Tuesday 7 November 2017

समकालीन हिंदी कवियों का सामाजिक बोध


समकालीन हिंदी कविता का वर्तमान दौर स्वयं में एक विकसित संवेदना का सशक्त दौर कहा जा सकता है| अपने तमाम अर्थों में यह तो स्पष्ट है कि बहुत से कवि कविताई के केन्द्र में न होकर राजनीतिक झंडेबाजी के शिकार हुए हैं लेकिन कुछ कवि ऐसे भी हैं जो अपनी भूमिका में तटस्थ हैं| वे जन-संवेदना की आवाज को सुन रहे हैं| अपने समय की विसंगतियों को झेलते हुए बहुसंख्य जन-जीवन के शिरमौर बने हुए हैं| यह भी सही है कि वर्तमान दौर कलमकारों के जन-जीवन-जमीन से हटकर पुरस्कार-प्राप्ति की श्रेणी में अपना स्थान सुरक्षित रखने का दौर है, फेसबुक से लेकर व्हाट्सएप तक भागदौड़ लगाकर प्रसिद्धि और शोहरत प्राप्त करने का दौर है लेकिन यह भी अपनी तरह का एक सच है कि इन्हीं वर्तमान कवियों में से बहुत से कवि ऐसे हैं जिनकी कवि-दृष्टि में मनुष्य और मनुष्यता का भविष्य सुरक्षित दिखाई दे रहा है| इस लेख में ऐसे ही कुछ कलमकारों पर चर्चा करने का प्रयास किया गया है|


कवि अपने वर्तमान की तमाम विसंगतियों से ढंके हुए समय को जीता ही नहीं परखता भी है कहीं गहरे में डूबकर| परख की प्रक्रिया में वेदना और सघन अनुभूतियों की विचलित करती अन्तर्दशा में, उसका अपना बहुत कम समाज का अधिक होता है| अपने आस-पास के परिवेश में यथार्थ मानवीय संभावनाओं को तलाशते हुए डूबने की प्रक्रिया में चौकन्ना वह होता जरूर है| समस्याएँ उसके सामने से आकार ले रही होती हैं तो कविता उन समस्याओं से संवेदना ग्रहण कर रही होती हैं| कुंअर रवीन्द्र अपने समय के ऐसे ही कवि हैं जो आकार और संवेदना के मध्य खाली स्पेस को भरने का सफल प्रयास करते दिखाई देते हैं| 
इनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह आभास होता है कि समय का समकाल एक डरावने आकार में हमारे सामने खड़े होकर हमें ललकार रहा है तो संवेदना का आदर्श उस ललकार के प्रतिरोध में एक माहौल बना रहा है| इस माहौल में कवि के “सामने है/ एक दृश्य/ या उसका चेहरा/ बेहद कोमल रंगों से भरा/ मगर/ एक लम्बी अंतहीन दूरी/ और सन्नाटे की काली लकीर भी/ झुर्रियों की तरह खिंची हुई/...सामने है/ उसका चेहरा/ या एक दृश्य/ छुअन से लजाई/ एक किनारे सिमटी, बहती नदी/ मिलन की प्रफुल्लता से भरा/ क्षितिज/ और.../ नई सृष्टि की कल्पना में/ अपलक आकाशगंगा को निहारता/ क्रौंच का एक जोड़ा भी” अब यह कवि का साहस है कि इन सब के साथ जुड़ते हुए ‘नई सृष्टि की कल्पना’ को साकार करने का सार्थक उपक्रम वह कर सके| साहस इसलिए भी क्योंकि हमारे समकालीन परिवेश में पुराने सांचे में ही नई संभवनाओं को रंगने का उपक्रम बड़ी सिद्दत से किया जा रहा है जबकि कवि अपने व्यवहार में किसी भी गढ़े गये सांचे और रंग में स्वयं को देखे जाने से परहेज करता है| वह “लाल, नीला केशरिया या हरा/ नहीं होना चाहता” वह अपनी भूमिका में “इन्द्रधनुष होना चाहता” है “धरती के इस छोर से/ उस छोर तक फैला हुआ|”
कवि निश्चित ही सामाजिक जीवन की विसंगतियों से आक्रान्त है| हमारे तथाकथित सभ्य समाज में भूमंडलीकरण का यथार्थ मनुष्यता को बाजार की वस्तु के रूप में परिवर्तित करके रख देगा, यह किसी को नहीं खबर थी| कवि का यह कहना “जब से हम सभ्य हुए/ बस तब से ही/ ढूंढ रहा हूँ/ उस आदमी को/ जो अपने बीच कहीं/ किसी शहर किसी गाँव में/ गम हो गया है/ बाज़ार में” मानवीय मार्ग से बिछड़कर बनावटीपन की हद तक प्रवेश कर चुके मनुष्य का आत्मीय बयान है| यह बयान इतना विश्वसनीय हो गया है कि हमारी अपनी समझ पूर्ण रूप से कुंद हो चुकी है| समझ का कुंद होना जिन्दा होते हुए भी मरे मुर्दे की शक्ल में सांस लेना है| यह इसलिए भी क्योंकि हमारे सुख-समृद्ध होने की निशानी में आत्म निर्णय की भूमिका न होकर किसी दूसरे के डर और भय का आतंक है--“मैं चीख कर बोला/ हम आजाद है/ अपनी कनपटी पर टिकी हुई/ पिस्तौल को छुपाते हुए/ उसने कहा/ हम आजाद हैं/ अभी-अभी लुटी/ अस्मत के दाग शरीर से मिटाते हुए/ फिर सबने कहा एक स्वर में/ हम आजाद हैं/ और डूब मरे चुल्लू भर पानी में/ शर्म से|” 
राजनीतिक पैंतरेबाजी की सभी प्रक्रियाओं को झेलता हुआ जितना अधिक आम आदमी पस्त है कवि उससे कहीं अधिक लोकतंत्र के भविष्य को लेकर हैरान है| ऐसा तंत्र जहाँ सबको समान अधिकार हो और सबके द्वारा शासन की भागीदारी तय हो, वहां आम आदमी का अभी तक यह प्रश्न करना कि “अरे भाई! लोकतंत्र का मतलब समझते हो?” प्रजा और राजा की मान्य धारणाओं पर सबसे बड़ा मजाक है| यह मजाक कैसे यथार्थ होकर हमारे राजनीतिक परिवेश की तमाम बनी-बनाई धारणाओं को ध्वस्त करता है वह इस कविता में आसानी से देखा जा सकता है 
मली हुई तम्बाखू/
होठ के नीचे दबाते हुए
उसने पूछा
अरे भाई! लोकतंत्र का मतलब समझते हो?
और सवाल ख़त्म होते ही
संसद की दीवार पर
पीक थूक दी

थोड़ी दूर पर
उसी दीवार को
टांग उठाये एक कुत्ता भी गीला कर रहा था

लोकतंत्र का अर्थ
सदृश्य मेरे सामने था|”
ऐसे अर्थ में लोकतंत्र का ही चेहरा नहीं बेनकाब होता हमारे अपने समाज का ढांचा भी बेनकाब होता है| यह भी सच है कि बदले हुए समय में राजनीतिक सच एक षड्यंत्र के रूप लेकर घिरे हुए बादल के रूप में हमें डरा रहा है| बरसने की क्षमता उसमें नहीं है लेकिन हवा के वेग से बस्ती-उजाड़ की संभावनाएं तेज तो हो ही गयी हैं| ऐसे लोकतान्त्रिक सच के यथार्थ में उसे पता है कि “जिस तरह/ बनैले सूअर को/ हांका लगा कर,/ घेरकर मारा जाता है/ वैसे ही/ इस देश के जन/ मारे जा रहे हैं/ और मारे जायेंगे”

शब्दों की ऊष्मा में विचारों की टकराहट काव्यात्मकता के माध्यम से स्वस्थ संवाद को आमंत्रित करती है| जन-जीवन-जिजीविषा में उलझे हृदय को आशाओं के अंतिम अवस्था तक चलने के लिए प्रेरित करती है| दीपक मिश्र की कविताएँ (‘सन्नाटा’, ‘मेरे दोस्त’ और ‘कुछ इस तरह से’)आशाओं और निराशाओं के मध्य झूलते मनुष्य की बयान हैं| समय की मार से पीड़ित मानवीयता की पुकार है| यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि एक तरफ जब सूरज अपनी/ नीरवता में/ उगने की तैयारी कर रहा था/ आदमी कशमकश में था-/ जगे या न जगे/ तब/ एक बहुत...बहुत बड़ा/ तबका प्रतीक्षा कर रहा था/ कुछ होने की/ किसी के आने की/ कुछ एक ब एक घटने कीलेकिन आज तक उसकी प्रतीक्षा गहरे अर्थों में प्रतीक्षा ही रह गयी है| सूर्य के उगने के साथ वह उठता है और सूर्य के डूबने के बाद तक वह चलता रहता है| “धुल और धूप से सनेसंघर्षों में किसी तरह जीवन-यापन करते हुए आज भी लोग पूरे इत्मीनान के साथ/ दोनों हाथों को बांधकर/ करते हैं/ इंतज़ार अनागत के आने कापर यह उसका हतभाग्य ही है कि सूर्य के रूप में जो भी आया उसने अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा के साथ छला ही है| छलने की प्रक्रिया में शोषक जातियोंका चीत्कार और शोषित होने की प्रक्रिया में सहायक कौमेंअपने अस्तित्व की दुहाई देते हुए समय-संसार को विनष्ट करने का ढोंग रचते प्रतीत होती हैं| उनके लिए कवि का यह कहना आश्वस्त करता है कि मुर्दा कौम और बेजमीर जाती/ सदा से/ इतिहास के हाशिए पर रहती है.../ सन्नाटे के टूटने की प्रतीक्षा करती हुई
दूसरी कविता में कवि के सामाजिक जिम्मेदारियों से भाग कर स्वयं को निष्क्रिय कर देने की स्थिति है| कविता अपने गहन अर्थों में मनुष्यता की तलाश है| होने न होने के बीच विश्वास की जमीन तलाशते हुए सब कुछ होते देखने का यथार्थ है| इस अर्थ में भी कि, समय कलुषता में मनुष्य बदल सकता है अपने होने की अर्थवत्ता लिए लेकिन कविता अपने बनावट और बुनावट में भटके हुए मनुष्य का विश्वास है| इस अर्थ में, ‘से शुरू होने वाली कविता/ क्रांति देवी के साथ ही अप्रासंगिक हो गयी हैजैसा अतिविश्वास मानवीय गरिमा को कठघरे में खड़ा करता दिखाई देता है| यह भी कि व्यवस्था के फंदे में जकड़ी मानसिकता मानवीयता का पक्ष ले कर चलने में स्वयं को कमजोर पाती है| बुद्धि खुरापात करते दिखाई देता है तो हृदय बचाव की मुद्रा में होता है| वैचारिकता के केन्द्र में स्वयं को रखते हुए रोजी-रोटी से लेकर समय-समाज की समस्याओं तक जुड़कर रहना आसान कार्य भी नहीं है| ऐसी अवस्था में कई बार व्यक्ति कर्म-शैथिल्यता का शिकार हो जाता है तो कई बार निष्क्रियता की श्रेणी में स्वयं को रखकर सामाजिक जिम्मेदारियों से मुक्ति पा लेना चाहता है| कवि की यह स्वीकारोक्ति कि मुझे यह बताने में/ कोई शर्म नहीं है/ कि/ रोज ही विचारों द्वारा सभ्यता का बलात्कार करते/ हुए देखता हूँ और-और/ अपनी नपुंसक हतवीर्यता में लिथड़ा सो जाता हूँजिम्मेदारी से हट कर मन-मस्तिष्क को अकर्मण्यता के हवाले कर देना है|
तीसरी कविता में मानवीय स्वभाव की गहन परख की गयी है| संघर्षों से उठा व्यक्तित्व यदि तो अपने इतिहास को नहीं भूलता है, समय को प्रभावित और समाज को संस्कारित करता है| उसके बढे हुए कदम पीछे नहीं हटते और एक समय जमे हुए को चुनौती दे जाते हैं| लेकिन जो व्यक्ति मजबूरियों से उठकर अपना इतिहास और और अपने दिन भूल जाता है उस समय कुछ इस तरह से/ भेड़ बनता है आदमी/ कि/ तनी हुई मुट्ठी/ एक मुश्त हथेली बनती/ और लाचार फ़ैल जाती है|” फैली हुई हथेली मनुष्य के अस्तित्व विहीन होने की परिकल्पना ही नहीं यथार्थ भी है| दूसरे, जब व्यक्ति के दिन बदलते हैं तो वह स्वयं को सर्वेसर्वा समझने लगता है| परिवेश से उठा व्यक्तित्व परिवेश को देखकर ही गाली देने लगता है| कवि की दृष्टि से यदि सहमती जुटाते हुए कहा जाए तो अपने अच्छे दिनों में कुछ इस तरह पेश करता है/ खुद को/ कि आदमी अपने बाप तक को भूल/ जाता है|"

फिलिस्तीन : 2014 का दिग्दर्शन करने के बाद हालफिलहाल कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हूँ| अब यह इस कविता की सफलता है या फिर बंजर होती मनुष्यता को देखने की विवशता, पंगु होती मानवीयता में लगे कोढ़ के रिसते घाव की भयावहता है या फिर तमाम संघर्षों के दरम्यान बढ़ती जाती जीवन जीने की जीवटता, स्तब्धता और मूकता की स्थिति को स्वीकार करना पड़ता है| इन कविताओं के हवाले से बात करें तो यह आज भी चिंतन और चिंता का विषय है कि आखिर युद्ध किसलिए? मजबूरी तो बिलकुल नहीं होता युद्ध शौक हो तो यह बात अलग है| खेल की प्रवृत्ति में समन्वय की शिक्षा देना हर समय मानवीय स्वभाव रहा है और यदि नहीं भी रहा है तो शान्त वातावरण में सृजन के कलरव के साथ जीवन की शुरुवात करने वाले मानवीय लोक में ऐसा वीभत्स खेल किसलिए? यह भी सच है कि युद्ध आम आदमी ने कभी नहीं चाहा है| सुविधाखोर और लम्पट नरपिचासों की कभी न शांत होने वाली अमानवीय भूख का प्रतिफल जरूर रहा है युद्ध, जिसे भुगतना हर समय जनसामान्य को ही पड़ा है| यदि युद्ध यह सब नहीं है और नहीं रहा है तो फिर उनके बारे में नहीं जो संपन्न हैं, समृद्ध हैं, स्थापित हैं, “उन लोगों के बारे में भी सोच कर देखिए ज़रा/ जिनकी कोई हस्ती नहीं, न घर अपना/ न आज़ादी, न कोई मुल्क और मर्जी/ जो कई पीढ़ियों से अपनी जड़ें तलाश रहे हैं/ मुसलसल...इसी रेत और मिटटी में/ और बेसब्र हैं जानने के लिए अपने होने/ का मतलब और मकसद|” यह इन्हीं लोगों से बात करने पर पता चल सकता है, दिखाई दे सकता है, जाना जा सकता है कि बच्चों का बचपन, युवाओं का प्रेमपत्र,/ औरतों की अस्मत और बुज़ुर्गों की शामें/ सब की सब गिरवी हैं आज जंग और/ दहशतगर्दी के ज़ालिम हाथों...|” ये जालिम अपने बनावट और बुनावट में इतने शातिर हैं कि पक्षियों के कलरव, कोयल के कूक और मुर्गे की बाग़ को भी शक की निगाहों से देखते हैं और थोडा भी मौक़ा पाए नहीं कि मार देना चाहते हैं| कवि युद्ध में मारे गये मासूम बच्चों और विलाप करती औरतों के माध्यम से यथार्थ का अंकन करते हुए धर्मांध निज़ामों का जो हवाला देता है, यह गवाह है समकालीन परिवेश में व्याप्त सत्ता और सम्प्रदाय के आवरण में लिपटे सुविधाभोगी नरपिशाचों के आतंक का| “आप इस बच्चे की मासूमियत/ और औरतों के स्यापे पर हरगिज़ मत जाइये/ कौम के लिए फिक्रमंद निज़ामों की नजर में/ यह बच्चा चैनों-अमन के लिए/ एक बड़ा खतरा साबित हो सकता था/ ख़तरा भी ख़ासा बड़ा कि मारना पड़ा/ उसे मिसाइल के इस्तेमाल से/ और आँख भर दुनिया देखने के पहले/ बंद कर दी गईं उसकी आँखें हमेशा के लिए|”
फिलिस्तीन 2014 की कविताएँ महज फिलिस्तीन में होने वाले नरसंहार को ही नहीं दर्शाती...सम्पूर्ण वैश्विक धरातल पर होने वाले अमानवीय व्यापार का चिटठा खोलती हैं| सत्ता और संप्रदाय की आड़ में सुख तलाशते मगर्मच्छीय दृष्टि की पहचान बताती हैं| सुख की परिकल्पना में दुःख की अपार वेदना के साथ जलभुन मर जाने की नीयति से साक्षात्कार कराती हैंउन भयावह स्थानों से रू-बी-रू होने का अवसर देती हैं जहाँ जमींदोज होती बस्तियों में कब्रगाहों/ से भी कम रह गई हैं मकानों की तादात|” ऐसे बस्तियों से गुजरते हुए युद्ध से बेतरतीब प्रभावित मोहल्ले, देश-प्रान्त और औरतों-शिशुओं के माध्यम से कवि का यह कहना कि यह जश्न मनाने की ज़माने है/ ऐसे वाकये यहाँ रोज़मर्रा के नज़ारे हैं/ यहाँ बारूद की शाश्वत गंध के बीच/ बम और कारतूसों की दीवाली/ और सुर्ख-ताजा इंसानी लहू के साथ/ होली सा खेल खेलने की रवायत है जैसेजनमानस की विवशता और वर्चस्व के खूनी खेल में दफ़न होती मानवीय संभावनाओं के यथार्थ को दर्शाना है|

फिलिस्तीन को तो मैंने अभी तक नहीं देखा लेकिन कश्मीर की स्थिति से बहुत कुछ प्रभावित जरूर रहा हूँ| यह परिदृश्य तो वर्तमान है ही कि जिन बच्चों के हाथ में खिलौने होने चाहिए उनमें बंदूकें और पत्थर थिमा दिए गये हैं| जिन निगाहों में जीवन जीने के सुनहरे स्वप्न होने चाहिए उनमें दहशत और भुखमरी के यथार्थ कुलीचें मार रहे हैं| जिस यौवन को बचपने और युवावस्था के बीच के उल्लास में हर समय निमग्न रहना चाहिए वे भय और कुंठा के दलदल में धंस कर असमय जीवन की इहलीला को समाप्त करने के लिए विवश हो रहे हैं| यहाँ के यथार्थ से साक्षात्कार होने के बाद ऐसा कौन सा हृदय है जो यह सोचने के लिए विवश न होता होगा कि कभी रही होगी यह सभ्यताओं के उत्स की धरती/ पैगम्बर की पैदाइस और मसीह के/ वकार की पाकीज़ा ज़मीन/ अभी तो यह मनुष्यता के अवसान की ज़मीन है|” ऐसी जमीन जिसमें बादलों और परिंदों खातिर कोई जगह नहीं/ अब काले चिरायंध धुंए से भरे आसमान में./ बारूद की चिरंतन गंध ने अगवा कर लिया है/ फूलों की खुशबू...बनास्पतियों का हरापन|” सूख गया है यौवन| बंजर हो गया है जीवन| उस पर भी प्रतिफल यह कि प्रतिपल-प्रतिक्षण मनुष्य के साथ कीड़े मकोड़े जैसे व्यवहार हर समय किये जा रहे हैं|
सत्ता और शासन की जुगाली में स्वयं को मशगूल कर के रखने वालों के लिए युद्ध एक फैशन हो सकता है लेकिन रोजी-रोटी की उपलब्धता में व्यस्त जनसमुदाय के लिए इसकी क्या उपयोगिता है यह लम्बे समय से चिंतन का विषय रहा है| सच यह भी है कि सत्ता के लोभियों और संप्रदाय की आड़ में नरपिशाचों के लिए कुछ बचे रहेंगे तो इतिहास के कुछ ज़र्द पन्ने/ और उनमें दर्ज तुम्हारी फतह के टुच्चे किस्सेलेकिन लोक फिर भी ऐसे ही हँसता मुस्कुराता रहेगा| अपने आशावादी जीवन के अनुरूप
इसी रेत और मिट्टी में एक रोज़
फिर से बसेंगे
तंबुओं के जगमग और धड़कते डेरे
बच्चे बेफ़िक्र खेलेंगे नींद में परियों के साथ
और भागते-फिरेंगे अपने मेमनों के पीछे
औरतें पकाएंगी खुशबूदार मुर्ग रिज़ला
और खुबानी मकलुबा मेहमानों की ख़िदमत में
सर्दियों की रात काम से थके लौटे मर्द
अलाव जलाए बैठ कर गाएंगे अपने पसंद के गाने
बुज़ुक और रबाब की दिलफरेब धुनों पर
एक दिन लौट आएंगे कबूतरों के परदेशी झुंड
बचे हुए गुम्बदों और मीनारों पर ...
फिर से अपने-अपने बसेरों में|”
कवि के लिए यह कहना कि वह समकालीन हिंदी कविता का प्रमुख हस्ताक्षर है (और वह है भी) इन कविताओं के नजरिये से बेमानी होगी| यह कविताएँ अपनी बनावट और बुनावट में युद्ध और शांति पर लिखी गयी कई अन्य कविताओं के समक्ष बिलकुल कमजोर नहीं ठहरती| इसलिए समकालीन हिंदी कविता न कहकर समकालीन कविता के दायरे में रखना ज्यादा उचित होगा| मेरी दृष्टि जहाँ तक जाती है वहां तक कवि-दृष्टि की यह परिपक्वता विश्व-साहित्य के लिए अति आवश्यक हैं|
जीवन को जीना यदि साहित्य है तो साहित्य को जीना जीवन है, यह यहाँ आकर आभस हो रहा है| कहीं न कहीं मुझे कविता का समकाल बहुत ही डरावना और भटका हुआ काल लगता है| खासकर तब जब कुछ स्वनाम धन्य कवियों को पढता हूँ| शायद उन्होंने सब कुछ कह देने की स्थिति को ही कविता मान लिया है| ऐसी स्थिति में पाठक यह नहीं निर्धारित कर पाता कि अब वह क्या ढूंढें कविता में? मेरी समझ में कविता वहीँ प्रभावी होती है जहाँ कुछ दूर अपनी काल्पनिकता के साथ यात्रा करने के लिए पाठक मजबूर हो जाये|
इधर अरुण शीतांश की कविताई आश्वस्त करती है| गंवई परिवेश से आकार लेते हुए ठीक लोक-संवेदना में प्रवेश कर जाना कवि को आता है| कवि संवेदनशीलता की यथास्थिति पर अपनी रचनात्मकता को बलि-बेदी मुहैया न कराकर उसे कलात्मक अभिव्यक्ति देता है| वह जनता है कि जल से मछलियों को पकड़ करबेरहमी से खींच कर ला पटकते हैं मछुआरे/ गोया मछुआरे को पटकते हैं वे लोग/ फिर भी वे/ लोगों के लिए सजवा देते हैं/ बड़ी बड़ी थाली में/ प्लेट में/ मछलियाँतो यह उसका शौक नहीं मजबूरी है| यह भी विदित है कि जिस हथियार से मछलियों को पकड़ने का जाल मछुआरे बुनते हैं वही उनके फंसने के माध्यम बनते हैं| जब कवि यह कहता है कि मछुवारे और मछलियाँ लोहे से डरते हैं/ मछलियों और मछुवारे के मालिक कोई नहीं/ कौन रक्षक/ भक्षक लाखों में हैं”, पाठक अपने लोक-जीवन में प्रवेश कर दैनिक यातनाओं में खो जाता है| एक और स्थिति...यहाँ मछलियों का एक अर्थ हमारे परिवेश में और भी लिया जाता है वह है कम उम्र की लड़कियांऔर मछुआरे के रूप में उनके ही भाई-बाप जो भूख और जीवन के मध्य कहीं पिस रहे होते हैं| कवि का यह उद्घोस एक दिन मछलियों का राज होगा/ और दुनिया के तख्तों पर ताज होगाउसके यातनामय जीवन में विश्वास की नयी किरण दिखाता है|
कवि दूसरी कविता में वैश्विक प्रभाव का आकलन करता हुआ मजबूर मछलियों का नया पर समकालीन यथार्थ रखता है तलाबों में बसी हुई मछलियाँ/ किसी बड़े कुँए में छलांग लगाना चाहती हैं/ नाहर के मुहाने पर मछलियों का खैर नहीं/ बारिस के पानी में भींगना और भागना चाहती हैं|” हम अपने जीवन में कितने अहिंसात्मक और आदर्श हैं वह इसी सीरीज की कविता में देखने को मिलती है| एक तरफ तो तमाम जीवों को बचाने के लिए तमाम प्रकार के आन्दोलन किये जाते हैं लेकिन वहीं दूसरी तरफ मछलियों की चोइटा, खाल, पीत्त, गुदड़ी खेतों में/ डाल फेंकते हैं|” मछली सीरीज की कविताएँ निश्चित ही लोक से उठाई गयी संवेदना का प्रतिनिधित्व करती हैं|
“खून लपेटी हुई दुनिया पत्थर कीकविताओं को पढने से कवि की सामाजिक-बोध की यथार्थता को समझने में पाठक-मन को गहराई से उतरना होता है| महानगरीय परिवेश में जीवन-जन किस तरह बीरान और बंजर होता जा रहा है पहली कविता उसकी एक बानगी है जहाँ पत्थर की लकीरे हैं/ पत्थरों से तराशे हुए शहर में/ सहर पत्थर की तरह हो रहा है|” यह भी कि ऐसे शहर के निर्माण में हम स्वयं को घेरकर अपनी समाधि की व्यवस्था में लग गये हैं| बंजर और लगभग बाँझ हो चुकी यथार्थता में वह दिन दूर नहीं जब पत्थरों के शहर में सांस कम होगी/ पत्थर युगीन शाहर में हम नहीं जाएंगे/ प्रदूषण युगीन शहर बनाएँगे/ धड़कन तेज हो जाएगी/ प्रेमिका गले मिलने से पहले ही मारी जाएँगी|” भूख की प्रत्याशा में हम कितनी और आगे बढ़ सकते हैं, मानवीय होते हुए भी भूखे व्यक्ति की मानिंद नवीनता की तरफ उन्मुख होंगे यह दूसरी कविता में देखा और परखा जा सकता है| पर्यावरण के यथार्थ परिदृश्य पर कवि अधिक सचेत होकर अपनी बात रखता है| कवि की यथार्थता और उसके कहन की नवीनता हमारे समय एक बड़ी सच्चाई है

कुमार विजय गुप्त की कविताएँबदले हुए समय के यथार्थ को समझने में हमारी दृष्टि और दृष्टिकोण दोनों को प्रभावित करती हैं| वैसे तो वर्तमान कविता जगत में यह चेहरा अब किसी परिचय का मुहताज नहीं है; लेकिन फिर भी इस अंक में प्रकाशित तीन कविताओं—“कहाँ हो मेरे देश?”, “नाहिद आफरीन उम्र सोलह साल”, “कुर्सियांऔर चांडाल चौकड़ी”, के बहाने कुछ बात कर लेना आवश्यक है| आवश्यक इसलिए क्योंकि इन दिनों की अधिकांश कवि-कविताओं से गुजरते हुए यह आभास होता रहा है...वे कविता की शक्ल में कविताई कम पार्टी-प्रचार अधिक कर रहे हैं| इस प्रवृत्ति में जुगाली की भाषा गढ़ने की नीयति अधिक विकसित हुई है बनिस्बत निर्भीकतापूर्वक कहन प्रक्रिया को साकार रूप देने के|
प्रचार की कुछ प्रक्रियाएं तो इतनी घातक हैं कि बहुत से तथाकथित कवि सांप्रदायिक समन्वय की आड़ में साम्प्रदायिकता का जहर घोल रहे हैं| यह जहर तेजी से उठ कर सम्पूर्ण देश को अपने आवरण में समेट रहा है| उनकी वजह से ही सम्पूर्ण परिवेश में गहरा धुंध फैला हुआ है| इन्हीं धुंधले वातावरण के आवरण में वर्तमान रहते हुए कवि यहीं कहीं बावला होकर देख-पुकार रहा है—“कहाँ हो मेरे देश?” “चिंताओं से घिरे हुए आम आदमी की तरह’’ वह बौखलाया बेतहासा ढूंढें जा रहा है नगरों-महानगरों में वहां के ऐशो आराम में....मलिन बस्तियों में उनकी दुखती हुई रगों में....भोर के उजास में...धुंध-धुंए-धूल में...घुप्प अँधेरे में...किसानों की लटकी हुई जीभों में...स्त्रियों की संज्ञा-शून्य आँखों में...भूखे बच्चे के कपोलों पर आंसू के सूखे धब्बों में...नौजवानों के दिल दिमाग में भीवह ढूंढता फिर रहा है देश को लेकिन वह नहीं दिखाई देता है| वह यह भी अंदेशा जाहिर करता है कि देशप्रेम और देशद्रोह की सीमा-रेखा के बीच/ कहीं अदृश्य खड़े तो नहीं तुम भौंचक!लेकिन यह अंदेशा भी निराधार साबित होती है और वह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि बंटवा डालूँ तुम्हारी गुमशुदगी के पर्चे/ कि कोई लाकर सौप दे मुझे मेरा देश/.....कि करवा दूं मुनादी/ कि लौट आओ चले आओ मेरे पास|” नफ़रत और प्रेम का समीकरण इतना बिगड़ गया है कि उसका यह उपक्रम मानवीय आशाओं की भाँति ध्वस्त होता प्रतीत होता है|
राजनीतिक झंडेबाजों की जुगाड़ बाजी में आम आदमी किस तरह हतप्रभ और संशकित है वह इस कविता के माध्यम से देखा-पढ़ा जा सकता है| कवि-दृष्टि में इस सौहार्द्रपूर्ण पारम्परिक भूमि पर आम आदमी का देशयदि गायब हुआ है तो उसके पीछे कुर्सियांपूर्ण रूप से सक्रिय हैं| इस सक्रियता में जन-संवेदनाएं उपेक्षित हुई हैं, कुर्सियां पूजी जाती रही हैं| कुर्सियों के रखवाले समृद्ध हो रहे हैं तो उनको चयनित करने वाले दिख जाते हैं ठगे से/ कुछ जुम्मन शेख...कुछ अलगू चौधरी!/ कुछ सुलगते सवाल...कुछ ज्वलंत मुद्देऐसे ही लावारिश घुमते चक्कर काटते रहते हैं जैसे किसी वजनदार व्यक्ति बैठने से कुर्सियां चौकोर घूमा करती हैं|
कविता इन दिनों बहुत से कवियों ने की है लेकिन अवसरवादिता से मुक्त रहकर कविताई की शक्ल में बहुत कम लोगों को देखा गया है| यह सच है कि हमारा परिवेश रूढ़ियों और ढोंगों से भरा पड़ा हैवह चाहे हिन्दू परिवेश हो चाहे मुस्लिम परिवेश| हिन्दू परिवेश से कम रूढ़ियाँ मुस्लिम परिवेश में नहीं हैं| कवि-स्वभाव की बात की जाए तो रूढ़ियों को आँख दिखाते हुए प्रगतिशीलता को आमंत्रित करना उनकी जिम्मेदारी और नैतिकता बनती है| पिछले दिनों एक मुस्लिम युवती नाहिद आफरीन उम्र सोलह सालके गीत-संगीत गाने को लेकर इस्लाम के झंडेबाजों द्वारा जो हो-हल्ला मचाया गया था, इधर के प्रगतिशील कवियों द्वारा शायद ही कोई कविता निकली हो| कवि मुखर हो कर इस संवेदनशील मुद्दे पर अपनी बात रखता है और यह कहते हुए कि
क्या तुम्हें पता है कि जब तुम गाती हो
तो तुम किसी नाजुक डाली-सी हौले-हौले झूमने लगती हो
जिससे हिलने-डुलने लगती है आसपास की जमी हुई हवा
यही हवा हम तक आते-आते बन जाती है बवंडर
जिससे सिहर उठती है हमारी सत्ता
डोलने लगता है हमारा सिंहासन हमारा वजूद;
चूंकि तुम कूद समझदार हो, जरा समझो मत गाओ!निवेदन करता है|
यह निवेदन कवि की लाचारी नहीं है और न ही तो वह युवती को धार्मिक आडम्बर के आवरण सिमटते देखना ही चाहता है| वह चाहता है कि इस दकियानूसी परंपरा को जनसामान्य के बीच विमर्श का मुद्दा बनाया जाए और किसी की सुरीली मधुर ध्वनि प्राणघातक न होकर किस प्रकार जीवन-प्रेरक हो सकती है,यह बताया जाए| बताने की प्रक्रिया में परिवेश के अन्य कवि-कलाकार-समाजसेवक सहायक हो सकते हैं लेकिन सबके सब अपनी प्रशंसा में किस तरह डूबे हुए हैं यह कवि की चौथी कविता चांडाल-चौकड़ीको पढ़कर अंदाजा लगाया जा सकता है| दरअसल यह मात्र कवि के परिवेश की स्थिति न होकर सम्पूर्ण साहित्यिक परिदृश्य का यथार्थ है जहाँ चाण्डाल चौकड़ीसंवाद की समस्त प्रक्रियाओं पर कुंडली मारे बैठे हैं| ये ऐसे घाघ के रूप में चिह्नित किये जा सकते हैं जो एक साथ आलोचक-कवि-कथाकार-संयोजक-आयोजक-दर्शक-श्रोता सब कुछ बनने-होने की क्षमता से लैस रहते हैं| कवि के शब्दों में ही कहें तो वे एक दूसरे की बलैइयां लेते हैं/ वे एक दूसरे को बधाइयां देते हैं/ साल-दो-साल में भेंट कर प्रशस्ति-पत्र और शाल/ एक दूसरे को सम्मानित करते हैं|” एक तरह से सम्मानित होने की भूख और प्रशंसा न सुनने की कुंठा में स्वयं को रचते और स्वयं को खर्च करते प्रतीत होते हैं|
यह सच है कि कुछ कवि ऐसे हैं जो लोक-संवेदना से जुड़कर कार्य कर रहे हैं| राजनीतिक पार्टी की झंडेबाजी रवैये को दरकिनार करते हुए जन-सहभागिता की प्रवृत्ति को केन्द्र में रख कर चल रहे हैं| कुर्सी की पूजा के बजाय जन-संवेदना को आदर्श मानकर सत्ताशीन दलालों से टक्कर ले रहे हैं| इन कविताओं को पढने के बाद आपकी दृष्टि में कुमार बिजय गुप्त उन्हीं कुछ कवियों में से एक हो सकते हैं| सद्यः प्रकाशित इन कविताओं को पढ़ते हुए यह आभास हुए बिना नहीं रहा जाता कि कवि अनुशंसा-प्रशंसा की संस्कृति से दूर बहुत दूर है| इस संस्कृति में संलिप्त लोगों को बेनकाब करते हुए स्वयं को जो घर उजारे आपना चले हमारे साथकी पंक्ति में सुरक्षित रखने में कामयाब हो सका है|
स्मृतियां बहुत कुछ कह जाती हैं| स्मृतियों से उपजी यथार्थता ही स्थिरता से लेकर भटकाव तक की स्थिति में पथ-प्रदर्शक बनती हैं| कविता की शक्ल में अनुभव से पगी ये स्मृतियाँ ही मानवीय आकार में हमारे सामने प्रस्तुत होती हैं और न चाहते हुए भी सार्थक कर्म करने के लिए प्रेरित करती हैं| राजवंती मान की कविता प्रिय नीमकी संवेदना से जुड़ते हुए सूर्यास्त के बादतक झोलाके स्थायित्व में अटकी स्मृतियाँ ही हैं जो कवयित्री को भावुकता के रास्ते से मानवीय व्यवहार की पराकाष्ठ तक यात्रा करने के लिए विवश करती हैं|
“पराकाष्ठाकी बात इसलिए क्योंकि मनुष्य कभी भी नहीं चाहता कि उसके जीवन-यात्रा में शामिल कोई भी वस्तु या चीज उसके जाने से पहले ही विनष्ट हो जाए। कहीं गहरे यथार्थ में यही मानवीय संस्कृति है| यही परंपरा है जिसे मनुष्य वर्षों क्या सदियों संजोकर रखना चाहता है| यही स्मृतियाँ अपने स्वाभाविक रूप में मूल सन्देश के साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी तक हस्तांतरित होते रहते हैं| ‘झोला’ कविता की इस बानगी के साथ स्मृतियों के यथार्थ को परखा जा सकता है-यथा—“दरवाजे के पीछे/ खूँटी पर/ ये झोला/ टका है उस वक्त से/ जब दिल ने पहली चोट खाई थी/ और सी कर रख छोड़ी थी इसमें/ इस दरवाजे से जो आया और गया/ जिसने जो कहा सुना/ ये मुंशी है सबका/ बराबर हिसाब रखता है/ मैं रोज देखती हूँ इसको/ मगर उतारती नहीं/ बस, उतारती नहीं/ कि खुद ही गिर जाएगा/ एक दिन/ टूटकर, बिखरकर, गलकर/ खामोश|”
राजवंतीमान के पास अनुभव का बड़ा कैनवास है जिसे वे शब्दों से रंगने में कोई कसर नहीं छोड़तीं| अपनी (कविता) काला पानी से सैल्यूलर जेल तककी यात्रा में शब्द यथार्थ बनकर टीसते हैं| रंग संघर्ष बन कर मांजते हैं| हमारी चेतना और सोए हुए दायित्वबोध को झकझोरते हैं| यह उसी झकझोर का परिणाम है कि “दहाड़ मार कर रोया सागर/ मूक न रह सके वो पत्थर/ दुनिया के नियामक कहलाने वालों को/ ख़त्म करनी पड़ी सजाएं कालेपानी की|” अंग्रेजों के समय की इस भयानक त्रासदी को दिखाते हुए कवयित्री की कवि-दृष्टि तैयार करती हैं जैसे इसलिए कि रोजी-रोटी तक का रोना ही समय के प्रति जागरूक होना नहीं है| देश-समाज के प्रति दायित्वबोध की स्वीकारोक्ति भी आवश्यक है ताकि काला पानी का अतीत हमारा भविष्य न बन पाए| राजवंतीमान की कविता-कहन में यथार्थ अभिव्यक्ति के साथ-साथ सौन्दर्यानुभूति की खनक भी दिखाई देती है| इस रास्ते कविताई सुगठित होती है और सपाटबयानी का खतरा दूर होता जाता है|


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