Wednesday 4 November 2020

मुनौव्वर राणा जैसे लोग विष हैं समाज के लिए

 मुनौव्वर राणा जितना बोल दिए उससे अलग उनका मिज़ाज कभी नहीं रहा| आज कैसे हो सकता था या हो सकता है| यह सिर्फ मुनौव्वर राणा की बात नहीं है यह लगभग मुस्लिम कवियों की कमजोरी है कि वह इस्लाम धर्म आई जड़ता पर बोलने से डरते हैं, घबड़ाते हैं| यदि यह कहें कि इस्लाम धर्म में आई रूढ़ियों को ओढ़ते-बिछाते हैं तो इसे अन्यथा न लिया जाए अपितु एक सच मानकर स्वीकार किया जाए|

प्रगतिशीलों के गुट में रहते हुए ये ऐसे जड़वादी सोच के लोग हैं जिन्हें सारी बुराइयां महज एक धर्म में दिखाई देती हैं| इतने ही विकसित मानसिकता के होते तो जो बद्स्थिति मुस्लिम परिवारों की है समाज में, वह न होती| तमाम मसले हैं जिन पर वे बोल सकते हैं लेकिन यदि ऐसा करते हैं तो वही सिर कलम होने वाली बात है|

हिंदी के कवि या चिंतकों की विश्वसनीयता हर समय शक के दायरे में रही है| सिर काटने की बात हो या धमकी देने की आदत, इनका समर्थन प्रगतिशीलता के आड़ में हिंदी कवियों द्वारा हर समय किया गया है| एक सम्प्रदाय मात्र के लोगों से आप प्रगतिशीलता की अपेक्षा बिलकुल नहीं कर सकते हैं| हिन्दू धर्म की तमाम मान्यताओं पर दिन रात गलत कमेन्ट करने वाले दूसरे धर्म की गलत मान्यताओं पर इतना मौन साध लेते हैं जैसे कुछ दिक्कत ही नहीं है| दिक्कत कहीं भले न हो लेकिन आपकी विश्वसनीयता पर है| हो सके तो उसे बचाइये|
मुनौव्वर राणा जैसे लोग स्वयं से कुछ बोलते नहीं हैं| कभी नहीं बोले| धर्म के झंडे और पार्टी लाइन पर चलने वाले ये लोग ऐसे व्यापारी हैं जिन्हें महज अपनी छवि चमकानी होती है| समाज और परिवेश से इनका कोई लेना देना नहीं होता है| सिर कलम करने की प्रतिक्रिया यदि सिर कलम हो तो ऐसे लोग क्या स्टेटमेंट देंगे, इस पर बस कल्पना की जा सकती है, ईश्वर करे वह यथार्थ न बने समाज का|
कृष्ण राम सीता जैसे पौराणिक पात्र जो हिन्दू संस्कृति और धर्म के केन्द्र हैं उन पर बोलते हुए इनके ईमान नहीं डिगते| पैगम्बर आदि पर बोलने मात्र से इस्लाम खतरे में कैसे आ जाता है? धर्म न हुआ मानों सब्जी के खेत में अनाथ पड़ी कोई सब्जी हो जिस पर अचानक अस्तित्व का संकट मंडराने लगता है|
यदि आप संकीर्णता पर बोलने की हिम्मत रखते हैं तो बोलने दीजिये न| शिक्षा के दहलीज पर कब तक पहरे लगाकर बैठेंगे आप? प्रश्न उठे हैं तो उठते ही रहेंगे| स्त्री विमर्शकारों का खून पैगम्बर की कारस्तानियों पर क्यों नहीं खौलता? क्या वहां से नारी विमर्श को केन्द्र में नहीं लाया जा सकता है? क्या सभी संकीर्णता महज यशोधरा, सीता, अनुसूया, अहिल्या आदि में ही दिखाई देते हैं?
धर्मों के बनाए संकीर्ण ढाँचे को तोड़ने की जरूरत है| हर धर्मों की संकीर्णता पर खुली बहस की आवश्यकता है| लेकिन स्वीकार कौन करेगा? दूसरे का घर सभी जलता हुआ देखना चाहते हैं अपने घर को बचाते हुए| ऐसा नहीं होगा| नहीं होना चाहिए| आप सामाजिक तभी हैं जब सामाजिक संकीर्णता पर बोलने और उसे समाप्त करने की क्षमता रखते हैं| यह सब बगैर किसी पक्षपात के निरपेक्षता की भाव से हो|

No comments: