Monday 16 September 2019

आभिजात्य यौनिकता का स्थापत्य : नव स्त्रीवाद


(लहक : अप्रैल - सितम्बर २०१९ अंक में प्रकाशित)

समकालीन हिंदी कविता में स्त्री का प्रश्न उसके अस्तित्व से हटकर उसी स्थिति के इर्द-गिर्द घूमकर ठहर गया है जिससे वह बचने और लगभग मुक्त होने का उपक्रम करती रही है| पुरुष-दृष्टि में उसका महत्त्व महज उसके ‘रूप-आकर्षण’ तक सीमित रही, स्त्री दृष्टि ने भी उसे ‘देह’ से अधिक देखने की कोशिश नहीं की| विरोध जब व्यक्तिगत अभिरुचियों पर केन्द्रित होता है तो प्रकारांतर से हम विरोधी के अनुकूल एक परिवेश का निर्माण कर रहे होते हैं| स्त्री-मुक्ति की लालसा लिए स्त्री रचनाकारों द्वारा कुछ ऐसा ही किया गया| समकालीन हिंदी कविता के नव स्त्रीवाद द्वारा पुरुष-विरोध में स्त्री-पक्ष को रखने की अपेक्षा में पुरुष-दृष्टि का अनुगमन किया गया| ध्यान से देखने का प्रयास करेंगे तो पुरुष की अपेक्षा स्त्री को एक ‘वस्तु’ के रूप में देखने की पैरवी स्त्रियों रचनाकारों ने ख़ूब किया|

यह इनकी पैरवी का ही खामियाजा है कि युवा-हृदय मशाला और चटकारे की लत लिए कविता के क्षेत्र में पदार्पण करता है और प्रेम की अंतरंगता की तलाश करता हुआ बाह्य आकर्षण में उलझकर रह जाता है| यह उलझना महज वायावी और काल्पनिक नहीं होता अपितु कई बार यथार्थ का अतिक्रमण भी कर बैठता है| इधर एक भ्रम का सृजन किया जाता है और इस भ्रम को यथार्थ के तमगे से विभूषित कर दिया जाता है| अधिकांश स्त्री रचनाकारों के लिए ‘यथार्थ’ अभिव्यक्ति का माध्यम न होकर अपनी ‘कुण्ठा’ परोसने का साधन होता है| इस साधन का प्रयोग दैहिक-विमर्श के दायरे में खूब हुआ है|

नव स्त्री रचनाकारों के यहाँ इस भोगे हुए यथार्थ में भी दो तरह के यथार्थ निकलकर सामने आए हैं| एक यथार्थ वह है जो भोगा कम गाया अधिक जाता है और एक वह है जो भोगे हुए को तमाम विसंगतियों के बावजूद अभिव्यक्त किया जाता है| इन दिनों के साहित्यिक गलियारे में गाए जाने वालों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है| इनका सच से कोई सरोकार नहीं होता जितना झूठ, बनावटीपन और दिखावे की प्रवृत्ति से| इनका सच इनके अपने समय के घटित या उपजी विसंगतियों से न आकर पुरस्कारों और मठों की दशा-दिशा तय करने वाली राजनीतिक गुटबाजियों से आता है| यहाँ ‘झण्डे’ और ‘राशि’ को देखकर ‘प्रतिरोध’ और ‘विरोध’ के स्वर निर्धारित किए जाते हैं| ‘मंच’ और ‘संघ’ द्वारा संचालित इनकी दृष्टि कविता के अनुभूति सत्य को बर्खास्त कर ‘बनावटीपन’ के यथार्थ का कोलाज रचती हैं| इस कोलाज में गालियों का नया समाजशास्त्र तो दिखाई ही देता है यौनिकता के प्रति ‘मूढ़ लिप्सा’ भी मुखर होकर कर सामने आ जाती है| कहने को ये पारंपरिक ढाँचे को तोड़ने का उपक्रम कर रही होती हैं लेकिन यथार्थ में वासना के गहन जंगल में प्रवेश करते हुए यौनिकता के आनंद को भूख में तब्दील करने वाली मनोवृत्ति को विकसित कर रही होती हैं|

इस प्रकार की कवयित्रियों में शुभम श्री, मोनिका कुमार, सोनी पाण्डेय, रश्मि भारद्वाज, लवली गोस्वामी जैसी कवयित्रियाँ हैं जिनका पदार्पण तो ठीक-ठीक सामाजिक सन्दर्भ में होता है लेकिन विकास झुण्डों, गुटबंदियों, पुरस्कारों की राजनीति में उलझकर रह जाता है| इनकी कविताएँ एक समय के बाद किसी सार्थक विमर्श का माध्यम न होकर ‘कुण्ठा’ में रूपायित हो जाती हैं| यहाँ सामाजिक जागरूकता, सामाजिक चेतना और स्त्री जीवन की विसंगतियां प्रधान न होकर, केन्द्रीय विषय यौनिकता के रास्ते मौज-मस्ती, अठखेलियाँ, हँसी-मजाक तक सीमित होकर रह जाता है| इनके लिए यौन-संतुष्टि सबसे बड़ी जरूरत है| इस जरूरत के लिए कोई सैनेटरी नैपकीन का रोना रो रहा है तो कोई गुदा-उपेक्षा के दर्द से पीड़ित है| ये दोनों विमर्श खाए-पिए-अघाए स्त्रियों के मौज-मस्ती के हथकंडे हैं यहाँ स्त्री-स्वतंत्रता और अपेक्षा-उपेक्षा का दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है| सैनेटरी नेपकिन की यथा-व्यथा से पीडित शुभम श्री के इस अभिव्यक्ति से यथार्थ का कौन-सा रूप व्याख्यायित होता है? ये स्पष्ट नहीं होता-“मेरे हॉस्टल के सफ़ाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन/ फेंकने से कर दिया है इनकार/ बौद्धिक बहस चल रही है/ कि अख़बार में अच्छी तरह लपेटा जाए उन्हें/ ढँका जाए ताकि दिखे नहीं ज़रा भी उनकी सूरत/ करीने से डाला जाए कूड़ेदान में/ न कि छोड़ दिया जाए/ 'जहाँ-तहाँ' अनावृत/ पता नहीं क्यों/ मुझे सुनाई नहीं दे रहा/ उस सफ़ाई कर्मचारी का इनकार/ गूँज रहे हैं कानों में वीर्य की स्तुति में लिखे श्लोक|” यहाँ कोई विमर्श नहीं बौद्धिक खुरापात जरूर नजर आता है| यही खुरापात “मिस वीणावादिनी, तुम्हारी जय हो बेबी” कविता में किया गया है जहाँ यौनिक विषयों का वर्णन मात्र मिलता है और कुछ नहीं| ध्यान से इस कविता की कुछ पंक्तियों को पढ़ा जाए तो महज सनसनी पैदा करने के लिए अथवा वैचारिक उग्रता का परिचय देने मात्र के लिए यह कविता लिखी गयी है| आखिर जाँघों, नितम्बों, उरोज और योनि आदि का वर्णन करके कौन-सी अपेक्षा-उपेक्षा की परख की जा रही है? जिस पुरुष वर्चस्व को चुनौती देने के लिए कवयित्री का महिमा-गान किया जाता है उसी के हथियारों का प्रयोग करते हुए कवयित्री अमर हो जाना चाहती है| अमरता की ऐसी भूख किस तरह मानसिक दारिद्रय तक इनको लेकर जा सकती है वह इस कविता में देखी जा सकती है—“तीक्ष्ण नाक, सुघड़ अधर, सुदीर्घ कण्ठ वाली/ या चपटी नाक, मोटे अधर, छोटे कण्ठ वाली/ उन्नत उरोज, क्षीण कटि, घने केश वाली/ या सपाट उरोज, स्थूल कटि, श्वेत केश वाली/ सुन्दर रोमावलियुक्त योनि वाली/ या श्यामवर्ण योनि वाली/ कदलीस्तम्भ के समान जंघाओं वाली/ या मेद क्षीण होने की रेखाओं भरी जंघा वाली/ धनुष के समान पिण्डली वाली/ या बबूल की छाल जैसी पिण्डली वाली/ तुम्हारे लालिमायुक्त चरणों की जय हो”


इन कविताओं को पढ़ते हुए कवयित्री के विधिवत किसी गाली-समाजशास्त्र से संस्कारित और दीक्षित होने का अनुमान होता है| ऐसे स्कूल में सही मुद्दों, विमर्शों और विषयों पर चर्चा-परिचर्चा करना अपराध माना जाता है| सुरा और सुंदरी का यह वैचारिक उन्माद मात्र स्त्री-अंगों और वासना-उपकरणों तक सीमित होता है जहाँ ‘रोमावलियुक्त योनि’ ‘श्यामवर्ण योनि’ ‘कदलीस्तम्भ के समान जंघाओं’ आदि  का वर्णन और रेखांकन बहादुरी माना जाता है| इस बहादुरी का पुरस्कार मंच और दिखावटी प्रशंसा तो है ही तथाकथित बड़ी पत्रिकाओं द्वारा सनसनीखेज प्रकाशन भी है|

बौद्धिक प्रलाप में निमग्न इस कवयित्री के लिए जन-जीवन की यथा-व्यथा से कुछ लेना-देना नहीं है| कहने को तो प्रेम की स्वतंत्रता की हिमायती हैं लेकिन यथार्थतः इनके यहाँ प्रेम की पीड़ा का रंच मात्र भी कहीं नहीं दिखाई देता| यदि कुछ दिखाई देता है तो वह है प्रेमिका और प्रेमी का सतही वर्गीकरण| यह वर्गीकरण महानगरीय जीवन-शैली की एक ख़ास पहचान है जिसमें अधिकांश कवयित्रियों का मन खूब रमता है| ऐसे परिवेश में रोटी-कपड़ा-मकान-संस्कार-शिक्षा-अशिक्षा आदि की चर्चा नहीं होती, चर्चा होती है तो प्रेमिकाओं, पत्नियों और बॉय फ्रेंड्स की वरायटी आदि की| इस वरायटी में भी वे परिवेश के न होकर आसमान के तारे तोड़ते नजर आती हैं|—पत्नी और प्रेमिका के सन्दर्भ में यह बौद्धिक प्रलाप महज खिलवाड़ बनकर रह जाती है—“उन्हें एशिया का धैर्य लेना था/ अफ़्रीका की सहनशीलता/ यूरोप का फ़ैशन/ अमेरिका का आडम्बर/ लेकिन वे दिशाहीन हो गईं/ उन्होंने एशिया से प्रेम लिया/ यूरोप से दर्शन/ अफ़्रीका से दृढ़ता ली/ अमेरिका से विद्रोह/ खो दी अच्छी पत्नियों की योग्यता/ बुरी प्रेमिकाएँ कहलाईं वे आख़िरकार|”  यह प्रलाप यहीं नहीं रुकता है| वासना की जमीन में प्रेम का अंकुरण नहीं होता| दिखावा जरूर होता है|

शुभम श्री के यहाँ यह दिखावा अधिक है| वह प्रेम-स्वच्छंदता का जो दृश्य दिखाना चाहती है वह किसी ‘मूर्ख व्याख्यान’ से कम नहीं है| ऐसे अभिव्यक्ति को कविता कहने में भी संकोच होता है| “मेरा बॉयफ्रेण्ड एक दोपाया लड़का इन्सान है/ उसके दो हाथ, दो पैर और एक पूँछ है/ (नोट- पूँछ सिर्फ़ मुझे दिखती है)/ मेरे बॉयफ्रेण्ड का नाम हनी है/ घर में बबलू और किताब-कॉपी पर उमाशंकर/ उसका नाम बेबी, शोना और डार्लिंग भी है/ मैं अपने बॉयफ्रेण्ड को बाबू बोलती हूँ/ बाबू भी मुझे बाबू बोलता है/ बाबू के बालों में डैण्ड्रफ है/ बाबू चप-चप खाता है/ घट-घट पानी पीता है/ चिढ़ाने पर 440 वोल्ट के झटके मारता है/ उसकी बाँहों में दो आधे कटे नीबू बने हैं/ जिसमें उँगली भोंकने पर वो चीख़ता है/ मेरा बाबू रोता भी है/ हिटिक-हिटिक कर/ और आँखें बन्द कर के हँसता है/ उसे नमकीन खाना भौत पसन्द है/ वो सोते वक़्त नाक-मुँह दोनों से खर्राटे लेता है/ मैं एक अच्छी गर्लफ्रेण्ड हूँ/ मैं उसके मुंह में घुस रही मक्खियाँ भगा देती हूँ/ मैंने उसके पेट पर मच्छर भी मारा है/ मुझे उसे देख कर हमेशा हँसी आती है/ उसके गाल बहुत अच्छे हैं/ खींचने पर 5 सेण्टीमीटर फैल जाते हैं”| इस लम्बे प्रलाप में जो एक चीज दिखाई देती है वह ये कि “मैं उसके मुंह में घुस रही मक्खियाँ भगा देती हूँ/ मैंने उसके पेट पर मच्छर भी मारा है|”  मक्खियाँ भगाने और मच्छर मारने की योग्यता में प्रवीण कवयित्री से किसी सार्थक विमर्श की उम्मीद करना ठीक नहीं है| इसलिए भी क्योंकि जिस स्कूल से ऐसे अभिव्यक्ति संचालित होते हैं वहां जमें रहने के लिए इस प्रकार के सृजन की अनिवार्यता ही प्रासंगिक होती है|    

मोनिका कुमार ऐसी ही कवयित्री हैं जो रोल मॉडल बनने की ख्वाहिश में मॉडल मात्र बनकर रह जाती हैं| इनके यहाँ रोजगार, गरीबी, आतंकवाद, सम्प्रदायवाद, आर्थिक असमानता जैसे शब्द बैमानी हैं| भुखमरी है तो महज जिस्म की| लिप्सा है, लालच है प्यास भी है तो महज वासना की| जिस्म और वासना की पूर्ति में भी माँग ऐसी कि“जीवन बीत रहा है/ और अभी तक मैं गुदास्थान के चरित्र से अनजान हूँ,/ अनभिज्ञता की ऐसी स्थिति में/ क्या मुख लेकर जाऊँगी स्वर्ग में,/ द्वारपाल पूछेंगे गुदास्थान के रहस्य/ और मैं उलझी हुई व्याख्याओं से,/ उनका समय और अपना भविष्य नष्ट करूँगी/ जीवन बीत रहा है/ और मैं अभी भी टाल रही हूँ जीवन के वास्तविक प्रश्न,/ नितंबों को अभी तक नहीं पूरी तरह अपनाया मैंने/ युगों से गुदास्थान ने सहन की है अवहेलना,/ आने वाले युगों में गुदास्थान की न्यायोचित प्रशंसा हो/ तो उम्मीद बँधे,/ मनुष्य समझदार हो रहा है/ अपनी गहराइयों से अब उसे इनकार नहीं है/ वर्ष 2018 को गुदावर्ष घोषित कर दो तो यक़ीन आए/ अपने रहस्यों से मनुष्य अब शर्मसार नहीं है|” 

ऐसा भी नहीं है कि यौन-संबंधों की माँग और पूर्ति पर ये मोनिका कुमार की नयी मांग है लेकिन योनि के स्थान पर गुदा की सार्वजनिक पैरवी करना मनुष्य को बर्बर और जंगली दुनिया में प्रवेश दिलाना है| इस प्रकार के प्रवेश की मांग हर समय ऐय्याश लोगों द्वारा उठी है और बाद में उसका अनुसरण आम जनमानस करता दिखाई दिया है| जिस रीतिकालीन प्रवृत्तियों से हिन्दी कविता को मुक्त होने में इतना समय लगा उसमें इसी प्रकार के कविताकारों की उपस्थिति थी, जिनके लिए जनता नहीं, राजा की मांग उपयोगी थी| सामाजिक परिवेश में वह निहायत ही मूढ़ और गिरा हुआ इंसान होगा जो इस प्रकार की लिप्सा को अभिव्यक्त करने का उपक्रम करेगा| यहाँ मोनिका कुमार किस प्रकार के मनुष्य की बात कर रही हैं यह भी व्याख्या करने की जरूरत नहीं है| निश्चित ही हिंदी कविता में यह पशुता के हद तक जाकर किया गया उससे भी इतर प्रयोग है लेकिन इनके पैराकारों को सारी क्रांति इसी में नजर आती है|

दरअसल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ने इधर के दिनों में ऐय्यासी का नया विमर्श खोज निकाला है| जिन विषय-विसंगतियों की वजह से हमारा समाज संकटों में लगातार घिरता जा रहा है, निजता और सुरक्षा के मध्य व्याप्त प्रश्न से सशंकित और बौखलाया हुआ नजर आ रहा है, उन प्रश्नों के हल खोजने की अपेक्षा कवयित्री उसका मखौल उड़ाती हुई उसे उतनी ही समस्याओं में उलझाने की भूमिक को तलाश रही है| कवयित्री की चिंता में वे प्रश्न नहीं हैं जिनमें अस्सी वर्ष से अधिक की स्त्रियाँ और छः वर्ष से कम उम्र की लडकियाँ असुरक्षित हैं और विकृत मानसिकता का शिकार हो रही हैं| उन विषयों को चर्चा-परिचर्चा का माध्यम खोजने की अपेक्षा कवयित्री को सबसे अधिक गुदा-उपेक्षा का दर्द है| इस दर्द की तहकीकात करते हुए वह पाती है कि “जो जीवित है वह अपनी देह में केवल दिल लिए नहीं घूमता-भटकता,/ कि कोई हो जो उसके दिल को प्यार करे/ उसकी देह में गुदास्थान भी है/ प्रेम पाने के लिए आतुर और प्रेम का अधिकारी,/ दिल का अपमान करता है कोई/ तो गुदा पीड़ा से सिकुड़ जाती है|”  सिकुड़न की यथा-व्यथा में मानसिक दिवालियापन की यह बेचैनी हास्यास्पद कम, घृणित अधिक है|

यह भी अपनी तरह का सच है कि इस प्रकार की अभिव्यक्ति-अभिरुचि ऐसे नहीं बन जाती है| यहाँ तक पहुँचने में कवयित्री ने जितना श्रम किया उसका विकास प्रचार-प्रसार की लालसा लिए ‘गुदा विमर्श’ में आकर उलझ गया| इस उलझाव में बेचैनी इस कदर सताती है कि वह व्याकुलता में “वर्ष 2018 को गुदावर्ष घोषित कर दो” की उद्घोषणा कर बैठती है| दरअसल यह उलझाव हमारे परिवेश का उलझाव नहीं है| यह उलझाव हमारे समाज का उलझाव नहीं है| इस प्रकार के उलझाव में संलग्न लोगों को हमारा लोक हेय दृष्टि से देखता है तो ऐसी कवयित्रियाँ समाज को पिछड़ा और पुरातनपंथी घोषित करती हुई ‘गुदा मैथुन’ के नंगे नाच की पैरवी करती हैं| “गुदा से प्रेम करने का अर्थ है/ मनुष्य की गहराई से प्रेम करना,/ उसके अँधेरों से प्रेम करना/ उसके दुःख से प्रेम करना/ गुदा से प्रेम करने का अर्थ है, दुःख में केवल दुखी नहीं होना/ बल्कि प्रेमी के दुःख में प्रवेश करना और उसे सुखलोक में ले जाना|”

इससे जो बातें निकलकर सामने आती हैं वह ये कि जहाँ गुदा-प्रेम नहीं होगा वहां प्रेम नहीं होगा| जो गुदा-प्रिय नहीं होगा उसे प्रेमी के रूप स्वीकार करने में संकोच होगा| कवयित्री के अनुसार “प्रेमी की निष्ठा का प्रमाण माँगना हो तो/ केवल यह मत देखना कि होंठ कैसे तप जाते हैं प्रेमी के दर्शन से/ दिल की धड़कन कितनी बढ़ जाती है प्रेमी के स्पर्श से/ प्रेमी के लक्षणों का जब तुम करो अन्वेषण/ गुदास्थान की राय भी शुमार करना/ कि यह प्रेमी गुदा का मर्मज्ञ होगा या नहीं|” यहाँ “गुदा का मर्मज्ञ” की तलाश में कवयित्री की यह आत्मस्वीकृति तब और हतप्रभ करती है जब वह मन की अवगुंठन को सार्वजनिक करती है—“मुझ में अब और घृणा सहने की हिम्मत नहीं है,/ मेरा अब और संकुचन संभव नहीं/ मेरा अस्तित्व अब गुदास्थान में सिमट चुका है|” अब जिस कवयित्री का जीवन-अस्तित्व ही ‘गुदास्थान’ में सिमट गया हो उससे जन-सम्भावनाओं पर बात करने की क्या अपेक्षा की जा सकती है?

यह तो शुभम श्री और मोनिका कुमार हैं जो सांगठनिक सृजनशीलता का प्रसाद पा चुकी हैं| इनके इतर भी यथार्थ स्थिति का अवलोकन किया जाए तो आज की हिंदी कविता में स्त्री यौनिकता से जुड़े विषयों को बताते-दिखाते हुए प्रचार पाने की लालसा में बाढ़-सी आई है| क्या अनुभवशील बुजुर्ग क्या अभी-अभी अपनी रचनात्मकता के साथ युवापन में पदार्पण किये युवा, हर कोई बहती गंगा में हाथ धो लेना चाहता है| उन्हें लगता है कि ऐसा करने से जहाँ स्त्री-विमर्शकारों की नज़रों में स्थान पक्का हो सकेगा वहीं उनसे जुड़े संस्थानों में भी प्रवेश सुनिश्चित हो जाएगा| आखिर उन्हें यह क्यों नहीं समझ आता कि यथार्थ जीवन-विसंगतियों को अभिव्यक्त करने की अपेक्षा सतही यौन-कुंठा को परोसना ही स्त्री-हितैषी होना नहीं है| इस विषय में पुरुष रचनाकारों से चार कदम आगे स्त्री रचनाकार हैं| इनके यहाँ विषय-वर्णन की आवारगी ऐसी है कि पता ही नहीं चलता कि वे स्त्री-अधिकारों की बात करते हुए उनकी मुक्ति-कामना कर रही हैं या फिर वस्तु-विशेष का वर्णन करते हुए उन्हें बाज़ार के दलदल में धकेल रही हैं|  

बाज़ार जागरूकता नहीं मांग के सिद्धांत पर कार्य करता है| समकालीन हिन्दी कविता के कई नये चेहरे मांग और पूर्ति के सिद्धांत पर कार्य कर रहे हैं| विषय को इतना लुका-झुकाकर चढ़ाया जा रहा है कि पाठक हर स्थिति में उसके अंतस्तल तक पहुँच जाना चाहता है| सोनी पाण्डेय की इस कविता को आप देखेंगे तो और भी स्पष्ट हो जाएगा—“वह आज भी महसूसती है/ कुछ बजबजाता/ लिसलिसा...बदबूदार सा/ बहता/ जांघों के बीच/ और इतना रगड़ती झावें से पैर/ कि उभरने लगते/ रक्तिम निशान/ दर्द की उभरती अनुभूति में/ मन भर गिराती सिर से पाँव तक पानी/ जब तक हाथ फटने नहीं लगते/ धैर्य टूटने तक नहाने का उपक्रम करते हुए/ स्याह धब्बों का इतिहास कुरेदते/ भूगोल की सारी आकृतियाँ झांवें से रगड़- रगड़/ लाल करती/ भरपूर कोशिश करती की/ बाहर निकलते स्नानघर से/ लोग केवल और केवल/ चोट के निशान गिने तन के/ मन के स्याह धब्बे दबे रहें वैसे ही/ जैसे दबा दिए गये थे/ सत्रहवें साल में...|” इस कविता में कवयित्री जब चिह्नित करती है कि “वह आज भी महसूसती है/ कुछ बजबजाता/ लिसलिसा...बदबूदार सा/ बहता/ जांघों के बीच”  तो पाठक टकटकी लगाये भोगी हुई स्त्री के चित्र अपने दिमाग में बिठाने के लिए विवश होने लगता है और ‘स्याह धब्बे’ ‘झाँवे से रगड़-रगड़’ जैसे शब्दों के माध्यम से जिस कल्पना लोक में वह पहुँच रहा होता है उसे और अधिक स्वप्न लोक में विचरण करने के लिए “सत्रहवें साल में” की बनावटी दुनिया में धकेल दिया जाता है| शब्द-स्वप्न में धकेलने के लिए सोनी पाण्डेय माहिर हैं| इन्हें पता है कि युवा मानसिकता क्या चाहता है| स्त्री विमर्श के मुद्दे किस प्रकार की चर्चा चाहते हैं कवयित्री इस कोशिश में नहीं दिखाई देती| उसकी पूरी कोशिश ये है कि युवा मानसिकता को किस प्रकार उसके जरूरत के मशाले मुहैया कराई जाए- नौकरी पर जाती हुई/ मिडील क्लास औरतें/ दुधार गाय बन चुकी हैं पितृसत्ता के लिए/ जिसे नैतिकता की रस्सी के सहारे/ बाँधा जाता है/ संस्कारों के खूँटे में/ अनवरत दूही जाती हैं स्नेह से/ जब तक कमाऊ हैं|”  इस कविता में स्त्री को दुधारू गाय बनाना और “अनवरत दूही जाती हैं स्नेह से” जैसे शब्द युवा पाठक के मन-मस्तिष्क में दूर तक टिके रहते हैं| ‘पितृसत्ता’ शब्द का प्रयोग करना कवयित्री के लिए मजबूरी है क्योंकि यह शव्द उनके लेखक संगठन का मेनिफेस्टो है|

सतही फ़िल्मी डायलाग को कविता की शक्ल में ढालने का भी अच्छा अभ्यास है सोनी पाण्डेय को| विषय-वर्णन के दौरान सनसनी पैदा करना शगल तो है ही इनका औरत को ‘वस्तु’ रूप में प्रस्तुत करने की कला भी खूब है| देह के रास्ते बिस्तर तक की पैमाईस में कवयित्री की कविताई देखते बनती है—“रात में उस आदमी से कह भी नहीं पाती डर/ जिसकी शरीर पर रेंगती हथेलियाँ/ भर देती हैं जलन से/ जलन वर्षों पुराना नासूर/ लाइलाज कैंसर का अन्तिम चरण ज्यों दहकता/ वह दहकती उस सबसे सुखद क्षणों में/ जिसके लिए आदमी/ आदमी/ से उतर आता है हैवानियत तक/ जिसके लिए ऋषियों ने छोड़ दिया ईश्वरत्व का मोह/ जिसके आकर्षण में बँधा आदमी/ चाट लेता औरत के तलवे/ जिसकी अनुभूति में उतरते वह कहता.../ मन का मरना भी कोई मरना है औरत का/ वह तो बस देह भर जीती है/ देह उस मर्द की जागीर 

जो सोया है अभी अभी संतुष्ट हो/ उलाहना देते हुए/ यू आर फ्रिज्ड...|” मर्द के संतुष्ट होने का अंदाजा कवयित्री को है और स्त्री का कोसा जाना उसके हृदय की वेदना बनती है| लेकिन सही अर्थो में स्त्री का ‘फ्रिज्ड’ होना या कहा जाना कवयित्री का अनुभूत सत्य नहीं है| यह कविता-बाज़ार द्वारा निर्धारित वह विषय है जो आज की फिल्मों, लुगदी साहित्य और उस वैचारिक उन्माद का पेटेंट शब्द है, जिन्हें परिवर्तन का बुखार चढ़ा हुआ|

सोनी पाण्डेय के यहाँ यथार्थ अति की भूमिका से गुम्फित है| कविताई जहाँ स्वाभाविकता को तजकर बनावटी हो जाती है वहां नारों का सृजन हो सकता है कविता का नहीं| कविता के लिए भाव का होना आवश्यक होता है| भाव हृदय से निकली हुई अभिव्यक्ति से पैदा होते हैं बुद्धि से महज शाब्दिक विलास की पूर्ति की जा सकती है| यहाँ जन सरोकार को साधने की अपेक्षा स्वार्थ-पूर्ति की सम्भावना अधिक बलवती हो जाती है| स्त्री-जीवन को लेकर लिखी गयी सोनी पाण्डेय की कई कविताएँ महज लेखक संघों की निर्देशों पर रची गयी नारेबाजी प्रतीत होती हैं| 

ऐसी भी रचनाकार हैं जिनके लिए स्त्री-चेतना और सामाजिक जागरूकता जैसे शब्द बेमानी हैं| इन्हें अपने ही सुख-सुविधा-चिंता से फुर्सत नहीं है| प्रेम-प्रपंच में समाई देहाभिव्यक्ति इनके लेखन का आधार है तो वैयक्तिक इच्छापूर्ति के लिए की गयी दैहिक छीना-झपटी की प्रस्तुति कर्तव्य| इस कर्तव्य में रति-क्रिया से लेकर लेन-देन की वह सारी प्रक्रिया देखी जा सकती है जो फुटपाथों पर पड़े साहित्य के केन्द्रीय विषय हैं| लवली गोस्वामी का कविता-लेखन कुछ ऐसा ही है| इन्हें पढ़ते हुए कई बार ऐसे दृश्य और प्रसंग निकलकर सामने आते हैं कि ‘कविता के समकाल’ पर प्रश्न खड़े हो जाते हैं| स्वान्तः सुखाय की प्रवृत्ति में जनसुखाय की भावना प्रदीप्ति नहीं हो पाती| वासना की संभावना जहाँ हो सामाजिकता का निर्वहन संभव नहीं हो पाता है| कवयित्री भी चाहती है कि एक न एक दिन तो चले ही जाना है, कम से कम देह-राग से प्राप्त सुख-शांति का वर्णन तो कर ही दिया जाए-

“मैं उसकी देह में हलके दंतक्षतों से बोती रही अपना होना
उसकी सिहरनों में इच्छा बनकर उगती रही
उसकी देह को मैंने चुम्बनों के झरते निर्झर में गूँथ दिया
अपने न होने में उसके होंठो से हँसी बनकर झरती रही
यह सब इसलिए कि
एक दिन मुझे टूटकर अपने ही मन पर
शवों के सीने में लगे कब्र के पत्थर सा गड़ जाना था
नकार की ज़िदों से बनी सख़्त भीमकाय दीवारों पर
उगना था स्मृतियों के अवांछित पीपल सा
पतझड़ में पीले पत्तों का धरम निबाहते
डाल से यों ही झर जाना था बेसाख़्ता।“

जब तक हरापन है, उसका संज्ञान न लिया जाए यह नाइंसाफी है| अपने से कहीं अधिक उस पीढ़ी के लिए जिसके अन्दर वासना-विषयक भूख की पहचान को सहज बनाकर रखना है| इस सहजता पर मुग्ध हुए बिना नहीं रहा जाता| लेकिन यह कहे बिना भी नहीं रहा जाता कि देह-गेह में उलझी तृप्ति-मार्ग की तलाश करती कवयित्री के लिए उसका अपना परिवेश तक कोई मायने नहीं रखता, सामाजिक स्थिति का क्या कहें|

वर्तमान परिवेश अस्थिर है| लोग राजनीतिक झूठ से परेशान होकर मानवीय सच की तलाश में भटक रहे हैं| कवयित्री का सच कुछ और ही है| वह समस्याओं की तरफ ध्यान देने की अपेक्षा प्रेमी के उँगलियों द्वारा चादर पर बिखेरे जा रहे केश-दशा पर मुग्ध है और अपने को देह-गेह में सिमटे-महसूसते जाने में व्यस्त है—तमाम सच को दरकिनार करते हुए “कुछ सचों के बारे में” कवयित्री की ये अभिव्यक्ति है—“मेरे केश तुम्हारी उँगलियों से झरकर चादर पर/ सपनों की जड़ों की तरह फैलते हैं/ देह तुम्हारी ओर शाखाओं की तरह उमड़ती है/ सघन मेघों की तरह मुझ पर झुके तुम मेरे सपने सींचते हो/ मेरा स्वप्नफल तुम्हारी नाभि पर आदम के सेब की तरह उभरा है/ तुमने देखा ? स्वयंभू शिव की भी नाभि होती है/ कवि कुछ भी हो, अपने हजारवें अंश में सचों का पहरूवा होता है/ हवा की रेल खुशबू को न्योतती नहीं है/ खुशबू अनाधिकार हवा में प्रवेश नहीं करती/ कुछ लोग बने ही होते हैं एक दूसरे में मिल जाने के लिए|” यहाँ देह-झुकाव का चित्रांकन करना और ‘नाभि पर आदम के सेब की तरह’ का उभार प्रस्तुत करते हुए ‘नाभि’ दर्शन का जो दृश्य कवयित्री प्रस्तुत करती है वह नितांत ‘वैयक्तिक केलि-क्रिया’ की उपज है| अब इस शास्वत सच को पा लेने के बाद कौन होगा जो हिल-मिल जाने की कोशिश नहीं करेगा? पाठक भी करता है लेकिन वह कुछ पाता नहीं सिवाय कुंठा और अवसाद के|

कविता की परिभाषा पता नहीं क्यों इतना बढ़ा-चढ़ा कर दिया जाता है विद्वानों द्वारा| जन-कल्याण, सामाजिक चेतना वगैरा-वगैरा| लवली गोस्वामी जैसे रचनाकारों के लिए कविता का सच तो यह है कि वह महज एक मानसिक विलास है जो हंसी-मजाक, नोंक-झोंक तक सीमित होकर रह जाती है| अब ऐसे कवयित्रियों को सामने रखकर भी यदि रीतिकालीन कविताई को कठघरे में खड़ा किया जाए और छायावादी वायावी उड़ान को दोषी ठहराया जाए, तो कमी इनकी नहीं आलोचकों की है| मुझे ये नहीं समझ आता कि प्रेमी की इस देहयष्टि को बखानते हुए ‘लोक’ को कौन-सी चेतना प्रदान की जा रही है कवयित्री द्वारा—“सुनो,/ रसीली बातों और गाढ़ी मीठी/ मुस्कान वाले तुम/ तुम एक बड़ा सा पका रसभरा चीकू हो/ इसे ऐसे भी कह सकते हैं/ तुम्हारे अंदर बहुत सारे पके रसभरे चीकू भरे हैं/ जो मेरी ओर देख-देख कर मुस्कराते हैं/ सुनो, ज़रा कम-कम मुस्कुराया करो/ ज़ोर से चोंच मारने वाली चिड़ियों को/ थोड़ा कम -ज़ियादह लुभाया करो ” यहाँ ‘चोंच मारने वाली चिड़ियों’ को कम जियादह रिझाने की प्रवृत्ति पाठकों में रसिकता पैदा करती है लेकिन स्त्रियों के प्रति गलत छवि भी उनके दिमाग में बनती है|

रश्मि भारद्वाज का नाम समकालीनता के दायरे में बहुत अधिक सुना गया था लेकिन जब इनको पढ़ने का अवसर मिला तो समकालीनता को नए तरह से परिभाषित करने की जरूरत महसूस होने लगी| इनको पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत हुआ कि जन-जीवन के नितांत आवश्यक विषयों से इन्हें भी अधिक घृणा है| स्त्री जीवन के यथार्थ को अभिव्यक्त करते समय यथार्थ का अतिक्रमण तो दिखाई ही देता है उसके अतिरिक्त ऐसा कुछ नहीं आभास होता जिसके जरिये यह समझा जा सके कि वह किसी जीवंत समाज का हिस्सा हैं| स्त्री को खोलने और मुक्ति-मार्ग का अनुसरण-तरीका बताने के लिए जिस सतही अभिव्यक्ति का सहारा लिया गया है इन दिनों के साहित्यिक परिवेश में, रश्मि भरद्वाज के यहाँ वे सब गहनता में वर्तमान हैं|

‘एक रात का’ ‘देह सुख’ दिलवाने के लिए कवयित्री ग्रामीण परिवेश के ऐसी स्त्री का चयन करती है जिसके ऊपर ‘देवी’ का वास होता है और जो “विवाह के दस सालों बाद भी/ नहीं जान पाई...देह सुख|” फ़िल्मी दृश्यों की तरह ‘गबरू जवान’ का बंदोबस्त वह कर लेती है आसानी से, जिसे देखते ही “मुस्कुरा उठती थी देवी|” इस मुस्कराहट को लाने में कवयित्री कठोर श्रम करती है क्योंकि वह जानती है कि किस तरह का बनावटी सच दिखाने से पाठकों को रसिकता के मुहाने तक भटकाया जा सकता है| यहाँ ‘देवी’ कविता की कुछ लाइनें देखी जा सकती हैं— “उस एक रात वह भी बन जाती थीं देवी/ खुल उठते थे चटाक-चटाक सभी देहबन्ध/ खुले केश, लाल नेत्र अँगारों से दहकते/ जैसे अब तक हृदय में समेट रखी/ सभी कामनाओं को एक साथ धधका दिया हो/ और उसके अंगारे चमक रहें हों आँखों में/ दह दह/ देखो मत, जल जाओगे/ सिर झुका बैठ जाता था सारा घर/ चरणों पर लोट रहे होते चौधरी/ क्षमा माँ ! क्षमा !/ मुझ नराधम को दे दो क्षमा/ क्षमा कि तुम्हें मैं नहीं दे सका सन्तान/ और बांझ कही जाती हो तुम/ क्षमा कि विवाह के दस सालों बाद भी/ नहीं जान पाई तुम देह सुख/ क्षमा कि जड़ दिया तुम्हें तालों में/ जहाँ हवा भी नहीं आती मुझसे पूछे बिना/ चट चट चटाक पड़ती रहती थी लातें-थप्पड़/ और भाव विहल, लीन मग्न चौधरी/ झटके से आकर पकड़ता था गबरू जवान ढोलिया/  जो जानता था देवी उतारने का मन्त्र/ मुस्कुरा उठती थी देवी/ पान, फूल, इत्र, मिष्ठान/ धूप, रूप, स्वाद , गन्ध/ खुल जाते थे तन और मन के बन्द पड़े रेशे-रेशे/ दशमी की उस गहन रात्रि में/ दुर्गा अस्थान से उठ कर आती थीं देवी/ साल भर के लिए जल में विलय होने से पहले/ दे जाती थी किसी को जीवन/ एक रात का|”  यह एक रात का जीवन समाज में व्यभिचार की श्रेणी में आता है| कवयित्री यदि इसे नैतिक मान्यता देती हुई दिखाई देती है तो यह समय का यथार्थ नहीं है उन फिल्मों और विमर्शों का हिस्सा है जिसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं है| यहाँ विषयों का अतिक्रमण खूब किया गया है| अतिश्योक्ति के ऐसे फौव्वारे छोड़े गये हैं कि पाठक मतिभ्रष्ट होने के साथ-साथ मतिभ्रम की स्थिति का भी शिकार हो उठता है| 

किस तरह से आज की घासलेटी फिल्मों से कविता-कंटेंट को उठाया गया है वह यहाँ आसानी से देखा जा सकता है| “बस, प्रेम के सिवा” में कवयित्री स्वयं स्वीकार करती है कि “आसान है कुछ उजले दिनों में दोहराना/ वही उकताए हुए शब्द/ जिनमें आँच देह की तीली से सुलगती हो/ जल कर तुरन्त बुझ जाने के लिए|”  कहाँ तो “बीड़ी जलैले जिगर से पिया’ की बात थी कहाँ “आंच देह की तीली से सुलगती” है| यहाँ सवाल आंच-देह-तीली का नहीं है अपितु उन इच्छाओं का है जिसकी अभिव्यक्ति वह हर हाल में करना चाहती है और लोगों को स्वाद-मनोरंजन करने के लिए आमंत्रित करना चाहती है| दरअसल सारा खेल तो ‘देह’ का ही है| प्रेम जैसा तो कुछ बहुत मुश्किल से मिलता है| शरीर की अतृप्त अवस्था में आत्मिक प्रेम की बात बेमानी होती है जिसे कवयित्री ने बड़ी सहजता से स्वीकार किया है—“तुम्हें प्रेम करते हुए मैं भूल जाना चाहती हूँ/ शरीर की भाषाएँ और सुनना चाहती हूँ/ अगर होता है कुछ इसके परे भी/ लेकिन हर बार मैं रह जाती हूँ मात्र एक शरीर/ जो नहीं पहुँच पाता तुम्हारी आत्मा तक।“ यह कितने भ्रम की स्थिति है कि एक तरह पुरुष को ‘देह ही नहीं है स्त्री’ का पाठ पढ़ाया जाता है इन कवयित्रियों द्वारा और दूसरी तरफ स्वयं के अस्तित्व को ‘शरीर’ तक सीमित करके बताया जाता है| यही कुछ है युवा स्त्री कविता लेखन का सच| यहीं कहीं भटकता है समकालीन हिंदी कविता का हृदय| 

इन स्थितियों को दरकिनार रखकर देखें तो बनावटी यथार्थ की अपेक्षा भोगे हुए यथार्थ प्रचार के माध्यम को न तलाशते हुए सृजन की अनिवार्यता पर अधिक बल देते हैं| इनके जीवन-समय में घटित प्रत्यक्ष समस्याएँ (प्रत्यक्ष इसलिए क्योंकि समय-समाज-परिवेश की दशा-दिशा इनकी उपस्थिति में तय होती हैं और ये उस बदलाव की साक्षी ही नहीं होतीं अपितु कई बार उसमें भागीदार भी होती हैं) इनकी स्मृति को बार-बार कुरेंदती हैं| यहाँ बदलाव की आकांक्षा प्रबल होती है प्रशंसा की भूख नहीं| ये गुटों और झुडों से अलग रहते हुए ‘लोक जीवन की यथास्थिति’ को मुखरता से अभियक्त करती हैं| बदलाव की हिमायती इन रचनाकारों के यहाँ इनकी दृष्टि में ‘वासना के उपकरण’ नहीं ‘मुक्ति के मार्ग’ आवश्यक होते हैं जिनको प्रस्तुत करने में हाशिए पर धकेले जाने का खतरा तो होता ही है कई बार सामाजिक मुठभेड़ की सम्भावना भी प्रबल हो जाती है| यह मुठभेड़ नितांत वैयक्तिकता के स्तर पर कई बार पहुँच जाती है लेकिन यह भी सच है कि उर्वर वैचारिकता से ओतप्रोत बदलाव की जमीन यहीं से तैयार होती है|

अफ़सोस कि इस इस प्रकार की जमीनी-विमर्श से इन रचनाकारों को चिढ है| इनके द्वारा ऐसे भोगे हुए यथार्थ की अभिव्यक्ति को यथार्थ न मानकर पिछड़ेपन की निशानी माना जाता है|  यह पिछड़ापन इनकी नजर में कितना भी कमजोर और कामचलाऊँ क्यों न हों लेकिन सही अर्थों में विमर्श को बचाकर इन्होंने ही रखा है| यहाँ प्रेम है तो आत्मिक है| शरीर के उच्छवास में स्वास की गरिमा नहीं है अपितु संबंधों के निर्वहन में सामाजिकता का संवर्धन है| यह भी एक बड़ी विडंबना है कि ऐसे रचनाकारों के लेखन जल्दी प्रकाश में नहीं आ पाते| इधर ऐसे मूल्यांकन की बहुत जरूरत है जो शक्ति के साथ गलत को गलत और सही को सही कह सके| संभव है कि अगला लेख उन स्त्री रचनाकारों पर आए जो जमीनी हकीकत को समाज के समक्ष पेश करते हुए लोक-जीवन को समृद्ध कर रही हैं|