Tuesday 27 August 2019

तो क्या यह साहित्य और चिंतन में मानहानि का युग है?



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कई बार मैं सोचता हूँ तो सोचता रह जाता हूँ| कई बार हंसी आती है तो बहुत गंभीर हो जाना पड़ता है| ये जो हमारे समकालीन रचनाकार हैं (जिनको ये विश्वास है कि यदि वे न होते तो साहित्य में बहुत कुछ खाली रह जाता) आखिर किस मानसिकता और दिमाग के बने हैं? साहित्य-परम्परा और रीतियों से इनका कोई सरोकार है भी या नहीं? यह भी हो सकता है कि इनमें से बहुत लोग परंपरा जैसी किसी स्थिति को न मानते हों, क्यों
कि जब से ये हैं तभी से साहित्य प्रकाश में आना शुरू हुआ है| इसके पूर्व के जो लिख गए या तो अनाड़ी थे या फिर यश-लोभी, ऐसा ये मानते हैं|

जहाँ तक मैं पढ़ा हूँ (और जहाँ तक जानता हूँ) साहित्य विचार-विनिमय का एक माध्यम है| मैं आपकी सुनूं आप मेरी सुनें| जो सुनने-सुनाने लायक नहीं हैं वे पढ़ें| विचार फिर भी देना होता है पक्ष या विपक्ष में| कहने और सुनने वाला भी एक पाठक होता है पहले| यह सब बगैर किसी दबाव के होता है| यहाँ पटीदारी निभाने जैसी कोई स्थिति नहीं होती| नाराजगी और मान-मनौती वाली स्थिति भी न के बराबर होती है (जबकि यह सत्य है कि यही आज के साहित्य का यथार्थ रह गया है)|

पके हुए भोजन को खाने के बाद जैसा स्वाद होगा, वह आप कहेंगे ही| एक पल के लिए यदि स्वाद नहीं ठीक बना तो आप यह कहने में संकोच नहीं करेंगे कि यह स्वादिष्ट नहीं है| यदि अच्छा बना है तो वाह-वाह तो होनी है| यह भी सम्भव है कि पसंद एक जैसी नहीं होती सबकी| एक ही व्यंजन को खाने वाले अलग-अलग तरह के लोग होते हैं| अलग-अलग ढंग से खाते हैं| स्वाद के विषय में निर्णय लेने की स्थिति में न तो खाना बनाने वाला उसे अपने पक्ष में बोलने के लिए विवश कर सकता है और खाने का अवसर देने वाला| खाना बनाने वाला कितना भी लापरवाह क्यों न हो मेहनत वह भी करता है| लेकिन जब उसके बनाए भोजन में कमियां निकाली जाती हैं तो बहुत झल्लाने के बाद भी स्वीकार करता है वह; मानहानि का दावा नहीं करता| ऐसा यदि करता होता और यह परम्परा में होती तो कितने खाने वाले रोज जेल में बंद होते और उन पर मानसिक उत्पीड़न का केस चलाया जाता|       

इधर हिंदी साहित्य में यह सब बीते जमाने की बात होती जा रही है| बनाने वाले ने यदि बनाया है तो प्रशंसा ही करनी है आपको| भले ही उसके साहित्य में कुछ न हो, भले ही चरस-गाँजा-भांग से भी बदतर स्थिति का मादक पदार्थ वह अपने साहित्य में दिखाए आपको वाह-वाह करने का ही अधिकार है| आह भी करेंगे यदि तो उसके पात्र की स्थिति पर| आपको वितृष्णा हो, घृणा हो, नाक सिकोड़ लें दुर्गन्ध से बचने के लिए लेकिन बताना है अभिनव महक देने वाला अचूक लेखन ही| विलासिता की जड़ तक जाकर कुंठित सामग्रियों को अपने पुस्तकालय का हिस्सा बनाए के लिए विवश किया जाएगा क्योंकि यह बाज़ार युग है| इस बाज़ार युग में बड़े-बड़े शीलवान भी शिलाजीत और विगोरा जैसी साहित्यिक-टिकिया का प्रचार करते आपको दिख जाएँ तो आश्चर्य नहीं है| प्रचारक सिर्फ पैसा कमा रहा है उसे अपने घर-आलमारी में नहीं रखना चाहता लेकिन आपसे पूरी उम्मीद संजोए है कि यह अपने घर के नव-निहालों को पढाएं-दिखाएं कि समय और देश बदल रहा है|

आप यदि उस प्रचार-गुट में फंस चुके हैं तो प्रचार करना आपकी भी मजबूरी है| न कुछ करेंगे तो ऐसे लोगों को खोजेंगे जो इनका विरोध कर रहे हैं| जो शक्ति के साथ अपने घर का दरवाजा बंद किये हैं और नहीं आना देना चाहते आलतू-फालतू-लोगों-सामग्रियों को, उन्हें पुरातनपंथी, स्त्री-विरोधी, पिछड़े जमाने के आदि आदि उपमाओं से विभूषित करेंगे| कई बार उल-जलूल भी बकेंगे| यह वे भूल जाते हैं कि नंगों को कपडा पहनाने की कोशिश करना स्त्री का विरोध करना नहीं है अपितु उसे उस परिवेश में रहने लायक सहज बनाना है| वे यह भी भूल जाते हैं कि नशे के लिए रोक लगाना पुरातनपंथी होना नहीं, स्वस्थ मानसिकता का निर्माण करना है| दरअसल ऐसे ही लोग चमचा, चाटुकार और धूर्तों की श्रेणी में आते हैं जो विदूषक की तरह इधर से उधर नाचना अपना कर्तव्य समझते हैं| इन्हें सृजन-उजन से कोई लेना देना नहीं|

यह अब इस समय की एक खाशियत होती जा रही है कि यदि आप किसी के विचार, चिंतन और व्यवहार को गलत कहते हैं (जबकि वह है भी गलत) तो वह विधिवत अखाड़े में उतर कर आपको मानहानि के केस की धमकी देता है| वह सरेआम यह आरोपित करता है कि आपने उस पर प्रश्न उठाकर उसके अस्तित्व और मानसिकता को ठेस पहुंचाया है| यहाँ विदूषकों की भूमिका भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं होती| वह ऐसा करने का पूरा समर्थन करता है और मजे की बात यह है कि उसके व्यवहार में स्तर से नीचे उतर कर भाषाओं का व्यवहार करता है| जैसे कोई जागरूक प्राणी न होकर उसके कौरे पर पलने वाला कोई पालतू कुत्ता हो, जो हर समय भौं-भौं करता-फिरता है|


तो क्या यह साहित्य और चिंतन का मानहानि युग है? क्या यहाँ सब अपना ही कहेंगे-सुनेंगे? जबकि यही लोग हैं तो ‘देशद्रोही’ ‘टुकड़े-टुकड़े’ ‘भक्त’ जैसे शब्दों के आगमन से हैरान और परेशान हैं| यदि सोच सकते हैं तो कभी सोचिए ऐसे मुद्दों पर और अपना विचार दीजिए|

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राजनीतिक सत्ता के प्रतिरोध की बात तो सभी करते हैं लेकिन साहित्य-सत्ता के प्रतिरोध की बात कौन करेगा? कौन कर रहा है? जब तक साहित्य में लोकतंत्र नहीं आएगा राजनीतिक लोकतंत्र एक छलावा भर रहेगा| हिंदी साहित्य में 'प्रतिरोध' का जो राग है वह नितांत पंगु है| यहाँ प्रशंसा के बहुत सारे कसीदे पढ़ सकते हैं आप| लोग चाहते भी यही हैं कि आप पढ़ें ऐसा| नहीं पढ़ते तो मूर्ख, चूतिया जैसे विशेषणों से नवाजे जाने के लिए तैयार रहिये| इसलिए भी क्योंकि आप साहित्यकार होने से पहले एक जागरूक पाठक हैं और उससे भी पहले एक जिम्मेदार नागरिक हैं| गलत को गलत कहने का साहस है आपमें| यह न तो साहित्य के सत्तासीन आकाओं को पसंद है और न ही तो उनके दरबार में हाजिरी देने वाले दरबारियों को| 

इधर के दिनों में लगातार सक्रिय रहने से एक बात का अनुभव जरूर हुआ कि हिंदी साहित्य का क्षेत्र मंदबुद्धि मूर्खों से भरा पड़ा है| यहाँ आप साहित्यिक आलोचना करते हैं (एकदम रचनागत होकर) तो लोग उसे व्यक्तिगत उलाहना समझते हैं| व्यक्तिगत प्रशंसा करते हैं (एकदम भक्तिभाव से भर कर) तो लोग उसे साहित्यिक सरोकार समझते हैं| रचनागत और व्यक्तिगत तक के भाव को अलग कर पाना लोगों के लिए मुश्किल हो गया है| विडंबना तो ये है कि ऐसे लोग ही वर्तमान साहित्य के सर्वेसर्वा होने का दमखम पाल बैठे हैं| पत्रिकाएँ इन्हें प्रकाशित कर रहीं हैं और प्रकाशक पैसे कमा रहे हैं और ये इतराए फूल रहे हैं| जब आप इनका लिखा पढ़ते हैं तो सिर पकडकर बैठने के सिवाय कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता|  

इधर के तथाकथित आलोचकों, सम्पादकों, प्रकाशकों ने एक ऐसे गुट को फलने-फूलने और पनपने दिया जिनके पास मसालों को छोड़कर न तो कविता-सृजन की समझ है और न ही कथा-सृजन का विवेक| बालीवुड के ए ग्रेड फिल्मों की तरह लिखने वाले लोग स्वयं को लोक का हितैषी मान बैठे हैं जबकि योनि-गुदा-केलि-संसर्ग-अटक-मटक-चटक-फटक-चेहरा-मोहरा जैसे प्रसंगों को निकाल दिया जाए तो उनके पास कुछ बचे ही न| बहुत गहरे में यदि यह सब है तो कहीं न कहीं वे साहित्य सर्जक न होकर मादक-साहित्य के व्यापारी हैं|

इधर व्यापारियों ने कुछ उजड्ड किस्म के गुंडे पाल रखे हैं| वे साहित्य को चर्चा-परिचर्चा से परे मानकर चलते हैं| ये रीतिकाल के दरबारी संस्करण हैं| यदि आप प्रशंसा न करके ठीक विश्लेषण कर दें तो ये गुंडे आपका धर-पकड़ शुरू कर देंगे| गाली-गलौज पर उतर आएँगे| शब्द-संस्कार तो है नहीं क्योंकि जिनको पढने से शब्द-संस्कार आ सकने की संभावना है, उन तक ये पहुँच ही नहीं सकते| कुंठा से उपजा साहित्य जब पढ़ेंगे तो कुंठित भाषा का ही स्तेमाल होगा, यह सभी जानते हैं| ऐसे लोग कभी किसी समय बलात्कार जैसी वीभत्स घटनाओं को भी प्रेम का नायाब तरीका न घोषित कर दें, डर इस बात का है|

जिनका अस्तित्व ही गुदामें आकर सिमट गया है, मान-सम्मान ही फ्री-सेक्स की मांग पर आकार अडिग हो गया है, उनसे किस प्रकार के साहित्य-संस्कार की अपेक्षा की जा सकती है यह चिंतन का विषय है| आप चिंता करिए या चिंतन, एक सच यह भी है कि ऐसे लोग अपना मान-ईमान सब बेच-बाचकर कर बाज़ार में उतर आए हैं| ग्राहक (पाठक) की तलाश में कुछ भी बोल सकते हैं कुछ भी लिख सकते हैं| इनको सुनिए नहीं, पढिये तो ठीक तरीके से जवाब दीजिए| आप जवाब देंगे तो ऐसे लोग आगे नहीं आएँगे| आएँगे भी तो सुधर जाएंगे|  


Thursday 22 August 2019

परिवर्तन, सरोकार और कविता का समकाल ६



धर्म और संस्कृति भारत के प्राणतत्व हैं| यहाँ के जन-जीवन में इन तत्त्वों का समावेश कुछ इस तरह का है कि अनादिकाल से ये मनुष्य को आकर्षित करते आए हैं| धर्म जहाँ लोगों को ‘धारण करने’ की सीख देता है वहीं संस्कृति विशेष परिस्थितियों में ढलने के योग्य बनाती है| आस्था, समर्पण, श्रद्धा और कर्तव्य के भाव जहाँ हों वहां ‘धर्म’ की प्रधानता स्वीकार करना चाहिए| रहन-सहन, बात-व्यवहार, चाल-चलन, सम्वाद-विवाद की स्थिति में संस्कृति की भूमिका को चिह्नित किया जाना चाहिए| समय के अनुसार दोनों की मान्यताओं में परिवर्तन होता रहता है| यहाँ धर्म की अपेक्षा संस्कृति अधिक परिवर्तनशील है| यह कभी रूकती नहीं है, प्रवाह है एक जो अनवरत गतिशील रहती है|

परिवर्तन जब होता है, नकारात्मक है या सकारात्मक, काल-प्रवाह निर्धारित करता है| हम जो देख रहे होते हैं और कहीं गहरे में जो भोग रहे होते हैं उसी के आधार पर भविष्य का एक चित्र खींचते हैं| समकालीन हिंदी कवियों की दृष्टि में ‘भारतीय-संस्कृति’ को लेकर जो बदलाव इधर के दिनों में देखने को मिले हैं, हितकर नहीं हैं| आकर्षण में बहुत बार लोग छले गए हैं और आज भी छले जा रहे हैं लेकिन फिर भी इधर कुछ ऐसा है जिसे त्यागना कम से कम ‘भारतीय लोक’ के लिए तो मुश्किल है| यह मुश्किल इसलिए भी है क्योंकि कुछ चीजें परंपरा से अनवरत प्रवाहित होती आई हैं| जीवन-संकट से निकलने में ये ‘कुछ चीजें’ सहायक होती हैं तो विश्वास बढ़ता जाता है|

घर और परिवार उन विशेष चीजों में आते हैं जिन्हें व्यक्ति हर हाल में नहीं छोड़ना चाहता है| कवि श्याम सुन्दर दुबे के शब्दों में कहें तो “नहीं छूटता/ पीछा घर का/ देश-विदेश खाई-खन्दक में/ वही जगाता/ एक फुरहरी/ देह-प्राण के विष्कम्भक में” क्योंकि घर का महत्त्व भारतीय संस्कृति में प्रारंभिक समय से अभीष्ट रहा है| इसी स्थिति को चिह्नित करते हुए निर्मल शुक्ल अपने नवगीत में कहते दिखाई देते हैं-“सबके अपने-अपने घर हैं/ कुछ माटी के/ कुछ चन्दन के”[1] फिर भी कुछ हैं जिनके लिए अब घर घर जैसा नहीं रह गया है| या तो वे घर से ऊबे हुए हैं या फिर घर उनसे| जो घर से ऊबे हुए हैं उन्हें एक बार जरूर उन लोगों से घर के बारे में जानना चाहिए जो घर से बेघर हुए हैं| माधव कौशिक का यह कहना वाकई सच है कि-“दर्द कहाँ कितना होता है, कैसे क्योंकर नहीं हुआ/ उसको क्या मालूम जो अपने घर से बेघर नहीं हुआ|[2]कई स्मृतियाँ ऐसी होती हैं जो व्यक्ति के घर से जुडी होती हैं| जीवन की शुरुआत ही घर-आँगन से होती है| बचपन से लेकर युवापन तक की बहुत सी रवायतें घर की दहलीज में पूरी होती हैं|

यह सांस्कृतिक बदलाव का ही प्रतिफल है कि जहाँ लोग एक दूसरे से गहरे में जुड़े होते थे वहीं “अपनी अपनी दुनिया में है अपना पन/ फैला फैला अपनों का संसार नहीं|”[3] एक बड़े कैनवास में सज कर समय और समाज को गतिशील बनाने वाले रिश्ते संकुचित हुए हैं| इतने संकुचित कि ग़ज़लकार विज्ञान व्रत यह कहने के लिए विवश होते हैं कि “मैं कुछ बेहतर ढूंढ रहा हूँ/ घर में हूँ घर ढूंढ रहा हूँ|” घर में रहकर घर ढूँढने की वेवशी इधर के दिनों में और अधिक सघन हुई है| घर-परिवार से दूर रहना मुनाशिब समझने वाले इस अत्याधुनिक समय के लोग बूढ़े माता पिता की खांसी तक से परहेज करने लगे हैं जिसे अवनीश त्रिपाठी अपने नवगीत में कुछ इस तरह अभिव्यक्त करते हैं “सहयात्री के साथ नया/ अनुबंध नहीं हो पाया/ छतें, झरोखे, अलगनियों/ के साथ नहीं रो पाया/ पीडाओं का अंतर भी अब/ है घनघोर उदासी/ सही नहीं जाती है घर को/  आंगन की बूढी खाँसी|”[4] घर को घर की तरह न पाना, बड़े-बुजुर्गों को बोझ समझना, यह सम्वादहीनता का परिणाम है| कभी जिनके होने भर से सारा परिवेश गुलज़ार होता था अब उनकी उपस्थिति मात्र से उदासी घर कर जाए, सहज विश्वास नहीं होता| ज्ञान प्रकाश विवेक का यह स्पष्ट मत है कि “सानेहा ये, आजकल अनबन में सब मसरूफ़ हैं/ वक्त होता था कभी सारा मुहब्बत के लिए|”[5] आज भी जिस घर और परिवार में सम्वाद है वहां का पक्ष उजला है|

संस्कृति का एक अहम् हिस्सा है सम्वाद| हमें घर परिवार और सम्बन्धों को बचाने के लिए सम्वाद को बढ़ावा देना ही होगा| जहाँ सम्वादहीनता है वहां अवसरों की तलाश स्वयं करनी होगी| यहाँ विज्ञान व्रत का यह सुझाव भी सम्वाद की तरफ हमारा ध्यान आकृष्ट करता है कि “मुझ से मिलने-जुलने को/ अपने पास बहाने रख/ वरना गुम हो जाएगा/ खुद को ठीक-ठिकाने रख|”[6] समय किसी के पास नहीं है यह सच है लेकिन अकेलेपन में कुंठा और संत्रास का शिकार होने से अच्छा है कि पास-परिवेश से जुड़ कर रहने के लिए बहाने तलाशे जाएँ| 

इस स्थिति में एक तरीका तो यह हो सकता है कि कुछ ऐसा प्रयास करो कि सामने वाला सम्वाद की पेशकश स्वयं करे या फिर अपने अहम् को त्यागकर सम्वाद के लिए दूसरे को तैयार करो| कवि अमरजीत कौंके का ‘दिल करता है’ कि “जिनके साथ/ जाने-अनजाने/ गुस्ताखियाँ की/ अपने अहम् में डूबकर/ जिनको बुरा भला कहा/ प्यार में/ जिनके साथ लड़ता रहा/ फिर मुंह फेर लिया/ दिल करता है/ उन सबको मना लूँ|” इस मनाने में ही सम्बन्धों की ऊर्जा को बचाने का संकल्प छिपा है| हालाँकि यहाँ इस बात से भी कवि भिज्ञ है कि “बीत गए पल/ लौटते तो नहीं” लेकिन उसकी अपनी व्यावहारिकता उसे झुकने के लिए विवश करती है जो कहीं न कहीं हम सबकी व्यावहारिकता हो सकती है|

रहन-सहन की स्थिति में भी परिवर्तन लक्षित हुआ है| घर-परिवार से दूर होना और सम्वाद की व्यावहारिक स्थिति ठीक न होने से युवाओं में भटकाव चिह्नित किया गया है| खाली दिमाग यदि खुरापात करता है तो इसकी शुरुआत भारतीय समाज में बड़ी तेजी से हो गयी है| अब भारतीय परिवेश और व्यवहार की बातें करना पिछड़ेपन का द्योतक हो गया है| जो चीजें और स्थितियां देश-व्यवहार में नहीं हैं उनका आचरण करना प्रगतिशील माना जा रहा है| माधव कौशिक की मानें तो यह ऐसा दौर है कि“जीवन की बुनियादी शर्तें/ धीरे-धीरे बदल रही हैं/ धूप, हवा, पानी या रोटी/ कपड़ा, लत्ता या मकान की/ बातें करना/ दकियानूसी होने जैसा लगता है/ घर का खाना/ ठीक वक्त पर घर को जाना/ बीवी से मिलकर हँसना भी/ गये दिनों की बात हो गई|”[7] बीवी के स्थान पर प्रेमिकाओं को घुमाना यह वाकई आज के युवाओं की पसंद होती जा रही है| शादियाँ हो जाने के बाद भी लिव-इन-रिलेशन को अपने व्यवहार में शामिल करना एक अलग तरह का फैशन होता जा रहा है| जयशंकर शुक्ल की दृष्टि में “बिना व्याहे रह रहे/ जोड़े नये परिवेश में अब/ स्नेह घटता जा रहा/ उन्मत्त मिलते क्लेश में सब”[8] जिससे एक बड़ा प्रभाव यह हो रहा है कि युवा पीढ़ी का अधिकांश कुण्ठा और संत्रास से भरा हुआ दिखाई दे रहा है|

तेजी से बदलते समय में वह दिग्भ्रमित हुआ है| स्थितियां बिलकुल उसके वश में नहीं हैं| अधिकांश युवा या तो आसमयिक मृत्यु के शिकार हो रहे हैं या फिर नशे की दलदल में स्वयं को समर्पित कर दे रहे हैं| बृजनाथ श्रीवास्तव की दृष्टि में सही अर्थों में भारतीय परिवेश में “यह अराजक वक्त फिर से/ हाँ, अधर्मी हो चला है/ देखिये कब तक चलेगा/ यह अमानुष सिलसिला है|”[9] यदि यह भी कहा जाए कि हम जहाँ से शुरू हुए थे स्भ्यता के उच्च शिखर पर चढ़ने के लिए वहीं पुनः वापस होते जा रहे हैं| यह अमानुषिक सिलसिला वाकई हमारे परिवेश को अराजक और हमें अमानुषिक बना रहा है|

जिस धर्म में ‘धारण करने’ की प्रवृत्ति थी उसमें ‘नकार के स्वर’ अधिक मुखरित होते देखे गये हैं| धार्मिक कट्टरता, रूढ़िवादिता, बढ़ते आडम्बर को देखते हुए कई बार ऐसा लगता है जैसे हम इक्कीसवीं सदी में न होकर मध्यकालीन जीवन को जी रहे हैं| उस जीवन को जहाँ किसी भी स्थिति पर विश्वास कर लेने के सिवाय और कोई दूसरा रास्ता नहीं रह जाता है| तन्त्र-मन्त्र का प्रभाव, पूजा-पाठ की पद्धतियाँ, सिद्धि प्राप्ति के लिए दान-बलिदान की व्यवस्था, श्रेष्ठताबोध, छुआ-छूत, भेद-भाव, पवित्रता-अपवित्रता को लेकर जो संकीर्णता हमारे मन-मस्तिष्क में वर्तमान हैं वे सभी धार्मिकता की अधार्मिकता में परिवर्तित होते जाने की कहानी कहते हैं| इन कहानियों की यथास्थिति पर हमारे समय के कवि कविता के समकाल में धर्म के प्रभाव को लेकर जो दृष्टि अपनाया गया है वह कोरा यथार्थ है|

धर्म के नाम पर इधर बहुत अधिक दंगे हुए| दलितों और स्त्रियों पर अत्याचार किये गये| उन्हें आज भी कहीं न कहीं मंदिरों के उपयुक्त नहीं माना जाता है| हिन्दू-मुस्लिम नाम पर वैमनस्यता आज से नहीं बहुत दिनों से चली आ रही है जो विकसित होते दौर के लिए एक बहुत बड़ा प्रश्न है| कहीं भी चलते हुए यह डर तो बना ही रहता है कि कहीं किसी मामले या दंगे की चपेट में न आ जाएं| मुजफ्फरनगर और कैराना जैसे शहरों के दंगे आज भी मन-मस्तिष्क में कौंध उठते हैं| जब डी एम मिश्र जैसे शायर यह कहते हैं कि “दंगे करा रहे हो मज़हब के नाम पर/ बस्ती ज़ला रहे हो मज़हब के नाम पर/ कल तक तो बांटते थे पैगाम अमन का/ अब खूं बहा रहे हो मज़हब के नाम पर” तो गली चौराहे और चौकों पर चलते हुए यह डर बना रहता है कि कब किस सम्प्रदाय और धर्म के लोग उतापात मचा दें और आप उसमें घिरकर लहूलुहान हो जाएँ, कुछ भी निश्चित नहीं है| 

देवेन्द्र आर्य का यह प्रश्न भी यहाँ वाजिब लगता है कि जब धर्म का आविष्कार भाईचारे को बढ़ाने और बिखरे हुए लोगों को जोड़ने के लिए हुआ तो यह समझ नहीं आता कि “हमारी सारी आस्थाएं बदले पर क्यों टिकी हैं?/ यह ईश्वरों को ख़ून ख़राबा क्यों पसंद है? क्यों लोग मज़हब के नाम पर तलवारें निकाल लेते हैं? क्यों लोग बेगुनाहों को मारने लगते हैं? धर्म के नाम पर, मंदिर और मस्जिद के नाम पर लड़ने वालों को यह क्यों नहीं समझ आता कि “धर्म मानवीय चिन्तन/ परिवेशगत उत्पत्ति/ जीने की विकासशील कला है/ मनुष्य नहीं गुलाम/ जनक है/ जड़ता मौत/ विकास जिन्दगी है|”[10] जिन्दगी की सच्चाई और जरूरत को उपेक्षित करके मात्र धर्म की रक्षा के लिए परिवेश को कुरुक्षेत्र बना देना बिलकुल भी उचित नहीं है|

यहाँ धार्मिक होना सबके संग-साथ होना नहीं है| सम्पन्न का श्रेष्ठ होना है| कमजोर और गरीब का गुलाम होना है| आम आदमी जब भी ईश्वर के यहाँ गया है दीन-हीन बनकर गया है| ईश्वर के प्रताप उसे हर समय याद दिलाए गये हैं, वह क्या है बताने की कोशिश कभी किसी ने नहीं की है| कवि मनुष्य की शक्ति से परिचित है इसलिए वह सबकी तरह शीश नमा कर नहीं तर्क के साथ जाता है| आम आदमी का प्रतिनिधित्व करते हुए शक्ति और क्षमता से परिपूर्ण होकर जाता है| श्रीप्रकाश शुक्ल संकीर्ण मानसिकता में पूर्णतः उलझे आम प्रवृत्ति से दूर रहते हुए सम्पूर्ण मानवीय प्रवृत्ति के साथ ईश्वर के सम्मुख प्रस्तुत होने का प्रयास करते हैं “हजार वर्षों के तुम्हारे इतिहास में प्रभु!/ हमारे हाथ सिर्फ तुम्हारी पूजा में उठे हैं/ हमारी करुणा सिर्फ तुम्हारे भय के आश्रित रही है/ तुम्हारे रंध्रों में सिर्फ और सिर्फ/ या तो दूध व गंगाजल उतरता रहा है/ या फिर तुम्हारी मिट्टी के बने पुतलों का खून/ यह तो तुम भी नहीं चाहते होगे प्रभु!/ कि हमारे हाथ उठें/ या तो दया में या फिर करुणा में”[11]क्योंकि जिस दिन ‘दया में या फिर करुणा में’ हाथ उठने शुरू हो गये उसी दिन ईश्वरता नाम की कोई चीज नहीं रह जायेगी और सुविधा-कवच के रूप में निर्मित आशियाना ढहता जाएगा|

आज का कवि चाहता है कि सुविधा-कवच टूटे और मनुष्य आपसी सम्बन्धों में ईश्वर-प्रतीक का स्तेमाल न करके स्वयं को ईश्वर-जैसा दिखाए| आस्थाओं पर प्रश्न आज इसीलिए उठने शुरू हो गये हैं| अंकित काव्यांश अपने एक गीत में भजन और प्रार्थना से कहीं अधिक जरूरी जन-वेदना पर ध्यान देने की बात करते हैं क्योंकि “भजन उपेक्षित/ हो भी जाएं फिर भी रोज सुने जाएंगे।/ लेकिन चीखें/ सुनने वाला ध्यान कहाँ से हम लाएंगे?[12] यह प्रश्न उठाना युवा पीढ़ी का जागरूक होना भर नहीं है मानसिक संकीर्णता से ऊपर उठकर यथास्थिति पर विचार करने के लिए लोगों को प्रेरित करना भी है| लोगों ने विचार करना शुरू कर दिया है इसीलिए मनुष्य और ईश्वर के बीच ब्याप्त अंतर ख़त्म होते जा रहे हैं| मनुष्य अपने कर्मों पर निर्भर होता जा रहा है| 

ऐसा करते हुए यह भी नहीं है कि वह ईश्वर हो जाना चाहता है; वह मनुष्य ही रहना चाहता है लेकिन जीवन को अपने मन-माफिक जीना चाहता है| दिविक रमेश को इस बात का ‘बोध’ होता है तो वे यह कहने से नहीं चूकते-“ओ मेरे युग-देवता!/ क्षमा करना/ यदि मैं प्रकट करता हूँ/ तुम्हारे प्रति/ अनास्था ।/ क्योंकि/ मेरे युग-राक्षस ने/ तुम्हें विजित कर/ सिखा दिया है जीना ।/ अन्यथा मैं भी/ बन जाता एक कड़ी/ आत्महत्याओं की/ श्रंखला की|”[13]यह समय आस्थाओं पर विश्वास करने से कहीं अधिक समय-सापेक्ष चलने की मांग करता है| विसंगतियों से भरे दौर में एक सीमा से अधिक आशावादी होना स्वयं के पैर पर कुल्हाड़ी मारना है| आशा भी उसकी की जाए जिसका अस्तित्व तो कम से कम हो| माधव कौशिक की दृष्टि में यह कितनी विडंबना की बात है कि “अजीब दौर में पैदा किया गया हमको/ खुदा नहीं था मगर ऐतबार करना था|”[14] यह कोशिश तो हो ही कि धर्म जैसे सम्वेदनशील मामले में भ्रम और संशय से दूर होकर यथार्थ को स्वीकार करें| यदि हम यथार्थ को स्वीकर करेंगे तो धर्म की संकीर्णता समाप्त होगी और उसके वास्तविक मर्म से हम साक्षात्कार कर सकेंगे|

हिंदी कविता का समकाल संस्कृति और धर्म को अपने तरीके से देखने और समझने के लिए स्वतंत्र है| यहाँ धर्म के सम्बन्ध में कही गयी बातों से कहीं अधिक देखे गये यथार्थ को महत्त्व दिया जा रहा है| नवगीत, ग़ज़ल और कविता में जिस तरीके से आम आदमी की आशाओं-आकांक्षाओं को धर्म की संकीर्ण परिधि से हटाकर अनावरण किया जा रहा है उससे मात्र तर्कशील पीढ़ी को प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है अपितु समन्वयात्मक आतंक रहित परिवेश के निर्माण में भी सहायता मिल रही है|



[1] शुक्ल, निर्मल :  नहीं कुछ भी असम्भव, पृष्ठ-27 
[2] कौशिक, माधव : सारे सपने बागी हैं, पृष्ठ-58
[3] मिज़ाज, अशोक : समन्दर आज भी चुप है, पृष्ठ-95
[4] त्रिपाठी, अवनीश : दिन कटे हैं धूप चुनते, पृष्ठ-91
[5] विवेक, ज्ञान प्रकाश : दरवाज़े पर दस्तक, पृष्ठ-79
[6] व्रत, विज्ञान : मैं जहाँ हूँ, पृष्ठ-15
[7] कौशिक, माधव : कैंडल मार्च, पृष्ठ-33
[8] शुक्ल, जयशंकर : तम भाने लगा, पृष्ठ-37
[9] श्रीवास्तव, बृजनाथ : कैसी है बन्धु! यह सदी, पृष्ठ-35
[10] सं. बलभद्र : शम्भु बादल की चुनी हुई कविताएँ, पृष्ठ-118 
[11] शुक्ल, श्रीप्रकाश : कवि ने कहा, पृष्ठ-75 +
[12] काव्यांश, अंकित : कविता कोश
[13] रमेश, दिविक : (बोध) कविता कोश
[14] कौशिक, माधव : उड़ने को आकाश मिले,पृष्ठ-60

Wednesday 21 August 2019

परिवर्तन, सरोकार और कविता का समकाल ५


कवि का सम्बन्ध राजनीतिक दलों से हो या न हो यह एक दूसरी समस्या है लेकिन राजनीति की सच्चाई को लोगों के सामने रखना और लोगों की सम्पन्नता हेतु कार्य करने के लिए किसी राजनीतिज्ञ पर दबाव डालना, एक कवि की बड़ी ज़िम्मेदारी है| सत्ता जरूरी नहीं कि अपने स्वाभव में लोकहित के लिए चिंतित रहने वाली हो, सत्ता का स्वभाव ऐसा होता भी नहीं है| सबल उसके ‘एजेंडे’ में होता है और निर्बल हर समय ‘हाशिए’ पर रखा जाने वाला जीव| ‘निर्बल’ जितना अधिक परेशान होगा सत्ता उतनी अधिक शक्ति के साथ ‘सबल’ के पक्ष में होती जाएगी|

कवि को सबल के पक्ष में आप नहीं देखेंगे क्योंकि वह उनके कृपापात्र का भूखा नहीं है| एक सबल के पक्ष में न होने से जितनी अधिक यातना उसे कोई दे सकता है उसके लिए स्वयं को तैयार करके ही वह सत्ता के प्रतिरोध में खड़ा होने का साहस करता है| सत्ता का स्वभाव ठीक इसके विपरीत होता है क्योंकि उसकी सम्भावनाएं सबल के हाथों ‘गिरवी’ होती हैं| सही अर्थों में सत्ता लोकहित के विषयों से विमुख न होकर उसकी भलाई के लिए कार्य करे, कवि यही चाहता है| यह चाह कविता के तीनों विधाओं, कविता, नवगीत और ग़ज़ल, के रचनाकारों में समान रूप से विद्यमान है| इनके द्वारा राजनीतिक उदासीनता पर गहरा रोष प्रकट किया जा रहा है| जो हो रहा है वहीं नहीं होना चाहिए, कुछ नया और समाजिक परिवेश के अनुकूल होना चाहिए कवि चाहते हैं| 

जिन घटनाओं को हम ‘हो सकता है’ ‘हुआ तो क्या हुआ’ ‘होता रहता है’ मानकर छोड़ देते हैं कवि मन पर वही घटनाएँ बहुत प्रभाव डालती हैं| घटनाओं के समक्ष जब कोई नहीं बोलता तो वह कवि ही है जो साहस के साथ बोलता ही नहीं अपितु जन के साथ खड़ा भी होता है| देवेन्द आर्य कहते हैं-“कवि नहीं बोला/तो बोलो कौन बोलेगा?/ किसकी दस्तक पर ज़माना आँख खोलेगा?/ किसको अपने आँसुओं में/ पाएगी दुनिया/ घाव अपनी पीठ के दिखलाएगी दुनिया/ अंत में किसकी शरण में जाएगी दुनिया?” कवि घटनाओं की तहरीर तो नहीं लिखता लेकिन घटनाओं से बचे रहने की तरतीब जरूर सुझाता है| जिस समय लोग दुखित करने वाली समस्याओं और घटनाओं का आनंद ले रहे होते हैं वह समय एक कवि के लिए तमाशा देखने का नहीं अपितु समस्याओं का निराकरण खोजने का होता है| आम आदमी जिन विशेष परिस्थितियों में समस्याओं से घिरा होता है कवि उसकी दुर्दशा और वेदना में स्वयं को देखता होता है| इसी कविता के अंत में देवेन्द्र आर्य कहते हैं-“एक कवि ही है/ जो दुःख का भेद खोलेगा/ अपने शब्दों को पसीने में भिंगो लेगा/ कवि नहीं बोला/ तो उसका मौन बोलेगा|” कवि जिस समय बोलने की स्थिति में नहीं होता उस समय उसका मौन यथास्थिति के प्रति मुखरित होता है|

देश असमानताओं की खाईं में धंसा जा रहा है| बेरोजगारी की समस्याएँ हद से बेहद होती जा रही हैं| सांप्रदायिक दंगों और वर्ग-संघर्ष की दलीय मंशा बलवती होती जा रही हैं| गरीब मर रहे हैं और अमीर समृद्ध हो रहे हैं| इन मुद्दों पर अपना ध्यान लगाने के स्थान पर राजनीतिज्ञ अपनी राजनीतिक फायदों के लिए जन सामान्य को अलग ही समस्याओं में उलझा रहे हैं| रोटी की मांग करने वालों को यह सख्त हिदायत दी जा रही है कि-“तुम रोटी के बारे में नहीं/ सोचो तुम देश के बारे में/ तुम सोचो और सिर्फ सोचो/ अगर सोच सकते हो तो/ देश के नक्शे के बारे में/ आरती उतारो उसकी/ फटा सुथन्ना पहने/ भूखे रहकर/ दूखे रहकर भी/ वर्ना तुम्हारी कर ली जायेगी शिनाख्त/ एक देशद्रोही के बतौर|”[1] तो इसका अर्थ क्या यह नहीं निकल रहा है कि सार्थक मुद्दों पर बात और राजनीति न करके जन सामान्य को बेवजह की गैरजरूरी मामलों में उलझाया जा रहा है| ज्ञानप्रकाश विवेक का यह कहना कितना तर्कसंगत है-सियासतदान दान का जलवा तो देखो/ कि सुलझा तार उलझाया गया है”[2] और उलझाए हुए तार में विकास और उन्नति के मुद्दों की बजाय उन मुद्दों को लाकर ठूंस दिया गया है जिनसे न तो समाज को फायदा होना और न ही तो समाज में रहने वाले लोगों को| जब आप उन्हें जन-सामान्य की स्थिति पर ध्यान देने की बात करते हैं तो वे आपको विकास का पैमाना छूने के लिए आमंत्रित करते हैं| माधव कौशिक जैसे रचनाकार यह कहते हुए इस आमंत्रण का प्रतिरोध करते हैं कि-“ख़त्म हो सकती है कैसे दौड़ आटा-नून की/ जब मयस्सर ही नहीं है रोटियां दो जून की|”[3]

जब बात दो जून के रोटी की आती है तो ‘भूख’ केन्द्र में आ जाता है और सभी मुद्दे गौण हो जाते हैं| भूख ही है जो किसी मजबूर को मजदूरी करने के लिए विवश करती है| भूख ही है जो किसी को शोषण की चक्की में पिसने के लिए अभिशप्त करती है| यह भूख ही है कि जब लोग अपने तथाकथित अधिकारों के लिए धरना-प्रदर्शन, तोड़-फोड़ कर रहे होते हैं तो जन साधारण जीवन-अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहा होता है| राजनीतिज्ञों द्वारा ऐसा कुछ नहीं किया जाता| वह सिर्फ रोटी पर राजनीति करते हुए अपना खजाना भर रहा होता है| यानि यहाँ भूख के समानांतर ‘लूट’ का कारोबार सिद्दत से चल रहा होता है-“एक आदमी ज़मीन जोतता है/ फिर कर्ज़ में डूब, भूख से परेशान/ आत्महत्या कर लेता है/ एक आदमी देश जोतता है/ और जनता को लालीपॉप दिखाकर/ अपना ज़ेब भरता है/ मुस्कुराते हुए ऐश करता है/ ध्यान रहे/ देश की कानून व्यवस्था/ मृतकों के लिए नहीं होती|”[4] यहाँ  “जनता को लालीपॉप’ दिखाने का कार्य उन राजनीतिज्ञों द्वारा किया जाता है जो कहीं गहरे में ‘भूख’ और ‘रोटी’ का कारोबार कर रहे हैं|

           यह कारोबार नहीं तो आखिर क्या है कि जनता भूख से पीड़ित है और उसे देशभक्ति का पाठ पढ़ाया जा रहा है| युवा वर्ग बेरोजगारी के दंश को झेलते हुए कुंठा और संत्रास की स्थिति में जा रहा है और सरकारें विकास का पैमाना सेट कर रही हैं| युवा नवगीतकार गरिमा सक्सेना जब जब कहती हैं “सरकारी रिक्तियाँ अधूरी/ झूठे हैं वादे/ सुविधाओं के बल पर आगे/ निकल रहे प्यादे/ ऊपर से शिक्षा ऋण का/ युवकों को गड़ता पिन”[5] तो यथार्थ सामने आकर मुंह चिढ़ाने लगता है| रोजगार यदि किसी परिवार में है भी तो वहां की भी हालत कम खस्ता नहीं है| एक कमाने वाले के आसरे पूरा परिवार है| देवेन्द्र आर्य की यह पीड़ा वाकई समझने लायक है कि-एक पगार में कितने लोग पलते हैं/ इसका तो हिसाब बड़े बाबू के पास है/ मगर एक पगार के लिए कितने लोग ड्यूटी करते हैं/ इसका हिसाब किसी वेतन आयोग ने आज तक नहीं किया/ सुबह नौकरी पर मुझे जाना है/ और पूरा घर न चाहते हुए भी सारे धारावाहिक समेटकर/ दस बजते-बजते बिस्तर पर पड़ जाता है”’[6] जहाँ एक व्यक्ति के नोकरी पर होने से पूरा परिवार नाचता दिखाई देता है वहीं दैनिक आवश्यकता की पूर्ति फिर भी न हो पाने के कारण स्वयं को संकट में फंसा समझता है|

यह कम चिंता का विषय नहीं है कि जहाँ इस देश की युवा पीढ़ी पंगुता की स्थिति में आकर दम तोड़ रही है, सरकारें ‘विज्ञापन’ का खेल खेल रही है| विकास के सारे पैमाने इन दिनों ‘विज्ञापन’ से निर्धारित हो रहे हैं| हवाबाजी इतनी अधिक है कि जैसे चार बूँद नील का पानी में डालने से सारे कपडे उजाले की रंगत में आ जायेंगे| जबकि हकीकत यह है कि अँधेरा और अधिक गहराता जा रहा है, समस्याएँ विकट होती जा रही हैं| समस्याओं के हल होने के नाम पर महज आश्वासन दिया जाना कि सब ठीक हो जाएगा, गले नहीं उतरता| राहुल शिवाय का यह नवगीत उसी स्थिति को अभिव्यक्त करता है| “होगा विकसित देश/ सिर्फ/ विज्ञापन कहता है|/ राम भरोसे भोजन, कपड़ा/ शिक्षा और आवास,/ अर्थ-शास्त्र भी औसत धन को/ कहने लगा विकास|/ सम्मानित समुदाय/ जेठ को/ सावन कहता है|/ जब-जब बात उठी है/ बस्ती कब होगी माडर्न/ तब तब मुद्दा बनकर आया/ पिछड़ा और सवर्ण|/ क्या हालत है,/ मुद्रा-दर का/ मंदन कहता है/ जिसने सपने कम दिखलाए/ हुआ वही कमजोर/ तकनीकों ने संध्या को भी/ सिद्ध किया है भोर/ सब हल होगा,/ बार-बार/ आश्वासन कहता है|” यह आश्वासन ही देश को चला रहा है| राजा से लेकर प्रजा तक महज आश्वासन पर चल रहे हैं| कविता के समकाल के हवाले से कहें तो सभी समस्याओं की जड़ राजनीति है| और हैं भी क्योंकि नीति-निर्धारण की भूमिका में सरकारें हैं| योजनाओं को बनाना और उन्हें कार्य रूप में परिणत करना उन्हीं के हाथों में हैं| जनता एक निमित्त मात्र है| वह पाँच वर्षों में एक बार प्रयोग में लाई जाने वस्तु समझ ली गयी है|

विडंबना तो ये है कि इन विषम परिस्थितियों पर विचार करने की बजाय यहाँ नित प्रतिदिन एक नई पार्टी का एलान किया जा रहा है| शासक बनकर सभी जीना चाहते हैं प्रजा की-सी त्याग भावना दूर तक नजर नहीं आ रही है| यहाँ शासकों की इतनी अधिकता हो गयी है कि जिम्मेदार नागरिक खोजना मुश्किल हो गया है| कीर्ति केसर एक जगह कहती हैं कि शासकों की भीड़ में/ अब कोई एक चाणक्य/ शायद नहीं बदल सकता/ इस स्वतंत्र राष्ट्र की/ नियति को, परिणति को|” ऐसा इसलिए क्योंकि नियति गरीब को गरीब बने रहने देना है और अमीर को और अधिक सुविधाएँ देकर समृद्ध करना है| परिणति जो है वह सबके सामने है| एक तरफ चंद्रयान-2 का सफल परीक्षण किया जा रहा है और दूसरी तरफ कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ का ताण्डव-नृत्य चल रहा है|

इस प्रकार के ताण्डव-नृत्य पर आज कवि वहां रुकता भर नहीं ठिठक जाता है| यह ठिठकना पश्चाताप करना नहीं है| वर्तमान को अतीत की संकीर्णता से मुक्त कराना तो है ही भविष्य के लिए स्वयं को गतिमान करने की प्रेरणा भी देना है| कवि को पता है कि किस तरह आम आदमी को राजधानी में अनसुना कर दिया जाता है इसलिए वह उन्हें यहाँ आने से रोकता है-“तुम्हारे जैसे सरल लोग क्या करेंगे यहाँ/ ये राजधानी सियासत की राजधानी है|”[7] यह रोकन इसलिए है क्योंकि ईमानदार आदमी यहाँ ठगा जाता है| है भी यह एक तरह का व्यंग्य क्योंकि वर्तमान समय की राजनीति में छल, कपट और विद्वेष के अतिरिक्त कुछ है भी नहीं|

कविता, नवगीत, ग़ज़ल विधा में राजनीतिक व्यवस्था के प्रति इस प्रकार की अभिव्यक्ति का आना यह स्पष्ट करता है कि कविता का समकाल समृद्ध है| रचनाकारों में अपने समय और समाज को गतिशील बनाने का साहस है| सामर्थ्य है उनमें हवाओं के रुख को अपनी तरफ मोड़ने का| एक आक्रोश है उनमें जो उन्हें व्यवस्था के प्रति एक प्रतिरोधी के रूप में सचेत रहने के लिए प्रेरित करती है| यदि साहित्य राजनीति के आगे मशाल लेकर चलने वाला माध्यम है तो उस माध्यम की ऊर्जस्विता को बनाकर रखने में समकालीन हिंदी कविताओं की बड़ी भूमिका है| सत्ता सापेक्ष होकर प्रशंसा पाने की अभिलाषा से दूर होकर उपेक्षित और हाशिए पर धकेले जा चुके जन-जीवन के लिए संघर्ष करना आसान कार्य नहीं है| ‘कविता का समकाल’ ‘कहन’ की दृष्टि से ही नहीं ‘चयन और प्रस्तुति’ की दृष्टि से भी एक महत्त्वपूर्ण रचनात्मक पड़ाव है जिसमें समकालीन जीवन-बोध विस्तार से परिभाषित होता है|


[1] चंद्रेश्वर, सामने से मेरे, पृष्ठ-23
[2] विवेक, ज्ञानप्रकाश : दरवाजे पर दस्तक, पृष्ठ-81
[3] कौशिक, माधव : सूरज के उगने तक, पृष्ठ-76  
[4] रवीन्द्र, कुंवर : बचे रहेंगे रंग, पृष्ठ-44
[5] सक्सेना, गरिमा :  है छिपा सूरज कहाँ पर, पृष्ठ-106 
[6] आर्य, देवेन्द्र : प्रयोगशाला में पृथ्वी, पृष्ठ-11  
[7]विवेक, ज्ञानप्रकाश : दरवाजे पर दस्तक , पृष्ठ-111