Friday 10 April 2020

जिद है कि तस्वीर बदलेगी एक दिन (राजवन्ती मान की कविताओं से गुजरते हुए)


जो रचनाकार अपनी सीमाओं को तोड़कर सृजन करता है सही मायने में वही सृजन-धर्म का पालन कर पाता है| सीमाओं से मतलब यह है कि जाति, वर्ग, धर्म, नस्ल जैसी मान्यताएं वह नहीं मानता| इनसे जुड़ी भावनाएं उसके लिए कोई अवरोध नहीं होनी चाहिए| सृजन का सम्बन्ध सम्वेदना से होता है और सम्वेदना का सम्बन्ध इन कृत्रिम भावनाओं की संकीर्णता में नहीं होता| होना भी नहीं चाहिए| जहाँ ऐसा होता है संकीर्णता वहां अधिक होती है| समकालीन हिंदी कविता में जब आप इस तरह विचार करते हैं तो अधिकांश रचनाकार हैं जो इनसे मुक्त हैं| बहुत-से रचनाकार ऐसे हैं जो मुश्किल से मुक्त हो पाते हैं| स्त्री रचनाकारों की बात करें तो यहाँ बहुत मुश्किल होता है ऐसा हो पाना|
स्त्री-विमर्श ही क्यों जितने भी अस्मितावादी विमर्श हैं वे इस दायरे से बहुत मुश्किल से निकल पाते हैं| ऐसा उनका स्वयं एक गहरे पीड़ा से न मुक्त हो पाना तो है ही, उनके अपने दुःख सम्पूर्ण वर्ग और जाति के दुःख होते हैं, इसलिए भी| यदि वे इनसे मुक्त होने की परिकल्पना करते भी हैं तो प्रश्नों के घेरे में आना स्वाभाविक है| जो निकल भी जाते हैं तो लोगों के मन में बैठी मानसिकता उन्हें उस रूप में स्वीकार नहीं कर पाती|
समझ के लिए, यदि कोई स्त्री रचनाकार कविता लिख रही है तो समीक्षक या आलोचक सबसे पहले उसकी रचनाओं में स्त्री-विमर्श खोजेगा, भले ही उसके काव्य में स्त्री-विमर्श न हो लेकिन वह खोजकर यह सिद्ध करने में एड़ी-चोटी का जोर लगा देगा कि अमुक रचनाकार ने अमुक तरीके से स्त्री-विमर्श को मजबूती दी है| यही स्थिति दलित लेखन की है| कभी भी कोई भी दलित रचनाकार हो, भले ही उसके लेखन में वैश्विक विमर्शों की गंभीरता देखने को मिले लेकिन आलोचक और समीक्षक उसे दलित-चेतना और परिप्रेक्ष्य में ही देखने का अभिलाषी होगा| जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए| ऐसा करने से आप रचनाकार के चिंतन-वितान को सीमित तो करते ही हैं रचनाओं के महत्त्व को भी नकारा बनाते हैं|
राजवन्तीमान की काव्य-दृष्टि स्त्री-विमर्श की लिजलिजे फोर्मेट से निकलकर विमर्श-वैविध्य को आत्मसात करने वाली दृष्टि है| भूख, किसान, मजदूर, युद्ध, शांति, देश-समाज-परिवेश, आत्मसंघर्ष, मानवीय जिजीविषा, देश-भक्ति आदि विषय इनकी काव्य-दृष्टि के केंद्र में हैं| स्त्री-सम्वेदना की कविताएँ इन्होंने नहीं लिखी है, ऐसा बिलकुल नहीं है| जो कुछ कविताएँ हैं वह सशक्त हैं अपनी भूमिका में| पुरुषों के लिए आरोप-पत्र नहीं हैं| अधिकारों की मांग है तो कर्तव्यों का निर्वहन भी है| स्त्री-जीवन के प्रति क्षोभ है तो गर्व भी है| कुंठित मानसिकता लेकर सृजन धरातल पर नहीं उपस्थित होती हैं| परिवेश की जरूरत के साथ-साथ स्व-विवेक का प्रयोग इन्हें गंभीर बनाता है| झूठी प्रशंसा और उधार की ताली बिलकुल नहीं पसंद हैं राजवन्ती मान को| अपनी ‘ये कविताएँ’ में इन्होंने स्पष्ट करते हुए लिखा है कि-
“ऐसे स्वप्न नहीं देखती/ ये कविताएँ :
कि नशीली हवाओं में मचलें,/ लहरायें,
रेशमी पर्दों की तरह/ रंगदार रोशनियों के
सान्द्र  होंठ चूमें,/ सभागार सीटियों की
गुलाबी गूंज से भर जायें !

ये कविताएँ/ मिथ्याओं का स्वर्णाभिषेक नहीं करती
अनहद अकार्यों से/ जल उठते हैं इनके  भीगे होंठ
रक्तिम ज्वाला से रंगी  जाती हैं/ ताम्बई चुनरियां  l         

ये कविताएँ/ स्लेटी अंधेरों के शब्द हैं,/ इन्हें चादर फाड़ कर
रौशनी तक आना है/ कदमों को अग्रेषित  करना है/ उत्तरी छोर तक l

इनके खुरदरे हाथों की  खरोंचें/ बांधती  दो बूंद पानी,
सूखती नदी का नीरव विलाप l/ शहर की व्यापक सेज पर
कुर्बान  होते गाँव की कहानी हैं/ ये कविताएँ
परे  हैं/ फलहीन होने की यातना से !
 ये कविताएँ एक तरह से बयान हैं कवयित्री के कि वे बात और विमर्श गंभीर विषयों पर करने की ही हिमायती हैं| वैसे सच कहूं तो गंभीर विषयों में भूख, मजदूर और किसान पर लिखी गयी कविताएँ हर समय रचनाकार के सम्वेदनशील होने की गवाही देती हैं| आदमी को मनुष्य रूप में बनाए रखने के लिए भूख पर विजय पाना प्राथमिकता होनी चाहिए| मजदूर इसलिए कार्य करता है ताकि उसकी जरूरतें पूरी हों और वह भूखा न सोए| किसान इसी भूख से ताउम्र लड़ता है| मजदूर और किसान परस्पर एक स्थिति से जुड़े हुए हैं और वह है भूख| राजवन्ती मान स्पष्ट करती हैं कि “जो भूख से मरते हैं/ वही सुनामियों में मरते हैं/ महाराष्ट्र के सूखे या/ बंगाल के अकाल में,/ घोषित या अघोषित युद्ध में/ वही मरते हैं/ वे हर युद्ध में मरते हैं” और ताउम्र न मरने के लिए युद्ध लड़ते रहते हैं|
युद्ध इसलिए भी लड़ते रहते हैं क्योंकि इनके यहाँ दुःख और पीड़ा यही दो भाव स्थाई मिलते हैं| इन दोनों से मुक्ति के लिए एक संघर्ष ही अंतिम उपाय बचता है| यह भी सच है कि जैसा इनका जीवन होता है समस्याएँ उसी रूप में होती हैं| जन्म तो ले लेते हैं मृत्यु का समय भी निश्चित होता है उनके, लेकिन समस्याओं का कोई ओर-छोर नहीं होता| मजदूर के रूप में ‘निर्माणाधीन पुल’ कवयित्री उन बच्चों को देखती है जो “देखते ही देखते बड़े हो गये/ बँटाने लगे हाथ/ नए जन्मे/ छोटे बहन भाइयों को सम्भालने में/ लटका लेते हैं कभी पेट पर/ कभी पीठ पर/ लड़खड़ा जाती है पतली टाँगे/ पेट के बोझ तले/ मुहैया हो जाएंगे दो हाथ और/ कल/ मजदूरी के लिए इसी जगह|” सोचिए कि जिस पुल के नीचे से हम आप गुजरते हुए काँप जाते हैं वही पुल उनके जीवन का आशियाना होता है| आशियाना कहना गलत होगा यातना घर कहना ज्याद उचित|
अत्याधुनिक और पुश्तैनी यातना घरों में रहने को विवश ये वह बच्चे हैं जो नहीं जानते कि बचपन भी कोई चीज होती है| मन की इच्छा पूरी करने के लिए नहीं दो वक्त की रोटी की तलाश में और गर्मी बरसात आदि मौसमों के साथ-साथ गहन और भयंकर ठंडी से बचने के लिए “किरण फूटते ही भोर की/ लपक पड़ते हैं बाहर की ओर/ अकड़ी हड्डियों में उष्णता भरने/ घेर लेते हैं बैठकर उकडू/ ईंटों के चूल्हे को/ कुर्ते को घुटनों को ढांपे/ पेट को जांघों में भींचे/ उम्मीदों की रोटियां सेंकती/ माँ के इर्द गिर्द” जो अपने वर्तमान से दुखी है तो भविष्य के प्रति आशंकित| कवयित्री ऐसे बच्चों के प्रति द्रवित होती है| वह ठंड रातों के बीतने के बाद सूर्य की किरणों को अंजुली भर कर “एक पहर के लिए/ अट्टालिकाओं के पार्श्व में/ सरकंडों के घरौंदों में/ मिट्टी के सीले फर्श पर/ कि वो बच्चे कांपते ठिठुरन से/ रात्रि भर प्रतीक्षा में/ पेट की अग्नि जाँघों में भींचे/ दुबके पड़े हैं” उन किरणों से ऊर्जा ले सकें| भूख से मरने की बजाय दो रोटी की तलाश में निकल सकें कहीं| ये दृश्य कवयित्री को इसलिए भी दिखाई देते हैं क्योंकि वह उस परिवेश को करीब से देखी है| वह ऐसे बच्चों को भूख और ठंडी का शिकार होते हुए देखी ही नहीं उनके आस-पास रहते हुए उस पीड़ा को सहा भी है|
भूख गरीब और मजबूर मजदूरों को कदम-दर-कदम चिढ़ाती है| विवश करती है भयंकर यातनाओं को सहने के लिए| सहन की अंतहीन सीमा तक जाकर इन्हीं यातनाओं को एक किसान भोगता है| राजवन्ती मान जब किसानों की लाचारी को देखते हुए कहती हैं कि-“लाचार किसान/ किसको दे दुहाई/ जमीन बचाए या कमाई/ अंतहीन अन्नदाता की लड़ाई” मौसम की मार से लेकर बैंकों के कर्ज, सेठ-साहूकारों की उधारी और परिवार की तमाम जिम्मेदारियां आँखों के सामने नाचने लगती हैं| खेत में उपजे जिन फसलों को किसान “सींचता है खून से/ पालता है पोसता है/ औलाद से बढ़कर/ तडके दुपहरी, शाम/ से अनजान/ सुनहरी दानों पर टिकी है/ बच्चों की पढाई/ व्याह सगाई” उन्हीं जमीनों को पूंजीपतिवर्ग से सम्बन्धित लोग, जन-विरोधी नीतियों के पोषक लोग “बैठे हैं/ आँखें जमाए/ छीन लेने को आतुर/ एक-एक टुकड़ा जमीन/ पाँव तले की/ पेट तले की” ताकि वह भुखमरी का शिकार होकर बेगारी करने पर विवश हो|
देश में जातीय उन्माद हो, सांप्रदायिक झगड़े हों या फिर युद्ध की विभीषिका का आगमन हो एक किसान के लिए यह सब किसी त्रासदी से कम नहीं होता| जाति-पाति के नाम पर गांव जब भी झुलसता है फसलें बर्बाद होती हैं| या तो खेती नहीं होती और यदि होती है तो फसलें जला दी जाती हैं| साम्प्रदायिक झगड़ों में सबसे अधिक पलायन किसानों का होता है, इसमें कोई दो राय नहीं है| युद्ध के समय सीमाओं के आस-पास के इलाके में रहने वाले किसानों का क्या हश्र होता होगा, इससे कोई अनभिज्ञ नहीं है| सरहदों के दूर रहने वाले किसान के लिए भी यह बड़ी त्रासदी होती है| राजवन्ती मान किसान के जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव को कुछ इस तरह दिखाती हैं-“किसान अखबार नहीं पढ़ते/ न रेडियो पर खबरें सुनते हैं/ जब खेतों के ऊपर से/ धडधडाते जहाज गुजरते हैं/ उन्हें खबरसार मिल जाती है/ फाल जमीन में गहरी धंस जाती है/ मूंठ पर मुट्ठियाँ कस जाती हैं/ मन की विवशता जानती है/ कि गरीब के जवान और तोप के/ पागलपन का दुश्मन कौन है?” स्पष्ट यह भी है कि अमीरों के बच्चे अधिकतर फ़ौज में नहीं शामिल होते| किसानों के बच्चे ही होते हैं जो इधर से या उधर से टारगेट पर होते हैं|
युद्ध की संस्कृति भयानक रूप लेती जा रही है इधर| पहले के युद्धों में रणक्षेत्र निर्धारित होते थे लेकिन इधर “युद्ध केवल वही नहीं होते/ जो सरहदों पर लड़े जाते हैं/ वह भी युद्ध होते हैं/ जो घर की देहरी के बाहर लड़े जाते हैं/ लपटें भीतर पहुंचाती हैं|” हर वर्ग, जाति के लोग प्रभावित होते हैं लेकिन यह भी सच है कि महामारी का शिकार किसान ही अधिक होता है| अब जब युद्ध के स्वरूप में परिवर्तन हुआ है तो परिणाम में भी बदलाव दिखाई दिया है| युद्ध के बाद की स्थितियां इतनी भयानक और त्रासद होती हैं कि सदियों तक पीढियां उसके दबाव से मुक्त नहीं हो पाती हैं| इन सदियों में “युद्ध हार या जीत पर ख़त्म नहीं होते/ सदियों तक शिराओं में/ लावा बनकर दौड़ते हैं/ वे घरों को आलोकित नहीं करते/ काली परछाइयों से भरते हैं/ जो सदियों हरी रहती हैं/ नस्लें कहर ढोती हैं|”
यह कहर जितना अधिक सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से हमें पीछे ले जाती है आर्थिक दृष्टि से उतना ही कमजोर बनाती है| जो कमजोर और विकासशील देश हैं वहां के सन्दर्भ में यदि इस स्थिति को रखकर देखा जाए तो परिदृश्य और भी भयानक हो जाता है| “जब युद्ध का शहीद/ तिरंगा ओढ़कर गाँव लौटता है/ धरती कांपती है/ चूल्हे- चक्कियां सन्न हो जाती हैं/ जब नववधू की चूड़ियाँ फूटती हैं/ कलेजे दरक जाते हैं/ नींव डगमगाती है महल ढहते हैं/ बारातें रुक जाती हैं/ बच्चों के मुंह में उगती/ ‘दूध की ददियां’ ठबक जाती हैं|” पूरा का पूरा गाँव डर और भय के साए में रहने के लिए विवश हो जाता है| विपन्नता दबे पाँव कदम रखती है और कंगाल बनाकर रख देती है| अब यह कहना कि किसान प्रभावित नहीं होता युद्ध से, एक कोरी कल्पना है| हालांकि राजवन्ती मान भोलेपन से बाहर आने की अपील करती हैं| भूख और लाचारी वहीं तक पीछा करती है जहाँ तक आप असमर्थ होते हैं और असमर्थता का लबादा ओढ़े रहते हैं| राजवन्ती मान का यह कहना कितना सही है कि “पेट भींचे जांघों में न सोयें/ जीभों की काई पोंछ कर/ मिथ्या पर्दे फाड़ें/ वक्त आ गया है/ अपने कदमों से/ अपने खेतों तक जायें|” अपने खेतों में जाना अपने अन्दर जागृति लाना तो है ही भविष्य की पीढ़ियों को भी निर्भर बनाना है|
राजवन्ती मान सजग दृष्टि से समय का मूल्यांकन करती हैं इसलिए किसानों की गति-दुर्गति, युद्ध की बिसातों में पिसते जीवन की विसंगतियां स्पष्ट रूप से हमारे सामने होती हैं| चंडीगढ़ जैसे शहर में जिस काव्य-सम्वेदना के तहत अधिकांश रचनाकार प्रेम, सैर-सपाटा और हंसी-हंसाई जैसे विषयों से स्वयं को बाहर नहीं निकाल पा रहे हैं, राजवन्ती मान भूख, गरीबी, किसान और युद्ध जैसे सम्वेदनशील मुद्दों पर काव्य रचना कर रही हैं, वह हमें प्रभावित करता है| कविता में प्रेम, गुलाब, फूल और लजीज व्यंजनों पर कौन नहीं चाहता कि वह कविता करे लेकिन समय की विसंगतियाँ और समाज की विडम्बनाएं करने नहीं देती, यह एहसास जिसे हो जाए उसे ही समकालीन कवि कहा जा सकता है| इस जिम्मेदारी राजवन्ती मान समझती हैं| यह उनकी समझ ही है कि सीधे तौर पर यह कहती हैं-
मैं भी चाहती हूँ/ ऐसी ही कवितायेँ लिखूं
जिनमें / गुड़ की चाशनी में पकी हुई
गाजर सी मिठास हो/ पोष  की धूप सी गरमाहट
चांदनी में भीगी कमनीयता हो  !
मगर/ हाथ जलने लगते हैं / कलम थामते ही/ भोहें तन जाती हैं
मुट्ठियाँ  अपने आप कस जाती हैं/ कानों से गरम  सुस्साटे   बहते हैं  l
और/ कांच का वो नाजुक फूलदान
कठोर हाथों में/ चटक कर टूट जाता है
चुभ जाता है पांवों में/ कर देता है लाल/ फर्श को !”
वक्त के थपेड़ों से आहत हो हृदय और गीत नाजुक, सुगन्धित फूल का निकले यह कहाँ सम्भव होता है| इसीलिए वह समय की जरूरत और स्वयं की स्थिति को काव्य-सम्वेदना का आधार बनाती हैं| राजनीतिक दुरभिसंधियों को भी राजवन्ती मान ने गम्भीरत से लिया है| राजनेताओं की चाटुकारी प्रवृत्ति, लोकविरोधी नीतियों पर गम्भीर और स्पष्ट कलम चलाया है इन्होने| राजनीतिज्ञों की पैंतरेबाजी और मतदाताओं की कलाबाजी दोनों को अच्छे तरह से देखा भी इन्होनें| ‘चुनाव’ कविता में आज की राजनीति को कुछ इस तरह स्पष्ट करती हैं “सयाना हो गया/ हर आदमी/ सीख लिए गुर उसने/ निष्ठां की नीलामी के/ फैंकता है रोज नए पासे/ नहीं है ऐतबार किसी एक पर/ लगाता है दाँव हर किसी पर/ यही तो नीति है/ राजनीति है|” इस राजनीति में लोक विका है और तन्त्र समृद्ध हुआ है| 
   लोक-नीति भयंकर विसंगति का सिकार है इन दिनों| लोक-संस्कार और जन-संस्कृति का यथार्थ राजवन्ती मान की काव्य-सम्वेदना स्थाई विषय हैं| गाँव और शहर की दुनिया को एक-समान धरातल पर जीने वाली कवयित्री ने गंवई और महानगरीय सभ्यता की मानवीय और कटुतापूर्ण व्यवहार-व्यापार को बनते-बिगड़ते देखा है| कैसे एक गांव से संस्कृति अपना रूप बदलकर मनुष्य को पत्थर बना रही है और कैसे एक महानगरीय जीवन की विसंगतियों में उलझा मनुष्य कंकड़-पत्थर का ढेर बन जाने के लिए विवश है, राजवन्ती सिद्दत से चित्रण करती हैं अपनी कविताओं में| इनकी कविताओं में लोक-जीवन स्मृतियों के रूप में निखरकर सामने आता है| वह स्मृतियाँ ही हैं जो गहरे में कुरेदती हैं आपको| भटके हुए मूल्यों से ध्यान हटाकर अतीत से जोड़ते हुए फिर से वर्तमान करती हैं| कवयित्री पाती लिखते हुए जिस गाँव को वर्णन करती है अब उसका कोई अस्तित्व नहीं है| सब कुछ बदला और परिवर्तित है| यह आश्चर्य की बात नहीं है कि जिस तरह गांव में बैल होते थे, उन्हें खिलाने-पिलाने से लेकर पालने-पोषने तक का व्यवहार होता था उसी गांव में-“अब ऐसा कुछ नहीं रहा/ सूखी खोरें/ ईंट दर ईंट ढह गयीं/ अब आंगन में/ बैल, गाय भैंसे नहीं बँधती/ सुबह छाछ लेने वालों की कतारें नहीं लगती/ अब वहां गाड़ी का गैराज है/ और है सन्नाटा|” लोक-व्यवहार में छाछ लेने की प्रवृत्ति हो या ‘गाय भैंस’ के बांधे रखने की रवायत, यह सब सम्वेदनशीलता को बढाती थीं|
अब, जब वहीं पर ‘गाड़ी का गैराज’ बना दिया गया तो हमसे एक तरह से हमारा व्यावहारिक दृष्टिकोण छीन लिया गया| कवयित्री इसी कविता में दिखाती है कि अब ‘माँ का चूल्हा’ पड़ोसिनों का सिल-बट्टे पर चटनी पीसना, अलाव का जलना, बुजुर्गों हुक्का पीना, माटी के घड़े में पानी भरा जाना यह सब गये दिनों की बातें हो गयी| अब व्यवहार में चूल्हा गैस है तो कोई हाथ सेंकने के उद्देश्य से नहीं बैठता वहां| बुजुर्गों की बतकही न होने से वृद्धाश्रम की रीति विकसित हो रही है| कवितांश को यदि देखा जाए तो परिदृश्य और भी स्पष्ट हो जाएगा-
चौक के कोने से
माँ का चूल्हा
बहुत पहले हटा दिया गया
अब बच्चे चूल्हे में हाथ नहीं सेंकते
दूध व बिनौलों के
अलाव अब नहीं जलते
पड़ोसिनें सिलबट्टे पर चटनी नहीं पीसती
उखल मूसल बरसों से
कोने में खड़े
मौसमों के प्रहार से चीर-चीर हैं

ड्योढ़ी की बैठकें
बुजुर्गों के हुक्के
दहलीज में माटी का घड़ा
अब नहीं भरा जाता|”
कवयित्री के स्मृति में ‘प्रिय नीम’ के साथ ‘झोला’ की यादें हैं| नीम जहाँ उसके बचपन के दिनों की याद ताजा करती है वहीं झोला हमारे अतीत की सांस्कृतिक स्थिति स्पष्ट कारती है| कवयित्री यह भी याद करती है कि ‘दादी की चरखी’ से ‘एक-एक तार बनता था/ बुनकर की जीविका का आधार/ रंगरेज की छपाई/ रंगभरी गुलकरी अंगियाई/ गर्म रजाई/ देती थी नव जीवन को उष्णता/ जननी को दुकनियां/ लाल, नीला अम्बर/ उस पर कढ़े बेल के बूटे/ सौन्दर्य की धुरी थे|” अब यह सब नहीं है| यादें हैं| लोक इन्हीं यादों से समृद्ध होता है|
अपने से भविष्य की पीढ़ियों को यह याद दिलाने के लिए यही यादें पर्याप्त भूमिका निभाती हैं| इन्हीं यादों से जुड़ने के बाद कवयित्री देखती है कि “दरवाजे के पीछे/ खूँटी पर/ ये झोला/ टका है उस वक्त से/ जब दिल ने पहली चोट खाई थी/ और सी कर रख छोड़ी थी इसमें/ इस दरवाजे से जो आया और गया/ जिसने जो कहा सुना/ ये मुंशी है सबका/ बराबर हिसाब रखता है/ मैं रोज देखती हूँ इसको/ मगर उतारती नहीं/ बस, उतारती नहीं/ कि खुद ही गिर जाएगा/ एक दिन/ टूटकर, बिखरकर, गलकर/ खामोश|”  एक कवि की यह जिम्मेदारी है कि अपनी स्मृति में इन वस्तुओं को सम्भाल कर रखे| कविता में झोले का वर्तमान होना उस समय की सांस्कृतिक स्थिति को वर्तमान रखना है| लोक इन्हीं स्मृतियों से समृद्ध होता है| यह विस्मय नहीं ख़ुशी की बात है कि जो काम अभी तक लोकगीत किया करते थे, कविताओं के माध्यम से भी किया जा रहा है|

हम लाख कह लें कि स्त्रियां पूर्ण स्वतंत्र हैं, अपने पैरों पर खड़ी हैं, कोई दुःख नहीं है उनको, पुरुषों के बराबर हैं, लेकिन यह सब कहना उतना ही काल्पनिक है जितना स्वप्न में देखी गयी किसी घटना को यथार्थ रूप में बताना, हू-ब-हू बताते हुए उसे अलौकिक कहना| स्वप्न से तो फिर भी हमारा कुछ ताल्लुक होता है एक हद तक, स्त्री जीवन से उसका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता| जब मैं ऐसा कह रहा हूँ तो गरीब और अमीर स्त्री का अर्थ अलग-अलग न लिया जाए| स्त्री गरीब हो कि अमीर, पहले एक स्त्री है, जिसकी सबसे बड़ी विपदा उसका अपना शरीर है| अपना होते हुए भी किसी की सम्पत्ति| किसी की घोषित सम्पत्ति होने के बावजूद दूसरों के लिए जलन और ईर्ष्या का कारण|
इसी देह से मिली पीड़ा लिए वह पूरा जीवन दर-ब-दर भटकती है| इसी देह के कारण कई बार बेगारी और बेचारगी झेलती है| इसी देह की उपेक्षा से बदनाम होती है तो इसी देह के कारण अछूत भी बना दी जाती है| फर्श से अर्श से अर्श से फर्श तक का सफर इसी देह की वजह से उसे झेलना पड़ता है| ऐसी कोई भी विशिष्टता और कोई भी प्रवीणता नहीं है जो उसमें न हो लेकिन सही अर्थों में पुरुषों की दृष्टि ने स्त्री के “उभरे वक्षों/ चिकनी काया के/ उस पार झाँका ही नहीं| यह पीड़ा भी उसे रही और दुःख भी| यहाँ स्त्री वेदना को समझने के लिए कवितांश देना उपयुक्त नहीं होगा| राजवन्ती मान की एक कविता है ‘शैल पुत्री’ जिसे पूरा यहाँ रख रहा हूँ| इस कविता में जैसे पूरा जीवन विश्लेषित हो जाता है-
मुंह में जूता  दबाये/ मन्दिर की और जाती/ स्लेटी स्त्री/ स्लेटी रंग ओढ़े/ स्लेटी दुःख पहने/ काला मुंह करके भी निर्भाग को/ चाह जननी बन जाने की/ कमरबंद तक तालाब में डूबी/ जूते में भर भर पानी पीती हुई/ भीलवाडा में स्त्री/ प्रेत का साया है उस पर !/ बुलन्दशहर में बन गई देह/ नोंच खाया चोंचदार गिद्धों ने/ न्यायालय ने मामला/ अन्वेषण विभाग के सुपुर्द किया/ गर्भपात पर हाथ आजमाता/ झोला छाप डाक्टर/ देशी उस्तरे से/ भीतर उग रही लतिका l
ईंट भट्टे की मजदूरिन हुई गाभिन/ इज्ज़तदार स्वामी ने नोट चिपकाये/ पपड़ाए होंटों पर/ महानगर के पांच सितारा में/ रोशनियों की रंगीन जल- बुझ के बीच/ बाजार के नीम उजाले में/ मटरगश्त  सौदागर/ और देह से उतरता/ आखरी अंगवस्त्र !
तीन साल की अबोध को/ काली  चादर में लपेट/ उधेड़े नव पंख साठ वर्षीय ने/ लहुलुहान मृत चिड़िया !
लव यूके चक्रव्यूह में फंसी  किशोरी/ एम एम एस  का सामान बनी/ वैधव्य ढोती सुहागिनें/ सुगृहणी बनने की ललक में/ रसोई घर में पिघलती/ बन जाती बिस्तर !
रात के सन्तरी पहर में/ बदनाम सड़क पर ग्राहक पटाती/ बुझाती पेट की आग/ देहान्शों   की/ दब रही पुलिस वाले की एक आँख बारम्बार/ एक पर्दानशीन एलेनाबाद में/ घूंघट उठाने की कशमकश में/ जीत लाई ओलम्पिक मैडल/ साक्षी मालिक , पी वी सिन्धू/ गद गद देश पलक पावडे बिछाए/ बचा लिया सम्मान/ दुनिया की प्रतिस्पर्धा में !
इधर एक  विकल कविमन/ धुएं के गोलीय व्यूह में/ टोह लेता आंखो के कब्रिस्तान की/ छातियों में चस्पा  थिगलियों की/ झूठे चुम्बनों की/ हृदय में भीगी लौ जगाए/ आमन्त्रित करता स्त्री  को/ गरज कविता में गढ़ देने की/ शैल मूर्ति का  उस पर ऐतबार नहीं !
          यहाँ इतनी बड़ी कविता देने का कोई अर्थ नहीं था लेकिन यदि न दिया जाता तो शायद स्त्रियों की यंत्रणा, जो वह सदियों से हर क्षेत्र में भोग रही हैं, इतनी स्पष्टता से समझा न जाता| यह एक सच्चाई है जिसे हम मंदिर से लेकर बाज़ार तक की स्थिति में समझ सकते हैं| कोई भी स्त्री सच के इस रूप से जब परिचित होगी तो सामाजिक मर्यादाओं और तथाकथित नीति-नियमों, रीति-रिवाजों से विश्वास उठ जाना उसका स्वाभाविक है| कुछ इस तरह स्वाभाविक है, जैसा राजवन्ती मान स्वयं कहती हैं “अब में तड़प उठती हूँ/ तड़प  ही नहीं/ प्रतिकार को आतुर भी/ अब चूड़ियों का जोड़ा देख कर/ मौन व्रत नहीं टूटता/ हामी नहीं भरी जाती/ शीशे की बेडियों पर इतराती नहीं” बल्कि सीधे तौर पर भविष्य के विषय में सोचती है| स्वयं के दम पर दुनिया को देखने और यथास्थिति को समझते हुए कदम बढ़ाने पर विचार करती है| विचार करते हुए दासता का केंचुल उतार फेंकने का यह कहते हुए निर्णय करती है कि “बस!/ अब और नहीं/ ये तन्हाइयों के सिलसिले/ नींद से खाली/ बोझिल मुंदी आँखें/ गूंगी-सी खामोशियों से/ सहमी हुई सी रातें/ चस-चस करते ज़ख्म/ और उन पर लाल-पीले लबादे/ अब और नहीं|” एक स्त्री की यही स्पष्टवादिता एक दिन दुनिया में परिवर्तन जरूर लायेगी| उसके रूप और रंग से आगे देखने की लालसा समाज की जरूर जागृत होगी| साहस यही रखना होगा| 
          राजवन्ती मान काविता में दो टूक कहने का सामर्थ्य लेकर आती हैं| यह दो टूक कहने की शक्ति उसमें ही होती है जो परिवेश की विसंगतियों को गहरे में झेला हो| हालांकि भाषा प्रांजलता और तत्सम पूर्ण प्रवाह में कहीं-कहीं दूरूहता दिखाई देती है लेकिन जैसे-जैसे आप अपने समय की यथास्थिति को कविता-विषय में देखते जाते हैं यह दुरूहता भी विशेषता में परिवर्तित होती जाती है| राजवन्ती मान के दो संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं| पहले संग्रह से अधिक सजग कविताएँ दूसरे संग्रह में हैं लेकिन जो आधार बनता है कविता में स्पष्टता की वह पहले संग्रह में ही दिखाई देने लगता है| यह अपेक्षा ही नहीं विश्वास भी है कि इनका रचनात्मक विवेक हमें और हमारे परिवेश को संतुलित बनाए रखने में भविष्य में भी सक्रिय रहेगा|




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