Tuesday 27 August 2019

तो क्या यह साहित्य और चिंतन में मानहानि का युग है?



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कई बार मैं सोचता हूँ तो सोचता रह जाता हूँ| कई बार हंसी आती है तो बहुत गंभीर हो जाना पड़ता है| ये जो हमारे समकालीन रचनाकार हैं (जिनको ये विश्वास है कि यदि वे न होते तो साहित्य में बहुत कुछ खाली रह जाता) आखिर किस मानसिकता और दिमाग के बने हैं? साहित्य-परम्परा और रीतियों से इनका कोई सरोकार है भी या नहीं? यह भी हो सकता है कि इनमें से बहुत लोग परंपरा जैसी किसी स्थिति को न मानते हों, क्यों
कि जब से ये हैं तभी से साहित्य प्रकाश में आना शुरू हुआ है| इसके पूर्व के जो लिख गए या तो अनाड़ी थे या फिर यश-लोभी, ऐसा ये मानते हैं|

जहाँ तक मैं पढ़ा हूँ (और जहाँ तक जानता हूँ) साहित्य विचार-विनिमय का एक माध्यम है| मैं आपकी सुनूं आप मेरी सुनें| जो सुनने-सुनाने लायक नहीं हैं वे पढ़ें| विचार फिर भी देना होता है पक्ष या विपक्ष में| कहने और सुनने वाला भी एक पाठक होता है पहले| यह सब बगैर किसी दबाव के होता है| यहाँ पटीदारी निभाने जैसी कोई स्थिति नहीं होती| नाराजगी और मान-मनौती वाली स्थिति भी न के बराबर होती है (जबकि यह सत्य है कि यही आज के साहित्य का यथार्थ रह गया है)|

पके हुए भोजन को खाने के बाद जैसा स्वाद होगा, वह आप कहेंगे ही| एक पल के लिए यदि स्वाद नहीं ठीक बना तो आप यह कहने में संकोच नहीं करेंगे कि यह स्वादिष्ट नहीं है| यदि अच्छा बना है तो वाह-वाह तो होनी है| यह भी सम्भव है कि पसंद एक जैसी नहीं होती सबकी| एक ही व्यंजन को खाने वाले अलग-अलग तरह के लोग होते हैं| अलग-अलग ढंग से खाते हैं| स्वाद के विषय में निर्णय लेने की स्थिति में न तो खाना बनाने वाला उसे अपने पक्ष में बोलने के लिए विवश कर सकता है और खाने का अवसर देने वाला| खाना बनाने वाला कितना भी लापरवाह क्यों न हो मेहनत वह भी करता है| लेकिन जब उसके बनाए भोजन में कमियां निकाली जाती हैं तो बहुत झल्लाने के बाद भी स्वीकार करता है वह; मानहानि का दावा नहीं करता| ऐसा यदि करता होता और यह परम्परा में होती तो कितने खाने वाले रोज जेल में बंद होते और उन पर मानसिक उत्पीड़न का केस चलाया जाता|       

इधर हिंदी साहित्य में यह सब बीते जमाने की बात होती जा रही है| बनाने वाले ने यदि बनाया है तो प्रशंसा ही करनी है आपको| भले ही उसके साहित्य में कुछ न हो, भले ही चरस-गाँजा-भांग से भी बदतर स्थिति का मादक पदार्थ वह अपने साहित्य में दिखाए आपको वाह-वाह करने का ही अधिकार है| आह भी करेंगे यदि तो उसके पात्र की स्थिति पर| आपको वितृष्णा हो, घृणा हो, नाक सिकोड़ लें दुर्गन्ध से बचने के लिए लेकिन बताना है अभिनव महक देने वाला अचूक लेखन ही| विलासिता की जड़ तक जाकर कुंठित सामग्रियों को अपने पुस्तकालय का हिस्सा बनाए के लिए विवश किया जाएगा क्योंकि यह बाज़ार युग है| इस बाज़ार युग में बड़े-बड़े शीलवान भी शिलाजीत और विगोरा जैसी साहित्यिक-टिकिया का प्रचार करते आपको दिख जाएँ तो आश्चर्य नहीं है| प्रचारक सिर्फ पैसा कमा रहा है उसे अपने घर-आलमारी में नहीं रखना चाहता लेकिन आपसे पूरी उम्मीद संजोए है कि यह अपने घर के नव-निहालों को पढाएं-दिखाएं कि समय और देश बदल रहा है|

आप यदि उस प्रचार-गुट में फंस चुके हैं तो प्रचार करना आपकी भी मजबूरी है| न कुछ करेंगे तो ऐसे लोगों को खोजेंगे जो इनका विरोध कर रहे हैं| जो शक्ति के साथ अपने घर का दरवाजा बंद किये हैं और नहीं आना देना चाहते आलतू-फालतू-लोगों-सामग्रियों को, उन्हें पुरातनपंथी, स्त्री-विरोधी, पिछड़े जमाने के आदि आदि उपमाओं से विभूषित करेंगे| कई बार उल-जलूल भी बकेंगे| यह वे भूल जाते हैं कि नंगों को कपडा पहनाने की कोशिश करना स्त्री का विरोध करना नहीं है अपितु उसे उस परिवेश में रहने लायक सहज बनाना है| वे यह भी भूल जाते हैं कि नशे के लिए रोक लगाना पुरातनपंथी होना नहीं, स्वस्थ मानसिकता का निर्माण करना है| दरअसल ऐसे ही लोग चमचा, चाटुकार और धूर्तों की श्रेणी में आते हैं जो विदूषक की तरह इधर से उधर नाचना अपना कर्तव्य समझते हैं| इन्हें सृजन-उजन से कोई लेना देना नहीं|

यह अब इस समय की एक खाशियत होती जा रही है कि यदि आप किसी के विचार, चिंतन और व्यवहार को गलत कहते हैं (जबकि वह है भी गलत) तो वह विधिवत अखाड़े में उतर कर आपको मानहानि के केस की धमकी देता है| वह सरेआम यह आरोपित करता है कि आपने उस पर प्रश्न उठाकर उसके अस्तित्व और मानसिकता को ठेस पहुंचाया है| यहाँ विदूषकों की भूमिका भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं होती| वह ऐसा करने का पूरा समर्थन करता है और मजे की बात यह है कि उसके व्यवहार में स्तर से नीचे उतर कर भाषाओं का व्यवहार करता है| जैसे कोई जागरूक प्राणी न होकर उसके कौरे पर पलने वाला कोई पालतू कुत्ता हो, जो हर समय भौं-भौं करता-फिरता है|


तो क्या यह साहित्य और चिंतन का मानहानि युग है? क्या यहाँ सब अपना ही कहेंगे-सुनेंगे? जबकि यही लोग हैं तो ‘देशद्रोही’ ‘टुकड़े-टुकड़े’ ‘भक्त’ जैसे शब्दों के आगमन से हैरान और परेशान हैं| यदि सोच सकते हैं तो कभी सोचिए ऐसे मुद्दों पर और अपना विचार दीजिए|

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राजनीतिक सत्ता के प्रतिरोध की बात तो सभी करते हैं लेकिन साहित्य-सत्ता के प्रतिरोध की बात कौन करेगा? कौन कर रहा है? जब तक साहित्य में लोकतंत्र नहीं आएगा राजनीतिक लोकतंत्र एक छलावा भर रहेगा| हिंदी साहित्य में 'प्रतिरोध' का जो राग है वह नितांत पंगु है| यहाँ प्रशंसा के बहुत सारे कसीदे पढ़ सकते हैं आप| लोग चाहते भी यही हैं कि आप पढ़ें ऐसा| नहीं पढ़ते तो मूर्ख, चूतिया जैसे विशेषणों से नवाजे जाने के लिए तैयार रहिये| इसलिए भी क्योंकि आप साहित्यकार होने से पहले एक जागरूक पाठक हैं और उससे भी पहले एक जिम्मेदार नागरिक हैं| गलत को गलत कहने का साहस है आपमें| यह न तो साहित्य के सत्तासीन आकाओं को पसंद है और न ही तो उनके दरबार में हाजिरी देने वाले दरबारियों को| 

इधर के दिनों में लगातार सक्रिय रहने से एक बात का अनुभव जरूर हुआ कि हिंदी साहित्य का क्षेत्र मंदबुद्धि मूर्खों से भरा पड़ा है| यहाँ आप साहित्यिक आलोचना करते हैं (एकदम रचनागत होकर) तो लोग उसे व्यक्तिगत उलाहना समझते हैं| व्यक्तिगत प्रशंसा करते हैं (एकदम भक्तिभाव से भर कर) तो लोग उसे साहित्यिक सरोकार समझते हैं| रचनागत और व्यक्तिगत तक के भाव को अलग कर पाना लोगों के लिए मुश्किल हो गया है| विडंबना तो ये है कि ऐसे लोग ही वर्तमान साहित्य के सर्वेसर्वा होने का दमखम पाल बैठे हैं| पत्रिकाएँ इन्हें प्रकाशित कर रहीं हैं और प्रकाशक पैसे कमा रहे हैं और ये इतराए फूल रहे हैं| जब आप इनका लिखा पढ़ते हैं तो सिर पकडकर बैठने के सिवाय कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता|  

इधर के तथाकथित आलोचकों, सम्पादकों, प्रकाशकों ने एक ऐसे गुट को फलने-फूलने और पनपने दिया जिनके पास मसालों को छोड़कर न तो कविता-सृजन की समझ है और न ही कथा-सृजन का विवेक| बालीवुड के ए ग्रेड फिल्मों की तरह लिखने वाले लोग स्वयं को लोक का हितैषी मान बैठे हैं जबकि योनि-गुदा-केलि-संसर्ग-अटक-मटक-चटक-फटक-चेहरा-मोहरा जैसे प्रसंगों को निकाल दिया जाए तो उनके पास कुछ बचे ही न| बहुत गहरे में यदि यह सब है तो कहीं न कहीं वे साहित्य सर्जक न होकर मादक-साहित्य के व्यापारी हैं|

इधर व्यापारियों ने कुछ उजड्ड किस्म के गुंडे पाल रखे हैं| वे साहित्य को चर्चा-परिचर्चा से परे मानकर चलते हैं| ये रीतिकाल के दरबारी संस्करण हैं| यदि आप प्रशंसा न करके ठीक विश्लेषण कर दें तो ये गुंडे आपका धर-पकड़ शुरू कर देंगे| गाली-गलौज पर उतर आएँगे| शब्द-संस्कार तो है नहीं क्योंकि जिनको पढने से शब्द-संस्कार आ सकने की संभावना है, उन तक ये पहुँच ही नहीं सकते| कुंठा से उपजा साहित्य जब पढ़ेंगे तो कुंठित भाषा का ही स्तेमाल होगा, यह सभी जानते हैं| ऐसे लोग कभी किसी समय बलात्कार जैसी वीभत्स घटनाओं को भी प्रेम का नायाब तरीका न घोषित कर दें, डर इस बात का है|

जिनका अस्तित्व ही गुदामें आकर सिमट गया है, मान-सम्मान ही फ्री-सेक्स की मांग पर आकार अडिग हो गया है, उनसे किस प्रकार के साहित्य-संस्कार की अपेक्षा की जा सकती है यह चिंतन का विषय है| आप चिंता करिए या चिंतन, एक सच यह भी है कि ऐसे लोग अपना मान-ईमान सब बेच-बाचकर कर बाज़ार में उतर आए हैं| ग्राहक (पाठक) की तलाश में कुछ भी बोल सकते हैं कुछ भी लिख सकते हैं| इनको सुनिए नहीं, पढिये तो ठीक तरीके से जवाब दीजिए| आप जवाब देंगे तो ऐसे लोग आगे नहीं आएँगे| आएँगे भी तो सुधर जाएंगे|  


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