Saturday 18 April 2020

रोमानियत यहाँ की खूबसूरती है तो रंग-मिजाजी प्रवृत्ति


चण्डीगढ़ में आकर्षण है| यह शहर एक ऐसा शहर है जो हर समय जवान दिखाई देता है| रोमानियत यहाँ की खूबसूरती है तो रंग-मिजाजी प्रवृत्ति| एक बार आप किसी सेक्टर से गुजरिये तो बार-बार गुजरने का मन करने लगता है| हर सेक्टर का अपना बाज़ार है और हर सेक्टर की अपनी नीति| राजनीति तो खैर अंदरखाने हर हृदय में मौजूद दिखाई देगी यहाँ| एक बार गिरफ्त में आए तो तभी छूटेंगे, जब या तो लुट चुके होंगे या टूट चुके होंगे|
इस शहर की सड़कें खूबसूरत हैं| आपके कदम दो पग चले नहीं कि पूरा रास्ता पैदल ही तय कर लेना चाहेंगे| सड़कों के दोनों तरफ घने और छायादार वृक्ष सुन्दर बयार के झोंके देते रहते हैं| मदमस्त कर देने वाली ख़ूबसूरती यहाँ के रग-रग में बसी हुई है| सड़कों से लेकर बाज़ार तक का सफ़र किसी अजूबे से कम नहीं है|
कैब की व्यवस्था हर शहर से सस्ती है| ऊबर है तो ओला भी है| इनके द्वारा दिए जाने वाले ऑफर अक्सर यात्रा करने के लिए विवश करते रहते हैं| मजे की बात यह है कि इस विवशता में आप हताश न होकर, गर्व महसूस करते रहते हैं| हलांकि इस गर्व में ठगे जाने का भाव स्थाई रहता है| इतना, कि जेब में रखे गए पैसे कब खर्च हो गए, यह घर जाने के बाद ही पता चलता है|
बसों की व्यवस्था अच्छी है इस शहर में, बावजूद इसके यहाँ रिक्शा, ई-रिक्शा और ऑटो रिक्शा तीनों की उपलब्धता बड़ी मात्रा में है| रिक्शा वाले देखने में गरीब हैं लेकिन हैसियत किसी से कम नहीं है| जितना एक बार बोल दिए उससे सस्ते में जाना इन्हें बिलकुल पसंद नहीं| ऑटो रिक्शा वालों की अपनी नीति और राजनीति है| बाहर से आने वाले लोग यदि इनके बाज़ार-भाव में उलझे तो यह भयानक अनुभव हो सकता है| इसलिए जब भी आएं तो बसों से यात्रा करने का प्लान बनाएं, यह कहीं ज्यादा उचित होगा| 
यह शहर स्वभावतः व्यावहारिक है| अमीर हो कि गरीब सबके लिए यहाँ पूरा स्पेस है| गरीबों के लिए जहाँ सेल लगते हैं तो अमीरों के लिए शोरूम बने हुए हैं| यह बात और है कि अक्सर अमीरों को सेल लगे दुकानों पर सस्ते सामान खोजते देखा जा सकता है और गरीबों को शोरूमों पर मोल-भाव करते हुए| हालांकि यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कम दाम में सब्जियों और फलों को देखते हुए कई बार अमीर लोग सड़े-गले भी खरीद लेते हैं|
जब मैं मण्डियों की बात कर रहा हूँ तो हर तरह की मंडियां यहाँ सजती हैं| साजो-सामान से लेकर जिस्म-बाज़ार तक के अलग-अलग अड्डे हैं| तैंतालीस बस अड्डे पर उतरें या सत्रह बस अड्डे पर जिस्म के दलाल आपको मिलना शुरू हो जाएंगे| लगभग 80 प्रतिशत ऑटो और रिक्शा वाले इस बाज़ार में सक्रिय हैं| सस्ते से सस्ते रूम की उपलब्धता के बाद सबसे अधिक आकर्षण स्त्रियों की उपलब्धता पर दी जाती है|
कभी भी ऑटो वाले आपसे सम्वाद करते नजर आएं तो यह जरूर पूछें उनसे कि-सुविधा क्या होगी...? वे सुविधाओं की गिनती में या तो इशारे करेंगे प्रतीकों में या फिर सरेआम बताएंगे| उनके बताने में आत्मविश्वास होता है| इतना, कि आप फंस भी सकते हैं और निकल भी सकते हैं| निकलने के कम फंसने के अवसर अधिक होते हैं|
यह शहर भौतिक रूप से जितना सक्षम और ऐश्वर्यपूर्ण है सांस्कृतिक दृष्टि से उतना ही गिरा हुआ| इस शहर में रहने वाले लोग अक्सर संस्कृति का नाम सुनते ही भड़क जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं है| विलासिता में डूबे लोगों के लिए संस्कृति शब्द-मात्र ऐसे जहर के समान है जिसका नाम सुनते ही लोग आपसे दूरी बनाने लगते हैं|
यह दूरी मानसिकता की दूरी हो सकती है, सुख-सम्पन्नता का प्रदर्शन भी| ऐसा भी नहीं है कि लोग चिंतित नहीं हैं ऐसे परिवेश की भयावहता से लेकिन बाज़ार संस्कृति ने उन्हें भी दिग्भ्रमित कर रखा है| जब तक वे बचने की कोशिश में रहते हैं बाज़ार का नया कोना उनके इंतज़ार में खड़ा होता है|
साहित्य की बात क्या करें? एक से एक महारथी हैं यहाँ पर| सब महारथियों के कुछ रथी हैं और कुछ सारथी| रथियों और सारथियों के सहारे किसी तरह रणक्षेत्र में उपस्थिति बनी हुई है| रणक्षेत्र का नाम सुनकर आपको आश्चर्य हो सकता है, लेकिन सही मानिए तो यहाँ के अधिकांश साहित्यकार स्वयं को योद्धा मानते हैं| कार्यक्रमों के आयोजन से लेकर अपनों के आमंत्रण तक युद्धस्तर पर सक्रिय रहते हैं| इनकी सक्रियता से ही हिंदी साहित्य की दुनिया गुल-ए-गुलजार रहती है|    
इस शहर में साहित्यिक संस्थाओं का बनना-बिगड़ना कोई बड़ी बात नहीं है| किसी चौराहे पर सब्जी की दुकान खोलना और चंडीगढ़ में साहित्य-संस्था का निर्माण करना, कभी-कभी मुझे दोनों एक जैसे लगते हैं| फर्क बस यही है कि सब्जी की दुकानों से जहाँ लोगों को सुविधाएँ मिलती हैं वहीं साहित्य-संस्थाओं के निर्माण से वैमनस्य बढ़ता है|
मुझे पता है ‘वैमनस्य’ शब्द आपको अच्छा नहीं लगेगा| यहाँ कुछ दिन रहिये| चुपचाप आयोजनों में जाना शुरू कीजिए| कुछ मिले या न मिले यह जरूर देखेंगे कि एक संस्था के लोग दूसरे लोगों को देखना नहीं चाहते| आप एक से जुड़ते हैं दूसरा निकाल देता है| आप एक के साथ चलते हैं दूसरा आपको बदनाम करने लगता है|
आयोजनों का कोई स्तर होता है...यह तो खैर आज के समय में कोई मुद्दा ही नहीं रह गया है| ‘तू मुझे सुना मैं तुझे सुनाऊँ अपनी प्रेम कहानी’ वाली स्थिति है| कविता के नाम पर प्रेमी नायक और नायिकाओं की तरह चुटकुलेबाजी करना एक शगल है यहाँ की| विमर्श के नाम गंभीरता इतनी है कि कोई ठोस मुद्दे रख दो तो कहेंगे “हम तो सीख रहे हैं भैया इतनी माथापच्ची कौन करे|”
विभिन्न अखबारों, समाचार-पत्रों, रेडियो, दूरदर्शन के मंचों पर बोलने वाले कितने ही बड़े रचनाकार यहाँ हैं जिन्हें वर्तामान समय में निकलने वाली पत्रिकाओं की छोटी संख्या भी मालूम नहीं है| आपको लग रहा है कि मैं कुछ अधिक बोल रहा हूँ लेकिन सच यही है कि कौन-सा विमर्श, कौन-से मुद्दे वर्तमान साहित्य की दुनिया में चल रहे हैं, नहीं पता है यहाँ के बहुत-से बड़े रचनाकारों को|
यहाँ मंच-माला और पद के बड़े लोभी हैं| अध्यक्ष और मुख्य अतिथि बनने और बनाने की भी गज़ब रवायत है यहाँ| स्वयं ही आयोजक और स्वयं ही अध्यक्ष होने की उत्कंठा हास्यास्पद नहीं लगती आपको? स्वयं संयोजक और स्वयं ही मुख्य-अतिथि होने की लोभी-प्रवृत्ति असमंजस में नहीं डालती आपको? हो सकता है, लेकिन किसी भी ‘सही’ साहित्यकार को ये प्रवृत्तियाँ विचलित जरूर करती हैं| विचलन और फिसलन की स्थिति पर सवार यहाँ का साहित्यिक परिवेश कैसा होगा यह तो समय बताएगा, वर्तमान दुखद है, यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है|  

2 comments:

Veena Vij said...

बेहद कड़ुवे घूंट हलक में उतरें तो सत्य सम्मुख आते देर नहीं लगती। चंडीगढ़ की खूबसूरती का बयान तो बहुत तबीयत से किया है आपने पांडे जी! लेकिन वहां क्या-क्या चीज बिकती है यह तो हमारे लिए नई बातें हैं इनको हमसे से सांझा करने के लिए बेहद शुक्रिया।

अनिल पाण्डेय (anilpandey650@gmail.com) said...

आपको अच्छा लगा, इसके लिये बहुत आभार आपका।