Tuesday 4 January 2022

पंजाब में मठों का कारोबार बढ़ा है इन दिनों यह बात और है कि महत्त्व दिनों दिन घटता जा रहा है

 

जब मैं यह कहता हूँ कि पंजाब में हिंदी भाषा एवं साहित्य की दुर्गति में यहाँ के शिरोमणि साहित्यकारों का बड़ा हाथ है तो उसे हल्के में न लेकर चलें| लगातार सात वर्षों की सक्रिय भूमिका के दम पर यह बात मैं कह रहा हूँ| आपको न विश्वास हो तो कुछ ज़मीनी तहकीकात आप भी कर सकते हैं| जब ऐसा कर रहे हों तो निरपेक्षता का भाव मन में बना रहना चाहिए यह जरूरी है| संस्तुति और भक्ति तो किसी की भी की जा सकती है लेकिन मूल्यांकन में निरपेक्षता का होना जरूरी होता है|

लगभग अहिन्दी भाषी प्रदेशों में हिंदी भाषा एवं साहित्य के उत्थान के लिए कोई न कोई सरकारी संस्था, अकादमी है जरूर| पंजाब में हिंदी के उत्थान, प्रचार-प्रसार के लिए जहाँ तक मेरी जानकारी है, ऐसा कुछ नहीं है| हिंदी का अपना कोई भवन या अकादमी तक नहीं है| युवाओं में उत्साह है, जोश है, रुतबा भी है लिखने-पढ़ने और संवाद करने के लिए लेकिन प्रेरणा जहाँ से मिलती है इस क्षेत्र में बराबर बने रहने के लिए, वहाँ यहाँ न के बराबर है| किसी भी संस्थाओं के पास यहाँ के युवाओं के लिए मेरी जानकारी में कोई प्रकाशन योजना या पाण्डुलिपि योजना नहीं है| ये बात जोर देकर फिर से मैं कह रहा हूँ कि प्रतिभाएं हैं लेकिन उन्हें प्रोत्साहन देने वाली कोई ऐसी संस्था नहीं है जिसके माध्यम से वह अपनी योग्यता का सर्वश्रेष्ठ दे सकें|

कोई कार्य करने के उद्देश्य से यहाँ आप यदि हिंदी भाषा एवं साहित्य के लिए एकत्रित होना चाहें तो बड़ी मुश्किलें आती हैं| हिंदी के किसी रचनाकार के नाम पर कोई सरकारी स्कीम शायद ही चलती हो....? (पंजाब के भाषा विभाग पटियाला से कुछ नामों पर कुछ देते हैं शायद लेकिन वह भी न के बराबर) ऐसा क्यों नहीं हो सका? इसका एक सीधा सा सवाल तो पहले यह हो सकता है लोगों के नज़र में कि यहाँ के साहित्यकार उस काबिल नहीं हुए कि उन्हें इस प्रकार की संस्था या संस्थान की उपलब्धता सुनिश्चित कराई जा सके| दूसरे, योग्य तो थे लेकिन योग्यता उनमें उतनी नहीं थी कि ऐसा कर या करवा सकें| पहला विकल्प तो लगभग गलत है लेकिन दूसरे से इंकार नहीं किया जा सकता। शिरोमणि साहित्यकारों ने इसके लिए कभी कोई लिखित या मौखिक प्रयास किया हो, मुझे नहीं पता है। 

यहाँ की जितनी स्ववित्तपोषित (हिंदी के नाम पर घोषित अघोषित) संस्थाएं हैं उनके जरिये बीते वर्ष में कुछ ऐसा कार्य नहीं हुआ जिससे कि यहाँ के वैचारिक परिवेश की निर्मित में कोई लाभ हुआ हो| कागज के टुकड़े बांटे गए हैं इफराद में यह अलग बात है| पुरस्कार और सम्मान के नाम पर छीछालेदर हुआ है इससे इनकार नहीं किया जा सकता है| निजी पैसे और व्यक्तिगत रूचि-अभिरुचि पर चलने वाली संस्थाओं में अलग तरह की राजनीति है| इन संस्थाओं ने तो जैसे सभी नीतियों को ठिकाने लगाकर रख देने की कसमें खा ली हैं| यहाँ हिंदी के महापुरुषों के नाम पर पुरस्कार और सम्मान तो दे देते हैं लेकिन राशि आदि का कहीं कोई अता-पता नहीं होता| नाम का चयन भी व्यक्तिगत सम्बन्धों को आधार बनाकर किया जाता है तो अयोग्य को सम्मानित करने और योग्य को उपेक्षित तथा अपमानित करने का विधिवत खेल भी खेला जाता है| पूरा वर्ष बीत गया मैं कहीं नहीं सुना कि कहीं पर किसी स्वतंत्र विषय पर चर्चा-परिचर्चा हुई हो या किसी ठीक तरह के साहित्यकार का सम्मान किया गया हो| लोकार्पण कार्यक्रम खूब हुए हैं, इसे कोई कैसे भूल सकता है |



जो कागज के टुकड़े बांटकर साहित्यिक होने और साहित्यकार पैदा करने या पालने का स्वप्न संजोए हुए हैं उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि जब तक वैचारिक कार्यक्रम न होंगे उनके द्वारा उनकी गिनती किसी भी रूप में साहित्यिक मठ में न होगी| मठों का कारोबार बढ़ा है इन दिनों यह बात और है कि महत्त्व दिनों दिन घटता जा रहा है| अधिकांश तो घर से बाहर ही नहीं निकले| घर को ही संगोष्ठी कक्ष बना लिया| अधिकांश ने इतना श्रम किया फिर भी आस-पडोस वाले भी साहित्यकार मानने के लिए तैयार नहीं हैं| अधिकांश साहित्याकर कागज के सम्मान लेने के लिए भी एड़ी-चोटी का जोर लगा लिए बावजूद इसके उन्हें निराशा ही हाथ लगी|  

यहाँ मैंने किसी ज़िम्मेदार पत्रिका को नहीं देखा जो निरपेक्षता के साथ व्यापक उद्देश्यों को साध सके| हुकुमचंद राजपाल जी द्वारा प्रकाशित शब्द-सोरोकर व्यापक परिदृश्य पर आती थी लेकिन उसे भी उन्होंने साहित्य की जगह व्यापार और लाभ हित में प्रयोग किया| बरोह् पत्रिका अमृतसर से तो बिम्ब प्रतिबिम्ब पत्रिका फगवाड़ा से निकलती हैं जिनसे कुछ आशाएं और बहुत सारी अपेक्षाएं हैं| इधर कुछ और लोग निकालते थे पत्रिका तो बंद कर दिए| कुछ लोग अभी भी स्वप्न संजो रहे हैं पत्रिका निकालने के लिए तो उनका स्वप्न यथार्थ में परिवर्तित हो हम दुआ करेंगे ईश्वर से| ऐसा इसलिए क्योंकि उनके स्वप्न और मुगेरीलाल के भाई नवरंगी लाल के स्वप्न में कोई खास अंतर नहीं है| फर्क बस इतना है कि नव्रंगीलाल यह समझ लेते थे कि वह स्वपन देख रहे थे लेकिन यहाँ लोग समझते नहीं समझाना पड़ता है| अफ़सोस कि समझ फिर भी नहीं आती है|

खन्ना पटियाला, अमृतसर, लुधियाना, मोगा, पठानकोट जैसे शहरों से व्यापक सरोकार वाले रचनाकार जा रहे हैं तो पदार्पण भी कर रहे हैं| जालंधर अपनी तरह की विकृतियों से आक्रांत है जो धीरे-धीरे ही सही फगवाड़ा को भी अपने गैंग में शामिल कर लिया है| यहाँ जो है वही है, दूसरे को तो कोई कुछ समझता नहीं| यह न समझना उन्हें कुंठा में तो डाल ही रहा है परिवेश पर भी गलत प्रभाव डाल रहा है| हर पुरस्कार रचनाकार के लिए साधन होता है| जालंधर में वह साध्य है| कोई नहीं दे रहा है तो यहाँ ऐसे भी रचनाकार हैं जो व्यक्तिगत आयोजक से फ़ोन करके अपना बनवा लेते हैं| यहाँ के पुरस्कार आयोजकों में और अधिक भागमभाग है| साहित्य और सरोकार से सम्बन्ध भले न हो किसी का, आयोजकों से सम्बन्ध बराबर सुरक्षित रखेंगे| तन-मन-धन से छल-छद्म-दंभ से जिस भी रूप में बनेगा उसे अपने पक्ष में भुनाएंगे| जितना श्रम इस दिशा में कार्य करने और मन लगाने का किया जा रहा है इसका यदि पचास प्रतिशत भी साहित्य-सर्जना और व्यवस्था-संवाद में लगा दें तो दशा और दिशा दोनों बदल जाएँ|



2021 जा रहा है बल्कि गया| अब समय है कि 2022 को ठीक तरीके से जिया जाए| परिवेश की सुन्दरता और समाज का सौंदर्य सुरक्षित रहे इसके लिए हमें प्रयास करना चाहिए| शिरोमणि साहित्यकारों को अपना अस्तित्व सुरक्षित रखने के लिए युवाओं को जोड़ने और सृजन करने के लिए प्रेरित करना चाहिए| अहम् जैसा कुछ तो होना ही नहीं चाहिए और न ही तो स्वयं को ईश्वर मानकर अपने-अपने फालोवर्स को लड़ाई आदि में लगाना चाहिए| संवाद को खुले मन से स्वीकार करने का साहस यदि हो तो साहित्य और संस्कृति के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है| इधर के साहित्यकारों में एक नए किस्म की दौड़ मची है जहाँ मूर्खताएं अधिक हैं समझदारी कम|

विरोध वैचारिकता से हो तो कुछ नया निकलता है लेकिन जब वैयक्तिकता पर ही केन्द्रित रहे तो कुण्ठित करता है| यहाँ कुछ ऐसे साहित्यकार भी देखे जा रहे हैं जो किसी भी कार्यक्रम खराब करने का सुपारी लेने और देने लगे हैं| दुर्भाग्य से इसमें भी कुछ शिरोमणि साहित्यकारों के नाम शामिल हैं जो पहले कार्यक्रम खराब करवाते हैं फिर उसकी नाराजगी को दबाने के लिए चार लोगों को लेकर बधाई देने जाते हैं| पूछने का मन तो करता है कि आखिर यह कौन-सी नयी रवायत है जो विकसित की जा रही है लेकिन बर्रे के छत्ते पर ढेले कौन फेंके?