी हौसले पस्त हो गए
काली रात अमां की देकर अपनी यह पूनम ले जाओ
हमको सूनी सिसकी देकर, सारे सुर-सरगम ले जाओ
धूप, हवा, उजली किरणों को हर आँगन में बँटवा दो तुम
अपना क्या है हम मतवाले कठिनाई में जी सकते हैं |”18  
          कठिनाई में जीने की अभिलाषा माधव कौशिक जैसे सरीखे कवि एवं साहित्यकार द्वारा ही संभव है | माधव कौशिक के नवगीतों का अध्ययन करते हुए यह बात आसानी से समझा जा सकता है कि सत्यं, शिवं, सुन्दरम् की भावना को समाज में साकार रूप देने के लिए साहित्य की भूमिका को नजरंदाज नहीं किया जा सकता | “साहित्य जन मानस में मूल्यों को संप्रेषित करने का एक सशक्त माध्यम है | समाज में व्याप्त भ्रांत धारणाओं को नकार कर उच्च और उदात्त मान्यताओं का प्रतिपादन करते हुए कल्याणकारी तत्त्वों को समृद्ध करना साहित्य का उत्तरदायित्व है |”19 कभी यदि साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया या माना गया तो उसके पीछे सबसे बड़ी वजह यही थी कि साहित्य ने समाज नामक संस्था में हमे वर्तमान रहने लायक बनाया | उसके रीतियों-नीतियों से परिचित होने का अवसर दिया| हमें समाज में रहने का संस्कार यदि मिल सका तो साहित्य के ही माध्यम से अन्यथा साहित्य के अभाव में मनुष्य और पशुता के बीच क्या अंतर रह पाता? परन्तु मनुष्यता और पशुता के मध्य विभाजक रेखा खींचने वाली साहित्य आज स्वयं अनुबंधों एवं समझौतों में उलझकर कुंठित है | समय की यह भी एक विडंबना है कि जो साहित्य और साहित्यकार पढ़े जाने योग्य हैं, वह लोगों तक नहीं पहुँच पा रहे हैं और जो अयोग्य हैं, पुरस्कृत और संरक्षित किए जा रहे हैं | साहित्य में भावों की प्रगाढ़ता और अनुभवों की सघनता होती है | भावों एवं अनुभवों को शब्दकोशों द्वारा नहीं अभिव्यक्त किया जा सकता | आज के बहुत से साहित्यकारों में, जो पुरस्कृत और प्रसंशित हो रहे हैं, शब्दकोशीय घटनाओं को गढ़ने के अतिरिक्त भावों की रंचमात्र भी पकड़ नहीं है—माधव कौशिक का यह नवगीत इस प्रवृत्ति को सुन्दर तरीके से विवेचित करती है—यथा,
शब्दकोशों के हजारों शब्द लेकर
दर्द का अनुवाद कोई क्या करेगा |
कह नहीं पाये अधरों की कहानी
आग बनकर जल उठा आँखों का पानी
बाँधकर जंजीर मन के पाँव में
सत्य को आजाद कोई क्या करेगा |
एक उंगली से धरा को मापना
सिर्फ पलकों से समुन्दर ढांपना
इतने ऊंचे होंसले के बावजूद
उम्र का प्रतिवाद कोई क्या करेगा |”20
जो सत्य है उस सत्य से टकराने का साहस तो नहीं किया जा सकता लेकिन जो सत्य को झूठा बनाने पर आमादा है उसकी इस योजना को मटियामेट जरूर किया जा सकता है | वर्तमान समय और समाज पर बहुरूपियों एवं झूठे पहरेदारों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है | इससे जितने हद तक पारिवेशिक वातावरण दूषित और प्रदूषित हो रहा है उससे कहीं ज्यादा हमारा सांस्कृतिक धरातल भी कुंठित और क्षरित हो रहा है | वर्तमान समाज के सामने सबसे बड़ा संकट मनुष्य के अन्दर की मनुष्यता को बचाने का संकट है | इस संकट से जूझने का प्रथम कर्त्तव्य देश के साहित्यकारों एवं कवियों का है | ख़ुशी होती है माधव कौशिक के नवगीतों का अध्ययन करके जो न सिर्फ अपनी सांस्कृतिक छटा को संवारने में सफल होते हैं अपितु उसके परिष्कार और सुधार के लिए अपनी बौद्धिकता का सहारा भी लेते हैं |  अंततः सांस्कृतिक धरातल पर इनके नवगीतों को परखते हुए यदि प्रो लालचंद गुप्त के शब्दों में कहना पड़े तो कहा जा सकता है कि “माधव कौशिक आधुनिकता के गहन-गह्वर में लुप्त होती जा रही मानवता, झुलस रही आत्मीयता, पिट रही आदर्शवादिता और परिणामजन्य मुखर हो रही मूल्यहीनता के प्रति सर्वाधिक चिंतित हैं | वस्तुतः वे रू-ब-रू हैं उन प्रश्नों से, जो आज मानवता को लील रहे हैं |”21


सन्दर्भ-सूची
              1.      कौशिक, माधव, शिखर संभावना के, दिल्ली : मनीषा प्रकाशन, 2000,  पृष्ठ-10
              2.      वही, पृष्ठ-10
              3.      पाण्डेय, अनिल कुमार, समीक्षा का यथार्थ, मेरठ : उत्कर्ष प्रकाशन, 2016, पृष्ठ-105 
              4.      कौशिक, माधव, मौसम खुले विकल्पों का, दिल्ली, सरोज प्रकाशन, 1993, पृष्ठ-22
              5.      वही, पृष्ठ-41 
              6.      वही, पृष्ठ-54
              7.      पाण्डेय, रतन कुमार, समकालीन कविता : प्रकृति और प्ररिवेश, दिल्ली : अनंग  प्रकाशन, 2002, पृष्ठ-8
              8.      मिश्र, डॉ० रामदरश, आधुनिक हिन्दी कविता : सर्जनात्मक सन्दर्भ, दिल्ली : इन्द्रप्रस्थ प्रकशन, 1986, पृष्ठ-10
              9.      कौशिक, माधव, मौसम खुले विकल्पों का, दिल्ली : सरोज प्रकशन, 1993, पृष्ठ-33
            10.    कौशिक, माधव, शिखर संभावना के, दिल्ली : मनीषा प्रकाशन, 2000, पृष्ठ-29
            11.    द्रष्टव्य-कुमार, डॉ० सुरेन्द्र, माधव कौशिक का रचना-संसार, दिल्ली : ज्ञानोदय, 2007, पृष्ठ-143
            12.    कौशिक, माधव, शिखर संभावना के, दिल्ली, मनीषा प्रकाशन, 2000, पृष्ठ-59
            13.    प्रसाद, जयशंकर, कामायनी (कर्म सर्ग), वाराणसी : प्रसाद प्रकाशन, 1975, पृष्ठ-129  
            14.    कौशिक, माधव, शिखर संभावना के, दिल्ली : मनीषा प्रकाशन, 2000, पृष्ठ-65
            15.    वही, पृष्ठ-61
            16.    (सम) मंगल, प्रो० लालचंद गुप्त, संभावना, 15 अगस्त, 2001, पृष्ठ-170-171 
            17.    कौशिक, माधव, शिखर संभावना के, दिल्ली : मनीषा प्रकाशन, 2000, पृष्ठ-64
            18.    कौशिक, माधव, मौसम खुले विकल्पों का, दिल्ली : सरोज प्रकाशन, 1993, पृष्ठ-55
            19.    सिंह, रवीन्द्र कुमार, दादू काव्य की सामाजिक प्रासंगिकता, नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन, 1988, पृष्ठ-33
            20.    कौशिक, माधव, मौसम खुले विकल्पों का, दिल्ली : सरोज प्रकाशन, 1993, पृष्ठ-31
            21.    द्रष्टव्य-कुमार, डॉ० सुरेन्द्र, माधव कौशिक का रचना-संसार, दिल्ली : ज्ञानोदय, 2007, पृष्ठ-163