Wednesday 11 November 2020

लोकतंत्र अपनी तरह से अपमानित और लांछित हो रहा है

 इस बार आशा थी कि कुछ अलग होगा| एग्जिट पोल ने भी इशारा किया था| मैंने तो यहाँ तक सोच लिया था कि इस बार ईवीएम की जय जयकार होगी| विपक्ष फिर से खुश होगा| भाजपा के देश निकाले जाने के खबर आएँगे| उत्साहित विपक्ष के कार्यकर्ता, फेसबुक से लेकर नोटबुक तक, लोकतंत्र की महिमा गाएंगे| बिहार के लोग अनपढ़ और रूढ़िवादी होने से बच जाएँगे| प्रबुद्ध और बुद्धिमान की कसौटी पर खरा मान लिया जाएगा उन्हें| लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ| इस तरह नहीं हुआ कि एक प्रशंसक ने पूरी जनता के विषय में यह निर्णय सुना दिया कि बिहार के लोग ब्राह्मणवाद के चंगुल से बाहर नहीं निकलना चाहते|


लोकतंत्र अपनी तरह से अपमानित और लांछित हो रहा है| विपक्ष के वे बीर जो फेसबुक से लेकर नोटबुक तक बैठाए गए थे, अब आक्रामक मुद्रा में आ गये हैं| निश्चित ही एक दो क्रांति हो जाए तो कोई आशंका नहीं| यह क्रांतियाँ निहायत जातिवादी और सांप्रदायिक होंगी दो राय इसमें भी नहीं है| सबसे बड़ी बात ऐसा उनके द्वारा होगा जो देश में सांप्रदायिक सद्भाव चाहते हैं और समाज में जातिवादी प्रवृत्तियों का अंत|
बिहार की जनता के विषय में क्या कहें? जो कहना है वह कहेंगे और कह रहे हैं| बस फेसबुक पर निगाह गड़ाए रहिये| चुनाव आयोग जम करके गाली खा रहा है| उसे ईवीएम की जगह बैलेट पेपर से चुनाव करवाना चाहिए था| ऐसे निष्पक्षता बनी रहती है| बूथ कैप्चरिंग से लेकर जब तक दो चार-दस हिंसा न हो जाए, चुनाव सफल कहाँ माना जा सकता है हिन्दुस्तान में? यह विचार करने की बात है| यहाँ चुनावी सीजन का मतलब ही होता है दंगा-फ़साद-गुंडागर्दी-आगजनी आदि आदि| कहने को हम उत्तर आधुनिक हैं लेकिन चुनाव के मामले में अभी पंद्रहवीं शताब्दी में ही रहना अच्छा लगता है हमें|
एक कीर्तिमान और स्थापित किया है विपक्ष ने इस बार| शायद आप ध्यान दिए हों....? नहीं...? रुकिए मैं बताता हूँ| 119 विजयी उम्मीदवारों की सूची लेकर मीडिया हाउस में चिल्ल-पों मचाने का कार्य बड़ी साफ़गोई से किया गया| इतनी साफगोई से कि जितने भी मीडिया हाउस थे, लगभग सब ने इसे हवा दी| इसके पहले मैंने अभी तक कहीं नहीं देखा कि कोई पार्टी स्वयं से लिस्ट निकालकर उसे चुनाव आयोग के अधिकारी द्वारा दिया गया प्रमाणपत्र प्रचारित करे| इन्होने किया ही नहीं शोर भी मचाया कि हमें जीत का सर्टिफिकेट नहीं दिया गया|
खैर...यह सब होता रहता है| यह भी लोकतंत्र का हिस्सा समझकर चलिए| आगे इसके और अधिक विस्तार की संभावनाएं हैं| उसकी तैयारी करते रहिये| तो कहना यह चाहता हूँ कि भारतीय जनता ने इधर बड़े वायदों को विनष्ट होते देखा इसलिए बिहार के लोगों ने तेजस्वी जी के उस दस लाख की नौकरी का जो लालच था उसे इनकार कर दिया| ऐसा नहीं है कि उन्हें नोकरी या रोजगार नहीं चाहिए...लेकिन वे भी जानते हैं कि संसाधन रहते हुए विकास के कार्य हो सकते हैं| शायद हो भी ऐसा| तो ज्यादा परेशान होने की जरूरत उन्हें अधिक नहीं है जो अब बिहार के बर्बादी का स्वपन पालकर चल रहे हैं|
कुछ और कहना था मुझे...पर भूल रहा हूँ| याद आएगा तो सबकी तरह मैं भी कह दूंगा| नहीं याद आया तो खैर कोई बात ही नहीं|
एक बात याद आ गया| तेजस्वी को देखते हुए मैं स्वयं भी चुनाव के मैदान में उतरने का स्वप्न देखने लगा हूँ| यह भी सच हा कि तेजस्वी की तरह तो छोडिये मेरे परिवार से अभी तक किसी का कोई राजनीतिक बैकग्राउंड नहीं है| यह तो पता है कि जनता उस तरह से प्यार नहीं देगी, जैसे तेजस्वी आदि को मिल रहा है लेकिन फिर भी उत्साह है तो सोच रहा हूँ| सोचने में जाता भी क्या है? सब तो सोच रहे हैं|
खैर...आइये| अब कुछ काम धाम किया जाए| जो जीते हैं उन्हें कुछ करने दिया जाए और जो हारे हैं उन्हें जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाने का अवसर दिया जाए| हम जो लोकतंत्र के प्रेमी टाइप के हैं, किसी सुन्दर स्वप्न में खोते हैं...क्योंकि कोरोना समय चल रहा है और व्यवस्था अभी अंतिम हद तक कोरोना की आड़ में खून चूसने के लिए आमादा है|
चलिए फिर...फिर मिलेंगे|

Wednesday 4 November 2020

मुनौव्वर राणा जैसे लोग विष हैं समाज के लिए

 मुनौव्वर राणा जितना बोल दिए उससे अलग उनका मिज़ाज कभी नहीं रहा| आज कैसे हो सकता था या हो सकता है| यह सिर्फ मुनौव्वर राणा की बात नहीं है यह लगभग मुस्लिम कवियों की कमजोरी है कि वह इस्लाम धर्म आई जड़ता पर बोलने से डरते हैं, घबड़ाते हैं| यदि यह कहें कि इस्लाम धर्म में आई रूढ़ियों को ओढ़ते-बिछाते हैं तो इसे अन्यथा न लिया जाए अपितु एक सच मानकर स्वीकार किया जाए|

प्रगतिशीलों के गुट में रहते हुए ये ऐसे जड़वादी सोच के लोग हैं जिन्हें सारी बुराइयां महज एक धर्म में दिखाई देती हैं| इतने ही विकसित मानसिकता के होते तो जो बद्स्थिति मुस्लिम परिवारों की है समाज में, वह न होती| तमाम मसले हैं जिन पर वे बोल सकते हैं लेकिन यदि ऐसा करते हैं तो वही सिर कलम होने वाली बात है|

हिंदी के कवि या चिंतकों की विश्वसनीयता हर समय शक के दायरे में रही है| सिर काटने की बात हो या धमकी देने की आदत, इनका समर्थन प्रगतिशीलता के आड़ में हिंदी कवियों द्वारा हर समय किया गया है| एक सम्प्रदाय मात्र के लोगों से आप प्रगतिशीलता की अपेक्षा बिलकुल नहीं कर सकते हैं| हिन्दू धर्म की तमाम मान्यताओं पर दिन रात गलत कमेन्ट करने वाले दूसरे धर्म की गलत मान्यताओं पर इतना मौन साध लेते हैं जैसे कुछ दिक्कत ही नहीं है| दिक्कत कहीं भले न हो लेकिन आपकी विश्वसनीयता पर है| हो सके तो उसे बचाइये|
मुनौव्वर राणा जैसे लोग स्वयं से कुछ बोलते नहीं हैं| कभी नहीं बोले| धर्म के झंडे और पार्टी लाइन पर चलने वाले ये लोग ऐसे व्यापारी हैं जिन्हें महज अपनी छवि चमकानी होती है| समाज और परिवेश से इनका कोई लेना देना नहीं होता है| सिर कलम करने की प्रतिक्रिया यदि सिर कलम हो तो ऐसे लोग क्या स्टेटमेंट देंगे, इस पर बस कल्पना की जा सकती है, ईश्वर करे वह यथार्थ न बने समाज का|
कृष्ण राम सीता जैसे पौराणिक पात्र जो हिन्दू संस्कृति और धर्म के केन्द्र हैं उन पर बोलते हुए इनके ईमान नहीं डिगते| पैगम्बर आदि पर बोलने मात्र से इस्लाम खतरे में कैसे आ जाता है? धर्म न हुआ मानों सब्जी के खेत में अनाथ पड़ी कोई सब्जी हो जिस पर अचानक अस्तित्व का संकट मंडराने लगता है|
यदि आप संकीर्णता पर बोलने की हिम्मत रखते हैं तो बोलने दीजिये न| शिक्षा के दहलीज पर कब तक पहरे लगाकर बैठेंगे आप? प्रश्न उठे हैं तो उठते ही रहेंगे| स्त्री विमर्शकारों का खून पैगम्बर की कारस्तानियों पर क्यों नहीं खौलता? क्या वहां से नारी विमर्श को केन्द्र में नहीं लाया जा सकता है? क्या सभी संकीर्णता महज यशोधरा, सीता, अनुसूया, अहिल्या आदि में ही दिखाई देते हैं?
धर्मों के बनाए संकीर्ण ढाँचे को तोड़ने की जरूरत है| हर धर्मों की संकीर्णता पर खुली बहस की आवश्यकता है| लेकिन स्वीकार कौन करेगा? दूसरे का घर सभी जलता हुआ देखना चाहते हैं अपने घर को बचाते हुए| ऐसा नहीं होगा| नहीं होना चाहिए| आप सामाजिक तभी हैं जब सामाजिक संकीर्णता पर बोलने और उसे समाप्त करने की क्षमता रखते हैं| यह सब बगैर किसी पक्षपात के निरपेक्षता की भाव से हो|

अर्नब गोस्वामी के साथ गलत कर रही महाराष्ट्र सरकार

 

सत्ता को सिर्फ सत्ता की दृष्टि से देखिये| दूसरे का घर जलते हुए स्वयं को सुरक्षित रखने का स्वप्न संजोने वाले कहीं गहरे अंधकार में गिरते हैं| अर्नब गोस्वामी के साथ महाराष्ट्र सरकार जो कुछ भी कर रही है गलत है| मीडिया की स्वतन्त्रता पर सीधे तौर पर हस्तक्षेप है| मीडिया समूहों को इस स्थिति का संज्ञान लेना चाहिए|

ध्यान रहे आज यह बदले की कार्यवाही है, जो सत्ता जबरन जन-माध्यमों पर थोपती है, कल उससे कोई नहीं बचेगा| आज जो
जश्न मना रहे हैं कल मीडिया समूहों की दुरगति पर जब रुदनगान करें, वह भी देखने लायक होगा| हम सही सबको गलत ठहराने की नीति बिलकुल उचित नहीं है|
कंगना के साथ जिस तरह से एक तरफा कार्यवाही हुई उसी तरह से अर्नब के साथ हो रही है| जिन्हें यह लगता है कि मीडिया की मर्यादा को सराकर बचा रही है, वे जड़ अंधे हैं| उन्हें यह समझ नहीं आ रहा है कि यह मर्यादा बचा नहीं रही है स्वयं को बचा रही है और सुरक्षित रखने के लिए हर सम्भव प्रयास कर रही है|
सत्ता के प्रयासों में जन अधिकार का हनन होता है| जो जन के पक्ष में बोलता है वह मारा जाता है| यह कोई नई बात नहीं है| नई बात है सत्ता के पक्ष-विपक्ष को चुनते हुए गलत कार्यों का समर्थन करना| वह हो रहा है| हम सब मूक दर्शक बन देख रहे हैं|