Wednesday 30 November 2016

एक कवित्त

  
बार बार रूठ रूठ कहते मनाते नहीं
घंटा चार बीते पास रात में तुम आते हो
बीच-बीच किवाड़ खोल देखती हूँ तुमको मैं
मुझ कमसिन को ऐसे रोज क्यूं सताते हो
घुंघटे की नेह और चेहरे की उजास मेरे
प्रणय के प्रयास में निराश छोड़ जाते हो
आती है सरम रोज कहने में मुझे कुछ
बेसरम आखिर तुम क्यों न सरमाते हो?

दोष नहीं मेरी प्रिये रहूँ देखता मैं तुम्हें
रोज रोज ऐसी बात मुझे क्यों सुनाती हो
माता मेरी दरद से पड़ी वा कराहि रही
मेरे बदले में नेह न उससे क्यों लगाती हो
मानता न देखे बिन लगता तुम्हारा दिल
मेरे इंतज़ार में तुम भूखे ही सो जाती हो
पड़ी माँ बरामदे में अकेले ही रोई रही
पास वाके सुख दुःख क्यों न बतलाती हो?

कैसे जाऊं पास वाके सुनती नहीं है कुछ
अपनी ही बार बार मुझको सुनाती है
खुद को तो इज्जतदार मानती है और, सुनो
अनपढ़ गँवार मुझे कुलक्षिणी बताती है
रोज रोज ताने देती मेरे मायके के औ
भाई बाप को मेरे वो पापी ही बुलाती है
कहती है सब कुछ मेरा है क्या तेरा यहाँ
साम्राज्य अपना वो मुझपे जताती है |


देखो देवि तुम तो समझदार बहुत हो
माता मेरी अब अंतिम दौर पे सवार है
युवा हो तुम बात बुरी लगती है मानता मैं
जिंदगी है थोड़ी वाकी साठ के अब पार है
जो कुछ कहती वा चुप चाप सुनो गुणों
सुनता न समाज अपनी कोई भी पुकार है
रात दिन सेवा में लगाए रखो स्वयं को
याही में हमार और तुम्हार उद्धार है


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