Thursday 30 April 2020

सम्वाद और सृजन से जुड़ना समृद्ध भविष्य की सम्भावना से भर उठना है


वर्तमान समय में सम्पर्क साधनों में बड़ी संख्या में इजाफा हुआ है| कहाँ तो चिट्ठी-पत्री का दौर था कहाँ मोबाइल क्रांति आई| सब कुछ एकदम पास-पास लगने लगा| हजारों किलोमीटर दूर रहते हुए भी यह आभास हुआ कि हम एकदम पास और एक ही खाट पर बैठकर सम्वाद कर रहे हैं| जब तक बात आवाज के माध्यम से हो रही थी, तब तक भी कुछ गनीमत थी| आवाज से दृश्य तक का सफ़र हम सब जल्दी तय कर लिए| कहना न होगा, नैतिक-अनैतिक परिधि में जिन बातों-आदतों को गिना जा सकता है, उन सभी स्थितियों का व्यवहार वीडियो कॉल द्वारा किया गया| घर के व्यंजन से लेकर बेडरूम तक के दृश्य को देखने-दिखाने की प्रवृत्ति बढ़ी| इस प्रवृत्ति के कुछ शिकार हुए तो कुछ समृद्ध| शिकार होने वालों में कितने तो आत्महत्या कर लिए और कितने दिन-प्रतिदिन कर रहे हैं, यह भी विचारणीय मुद्दा है|
फोन कॉल से आगे बढ़ा जाए तो वीडियो बनाने और उसे अपलोड करने की जो नीति-राजनीति है, उसने भी मानवीय अस्मिता और मनुष्य-जीवन को कम संकट में नहीं डाला| जब मैं ‘बेडरूम तक के दृश्य’ की कर रहा हूँ तो उसके केंद्र में यही विडंबना रही| सबसे अधिक दुर्गति प्रेमी जोड़ों की हुई| भावुकता में किया गया प्रेम लोभ-वृत्ति को विकसित करने का महत्त्वपूर्ण कारण सिद्ध हुआ| धन कमाने और बलैक्मेल करते हुए चारित्रिक हनन की प्रक्रिया सबसे अधिक यहाँ प्रयोग में लाई गयी| हालांकि इस दौरान ‘लघु फिल्मों’ और ‘सावधान इण्डिया’ जैसे धारावाहिकों द्वारा इसके इफेक्ट पर गंभीर कार्यक्रम भी प्रस्तुत किये गए लेकिन प्रकारांतर से वे भी इस अपराधीक प्रवृत्ति के विकास में सहायक ही सिद्ध हुए|
दरअसल अब बात मोबाइल-टाक और वीडियो प्रदर्शन तक ही सीमित नहीं है| व्हाट्सएप और फेसबुक की दुनिया भी उसमें आकर जुड़ गये हैं| व्हाट्सएप व्यस्त रखने और रहने का एक जरिया तो बन गया है लेकिन इसके दुस्प्रभावों पर हम अभी भी गंभीरता से विचार नहीं कर पा रहे हैं| ध्यान से देखें तो घर, परिवार, सम्बन्ध-व्यवहार, शिक्षण-संस्थान से लेकर सार्वजनिक स्थलों तक युवाओं की भीड़ को इस दुनिया में व्यस्त और मस्त रहते देखा जा सकता है|
ये वही युवा हैं जिन्हें घर का कोई काम कह दिया जाए तो उनके पास समय नहीं होता| पढाई-लिखाई से सम्बन्धित कोई टास्क दे दिया जाए तो उसके लिए उनके पास समय नहीं होता| किसी की सहायता आदि करनी हो तो लगता है जैसे बहुत बड़ा बोझ लाद दिया गया है उन पर| लेकिन व्हाट्सएप पर रहते हुए पता नहीं क्या खोजते रहते हैं? किस दुनिया में व्यस्त रहते हैं? ये प्रश्न जब घर का कोई बुजुर्ग पूछता है तो वह हम युवाओं की नजर में मूर्ख और गंवार सिद्ध होता है जबकि यह बहुत देर बाद पता चलती है कि मूर्ख और गंवार वे नहीं, हम स्वयं हैं| होता यही है कि अच्छी बातें और आदतें बहुत देर से संज्ञान में आती हैं| जब तक हम किसी गंभीर निष्कर्ष पर पहुँचते हैं तब तक बहुत कुछ खो चुके होते हैं|
फेसबुक की दुनिया इसी खोने की यथा-व्यथा से भरी पड़ी है| शाम को बनने वाले मित्र आधी रात को बिछड़ जाते हैं| वर्षों के संचित सम्बन्ध क्षण भर में तहस-नहस हो जाते हैं| बहुत ही हितैषी और आत्मीय सदैव के लिए विरोध के भेंट चढ़ जात हैं| घनिष्ठ से घनिष्ठ मित्र एक-दूसरे को गाली देते मिलें तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए| इधर एक अहम् से हम एकाकीपन के शिकार हो रहे होते हैं तो उधर सामने वाला उसी एकाकिपान से पीड़ित| आभासी दुनिया की बात छोड़ दीजिए, कई बार तो पति-पत्नी तक एक दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोल बैठते हैं| यही मोर्चे आने वाले दिनों में हमारे सम्बन्धों की विश्वसनीयता तय करेंगे| यानि यहाँ तक पहुँच कर हम स्वयं अपने दायरे में नहीं रह गये, स्वयं को बाज़ार के हाथों गिरवी रख लिए|  
कमेन्ट और लाइक की महफ़िल से सजी फेसबुक की दुनिया में आप स्वस्थ मानसिकता के साथ प्रवेश तो करते हैं लेकिन लौटते हैं चिंतित, कुण्ठित और भ्रमित होकर| कितने ही दिन ऐसे होते होंगे जब लड़-झगड़ लेने के बाद आप अपने अनभिज्ञ बच्चे पर खीजते होंगे, परिवार पर झनझनाते होंगे या थक-हार कर बगैर कोई सम्वाद किये किसी से, मौन होकर सो जाते होंगे? यह सोचिए कभी फुर्सत में इस दुनिया से बाहर निकलकर| सोचिए कि पाया आपने कुछ नहीं और खो दिया बहुत कुछ|  
निःसंदेह मोबाइल क्रांति और नवीन सम्वाद-संसाधनों ने हमें वहां लाकर छोड़ा है, जहाँ से न तो हम पीछे मुड़ने के लायक रह गए हैं और न ही तो मौज के साथ आगे जा सकते हैं| हमारी स्थिति वही हो गयी है जो एक बच्चे की किसी भीड़भाड़ भरे इलाके या मेले में गुम होने के बाद होती है| हम मात्र रो सकते हैं| स्वयं को कोस सकते हैं| लानत-मलानत कर सकते हैं खुद का| किसी को इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते| तो अब आगे क्या किया जाए कि इस गंभीर समस्या से कुछ हद तक छुटकारा मिल सके? विचार इस पर भी कर लेना चाहिए|
जैसे कि मैंने कहा कि किसी को दोषी नहीं ठहरा सकते लेकिन अनागत भविष्य के भय से कुछ दोषों से मुक्त रहने और होने का उपाय तो कर ही सकते हैं| यहाँ यह भी नहीं कहा जा सकता कि इन माध्यमों को बंद कर दो या किसी को बंद करने की सलाह दो| किसी भी वस्तु या स्थिति का अनवरत प्रयोग करते हुए जब हम उससे मुक्त होने का उपाय ढूंढते हैं तो उसे तुरंत लागू नहीं कर देते| ऐसा करना जहर लेने के बराबर प्रभाव डालता है|
फिर क्या करेंगे? करना यही है कि इन माध्यमों की मोह-माया से दूर होकर धीरे-धीरे साहित्य की तरफ मुड़ो| कविता, कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, संस्मरण आदि ऐसी बहुत-सी विधाएं हैं जो इसी इन्टरने पर आपका इंतज़ार कर रही हैं| ऑनलाइन फ्री बुक स्टोर से लेकर पुस्तकालय तक आपके एक क्लिक के इंतज़ार में हैं| हिंदी साहित्य की लगभग पत्रिकाएँ थोड़े-मूल्य के साथ आपकी बाट जोह रही हैं| इस फेसबुक का उपयोग अगर करते भी हो तो बहुत थोड़े और सकारात्मक लोगों का साथ ढूंढों| ऐसे लोग, जो सम्वाद में सहज और सरल हों| जिनके यहाँ ठहरने से कुछ मिले| आप सुकून महसूस कर सकें|
आप ब्लॉग की दुनिया से जुड़ सकते हो| यहाँ टांग खिचाई नहीं है| स्वस्थ सम्वाद है| यहाँ कुंठा नहीं है, सृजन है| सम्वाद और सृजन से जुड़ना समृद्ध भविष्य की सम्भावना से भर उठना है| हो सकता है कि कुछ मुद्दे ऐसे निकलकर आएँ जो सोचने के लिए विवश करें...यह भी हो सकता है कि कुछ मुद्दों पर आपकी तीव्र असहमति हो और उसके विरोध में कुछ कहना चाहते हों? ध्यान रहे कि जब ऐसा कुछ होगा तो आपका मन कहीं न कहीं सृजन की तरफ उन्मुख होगा| क्यों? क्योंकि तुरंत पूछने और बताने वाला कोई नहीं होगा वहां पर| जब कोई नहीं होगा तब आप उसे कुछ लिख कर पूछना चाहेंगे| ऐसा चाहना ही सृजन की दुनिया में कदम रखना है|  
घर रहते हुए यह भी एक कोशिश हो सकती है कि परिवार के सदस्यों के साथ सम्वाद करो| खुल कर विमर्श करो| घर में बुजुर्ग हों तो उनसे जुडो और अपनी परंपरा को जानने और समझने का प्रयास करो| आज के समय में उनके साथ से बड़ा कोई दूसरा विद्यालय आप नहीं पायेंगे| इससे दो तरह का एकाकीपन टूटेगा, एक आपका और दूसरा बुजुर्ग माता-पिता या दादा-दादी का| मित्रों के साथ जब भी रहो तो मोबाइल को बंद करके रखने का प्रयास करो| मित्र के साथ चुहलबाजी कर सकते हो| हंसी-मजाक कर सकते हो| बात-विमर्श कर सकते हो| लेकिन यह सब मोबाइल के दूर या मौन रहने पर ही सम्भव है| यह मैं फिर कहना चाहूँगा जितना आनंद सम्वाद में है, मित्रों के संग-साथ में है, माता-पिता और परिवार के संतुलित वातावरण में रहते हुए पारस्परिक व्यवहार में, उतना कहीं अन्यत्र नहीं है|          


Sunday 26 April 2020

साहित्य में श्रेष्ठताबोध के लिए कोई जगह नहीं है


साहित्य क्या है? यह प्रश्न आज भी विमर्श की मांग करता है| यह सही है कि साहित्य वह है जिसमें सबका हित हो...लेकिन हित किसका हो? कैसे हो? किस रूप में हो? इन सभी प्रश्नों के आलोक में साहित्य शब्द का निहितार्थ खोजने की जरूत है| ठीक है कि साहित्यकार समाज हित की बात करता है...समाज में निहित सम्भावनाओं को लोगों के सामने रखता है...लेकिन यह भी तो सही हो सकता है कि साहित्यकार एक तरह से अपने समय और समाज से सम्वाद स्थापित करने की कोशिश करता है? जब बात सम्वाद स्थापित करने की आती है तो क्या सभी के प्रतिनिधित्व को नकारा जा सकता है? जाहिर सी बात है कि नहीं नकारा जा सकता|

साहित्य में अभी-अभी पदार्पण किये युवाओं और उनके पहले की पीढ़ी के साथ बुजुर्ग रचनाकारों की आए दिन टकराव होता रहता है| यह टकराव महज सोशल मीडिया के आने भर से नहीं, उसके पहले से होता रहा है| इस टकराव में जहाँ लोक समृद्ध होता रहता है, भाषा विकसित और सक्षम होती रहती है वहीं कुछ लोग उपेक्षा और दुर्व्यवहार जैसा आरोप मढ़कर भाषा के नष्ट होने और साहित्य-मूल्य के विनष्ट होने की अनर्गल प्रलाप पर उतर आते हैं, यह नहीं होना चाहिए|

इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है साहित्य-समाज के लिए कि जिस टकराव को विचारों का टकराव कहा जाना चाहिए उसे हमारे यहाँ बुजुर्ग और युवा रचनाकारों का टकराव कहा जा रहा है| आशंका यह भी व्यक्त की जा रही है कि युवा लोग बड़े-बुजुर्गों की रचना-दृष्टि की उपेक्षा कर रहे हैं| जो गुजर चुके हैं और जो एकदम वयोवृद्ध हो चुके हैं, उनकी स्थापनाओं को नकार कर अपना नाम ऊंचा करना चाह रहे हैं...| अब ऐसा जो सोच रहा है या कह और समझ रहा है, मेरी नजर में वह बहुत ही भावुक और कमजोर व्यक्तित्व है...इस हद तक कि उसे साहित्यिक सम्वाद और विचार-विमर्श की प्रक्रिया की भी जानकारी नहीं है|  

यह भी कि, वरिष्ठ की वरिष्ठता महज उनके उम्र से हो जाए या मानी जाए तो यह समझ के बाहर है. दूसरी बात रचनाओं का छपना और न छापना एक अलग बात है लेकिन जो आपत्ति उठाई जाए उसका सिर-पैर तो होना चाहिए? अब कोई यह कहे कि नवगीत के विकास में जयशंकर प्रसाद का अभूतपूर्व योगदान है और कहने वाला बुजुर्ग हो तो भला इसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है? कहने को तो बुजुर्ग लोग यह भी कह सकते हैं कि मुंशी प्रेमचंद मैथिलीशरण गुप्त से अच्छी कविताएँ लिखते थे...तो यह क्या इसलिए मान लिया जाए और उस पर वाह-आह किया जाए कि एक बुजुर्ग रचनाकार ने कहा है? पिछले दिनों इसी समर्पणभाव का सहारा लेते हुए एक महाशय ने तुलसीदास को गज़लकार घोषित किया और उनकी विनय पत्रिका को ग़ज़ल विधा की पहली और सर्वश्रेष्ठ कृति बताया...अब बताइये इसे क्या कहा जाए? अब उस वरिष्ठ कहे जाने वाले आलोचक की आरती उतारी जाए या सम्वाद माध्यम में रखकर विमर्श की गुंजाइश तलाशी जाए?

समझना यह पड़ेगा कि साहित्य की दुनिया में किसी भी समय युवाओं का मार्ग आसान नहीं रहा है| उन्हें स्वयं अपना मार्ग बनाना पड़ा है| आज यदि साहित्य में विभिन्न मतों और विचारों की स्वीकृति मिली है तो उसके पीछे युवाओं का संघर्षधर्मी पथ चलने की प्रतिबद्धता है| पथ पर चलते हुए भोगे हुए यथार्थ के दम पर अपनी बात रखने का प्रतिफल है, न कि पूजाभाव से समर्पित हो जाने और उनके इशारों और निर्देशों का कृपापात्र बने रहने से| यदि ऐसा होता तो स्वामी विवेकानंद और राहुल संकृत्यायन जैसे प्रकाण्ड और विद्वान विचारक हमें न मिल पाते|

बड़े और बुजुर्ग रचनाकारों के प्रति हमारा उपेक्षापूर्ण व्यवहार बिलकुल न हो लेकिन यह अपेक्षा होनी चाहिए, उनमें भी वह भाव हो कि कम से कम अनर्गल थोपने वाली स्थिति से बचें...क्या यह सम्भव है? बिलकुल भी नहीं सम्भव है| उनेक आपस श्रेष्ठता का एक घमंड है, अहम् है तो सवाल है कि उस श्रेष्ठता और अहम् को हम लेकर क्यों ढोयें? जिनमें श्रेष्ठताबोध की ग्रंथि नहीं है, जो सम्वाद-प्रिय और उदारचेता हैं उनके प्रति युवाओं का विद्रोह और विरोध की वृत्ति नहीं विकसित हो पाती...क्यों? क्योंकि युवा बुजुर्गों का प्रेम चाहता है, दुत्कार नहीं| जो बुजुर्ग ऐसा कर रहे हैं उनके प्रति आदर और व्यवहार कम नहीं हो जाता| नहीं हुआ कभी|

एक और बात कि दृष्टि और विचार को लेकर प्रश्न उठाना, अपनी बात और जीवन-उपेक्षा को कहीं रखना किसी के प्रति उपेक्षा भाव कैसे हो सकता है? हो भी सकता है लेकिन साहित्य का भाव इन्हीं गलियारे से आगे निकलते हुए कुछ बनने-बनाने की प्रक्रिया में समृद्ध होता है, यह भी तो सही है| इस सही में अगले को निकाल फेंकने का अति उत्साह और कुंठा न शामिल हो तो आखिर गलत क्या है?

फिर साहित्य में यह जरूरी कहाँ है कि जो बुजुर्ग रचनाकार कह दिए वही पत्थर की लकीर है? उसे काटना या उसके विकल्प में कुछ रखना गलत है? यदि ऐसा होता तो साहित्य भी वंशवाद का अमरबेल होता, जिस पर प्रश्न उठाना और अपना मत रखना भी विरोध और उपेक्षा होता की हद पार करना होता...ठीक उसी तरह जैसे आज कांग्रेस पर प्रश्न उठाना राहुल या सोनिया जी को गाली देना है...कांग्रेस के बलिदान और योगदान को नकारना है (लोग मानते हैं).

साहित्य में श्रेष्ठताबोध के लिए कोई जगह नहीं है| जो जगह है वह सम्वाद के लिए है. जो सम्वाद करता है वह बना रहता है और जो अक्षम हो जाता है वह किनारे लग जाता है| इसीलिए उम्र भले अधिक हो जाए, लेखक, कवि और साहित्यकार (जो भी जिस रूप में हो) हर समय युवा रहता है/ कहलाता है|


Sunday 19 April 2020

दलित साहित्यकारों ने अन्य जातियों के दुःख-दर्द को कितना लिखा?


1.
निराला ने तुलसीदास लिखा राम की शक्ति पूजा लिखा, वे सांप्रदायिक थे, जातिवादी थे| प्रेमचंद सामंतों के मुशी थे| द्विवेदी लोग अपने वर्ग को आगे बढाए| ब्राह्मणों और क्षत्रियों को आगे ले आए| नामवर सिंह और काशीनाथ सिंह की जगह कोई दलित और ओबीसी भी हो सकता था, यह उन्होंने नहीं किया| शुक्ल ने ब्राह्मणों को ही आगे बढ़ाया, सर्वविदित है| परशुराम चतुर्वेदी, रामस्वरूप चतुर्वेदी, जगदीश्वर चतुर्वेदी ये सब हिंदी साहित्य में महज जातिवाद के जरिये आए|

नामवर सिंह भी कुछ ऐसा ही किये| हर समय सवर्णों को लेकर आए| ब्राह्मणों और क्षत्रियों को उन्होंने विभागों में लगवाया| जो विमर्श किये वह सब सवर्ण मानसिकता के तहत किये| आपकी वैचारिकी सहानुभूति का बहाना खोज ही ली है तो ये सभी उसके पैरोकार रहे हैं| इन सभी को पकडिये|

प्रसाद जैसा सांप्रदायिक तो कोई हो ही नहीं सकता| उन्होंने चाणक्य को सर्वश्रेष्ठ बनाया, जबकि वे चाहते तो मरवाकर कहीं फेंकवा सकते थे|  मैथिलीशरण गुप्त भी सांप्रदायिक थे| वे हिन्दू सम्बोधित करके लिखते थे| वंदा वैरागी मुस्लिमों के प्रति आक्रामक थे| गुरुकुल के नाम से सीधा सनातनी धर्म को आगे बढ़ाया| इन सभी कवियों और लेखकों को कठघरे में खड़ा किया जाए, यह अवसर है| अच्छा अवसर है| नागार्जुन को भी कटघरे में लीजिए वे सिर्फ हरिजन के लिए लिखते थे, दलितों के लिए नहीं|

शिवमंगल सिंह सुमन, रामविलाश शर्मा जैसे लोग भी कुछ नहीं किये| रामधारी सिंह दिनकर ने जातिवादी गेम खेला और बाद में राष्ट्रकवि भी बन गये| सर्वेश्वर दयाल सक्सेना वगैरह की स्थिति पता ही है आप सभी को| इन सभी को पकडिये|

इन सभी को कठघरे में लेते हुए बस एक प्रश्न जरूर पूछना| अभी तक जितने दलित लेखक, कवि, सम्पादक, प्राध्यापक आदि हुए हैं उन सबने अन्य जातियों के दुःख-दर्द को कितना लिखा? यह प्रश्न जब आप पूछेंगे, जातिवाद से लेकर सम्प्रदायवाद तक का उत्तर मिल जाएगा|
2.
मुझे लगता था कि दलित साहित्य के लगभग हस्ताक्षर अब प्रौढ़ हो गए हैं| कुछ स्वस्थ चिंतन और विमर्श निकलकर सामने आएगा| लेकिन भूल गया था कि अभी भी सीख रहे हैं| अभी भी अपने घेरे में कैद होकर गाली-धर्म का निर्वहन कर रहे हैं| ऐसा नहीं होना चाहिए| कुछ गंभीरता लाई जानी चाहिए|

सिर्फ शोर करने और गाली देने भर से साहित्यधर्म का निर्वहन नहीं किया जा सकता| जैसे आज आप शुक्ल आदि से प्रश्न कर रहे हैं, आने वाला समय आपसे भी पूछेगा कि सामाजिक सद्भाव और समानता के लिए आपने क्या किया? क्या बताएंगे? यही कि जी भर कर दूसरी जातियों के लोगों को गाली दिया...सोचिए| स्वयं जवाबदेह बनिए हो सके तो| किसी अन्य को कब तक अपनी गति-दुर्गति के लिए जिम्मेदार बताते रहोगे? खुद भी किसी के उद्धारक बनिये प्रभुओं!

ब्राह्मणवाद से मुक्ति के लिए ब्राह्मणों का सामूहिक नरसंहार कराया जाए


1.
ब्राह्मणों का जितना विरोध हिंदी साहित्य-जगत में हुआ उतना किसी भी क्षेत्र में क्या हुआ होगा? यह अलग बात है कि ब्राह्मणों ने हर चुनौती को आसानी से झेला ही नहीं अपितु पूरी गंभीरता से उसका जवाब भी दिया| यह दौर फिर से उसे तोड़ने और मटियामेट करने का दौर है| किसी भी रूप में लांछित करने और उपेक्षित करने का दौर है| बावजूद इसके वह उगता आया| बनता आया और विकसित होता आया|
क्षत्रियों के संगठित विरोध को राजनीति से लेकर साहित्य तक ब्राह्मणों ने खूब झेला| इतना कि, उसकी कोई सीमा नहीं है| आज भी ये षड्यंत्र बिछाए जाते हैं, क्यों? यह एक विमर्श का विषय तो है ही| सर्वविदित है कि जितनी भी लडाइयां हुईं हैं उनमें ब्राह्मणों के स्थान पर क्षत्रियों का सीधा हस्तक्षेप रहा| समाज में जमीदरी प्रथा अधिकांश क्षत्रियों ने सम्भाली| जो भी अत्याचार और शोषण हुए उसके सीधे कारण क्षत्रिय रहे लेकिन मंदिर आदि मसले का सहारा लेकर उसे ब्राह्मणों पर कन्वर्ट कर दिया गया|
इस सच को आज कोई स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि ब्राह्मणों ने हर समय जन-सामान्य की रक्षा-सुरक्षा को प्राथमिकता दिया है| उसके पास शासन और सत्ता नहीं था, यह भी स्पष्ट है| छोटी जातियों से लेकर अन्य तबकों को एकबारगी ब्राह्मणों के प्रति भडकाया गया जिसे बड़ी गम्भीरता से उन्होंने झेला| ब्राह्मणों के प्रति दूधनाथ सिंह, उनके चेले-चपाटी से लेकर उदय प्रकाश तक की घटिया और विक्षिप्त मनसिकता वाली राजनीति साहित्य में किसे नहीं पता है?
उदय प्रकाश की कहानी “पीली छतरी वाली लडकी” आज भी उनकी पशुवृत्ति को दर्शाती है| ब्राह्मण विरोध की जिस कुकुर-मानसिकता से उन्होंने परोसा चाहते तो बहुत से ब्राह्मण उस तरह का जवाब दे सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया| क्यों? क्योंकि उन्हें विरोध को सहना आता है|
2.
ब्राह्मणों ने हर समय अत्याचार किया है अन्य जातियों पर| आज भी यह अत्याचार रुका नहीं है| द्विवेदी, शुक्ल, पाठक, दीक्षित, मिश्रा, तिवारी, पाण्डेय, चौबे, चतुर्वेदी, त्रिवेदी, शर्मा आदि ये जितने भी हैं सभी प्रकार के वैमनस्यता के कारण हैं| ये न होते तो दुनिया खूबसूरत होती| विभाजनकारी मानसिकता की शुरुआत इन्हीं से होती है| ये धरती पर रहें अब ऐसा नहीं होना चाहिए|
ब्राह्मण विद्वान हो, कवि हो, आलोचक हो यह तो बिलकुल नहीं होना चाहिए| उनके नाम का गुणगान हो यह तो और भी नहीं होना चाहिए| हमारे समय के जागरूक लोगों द्वारा उन्हें रोकना होगा| वे जम न पायें इसलिए उनकी जड़ों को काटना होगा| आरक्षण के विष-बेल को और अधिक धार दिया जाए| राजनीति में नरसंहार को और प्राथमिकता से लाया जाए|

वे फिर भी न मानें तो सामूहिक नरसंहार किया जाए उनका| जितनी जल्दी हो सके इस धरती से रुखसत किया जाए उनको| उनके द्वारा लिखे गये साहित्य को जलवाया जाए| कूड़े में फेंका जाए| नगर पालिका से कहकर उठवा लिया जाए| यह सब हो और जल्दी हो|

भारत से जातिवाद को खत्म करना है| साम्यवाद को लाना है| लाल सलाम को प्रतिष्ठापित करना है| बाबू साहबों की ठकुरसोहाती करनी है| यह सब तभी होगा जब ब्राह्मण नहीं होंगे| यदि वे रहते हैं तो ये प्रयास कैसे सफल होंगे? इसलिए जागो वीरों सदियों से जो काम कोई न कर पाया वह अब तुम कर डालो|
3.
यदि यह सब न हो तो प्यारे बच्चों ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद को कोसने से बाज आओ| कुछ काम करो जिससे कि देश और समाज का हित हो| यह भी पता है कि ब्राह्मणों का रत्ती भर कुछ नहीं बिगाड़ सकते, लाख चाहने के बावजूद भी| वे अभाव के सागर में जन्म तो लेते हैं लेकिन स्वभाव उनका समृद्धि का है| स्वयं होते हैं और दूसरों को भी करते हैं| वे पूरे परिवेश को सुंदर देखना चाहते हैं, चाहते रहे हैं और चाहते रहेंगे|


Saturday 18 April 2020

रोमानियत यहाँ की खूबसूरती है तो रंग-मिजाजी प्रवृत्ति


चण्डीगढ़ में आकर्षण है| यह शहर एक ऐसा शहर है जो हर समय जवान दिखाई देता है| रोमानियत यहाँ की खूबसूरती है तो रंग-मिजाजी प्रवृत्ति| एक बार आप किसी सेक्टर से गुजरिये तो बार-बार गुजरने का मन करने लगता है| हर सेक्टर का अपना बाज़ार है और हर सेक्टर की अपनी नीति| राजनीति तो खैर अंदरखाने हर हृदय में मौजूद दिखाई देगी यहाँ| एक बार गिरफ्त में आए तो तभी छूटेंगे, जब या तो लुट चुके होंगे या टूट चुके होंगे|
इस शहर की सड़कें खूबसूरत हैं| आपके कदम दो पग चले नहीं कि पूरा रास्ता पैदल ही तय कर लेना चाहेंगे| सड़कों के दोनों तरफ घने और छायादार वृक्ष सुन्दर बयार के झोंके देते रहते हैं| मदमस्त कर देने वाली ख़ूबसूरती यहाँ के रग-रग में बसी हुई है| सड़कों से लेकर बाज़ार तक का सफ़र किसी अजूबे से कम नहीं है|
कैब की व्यवस्था हर शहर से सस्ती है| ऊबर है तो ओला भी है| इनके द्वारा दिए जाने वाले ऑफर अक्सर यात्रा करने के लिए विवश करते रहते हैं| मजे की बात यह है कि इस विवशता में आप हताश न होकर, गर्व महसूस करते रहते हैं| हलांकि इस गर्व में ठगे जाने का भाव स्थाई रहता है| इतना, कि जेब में रखे गए पैसे कब खर्च हो गए, यह घर जाने के बाद ही पता चलता है|
बसों की व्यवस्था अच्छी है इस शहर में, बावजूद इसके यहाँ रिक्शा, ई-रिक्शा और ऑटो रिक्शा तीनों की उपलब्धता बड़ी मात्रा में है| रिक्शा वाले देखने में गरीब हैं लेकिन हैसियत किसी से कम नहीं है| जितना एक बार बोल दिए उससे सस्ते में जाना इन्हें बिलकुल पसंद नहीं| ऑटो रिक्शा वालों की अपनी नीति और राजनीति है| बाहर से आने वाले लोग यदि इनके बाज़ार-भाव में उलझे तो यह भयानक अनुभव हो सकता है| इसलिए जब भी आएं तो बसों से यात्रा करने का प्लान बनाएं, यह कहीं ज्यादा उचित होगा| 
यह शहर स्वभावतः व्यावहारिक है| अमीर हो कि गरीब सबके लिए यहाँ पूरा स्पेस है| गरीबों के लिए जहाँ सेल लगते हैं तो अमीरों के लिए शोरूम बने हुए हैं| यह बात और है कि अक्सर अमीरों को सेल लगे दुकानों पर सस्ते सामान खोजते देखा जा सकता है और गरीबों को शोरूमों पर मोल-भाव करते हुए| हालांकि यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कम दाम में सब्जियों और फलों को देखते हुए कई बार अमीर लोग सड़े-गले भी खरीद लेते हैं|
जब मैं मण्डियों की बात कर रहा हूँ तो हर तरह की मंडियां यहाँ सजती हैं| साजो-सामान से लेकर जिस्म-बाज़ार तक के अलग-अलग अड्डे हैं| तैंतालीस बस अड्डे पर उतरें या सत्रह बस अड्डे पर जिस्म के दलाल आपको मिलना शुरू हो जाएंगे| लगभग 80 प्रतिशत ऑटो और रिक्शा वाले इस बाज़ार में सक्रिय हैं| सस्ते से सस्ते रूम की उपलब्धता के बाद सबसे अधिक आकर्षण स्त्रियों की उपलब्धता पर दी जाती है|
कभी भी ऑटो वाले आपसे सम्वाद करते नजर आएं तो यह जरूर पूछें उनसे कि-सुविधा क्या होगी...? वे सुविधाओं की गिनती में या तो इशारे करेंगे प्रतीकों में या फिर सरेआम बताएंगे| उनके बताने में आत्मविश्वास होता है| इतना, कि आप फंस भी सकते हैं और निकल भी सकते हैं| निकलने के कम फंसने के अवसर अधिक होते हैं|
यह शहर भौतिक रूप से जितना सक्षम और ऐश्वर्यपूर्ण है सांस्कृतिक दृष्टि से उतना ही गिरा हुआ| इस शहर में रहने वाले लोग अक्सर संस्कृति का नाम सुनते ही भड़क जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं है| विलासिता में डूबे लोगों के लिए संस्कृति शब्द-मात्र ऐसे जहर के समान है जिसका नाम सुनते ही लोग आपसे दूरी बनाने लगते हैं|
यह दूरी मानसिकता की दूरी हो सकती है, सुख-सम्पन्नता का प्रदर्शन भी| ऐसा भी नहीं है कि लोग चिंतित नहीं हैं ऐसे परिवेश की भयावहता से लेकिन बाज़ार संस्कृति ने उन्हें भी दिग्भ्रमित कर रखा है| जब तक वे बचने की कोशिश में रहते हैं बाज़ार का नया कोना उनके इंतज़ार में खड़ा होता है|
साहित्य की बात क्या करें? एक से एक महारथी हैं यहाँ पर| सब महारथियों के कुछ रथी हैं और कुछ सारथी| रथियों और सारथियों के सहारे किसी तरह रणक्षेत्र में उपस्थिति बनी हुई है| रणक्षेत्र का नाम सुनकर आपको आश्चर्य हो सकता है, लेकिन सही मानिए तो यहाँ के अधिकांश साहित्यकार स्वयं को योद्धा मानते हैं| कार्यक्रमों के आयोजन से लेकर अपनों के आमंत्रण तक युद्धस्तर पर सक्रिय रहते हैं| इनकी सक्रियता से ही हिंदी साहित्य की दुनिया गुल-ए-गुलजार रहती है|    
इस शहर में साहित्यिक संस्थाओं का बनना-बिगड़ना कोई बड़ी बात नहीं है| किसी चौराहे पर सब्जी की दुकान खोलना और चंडीगढ़ में साहित्य-संस्था का निर्माण करना, कभी-कभी मुझे दोनों एक जैसे लगते हैं| फर्क बस यही है कि सब्जी की दुकानों से जहाँ लोगों को सुविधाएँ मिलती हैं वहीं साहित्य-संस्थाओं के निर्माण से वैमनस्य बढ़ता है|
मुझे पता है ‘वैमनस्य’ शब्द आपको अच्छा नहीं लगेगा| यहाँ कुछ दिन रहिये| चुपचाप आयोजनों में जाना शुरू कीजिए| कुछ मिले या न मिले यह जरूर देखेंगे कि एक संस्था के लोग दूसरे लोगों को देखना नहीं चाहते| आप एक से जुड़ते हैं दूसरा निकाल देता है| आप एक के साथ चलते हैं दूसरा आपको बदनाम करने लगता है|
आयोजनों का कोई स्तर होता है...यह तो खैर आज के समय में कोई मुद्दा ही नहीं रह गया है| ‘तू मुझे सुना मैं तुझे सुनाऊँ अपनी प्रेम कहानी’ वाली स्थिति है| कविता के नाम पर प्रेमी नायक और नायिकाओं की तरह चुटकुलेबाजी करना एक शगल है यहाँ की| विमर्श के नाम गंभीरता इतनी है कि कोई ठोस मुद्दे रख दो तो कहेंगे “हम तो सीख रहे हैं भैया इतनी माथापच्ची कौन करे|”
विभिन्न अखबारों, समाचार-पत्रों, रेडियो, दूरदर्शन के मंचों पर बोलने वाले कितने ही बड़े रचनाकार यहाँ हैं जिन्हें वर्तामान समय में निकलने वाली पत्रिकाओं की छोटी संख्या भी मालूम नहीं है| आपको लग रहा है कि मैं कुछ अधिक बोल रहा हूँ लेकिन सच यही है कि कौन-सा विमर्श, कौन-से मुद्दे वर्तमान साहित्य की दुनिया में चल रहे हैं, नहीं पता है यहाँ के बहुत-से बड़े रचनाकारों को|
यहाँ मंच-माला और पद के बड़े लोभी हैं| अध्यक्ष और मुख्य अतिथि बनने और बनाने की भी गज़ब रवायत है यहाँ| स्वयं ही आयोजक और स्वयं ही अध्यक्ष होने की उत्कंठा हास्यास्पद नहीं लगती आपको? स्वयं संयोजक और स्वयं ही मुख्य-अतिथि होने की लोभी-प्रवृत्ति असमंजस में नहीं डालती आपको? हो सकता है, लेकिन किसी भी ‘सही’ साहित्यकार को ये प्रवृत्तियाँ विचलित जरूर करती हैं| विचलन और फिसलन की स्थिति पर सवार यहाँ का साहित्यिक परिवेश कैसा होगा यह तो समय बताएगा, वर्तमान दुखद है, यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है|  

Thursday 16 April 2020

दो लघुकथा : 1. आलोचक ऐसे भी होते हैं 2. देवि नहीं हो पर सुंदर हो

आलोचक ऐसे भी होते हैं

विवेक कुछ पढ़ रहा था| कहीं गहरे में खोया हुआ था| रह-रह कर झुंझला भी रहा था शायद किसी किताब में कुछ खोज रहा था| श्वेता मोबाइल चलाते हुए मुस्करा रही थी| वह मुस्कराए जा रही थी अपनी गति में और विवेक उसे देखते हुए गुस्साए जा रहा था| श्वेता जोर से हँसी तो विवेक अधिक गुस्सा गया| “क्या हँस रही हो श्वेता..,दिखाई नहीं दे रहा है कब से परेशान हूँ मैं कविता को समझने में...तुम हो कि हँसे जा रही हो...हद है|” वह अपनी गुस्सा उतारते हुए बोला|
“हद तो भाई तुम जैसे आलोचकों की है| पता नहीं कविता समझ रहे हो या कविताओं को” श्वेता इतना कहते हुए खिलखिलाकर हंस पड़ी|
“क्या...आलोचकों के बारे में ऐसा कहते हुए कुछ तो शर्म आनी चाहिए| एक तो हम बिचारे इतना मेहनत करते हैं, तुम जैसे कवियों कवयित्रियों को प्रकाश में लाते हैं... दूसरे ये लांछन...तुम औरतों की यही आदतें मुझे बुरी लगती है” विवेक गुस्से में ही बोल पड़ा|
अब श्वेता हँसना भूल गयी थी| मुस्कराने की वह अदा गायब हो चुकी थी| भौं चढाते हुए उसने विवेक से कहा “देखो विवेक! हम औरतें इतनी भी गयी-गुजरी नहीं हैं कि तुम जैसे आलोचक प्रकाश में लाओ तो आएं| तुम जैसे आलोचकों की जिस्म-लोलुपता किसी से छिपी नहीं है| यह लांछन नहीं है| हकीकत है|”
“क्या हकीकत है? स्त्रियाँ खुद ही अप्रोच करती हैं| समीक्षा और आलोचना की भूख में बिछने के लिए तैयार रहती हैं|” प्रतिउत्तर में विवेक ने भी भौं चढ़ाकर बोला|
विवेक के प्रतिउत्तर को श्वेता झेल नहीं सकी| वह तिलमिलाती हुई बोली-“बस विवेक! बस! इससे अधिक बोलने की कोशिश मत करना| तुम सुनी-सुनाई बात कर रहे होगे मेरे पास तो प्रमाण हैं|”
“कैसा प्रमाण है तुम्हारे पास श्वेता? ज़रा मैं भी तो देखूं” टेस में आकर विवेक बोला|
“आओ इधर दिखाती हूँ| तुम्हारे समय के जितने भी बड़े आलोचक हैं उनमें से लगभग मुझसे चैट कर रहे हैं| देखो और पढो| कौन कितना बिछ रहा है...यह भी न देख सको तो कम से कम समझने की कोशिश तो करो|”
“तुम्हारी कविता में जो कहन है वह वाकई सबसे अलग करती है तुम्हें....बिम्बों का चयन गज़ब का है तुम्हारा श्वेता, चन्द्रमा में चकोर वाह...श्वेता मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि तुम्हारी कविता के आगे बड़ी से बड़ी कवयित्री पानी भरें...जितनी सुंदर तुम हो उतनी ही सुंदर कविता...भाई सौंदर्य और सुन्दरता का असर तो अभिव्यक्ति पर पड़ता ही है...इस बार तुम हमारे प्रोग्राम में जरूर आना...कविता नहीं सुन्दरता है आजकल साहित्य का पैमाना और वह है तुम्हारे अन्दर श्वेता” विवेक एक-एक कमेन्ट पढ़ रहा है और अपने बाल पकड़कर नोचे जा रहा है| बहुत-ही कमजोर रचना पर ऐसी प्रतिक्रिया और वह भी कद्दावर आलोचकों की, विवेक हैरान था....|
श्वेता विवेक की मनःस्थिति को समझते हुए बोली-“देखा विवेक! ये हैं तुम्हारे समय के आलोचक...कैसे बिछ रहे हैं...औरतें जो चाहें इनसे करवा सकती हैं...इन सबों ने मुझे अभी तक देखा नहीं है, लेकिन जिस तरीके से मर रहे हैं, जैसे मेरे सबसे अन्तरंग यही हों...अब मत कहना कि स्त्रियाँ ऐसी ही होती हैं...मिस्टर पुरुष... ऐसे ...ही ...होते ...हैं...” वह बोले जा रही थी और विवेक शर्म और लज्जा से नीचे की जमीन कुरेंद रहा था क्योंकि अनाम आईडी से कमेन्ट करने वालों में वह स्वयं एक था|


देवि नहीं हो पर सुंदर हो


"क्या पढ़ते रहते हो हर समय?" सुनीता नाक भौं सिकोड़ते हुए बोली, उसके स्वभाव में जिज्ञासा से कहीं अधिक अहम् दिखाई दे रहा था|
"कुछ नहीं बस यही एक समीक्षा लिखाना था तो सोचा कुछ पढ़ लूँ..." अपनी थकावट को लम्बी साँसों में दूर फेंकते अमितेश धीरे से बोला|
"बताइये भला पढ़कर भी कोई समीक्षा लिखता है क्या?" उसी मुद्रा में और इस बार उसके होंठ ऐसा लग रहा था जैसे अमितेश को चिढ़ा रहे हों...| कुछ हैरान होते हुए अमितेश बोला "नहीं तो बिना पढ़े कैसे लिखेगा? कौन पढ़ेगा इसे?"
"मैनें आज तक कोई भी किताब पूरी नहीं पढ़ी फिर भी देखो जो कुछ लिख देती हूँ, लोग आह-वाह किये बिना रह नहीं पाते...सीखो कुछ..." कहकर ऐसी इठलाई सुनीता कि अमितेश ईर्ष्या भरी निगाहों से देखने लगा..."सही है ईश्वर ने मुझे वह गुण नहीं दिया जो तुम पाई हो..." कहकर वह फिर पढने लगता है|
क्या बात कर रहे हो...! जैसे मैं इंसान नहीं कोई देवी हूँ..." कुछ गर्व भरे अंदाज में वह बोल उठी....
अमितेश ने धीमे स्वर में लेकिन बड़ी आत्मविश्वास से कहा "देवि भले नहीं हो सुनीता...सुन्दर हो...इसमें कोई शक नहीं है|"

Tuesday 14 April 2020

स्त्रियों की व्यथा-कथा से वास्ता है कवि का (मदन कश्यप की कविताओं से गुजरते हुए)



मदन कश्यप उन गिने-चुने कवियों में हैं जिनकी गिनती कविता की समकालीनता में न की जाए तो समकालीन कविता पर चर्चा करना अधूरा रहेगा| जिन विषयों से हमारा परिवेश गहरे में सम्बद्ध है, जिन प्रश्नों से टकराने और जिन मूल्यों को बचाए रखने में रचनाकार सक्रिय और सतर्क हैं, वह सब मदन कश्यप के यहाँ जरूरी भूमिका में चिह्नित हैं| उनके कविता-संसार से गुजरते हुए यदि हम देखें तो स्त्री-संसार के वे सभी अनछुए पहलू सिद्दत से वर्तमान हैं, जिन पर या तो कम बात की गयी है और यदि की भी गयी है तो कहीं क्रांति की पराकाष्ठा है तो कहीं आदर्शों की अनुर्वर खेती| कहीं स्त्रियों को इतना अधिक शक्तिदायिनी बना दिया गया है कि कहीं भी उसका मूल रूप नहीं रह जाता और कहीं सौन्दर्य की ऐसी मूर्ति में परिवर्तित कर दिया गया है कि भारतीय परिवेश में स्त्री की क्या स्थिति है, हम भूलने लगते हैं| जैसा परिवेश में स्त्रियाँ हैं और उसी परिवेश से ली गयी स्त्री-सम्वेदना का यथार्थ जिस रूप में यहाँ है अन्यत्र वैसा दिखाई दे, कुछ संदेह होता है|
मदन कश्यप स्त्री की कंचन और कामिनी रूप के आग्रही नहीं हैं| वे उसे स्वप्नों की मालकिन बनाते हुए इन्द्र की  परी तो बिलकुल नहीं बनाते| देवी रूप में भी देखने के अभ्यस्त नहीं हो पाए स्त्री को| विज्ञापन युग में चेहरे की अतिश्योक्तिपूर्ण उपमानों का चयन नहीं होता है उनसे तो इसका सीधा-सा अर्थ यही हुआ कि वे मनुष्य-रूप में ही देखने के अभिलाषी हैं| कवि जानता है कि मनुष्य को यदि मनुष्य समझा गया तो उसके अस्तित्व के लिए यह बड़ी बात है| देवत्व के आवरण में जीते-जागते मनुष्य को पत्थर बना देने की तरतीबें विकसित की जा सकती हैं, मनुष्यत्व तो आदमी और आदमीयत को जिन्दा रखने में है|
हिंदी कविता में स्त्री-सौंदर्य पर बहुत बात हुई है| दुःख पर कम| क्या स्त्रियों का कोई दुःख नहीं होता? क्या वह हर समय सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति बनी रहती हैं या रह सकती हैं? आँखों से गिरते आँसू भी उन्हें मादक बनाते हैं ऐसा विधान साहित्य में मिले तो अचरज नहीं है| यह भी एक विधान है पुरुष सौन्दर्य-दृष्टि में कि स्त्रियाँ जितना तड़पेंगी सुख की अनुभूति उतनी ही अधिक होगी| अब यह हकीकत तो नहीं हो सकता| इसे क्रूर मानसिकता और विलासी प्रवृत्ति का वहशीपन जरूर समझा जाना चाहिए|
भेड़ियों की नजर में ‘सत्रह साल’ की लड़की एक मनुष्य नहीं है ‘माल’ है| खेलने-छेड़ने और मनमाफिक आनंद उठाने की वस्तु भर| वस्तु को भी निर्दयता से मरोड़ते या तोड़ते हुए सहृदय में पीड़ा का संचार करता है लेकिन “वे मज़े के लिए उसके अंगों को मरोड़ रहे थे/ मज़े के लिए उसके कपडे फाड़ रहे थे/ मज़े के लिए उसे जलती सिगरेट से दाग रहे थे/ उन्हें बेहद मज़ा आ रहा था/ तमाशबीनों को अचरज हो रहा था/ कि वह एक जीवधारी की तरह चीख रही थी/ बचाने के लिए गुहार लगा रही थी/ जबकि उनकी निगाह में वह सिर्फ एक माल थी सत्रह साल की!”[1] यह कवि बता नहीं रहा है स्त्रियों की जो छवि हमारे मस्तिष्क में है वही वह यथार्थ रूप में दिखा रहा है|
यह दिखाना महज दिखाना भर नहीं है कि देखो और भूल जाओ बल्कि निर्भया से लेकर आसिफ़ा, प्रियंका, नोयडा कांड तक की घटनाओं का जो समाजीकरण हमारे परिवेश में रिवाज के रूप में बनता जा रहा है, याद दिलाना है| वह याद दिलाता है कि स्त्रियाँ वस्तु नहीं मनुष्य हैं| उनके मनुष्य होने का दुःख पुरुषों के पुरुषत्व के क्षीण होने से कहीं अधिक भयावह और रोंगटे खड़ा करने वाला दुःख है| ‘निठारी : एक अधूरी कविता’ और ‘निठारी की बच्ची’ इन दो कविताओं में इस दुःख को जितनी स्पष्टता के चिह्नित करने का प्रयास किया गया है कवि द्वारा वह हमें विस्मित करता है|
ऐसा भी दृश्य हो सकता है? व्यापार ऐसा भी कोई करता है? पढ़ते हुए तो आँखों से लहू टपकते हैं और जब आप उस पर सोचते हैं तो जी करता है नरभक्षियों एक साथ समाप्त कर दिया जाए तो गलत न होगा| इसे भाउकता तो बिलकुल न समझा जाए क्योंकि यह हद दर्जे की क्रूरता थी| “पहले कुछ बड़ी लड़कियां थीं/ जो रोयीं-चिल्लाईं/ लेकिन दहशत और दरिंदगी का वह विकराल रूप नहीं दिखा/ जो देखना चाहते थे उन्मत्त सौदागर/...खेल में और अधिक और अधिक/ मज़ा लेने के लिए/ धीरे-धीरे लड़कियों की उम्र घटाई गयी/ फिर चार-छः साल की बच्चियों को शिकार बनाया गया|”[2] शिकार बनी ये बच्चियां रोती थीं तो उन्हें आनंद आता था| आनन्द की यह अनुभूति क्या मानवीय कही जा सकती है? क्या इनकी चीखों-चिल्लाहटों का कोई असर नहीं पड़ता था उन पर?
कवि जानना चाहता है कि “आखिर क्या कसूर था उन लड़कियों का/ यही न कि वे गरीब थीं/ रेहड़ी लगाने वालों/ और चौका-बर्तन करने वालियों की बेटियां थीं?”[3] दिन भर मांगने-खाने में व्यस्त रहने वाली इन लड़कियों के लिए सरकार की कोई स्कीम क्यों नहीं काम आई? क्यों नहीं मार्किट में इनकी योग्यता का कोई कार्य निकलकर आया? ये प्रश्न हैं जिनसे हर व्यक्ति आज तक जूझ रहा है| कवि स्वयं जूझता है तो उत्तर जो मिलता है वह और अधिक भयावह है “बाज़ार और सरकार की नज़र में/ कोई कीमत नहीं थी उनकी/ पर मरते ही बेशकीमती हो जाती थीं/ आँखें, जिगर टिसू मज्जा/ कितना कुछ होता था बेचने को”[4] लोग बेचते थे और वह बिक भी जाती थीं? खरीद भी लेते थे लोग? कैसे लोग हैं जो बेचते हैं और कैसे लोग हैं जो खरीदते हैं?
यह सब उस देश में हो रहा है जो लड़कियों को देवी के रूप में मान्यता देता है और वह भी गरीबों के साथ जिस पर कि सारी योजनाएं आधारित हैं सरकार की? तो क्या गरीब होना इतना बड़ा अपराध है? क्या मजदूरों और रेहड़ी वालों की सन्तान होना इतना बड़ा अभिशाप है? इस पर न तो सरकार कुछ बोलने के लिए राजी है और न ही मीडिया, इसलिए भी क्योंकि “गरीबों की बेटियों का लापता होना/ कोई खबर नहीं बन पाती है/ क्योंकि वहां दिखाने लायक कुछ नहीं होता/ रोती-बिलखती निर्धन माताओं की/ न तो ऑंखें कटीली हैं/ न ही छातियाँ उठी हुई/ जहाँ टिक सके कैमरा|”[5] कैमरे की नियति और सरकारों की मंशा अब इससे अधिक और क्या स्पष्ट होगी?
कहाँ तो दिन भर अभिनेत्रियों नयन-नक्श को दिखाते नहीं थकते, कहाँ तो अजय देवगन की बेटी और शाहरूख खान की बेटी के नखरे मीडिया के विमर्श और मुद्दे बनाए जाते हैं और कहाँ ये गम्भीर समस्याएँ? यह भी तो एक सच है कि इनका जन्म इसलिए नहीं हुआ है कि मनुष्य होने की स्वाभाविक प्रक्रिया है, इसलिए हुआ है कि इन्हें बाज़ार की वस्तु बनाकर मोटी रकम कमाई जा सके| पोर्न इंडस्ट्रीज से लेकर सेक्स रैकेट तक इन्हीं के दम पर चल रहे हैं| मीडिया से लेकर सरकारी कारिंदे तक यहाँ के नफे-नुक्सान की प्रक्रिया से जुड़े हुए हैं| कोई क्यों चाहेगा चलते-फिरते व्यापार को बंद करवाना?
कविगण और बुद्धिजीवी वर्ग कविता में क्रांति और कलावाद और यथार्थ अभिव्यक्ति पर चर्चा में व्यस्त हैं, उन्हें इन घटित समस्याओं से क्या लेना-देना भला? ये विषय नाम-इनाम तो नहीं दिला सकते| ये विषय सत्ता की कुर्सी भी कहाँ दिला सकते हैं? इन विषयों पर चुप रहना जरूर मुनाफे का सौदा हो सकता है| चुप रहने मात्र से आप नाम-इनाम पा सकते हैं| मंत्री-संतरी बनाए जा सकते हैं| बड़े आदमियों में गिनती हो सकती है| मंत्रियों से लेकर विधायकों और सांसदों तक को इस व्यापार क हिस्सा होते देखा गया है| तभी तो-
“जब कविगण लिख रहे थे बहुआयामी कविताएँ
कर रहे थे शिल्प में बदलाव की जरूरत पर बहस
बुद्धिजीवी चिंतित हो रहे थे/ इराक़ में अमेरिकी फौजों की बर्बरता से
और चर्चा कर रहे थे पाकिस्तान में लोकतंत्र की वापसी की सम्भावनाओं पर
जनतंत्र के रणनीतिकार/ उचक-उचक कर देख रहे थे कश्मीर को
उसी समय राजधानी के घुटने के पास/ घटित हो रहा था निठारी|”[6]  
हम वैश्विक चिंताओं से दबे जा रहे थे, परेशां थे और मरे जा रहे थे, इधर गरीब लड़कियां निरपराध मारी जा रही थीं| नोची और खसोटी जा रहीं थीं| इनका सिसकना, रोना, चिल्लाना, तडपना हमारे लिए असह्य हो सकता है उनके लिए कैसे होगा जो जिस्म-बाज़ार के हिस्सा हैं? जिस्म बाज़ार का तो ये कड़वा सच है कि किसी की हंसी बिकती है तो किसी के आँसू| बाज़ारू-हिस्से की इस सच्चाई से कवि रू-ब-रू होते हुए पश्चिमी स्भ्यता के सूरमाओं को भी धिक्कारता है तो लगता है कि यह सब पश्चिमी देशों से कहीं अधिक हमारे यहाँ की विशेषता बनती जा रही है-“डब्ल्यू डब्ल्यू ऍफ़’ की नकली लड़ाइयों/ और कालगर्ल की ब्लू फिल्मों से ऊबे हुए/ पश्चिम के महान सभ्य लोग/ अब सच्चा खून और सच्ची दहशत देखना चाहते हैं/ वहशीपन का वह खेल जो हिंस्र पशुओं को शर्मिंदा कर दे|”[7]
बाज़ार और वहशियों की दरिंदगी की शिकार ‘निठारी की बच्ची’ में ऐसी तमाम बच्चियों का समवेत दुःख कवि को अवाक् कर देता है| वह कई बार ‘जड़वत खड़ा रहा बिजूके की तरह/ बच्चियों के शरीर से खून टपक रहा था/ और आँखों से दहशत/ चीखें बर्फ की तरह जम गयी थीं उनके चेहरों पर|’[8] कई बार लड़कियों की चीख, पीड़ा व्यथित करती हैं तो कई-कई बार वह टूटकर टूटता रहता है| कवि-स्वप्न का यह मंजर कल्पना से दूर जीवन-जगत का यथार्थ बनता जाता है और उसका यह प्रश्न हर सम्वेदनशील व्यक्ति का प्रश्न बन उठता है “क्या इसी परिणति के लिए पैदा हुई थीं/ ये लड़कियां इस सुंदर धरती पर?” धरती को सुंदर कहना इतनी घृणा के बावजूद स्त्री के योगदान को याद करना नहीं है तो क्या है, यह भी एक कवि ही कर सकता है| वह जानता है कि “स्त्रियों ने रची हैं दुनियां की सभी लोककथाएँ/ उन्हींके कंठ से फूटे हैं सारे लोकगीत/ गुमनाम स्त्रियों ने ही दिए हैं/ सितारों को उनके नाम!”[9] जिनकी वजह से प्रेम बचा है, जीवन बचा है और सबसे बड़ी बात कि हरियाली बची हुई है| उर्वरता बनी हुई है जन और जीवन की| बावजूद इसके जितना बड़ा होता है घर/ उतना ही छोटा होता है स्त्री का कोना|”
यह किसी अन्य परिवेश की नहीं, उसी लोक की बात हो रही है जहाँ लड़कियों का पैदा होना किसी अनहोनी का घटित होना है| जहाँ लडकियों का बड़ी होना सबसे बड़ी समस्या का जन्म लेना है| तमाम नियमों, हिदायतों और कानूनों की दहलीज में कसकर उसे यह आभास दिलाना कि वह ‘लड़की ही है’ और उसका अस्तित्व महज हिदायतों के घेरे में सीमित रहने से है, उसी लोक की बात हो रही है| हिदायतें भी कैसी यह जान लेना जरूरी है-
“पलकें झुकाकर/ सपनों को छोटा करो मेरी बेटी
नींद को छोटा करो/ देर से सूतो/ पर देर तक न सूतो
होठों से बाहर न  आए हंसी/ आँखों तक पहुंच न पाए कोई ख़ुशी
कलेजे में दबा रहे कोई दुःख/ भूख और विचारों को मारना सीखो
अपने को अपने ही भीतर गाड़ना सीखो|”[10]
यह सीख बचपन से देना शुरू होता है| ये हिदायतें उसे पल-प्रतिपल देश-समाज-परिवेश-परिवार द्वारा दिया जाता रहता है| यह सब होते हुए कवि यह भी देखता है कि कैसे “कोमल कोमल शब्दों में/ जारी होती रहीं क्रूर हिदायतें/ फिर भी बड़ी हो गयी बेटी/ बड़े हो गये उसके सपने!”[11] लेकिन सपनों का बड़ा होना पूरा होना कतई नहीं है| यह स्वप्न भी किसी के लिए पहले आरक्षित हैं, ठीक वैसे ही जैसे गरीब और मजबूर आदमी के जीवन का सुख, किसी जमीदार या दबंगों के लिए|
तमाम अवरोधों से घिरे होने के बावजूद यदि वह बड़ी होती है तो उसके साथ ही “बड़े हो रहे हैं भेड़िये/ बड़े हो रहे हैं सियार|”[12] भेड़ियों और सियारों का आतंक इतना है कि चीख भी नहीं सुनाई देती हंसी और मुस्कराहटों का क्या होता होगा? कवि क्योंकि हर तरह के परिवेश की यथास्थिति से परिचित है, गाँव हो कि शहर, इसीलिए वह देखता है कि “माँ की करुणा के भीतर फूट रही है बेचैनी/ पिता की चट्टानी छाती में/ दिखने लगे हैं दरकने के निशान/ बड़ी हो रही है बेटी!”[13] चिंताएं और बेचैनियाँ बढ़ती जा रही हैं| जिस समय माँ बेचैनी की पराकाष्ठा तक जाकर बेटी की सुरक्षा की दुआ मांगती है बाप उसकी संरक्षित रहने की परिवेश से मिन्नतें करता है उसी समय बेटियों का आतंकित होते हुए यह निवेदन करना हृदय के अन्तस्तल को हिला जाता है-“बाबा बाबा/ मुझे मकई के ढोलने की तरह/ मरुए में लटका दो/ बाबा बाबा/ मुझे लाल चावल की तरह/ कोठी में लुका दो/ बाबा बाबा/ मुझे माई के ढोलने की तरह/ कठही सन्दूक में छुपा दो|”[14] भेड़ियों और सियारों के रूप में बड़े हो रहे पशु-मानुष से भयभीत एक लड़की की मनोदशा का ऐसा दृश्य हिंदी कविता में दुर्लभ है|
दुर्लभ माँ और पिता की असहायता का ऐसा रेखांकन भी है कि-“मकई के दानों को बचाता है छिलकोइया/ चावल को कन और भूसी/ ढोलने को बचाता है रेशम का तागा/ तुहे कौन बचाएगा मेरी बेटी!”[15] संभव है कि यह आपको कवि की कल्पना भर लगे, यह भी सम्भव है कि यह कवि का आलाप-प्रलाप लगे लेकिन यदि थोड़ी भी दृष्टि है और परिवेश में थोड़ी भी चैतन्यता से रहते हों, तो ये घटनाएं आपको अपनी घटनाएं लगेंगी| ये घटनाएँ आपको बड़ी हो रही लड़कियों की ही नहीं अपितु उन सभी स्त्रियों की घटनाएँ लगेंगी, जिनके शादी-व्याह हो चुके हैं, जो बच्चों की माँ हो चुकी हैं| जब कभी उनसे यह पूछने की कोशिश करें कि इतने दुःख, इतनी बंदिशें, इतनी हिदायतें कैसे झेल लेती हैं? कैसे कर लेती हैं निर्वहन इतने संकीर्ण समाज में? तो इन प्रश्नों पर बोलने की अपेक्षा-“रोने लगती हैं स्त्रियाँ|” कवि जब इस स्थिति के तह तक जाने की कोशिश करता है तो पाता है “कि अपनी ही व्यथा क्या कम होती है रोने के लिए/ रोने लगती हैं स्त्रियाँ/ कि रोने के सिवा और कुछ कर क्यों नहीं पातीं|”[16]
यह मनोविज्ञान फिर भी समझना शेष रहता है कि आखिर इतनी मुसीबतों के बावजूद कैसे खुश रहती हैं स्त्रियाँ? हर स्त्री इन विपदाओं की साँझी होती हैं फिर भी कैसे समूह में रह लेती हैं? कैसे अपना दुःख सुना लेती हैं और दूसरों का सुन लेती हैं? इस स्थिति पर विचार करते हुए मदन कश्यप पाते हैं कि “गम हो या ख़ुशी/ चुपचाप नहीं पचा पाती हैं स्त्रियाँ/ मिलकर बतियाती हैं/ मिलकर गाती हैं/ इसीलिए तो इतना दुःख उठा पाती हैं|”[17] इसीलिए वह महज आज पर निर्भर होती हैं| अधिकांश स्त्रियों की आँखों में भविष्य का उन्माद नहीं वर्तमान का व्यवहार दिखाई देता है| वह ये भी जानती हैं कि “आज का दुःख/ बस आज का दुःख है/ कल यदि होगा/ तो वह कल का अपना दुःख होगा/ आज का दुःख कल अतीत बन चुका होगा/ जो हम दुःख को झेलते चले जाते हैं/ तो दरसल वह बीतता चला जाता है|”[18] सही अर्थों में दुःख के बीतते चले जाने की कहानी स्त्रियों की व्यथा-कथा है|
स्त्रियों की इस व्यथा-कथा से कवि का वास्ता है क्योंकि वह इस परिवेश का जिम्मेदार नागरिक है| कवि जिस समय जिम्मेदार नागरिक की भूमिका में होता है उस समय वह कोरी कल्पना के आसरे सौन्दर्य का पुलिंदा नहीं खड़ा करता, यथार्थ के माध्यम से सच का स्वीकर प्रस्तुत करता है और देश समाज को विमर्श करने के लिए आमंत्रित करता है| कवि अपनी जागरूक दृष्टि में स्त्री के उस रूप को नहीं पसंद करता जिसके लिए वह पर्याय हो चुकी है अपितु उस रूप को महत्त्व देता है जिसे कोई पुरुष और यहाँ तक कि स्त्रियाँ भी महत्त्व नहीं देतीं| कवि यह मानता है और अपनी तरह सबको मानने पर एक हद तक विवश करता है-
“जब तम्हें देखा
तुम खूबसूरत लगी
जब तम्हें सुना
तुम और भी खूबसूरत लगी
जब हवा में तनी तुम्हारी मुट्ठी
तुम सबसे खूबसूरत लगी!”
          जिस समय स्त्रियों पर सबसे अधिक अत्याचार हो रहे हों, जिसे वासना-पूर्ति का साधन और वस्तु-विक्री का माध्यम भर समझा जा रहा हो, ऐसे अमानवीय और विज्ञापन युग में ‘तनी मुट्ठी’ लिए स्त्रियों का रूप उसके प्रति हिंसक वृत्तियों की आकांक्षाओं को सीमित करती है| अपने होने का एहसास दिलाती है| मदन कश्यप के स्त्री-पात्रों की ‘तनी हुई मुट्ठी’ “नारी तुम केवल श्रद्धा हो” या ‘अबला जीवन’ से आगे और बहुत आगे की स्त्री का स्वीकार है जो पर्दों, दीवारों और सौंदर्य-प्रसाधनों में सीमित रहने वाली हिदायतों से बाहर निकलकर अपनी दुनिया, अपना अधिकार और अपनी शक्ति-सामर्थ्य के लिए संघर्षरत है| वह स्त्री, जो घर से मिले ‘कोमल-कोमल शब्दों’ में सीमित होने की हिदायतों को चुनौती दे रही है और हमें क्या करना है, इसका निर्णय ले रही है, पहले से कहीं अधिक सम्पन्न और सुन्दर लग रही है|



[1] कश्यप, मदन : दूर तक चुप्पी, नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन, 2014, पृष्ठ-53
[2] कश्यप, मदन : अपना ही देश, नई दिल्ली : किताबघर प्रकाशन, 2015, 85
[3] कश्यप, मदन : अपना ही देश, नई दिल्ली : किताबघर प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-86
[4] कश्यप, मदन : अपना ही देश, नई दिल्ली : किताबघर प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-86
[5] कश्यप, मदन : अपना ही देश, नई दिल्ली : किताबघर प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-88
[6] कश्यप, मदन : अपना ही देश, नई दिल्ली : किताबघर प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-87
[7] कश्यप, मदन : अपना ही देश, नई दिल्ली : किताबघर प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-86
[8] कश्यप, मदन : अपना ही देश, नई दिल्ली : किताबघर प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-12-13
[9] कश्यप, मदन : नीम रोशनी में, पंचकूला, आधार प्रकाशन, 2000, पृष्ठ-18
[10] कश्यप, मदन : अपना ही देश, नई दिल्ली : किताबघर प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-15-16
[11]कश्यप, मदन : अपना ही देश, नई दिल्ली : किताबघर प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-16
[12] कश्यप, मदन : अपना ही देश, नई दिल्ली : किताबघर प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-17
[13] कश्यप, मदन : अपना ही देश, नई दिल्ली : किताबघर प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-17
[14] कश्यप, मदन : अपना ही देश, नई दिल्ली : किताबघर प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-17
[15] कश्यप, मदन : अपना ही देश, नई दिल्ली : किताबघर प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-17
[16] कश्यप, मदन : लेकिन उदास है पृथ्वी, दिल्ली : सेतु प्रकाशन, 2019, पृष्ठ-71
[17] कश्यप, मदन : नीम रोशनी में, पंचकूला, आधार प्रकाशन, 2000, पृष्ठ-17
[18]  कश्यप, मदन : कुरुज, नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन, 2006, पृष्ठ-23