Thursday 9 April 2020

कविता की जरूरी भूमिका जन-सामान्य के बीच पहुंचना है (नीरज नीर की कविताएँ)



कविता के समकाल में समकालीनता को अलग-अलग तरह से रचनाकार ला रहे हैं और लाना भी चाहिए| सम्वेदनाएँ विस्तृत हैं और भावनाएं विशाल| जीवन के विविध रंग हैं| रंगों के अलग-अलग पैमाने हैं| पैमानों के दम पर समय को परखने की कोशिश जिस तरह से की जा रही है वह गणित में तो सम्भव है, कविता में नहीं| जहाँ गुणा-गणित का सहारा कवि लेना शुरू करता है वहीं से अपनी विश्वसनीयता खोना प्रारंभ कर देता है| कविता पर मंडरा रहे खतरों के अनेक कारणों में से एक कारण यह भी है, इसे समझने की कोशिश की जानी चाहिए|
फिलहाल इस विषय पर विचार करना विषयांतर हो जाना है| यहाँ युवा कवि नीरज नीर की काव्य-सम्वेदना पर चर्चा अपेक्षित है| नीरज नीर अपने समय के युवा कवि हैं| दृष्टि से और विचार से एकदम स्पष्ट| कोई पूर्वाग्रह नहीं और न ही तो कोई दुराग्रह| एक कवि की जो भूमिका होनी चाहिए, उस पर एकदम खरे उतरते हुए लगातार सक्रिय| जब मैं यह कह रहा हूँ तो इसे महज प्रशंसा समझने की भूल नहीं करनी चाहिए| वर्तमान दशक में हुए हादसों को कवि ने गम्भीरता से देखा है| भूख, निर्वासन, किसान, मजदूर, युद्ध, पर्यावरण, उन्माद, स्त्रियों के साथ बदसलूकी, जातीय कटुता, साम्प्रदायिक विद्वेष नीर के कविता विषय हैं| इन विषयों पर लिखते हुए नीरज ने कभी नहीं चाहा कि उनकी कविताएँ विश्वविद्यालयों और संगोष्ठियों की चर्चा-परिचर्चा का माध्यम बने| कविता की जरूरी भूमिका जन-सामान्य के बीच पहुंचना है| आज जन के दुःख-सुख में साथ निभाना और उन्हें सम्बल देना है| नीरज नीर की इस पूरी कविता “मुक्ति की चाह” को यहाँ उधृत करना जरूरी है, जिसमें वे कहते हैं-
सुसज्जित गमलों से निकल 
खिलना चाहती है/ वनफूलों की तरह... 
पहुँचना चाहती है/ धान खेतों में,
मिलों में काम करते/ आम स्त्री पुरुषों के पास।
महकना चाहती है/ स्वेदगंध के मध्य। 
चढ़ना चाहती है जिह्वा पर,/ बसना चाहती है अवचेतन में, 
पलायन करते हुये मजदूरों का/ साहस बनकर।
पीछे छूटी औरतों का भरोसा बनकर/ कि उसका पति लौट आएगा
एक दिन। 
विहंसना  चाहती है/ पगडंडियों के किनारे
जिसपर से गुजरता है किसान/ कांधे पर लिए अनाज की बोरी।
जाती है गीत गाती हुई/ धनरोपनियां.../ जिसपर से
हवा को काटती/ आसमान  को रौंदती / ईश्वर को चुनौती देती हुई
लड़कियां जाती हैं/ साइकल पर चढ़कर स्कूल।  
मुक्त होना चाहती है  
कविता/ विश्वविद्यालयों, पुस्तकालयों की
चारदीवारियों से,/ वादों, विवादों की घेराबंदी से, 
लेखों और आलोचना की विषय वस्तु से।
जहाँ प्रकाशक कविता को पुस्तकालयों तक, प्रोफेसर बौद्धिक विमर्शों तक और सरकार पाठ्क्रमों तक सीमित रखना चाहती है वहाँ एक कवि का ये उद्देश्य निश्चित तौर पर स्वागत करने योग्य है| हालाँकि ऐसे बहुत से कवि हैं जो उद्घोष तो पता नहीं क्या-क्या करते हैं लेकिन व्यावहारिकता में ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता| नीरज नीर उन कवियों में नहीं आते| ये निडर होकर अपने कहे मुताबिक आम जन से सीधे सम्वाद करते हैं| अमीरों का पक्षधर हुए बिना कैसे जन-सम्वेदना का पक्ष लेना है, यह ईमानदारी है नीर में|
          इस देश में किसानों की समस्या असहनीय है| तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद विसंगतियां क्या होती हैं, यह जानना हो तो किसानी परिवेश की यात्रा करनी चाहिए| गति-दुर्गति का सही अंदाजा तब लगाया जा सकता है जब आप किसी किसान से सरकारी बाबुओं की तरह पेश आएं| एक कम्पाउंडर और किसान के बीच हुए सम्वाद को नीरज प्रस्तुत करते हैं तो हम सही मायने में समझ पाते हैं कि-“आजकल पैतालीस का किसान/ साठ का लगता है|” क्यों ऐसा लगता है? यह कवि से पूछने से पहले देश की व्यवस्था का अध्ययन कर लेना चाहिए| डाक्टरी से लेकर बैंक आदि तक में स्वयं से कमाई गाढ़ी किस तरह वह निकालकर देता है वह यहाँ देखा जा सकता है-“क्या काम करते हो?/ किसानी ..../ उसने लजाते हुए कहा/ और कई तहों में बहुत सम्हाल कर रखे गए/ पांच सौ का नोट/ बढ़ा दिया बतौर फीस,/ जैसे उसने रख दिया हो/ अपना कलेजा निकाल कर/ कंपाउंडर के हाथ में ...|” कलेजा निकालकर देना, यह जो मुहावरा है, किसान पर खूब फिट बैठता है| पांच सौ क्या पांच हजार भी लोगों के लिए महंग नहीं है लेकिन जब बात एक किसान की होती है तो पांच रुपये भी बहुत मायने रखते हैं| क्योंकि उस पांच रूपये में भी किसी की आशा और आकांक्षा छिपी हुई होती है| यह अपने समय का एक जागरूक कवि ही देख सकता है अन्यथा किसानों पर वाह-आह तो सभी कर रहे हैं|
समकालीन हिंदी कविता में आदिवासी सम्वेदना पर खूब हो-हल्ला मचाया जाता है| बड़े उपन्यास लिखे जाते हैं, कहानियां लिखी जाती हैं और बहुत से कवि और कवयित्री इसलिए चमकते सितारे घोषित कर दिए जाते हैं क्योंकि उनका जन्म आदिवासी इलाकों में हुआ होता है| जबकि यह अपनी तरह का सच है कि उनका कोई सरोकार आदिवासी सम्वेदना से नहीं होता| वे यदि फायदा उठा रहे हैं तो अपने सरनेम और उस प्रदेश का जहाँ उनका जन्म हुआ था| नीरज नीर आदिवासी समाज के एकदम नजदीक जाते हैं| वहां की स्थितियों का जायजा लेते हैं| घटित हुआ जो होता है, उसके एक हद तक भुक्तभोगी होते हैं|
कवि देखता है कि अधिकांश लोग महज आदिवासी सम्वेदना के नाम पर घडियाली आँसू बहा रहे हैं| ‘पहाड़ पर आग’ कविता में पहाड़ पर लगी आग पर लोग आँसू बहा रहे हैं “तय किये जा रहे हैं/ विमर्शों के नए पैमाने/ हर आदमी खड़ा किया जा रहा है/ कटघरे में” लेकिन दोषी की सही सिनाख्त सही से नहीं की जाती है| जब लाख खोजने के बाद सही अपराधी नहीं मिलता तो “अंततः/ दोषी/ ठहराया जाता है/ वह आदमी/ जो  कभी नहीं चढ़ा पहाड़/ जो कभी सोया भी नहीं/ पहाड़ की ओर सर करके/ लेकिन उसने घर में/ सम्हाल कर रखे हैं/ कुछ चमकीले पत्थर/ जिन्हें  वह पूजता है/ और माँगता है/ सुख, शान्ति विश्व भर के लिए|” जो महज आदिवासी इलाकों में घूमने-फिरने और सैर करने आते हैं उन्हें वास्तविक और सम्वेदनशील मान लिया जाता है लेकिन जो वहां की रीतियों-नीतियों का पालन कर रहे हैं होते हैं, सांस्कृतिक सम्वेदना के आधार होते हैं उन्हें अपराधी घोषित कर दिया जाता है|
जबकि यह अपनी तरह का सच है कि पहाड़ से जब/ गिरेंगे/ आग के गोले/ नीचे लग जाएगी आग/ और सबसे पहले भागेंगे/ पहाड़ के लिए रोते हुए लोग” क्योंकि ये लोग महज एक लालसा लिए आए हैं| घूम-फिरकर, ऐश-सपाटा करके जो जाने वाले हैं वो आग लगने के बाद कहाँ ठहर सकते हैं| ठहरते तो वे हैं जिनका अपना घर जलता है, जमीन गायब होती है| यह विडंबना ही है कि-“पहाड़ की भाषा जो समझते हैं/ वे दुरदुराए गए/ किनारे खड़े हैं/ देख रहे हैं नग्न होना अपना भी|” लुटते वृक्षों और कटते पहाड़ों को बर्बाद करना भर कहानी नहीं है कहानी है समान्य जन को कहीं न छोड़ना| नीरज नीर स्पष्टतः कहते हैं कि-“पहाड़ को निगल जाएगी/ आदमी की लालसा/ जो लील जाना चाहती है सब कुछ/ चक्रवाती तूफानों की तरह/ पीछे छोड़ निशान तबाही के|” इस तबाही को रोकने के लिए जितना जरूरी लोगों के अनधिकृत प्रवेश को रोकना है, प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे की रणनीति पर प्रतिबन्ध लगाना है उससे कहीं अधिक जरूरी कार्पोरेट जगत से जल-जंगल-जमीन को बचाना है|
‘सड़क वाया विनाश’ कविता में जंगल के गायब होते और बसी-बसाई दुनिया के उजड़ते जाने की यथा-व्यथा को स्पष्ट तरीके से दिखाया है “जंगल/ जहाँ थे/ ठिठोली करते पीपल, पाकड़, खैर,/ सखुआ, महुआ, पलाश/ अनेक किस्म के जीव जंतु/ छाती भर के घास/ जहाँ था ठंढे पानी का कुआँ/ उठता था सुबह शाम धुआँ/ जहां रहते थे/ जीवन चक्र में/ सबसे ऊपर रहने वाले लोग|” जीवन का यह स्तर वहां से बिगड़ना शुरू हो जाता है जब “वहां आयी एक सड़क/ और जंगल धीरे धीरे गायब हो गया/ जैसे शहर से गायब हो गयी गोरैया/ किसी ने नहीं देखा/ जंगल के पैर, पंख उगते हुए/ पर अब वहां जंगल नहीं है|” पूरा परिवेश बदल गया है| परिवर्तन के विकास के नाम पर उर्वर जमीन को बंजर बनाया गया और अनवरत बनाया जा रहा है|
यहाँ विकास के नाम पर-“पेड़ों से भी गहरी जड़े जमायें/ कारखाने, खदान और बड़े-बड़े भवन/ बांसुरी और मांदर के मधुर संगीत के बदले/ है डी जे का कानफाड़ू शोर/ आनंद की जगह ले ली है आपाधापी ने/ सुबह से शाम तक मची है चूहों की दौड़/ पलाश की जगह खिल रहे हैं/ बोगनवीलिया के फूल/ घर से ज्यादा जरूरी हो गयी हैं चारदीवारियां/ और जीवनचक्र में बहुत नीचे आ गए हैं/ वहां रहने वाले लोग|” एक फलती-फूलती संस्कृति विकृति के मार्ग पर बढती रही और लोग विकास के नाम पर इसका स्वागत करते रहे| वहां के लोगों को यह नहीं पता था कि यह विकास नहीं विनाश का स्वप्न दिखाया जा रहा है, जो धीरे-धीरे यथार्थ रूप लेकर लोगों को पत्थर-मानसिकता में तब्दील कर रहा है|  
कोई कवि है और स्त्री-सम्वेदना पर बात न करे तो बहुत कुछ अधूरा-सा लगता है| नीरज नीर के लिए स्त्रियाँ किसी तीसरी दुनिया से आई हुई नहीं लगती हैं| कवि के अपने परिवेश से वे आकार पाती हैं और गहरे सम्वेदना के साथ देश-क्षितिज पर उनका मानचित्र उभरकर सामने आता है| नीरज नीर के लिए “नदी स्त्री है/ और स्त्री प्रेम|” जो स्वभाव नदी का है वही स्वभाव स्त्री का है| नदी का ठहराव कहीं गहरे में स्भ्यता के ठहराव का विषय हो सकता है| नदी की जिद, किसी भी मायने में, हमें संकट में डाल सकती है| लहरों की उत्ताल तरंगें समुद्र की निशानी है नदियाँ तो बस बहती रहती हैं| इस बहते रहने में सभी को साथ लेकर चलने का आनंद होता है| निःस्वार्थ भाव से सभी के दुःख-दर्द समझने और अपना भूलकर आगे बढ़ते रहने का साहस होता है| नदी के इस रूप में स्त्री को आच्छादित करते हुए कवि ‘नदी स्त्री होती है’ कविता में कहता है-
नदी नहीं चाहती है/ दर्पण होना/ मटमैली होना उसका/ गौरव है
उर्वर गर्भ की निशानी/ प्रमाण उसके जीवित होने का  
नदी नहीं चाहती है/ एकाकी बहना/ छोटी छोटी अंगुलियाँ  को
अपने हाथों में थामे/ छोटों को साथ लेकर चलना 
बड़े में समाहित हो जाना/ उसका आनंद है/ कई कोणों से
जहां से आगे जाना मुमकिन नहीं होता/ नदी बदल लेती है रास्ता
वह जानती है हठ का मतलब/ विनाश होता है  
नदी हठ करना नहीं चाहती/ बहना उसकी मूल प्रकृति है|”
          यह प्रकृति अनवरत ऐसी बनी रहे ऐसा लोग नहीं चाहते| लोग नदी के बहाव को अपने स्वार्थ के कारण बाधित करते हैं तो स्त्री की निःस्वार्थ भाव को बन्धनों और हिदायतों के बाँध में रखकर सीमित करने का षड्यंत्र करते हैं| यह षड्यंत्र इतना घातक होता है कई बार कि स्त्रियों की गति उनके लिए दुश्मन बन जाती है| जिन जरूरी मुद्दों पर उसे सक्रिय होना चाहिए, जो जरूरी सुविधाएँ उसे प्राप्त होनी चाहिए, वह सब हम महज इसलिए बाधित कर देते हैं कि हमारी नैतिकता उसके लिए तैयार नहीं होती| क्या किसी की सोच और प्रकृति को विकृत करना ही हमारी नैतिकता है? यदि ऐसा है तो सही अर्थों में स्त्री को स्वप्न-जीवी बनाना है| यह फिर भी उसकी अपनी संघर्षधर्मिता है कि वह स्वप्नजीवी होने के बावजूद दुनिया को सुंदर और बहुत अधिक सुन्दर बनाए रखने की कोशिश में लगी होती है| नीरज नीर एक कविता है ‘स्त्री का सपना’ जिसे यहाँ पूरा रख रहा हूँ| इसे देखने से यह स्पष्ट हो जाएगा कि एक स्त्री का मूल स्वभाव क्या है हमारे तमाम दुराग्राहों एवं पूर्वाग्रहों के बावजूद-
स्त्री जगा दी गयी नींद से
जब वह थी,
सपने के आखिरी पड़ाव में।
एक खूबसूरत, दीर्घ सपना,
जहाँ सबकुछ था
मुकम्मल।
जहाँ मुस्कुराहटें दर्द की जिल्द न थी।
जहाँ आज़ादी
मुंहताज न थी
ताकत और दौलत की ।
जहाँ नहीं खोजनी पड़ती थी छाँव
स्त्री देह में।
जहाँ बच्चियाँ दौड़ जाती थी बेखटके
आदिम नदी के पार।
जहाँ खिलखिलाहटें संदेश थी
सुबह के सूरज का।
स्त्री तब से निरंतर कोशिश कर रही है
उस सपने को देखने की
पर दुनिया उसे कभी सोने नहीं देती।
वह जागती आँखों से करती रहती है कोशिश
कि जी ले वही सपना।
इसी क्रम में बनाती रहती है दुनिया को
बेहतर... और बेहतर।
          ‘दुनिया को बेहतर...और बेहतर’ बनाते रहने के बाद भी हमारी नज़रों में अपराधी सबसे पहले एक स्त्री ही होती है| एक स्त्री ही होती है जिसके विषय में हम मान लेते हैं कि लड़का यदि नालायक निकला है तो उसमें ‘अमुक लड़की/ स्त्री’ का दोष है| हम मान लेते हैं कि परिवार टूट रहा है तो उसके पीछे एक स्त्री का हाथ है| हम मान लेते हैं कि वह स्त्रियाँ ही हैं जिनकी वजह से दोस्ती और मित्रता में दरारें पडती हैं| सदियों से हम मानते आए हैं कि लड़ाइयाँ होने के तीन ही कारण रहे हैं “जर, जोरू, जमीन|” जिस संसार में स्त्रियाँ मनुष्य न होकर सम्पदा और वस्तु रूप में दिखाई दें, उस संसार में स्त्रियों के प्रति हमारे घृणा का हद कहाँ तक हो सकता है, इसकी हम कल्पना भर कर सकते हैं|
यह विडंबना ही है कि जिन कठिन समयों में हम एक-दूसरे से बचने और बंचाने का प्रयास कर रहे होते हैं उसी समय किसी स्त्री के प्रति हमारी मानसिकता पशुवत होती जाती है| संसार के हर युद्ध में, हर अलगाव में, हर झगडे में हिंसा का अंतिम विकल्प स्त्रियाँ ही बचती हैं| स्त्रियाँ ही होती हैं जिन्हें अपहृत करने, बलत्कृत करने और मारने के बाद मनुष्य की हिंसक प्रवृत्ति को शांति मिलती है| लेकिन यह शांति सम्पन्नता और समृद्धि की नहीं दारिद्र्य और पतन की शांति होती है| नीरज नीर कहते भी हैं “सभ्यता का अंत” में नीरज नीर का यह कहना-“जहां पड़ी हुई है/ एक स्त्री की जली हुई लाश/ वहीं देखना/ वहीं से मिल जाएंगे तुम्हें/ एक सभ्यता के पतन के निशान” सही मायने में स्त्रियों के प्रति दुराग्रहों, पूर्वाग्रहों से मुक्त होने के लिए हमें आगाह करना है|
  युद्ध आदि वैसे भी मनुष्य की मानसिकता के विपरीत किया गया कुकृत्य है| जब बात मनुष्य की मानसिकता की हो रही है तो हमें गंभीरता से विचार करने की जरूरत है| हमारी तमाम कोशिशे महज इसलिए हैं कि हम मनुष्य जैसा व्यवहार करते हुए मनुष्यता की स्थिति को सहज और स्वाभाविक रूप में प्राप्त कर सकें| अब यह कम समस्या तो नहीं है कि शांति बनाए रखने के लिए भी हमने ‘युद्ध’ अनिवार्यता को अपनी आदतों में शामिल कर रखा है| युद्ध चाहता कौन जबकि यह प्रश्न लड़ने वालों के मन से लेकर युद्ध का शिकार होने वालों तक के मन बेधता रहता है| जिस संसार में “युद्ध की आहट से ही/ पतझड़ के बूढ़े जर्द पत्तों की तरह/ काँपता है रोजहा मज़दूरों का मन,/ सैनिकों की नवोढ़ा पत्नियाँ,/ मोतियाबिंदी आँखों वाली माँ,/ काँपते हाथों  और कमज़ोर टाँगों वाले पिता,/ चलना सीख रही तुतलाती बिटिया/ सबका मन घबराता है युद्ध की आशंका से” उसी संसार में बस्तियों उजाड़ देने की तरतीबें से लेकर बम, तोप और परमाणु बम जैसी खतरनाक मानवता विरोधी हथियारों का निर्माण कर जाते हैं लोग, यह कवि के लिए ही नहीं सभी के लिए चिंता का विषय है|
इसके बावजूद सैनिक की विधिवत भर्तियाँ निकलती हैं, युद्ध होते हैं, मरने वाले की गिनती होती है, मारने वाला मेडल पाता है जबकि भूख से मरने वालों की/ कभी सूची नहीं बनती/ नकार दिया जाता है/ उनका होना ही,/ बता दिया जाता है/ उनका मरना/ हारी- बीमारी, रोग से|’ विजय हमें सही अर्थों में भूख से पानी थी और निकल पड़े युद्ध-विजय के लिए| युद्ध तो किसी रूप में हमारी सभ्यता का अंश नहीं था जबकि भूख सदियों की समस्या रही है मानव समाज की| युद्ध और भूख के बीच के कारणों का उल्लेख करते हुए कवि कहता भी है कि युद्ध में मरने वालों ने/ यद्यपि स्वयं ही चुना होता है युद्ध/ जबकि भूख होती है आरोपित।/ युद्ध में मरना एक दुर्घटना है,/ भूख से मृत्यु एक विभीषिका,/ एक त्रासदी,/ मानवता के चेहरे पर/ एक बदनुमा दाग|’
इस दाग को दूर करने की बजाय हम उसे और अधिक गाढे बनाए जाने के क्रम में शामिल हो रहे हैं| यह क्यों हो रहा है ऐसा? आखिर  इक्कीसवीं सदी के इस विज्ञान और विज्ञापन युग में जब मनोरंजन के तमाम साधन उपलब्ध हैं तो युद्ध को लेकर ऐसी मानसिकता कहाँ तक उचित है? कवि इसका निदान खोजते हुए तर्क देता है कि “हम जिस दिन समझ जाएंगे/ भूख, युद्ध से बड़ी चुनौती है/ समाप्त हो जाएगा/ युद्ध का भय” और मनुष्य अपनी सारी ऊर्जा भूख ख़त्म करने के लिए लगाएगा| परिवेश स्वस्थ और सकारात्मक दिशा में कार्य करने लगेगा और यही होना भी चाहिए|
          कवि का स्वभाव भी यही होना चाहिए कि वह सकारात्मक उद्देश्यों को आगे लेकर आए और नकारात्मकता को जड़ से ख़त्म करने का उपाय सुझाए| जब हम नीरज नीर की कविताओं का अध्ययन करते हैं तो सकारात्मकता की दुनिया का गहराई के साथ साक्षात्कार करते हैं| अपने समय के कुशल हत्यारों से लेकर कुशल शिल्पियों तक की प्रवृत्तियों को नीरज नीर खुली मानसिकता से परखते हैं| हत्यारों को समाज के लिए घातक और शिल्पियों को जरूरी मानते हैं| कवि-दृष्टि की यह गंभीरता कविता के समकाल में आसानी से प्रवाहित होती रहे, यह अपेक्षा बनी रहेगी|

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