हिंदी कथा साहित्य के
विकासात्मक पथ पर सामाजिकता की पहचान कराती समय सन्दर्भ की कहानियों द्वारा
साहित्य को बहुत हद तक समृद्ध किया जा चुका है | दादा दादी के किस्सा-पहेली से चलकर वर्तमान समय के यथार्थ तक निःसंदेह
कहानियों को कई रूप प्रदान किया गया और अनवरत आज भी इसे नित नवीन रूप में ढालकर
विभिन्न स्वरूपों में फिट किया जा रहा है | ध्यान देने की बात तो ये है कि यदि
कहानी के प्रारंभिक स्वरुप पर चर्चा किया जाय तो ये इसलिए सुनाई जाती थी कि
व्यक्ति बहुत कुछ सीख सके | समझ सके, जान सके स्वयं को, स्वयं के साथ साथ अपने
समाज और परिवेश को, पर आज ये स्थितियां पूर्णतः ताक पर रख दी गयी हैं | जो
स्वाभाविकता, व्यावहारिकता और कथात्मक गतिशीलता हिन्दी-साहित्य के उन्नीसवीं और
बीसवीं सदी की कहानियों में पायी जाती थी, वह इन दिनों की कहानियों में जैसे
मृत-प्राय सी हो उठी है | जो वाक्य-विन्यास, कथानक, देशकाल वातावरण तब के कहानियों
में प्रमुखता से अपनी उपस्थिति रखने में सफल हो पाते थे आज वे प्रायः रचनात्मक
प्रक्रिया से ही बाहर हो उठे हैं | परिणामतः नवीन और पुरातन के मध्य का अंतराल
अपना साकार रूप ले उठा है | वर्तमान समय-समाज को केंद्र में रखकर लिखी जाने वाली
कहानियों में नवीनता के नाम पर कई ऐसे विषयों का चयन किया जा रहा है, पाठक प्रायः
इस स्थिति को समझने में ही सम्पूर्ण कहानियों का पाठ कर ले जाता है कि अब उसे कुछ
मिलेगा कि तब उसे कुछ मिलेगा | यह बात बड़ी स्पष्टता के साथ स्वीकार किया जा सकता
है कि आज के रचनाकार कहानी के माध्यम से पूरे तिलिस्म को मोड़ने के लिए उतावले हो
उठे हैं | उनका यह उतावलापन निःसंकोच उनके साथ साथ एक पूरी पीढ़ी को पाशुविकता की
तरफ ले जा रही है |
वर्तमान समय सन्दर्भ में
लिखी जाने और छापी जाने वाली कुछ पत्रिकाओं को मैं विल्कुल भी शुद्ध और साहित्यिक
पत्रिका मानने के पक्ष में नहीं हूँ | यदि इनका स्तर यही है तो जिन्हें हम घासलेटी साहित्य कहते हैं या
फिर जिन्हें पोर्न साईट का दर्जा दिया जाता है, उन्हें हम क्या कहेंगें? विद्वत
मण्डली में उन्हें अब तक चर्चा परिचर्चा और अलोचना के केंद्र से दूर क्यों रखा जा
रहा है? जबकि सच्चे अर्थों में जाना जाय तो असली प्रगतिशीलता उन्हीं कहानियों में
दिखाई देती है | ढोंग-ढकोसले को बेपर्दा करने में इन कहानियों का कोई जवाब नहीं | पितृ
सत्ता को चुनौती और परम्पराओं का उन्मूलन जिन अर्थों में हम उन साइटों पर अथवा
पत्रिकाओं में छपने वाली कहानियों में पाते हैं अन्य किसी दूसरे स्थानों पर ऐसी
कहानियों का मिलना असंभव है | स्वतंत्रता, स्वच्छंदता, समानता और समरसता के भाव,
वसुधैव कुटुम्बकम और सत्यम, शिवम, सुन्दरम की भावना इन कहानियों में सुन्दर तरीके
से प्राप्त किये जा सकते है (जिस तरीके की स्थिति की मांग आज के इस उत्तराधुनिक
समय में तमाम विमर्शों के माध्यम से की जा रही है) | अंतर बस यही होगा कि उनमे वे
मूल्य नहीं होंगे, वे विमर्श नहीं होंगे, वे संवेदनाएं नहीं होंगे, जिन्हें भारतीय
परिवेश के आवरण में अब तक किसी न किसी रूप में जीवित रखा जाता रहा या जीवंत और
साकार रूप देने के लिए संघर्ष किया जाता रहा | उनका रूप बहुत कुछ हद तक वैसा ही
होगा जैसा आज के समाज में घटित हो रहा है |
आज के सामाजिक वातावरण
में स्वतंत्रता की मांग को जिस हद तक व्यापकता देने का प्रयास किया गया है उससे
अराजकता का ही फैलाव हुआ है | समकालीन मानवीय स्थितियों को मूल्यांकित करने पर यही
निष्कर्ष निकलता है कि यह स्वतंत्रता स्वतंत्रता न होकर स्वच्छंदता में तब्दील हो
चुकी है | कभी विद्वानों द्वारा कल्पित यह धारणा “स्वतंत्रता वही है जो सदैव
बंधनों से आच्छादित हो” अपने मूल आधार को ही तिलांजलि दे चुकी है | बंधन के मायने
बदल चुके हैं | सामाजिक संबंधों में जिन बन्धनों को कभी अनिवार्य समझा जाता था आज
वे गुलामी के प्रतीक माने जाते हैं | छोटे-बड़े का भाव, स्त्री-पुरुष का भाव,
पिता-पुत्र का भाव, पति-पत्नी का भाव, भाई-भावज का भाव किस तरह से आज कुभाव बनकर
असामाजिक वातावरण के संचरण में सहभागी बन रहे हैं यह कहने की आवश्यकता नहीं है,
देखने की है | साहित्य समाज का दर्पण कभी हुआ करता था आज समाज साहित्य का दर्पण है
| समाज के बदलते प्रतिमानों से साहित्य काफी कुछ परिवर्तित हुआ है | कथा-संसार का
वर्तमान परिदृश्य उसी परिवर्तित स्वरुप का तकाजा है |
कितनी गजब की स्थिति है कि आज के वर्तमान साहित्यिक विमर्शों में सुन्दर और
सार्थक रिवाजों को रूढ़िवादिता की संज्ञा देकर ख़ारिज किया जा रहा है और जो नवाचार
की श्रेणी में परिभाषित होकर हमारे मन-मस्तिष्क में नकारात्मकता का बीज बो रहे
हैं, उनका स्वागत किया जा रहा है | दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श,
सिने विमर्श, युवा विमर्श, बुजुर्ग विमर्श ये जितने विमर्श हैं, साहित्यिक
विमर्शकारों की नजर में कुछ भी हों मुझे तो ये सामाजिकता की नींव को कमजोर करने के
ही विमर्श प्रतीत होते हैं | यदि समाज का अर्थ विभिन्न प्रकार के समुदायों,
समूहों, वर्गों आदि के संगठित्त एवं एकत्रित रूप से है तो वर्तमान समय में यह स्थिति कितने हद तक उस रूप
में समाहित है, विचार करने का समय है | वास्तविक विमर्श का मुद्दा तो यही है कि
क्या हम आज उसी समाज में वर्तमान हैं जिसका निर्माण पशुविकता से बहुत दूर होते हुए
हम सबने मानवीय समाज के रूप में किया था | यहाँ यह भी विभिन्न पत्रिकाओं एवं
विमर्शों के आईने में छपने वाली हिन्दी कथा साहित्य के माध्यम से ही समझने का विषय
है कि हम जितने पढ़े-लिखे-समझदार, मन और मस्तिष्क से विकसित होते गए हैं, अपने
अधिकारों के प्रति उतने ही जागरूक और समर्पित होते गए हैं | लेकिन जितना समर्पण हमारा
अपने अधिकारों के प्रति बढ़ा क्या अपने कर्तव्यों के प्रति भी हम उतने ही जागरूक और
समर्पित दिखाई दिए हैं |