Thursday 30 November 2017

लोक विरोधी समकालीन ‘कविता का लोक’ ('लहक' के अक्टूबर नवम्बर 2017 के अंक में प्रकाशित)


1. 
      समकालीन हिंदी कविता आन्दोलन से लेकर आज तक के साहित्यिक परिदृश्य में बहुत से आलोचक ऐसे मिल जाते हैं, जिनके दृष्टिकोण में उस समय का प्रत्येक कवि स्वयं में एक आन्दोलन और एक क्रांति होता था| स्वभाव में ‘संत’ और व्यवहार में ‘समाज सुधारक’ था| ‘बिना खड्ग बिना ढाल’ के आततायी शासन-सत्ता का प्रतिरोध करता था और जनता के दुखों का निवारण भी| सभी प्रकार के दुखों में सामाजिक जड़ता और सत्ता की लापरवाही का प्राबल्य होता था जिसे ठोक-पीटकर सही करने का कार्य कवियों द्वारा ही निभाया जाता था| वे मानते हैं कि पुलिस-व्यवस्था निरंकुश थी| जनता राजनीतिक विवेक हीनता का शिकार थी| शिक्षा का साधन न होने से उच्च वर्ग के षड्यंत्र का शिकार आए दिन उन्हें होना पड़ता था| कहीं से भी सामाजिक-विवेक की लौ जलती नहीं प्रतीत होती थी| अधिकतर समाजिक व्यक्तित्व ऐय्यास और निकम्मेपन के शिकार थे| ऐसी परिवेश की वर्तमानता में आलोचकों की दृष्टि में सोलह आने खरे और शुद्ध सामाजिकता का निर्वहन उस समय के कवियों द्वारा किया जाता था|  
        बड़ा संतोष होता है| गर्व भी होता है ऐसा सुन और पढ़कर| आलोचकों के दृष्टिकोण में अपनी दृष्टि मिलाते हुए कहें तो यह भी सोचना आवश्यक हो जाता है कि काश वे कवि आज भी हमारे समय में वर्तमान होते? लेकिन जैसे ही उस समय के (साथ-ही-साथ आज के भी) कुछ महत्त्वपूर्ण कवियों को नजदीक से पढ़ने का जोखिम उठाता हूँ (प्रचारक-आलोचकों से असहमति रखते हुए) एक विशेष प्रकार की हताशा और निराशा से भर उठता हूँ| उस समय से लेकर आज तक के समय में वर्तमान वैसे कवियों को पढ़ते हुए पता नहीं क्यों ऐसा लगता है जैसे इनसे बड़ा षड्यंत्रकारी और निकम्मेपन की समस्त सीमाओं को लांघ जाने वाला कोई और दूसरा था ही नहीं| जिन कवियों को आज साहित्य-देवता मानकर उन्हें पूजा जा रहा है और जिनके नाम पर आज पुरस्कार पर पुरस्कार बांटे जा रहे हैं, ऐसे बहुत से कवि निष्कर्ष-रूप में भूख और वेदना से मजबूर परिवेश में शमशान के राख पर नृत्य करने वाले विदूषक से दिखाई देते हैं| पड़ोस में हुई मृत्यु घटना से चीखते कराहते परिवेश में नौटंकी के मंच पर नाचते जोकड़ प्रतीत होते हैं|
         यदि अपने स्वभाव और व्यवहार में कवि विदूषक और जोकड़ हो सकते हैं तो आलोचक निश्चित ही भाड़े पर बुलाए गए वाह-आह करने वालों की श्रेणी में तो आते ही हैं| जब आलोचक और कवि के व्यावहारिक कार्य को सामने रखकर देखने की कोशिश की जाती है तो यह सच है कि षड्यंत्र और धोखे से भरा समकालीन ‘कविता का लोक’ कई दृष्टि से विचलित और परेशान करता है| यदि उस समय के कवि इतने ही समृद्ध थे फिर आलोचना और कविता में आखिर एक ही स्वर क्यों देखने को मिलती है? कवि की ललकार में आलोचक की पुचकार क्यों शामिल हुई दिखाई देती है? क्यों कवियों की स्वेच्छाचारिता के खिलाफ आलोचक मुखर होकर सामने न आ सके? कहीं उस समय के आलोचकों की ये मंशा तो नहीं थी कि कवियों की ऐय्यासी में “हर लड़की तीसरे गर्भपात के बाद धर्मशाला हो” जाए और चौथे गर्भपात की व्यवस्था वे स्वयं करते हुए दिखाई दें?
        भारतीय परिवेश का समकालीन परिदृश्य मानवीय विकास की दृष्टि से कभी भी स्थिर न रहा| समकालीन कविता आन्दोलन से लेकर उसके प्रौढ़ावस्था तक के समय में जनता पर अनेकों प्रकार की आकस्मिक परिस्थितियां आईं| एक-एक करके अचानक आईं इन परिस्थितियों ने सम्पूर्ण परिवेश और समाज को झकझोर कर रख दिया| इन परिस्थितियों के केन्द्र में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की अस्थिरता, 1962 का भारत-चीन युद्ध, इंदिरा गाँधी के कांग्रेस द्वारा थोपा गया जबरन आपातकाल, भारत पकिस्तान युद्ध, 1984 का दंगा और इसके साथ ही बाबरी मस्जिद घटना और इन सब के बीच में अनेकों बाढ़, सूखा, दंगा-फसाद, महामारी आदि की समस्याएँ प्रत्यक्षतः दिखाई देती हैं| इन परिस्थितियों से जूझने में अच्छे-खासे पूंजीपति-वर्ग के लोगों की आँखों में कींच आ गये थे, खाना-पीना भूल बैठे थे सब| दवा-दुआ की तो बात दूर दो वक्त की खुराकी तक चलाना मुश्किल हो चला था|
         ऐसी परिस्थिति में आम आदमी की क्या स्थिति रही होगी यह उस समय के इतिहास को उठा कर ठीक तरह से जाना जा सकता है| साहित्य के दृष्टिकोण से नहीं क्योंकि जो तो मानवीय संवेदना को प्रकट करने वाले थे उन्हें आउट डेटेड करार देकर पुरातन पंथी घोषित किया जा चुका था| जो ‘आम’ की मुद्रा में रहते हुए ‘ख़ास’ बनकर रहे उन्हें देवता मान लिया गया था| इस विकराल और सबसे संकटमय परिदृश्य में जिस समय किसान खेतों में, मजदूर मिलों में ख़ट रहे होते थे, बिना कुछ खाए-पिए दिन को रात और रात को दिन में बदल रहे होते थे, बच्चे माता का और माँ मालिकों के दया-दृष्टि की प्रतीक्षा कर रही होती थी, युवतियां सूदखोरों और लम्पट सामाजिक कार्यकर्ताओं के चंगुल में फंसकर अपनी अस्मिता की भीख मांग रही होती थीं उस समय के बहुत से कवि दिन की दोपहरी और एकांत में अपनी वासना-पूर्ति हेतु लोगों के घरों में विधिवत सेंध लगा रहे होते थे| पारस्परिक विभेदता की शक्ल में जिस समय लोग एक-दूसरे से मन की बात करने में अक्षम थे उस समय ऐसे कवि तन से तन मिलाकर डूब जाने की सक्षमता का जुगाड़ भिड़ा रहे थे| कितनी ही आबादियाँ महज दो वक्त की रोटी से महरूम थीं और कवि प्रणय-निवेदन में मदमस्त रहा करते थे| वे सब कुछ भूलकर नश्वर से परमेश्वर हो जाना चाहते थे—यथा,
आओ
जैसे अँधेरा आता है अँधेरे के पास
जैसे जल मिलता है जल से
जैसे रोशनी मिलती है रोशनी में|

आओ,
मुझे पहनो
जैसे वृक्ष पहनता है
छाल को
जैसे पगडण्डी पहनती है
हरी घास को|

मुझे लो
जैसे अँधेरा लेता है जड़ों को
जैसे पानी लेता है चंद्रमा को
जैसे अनंत लेता है समय को (अशोक वाजपेयी, 1984)
        प्रेम और वासना का ऐसा छिछोरापन एक कवि ही कर सकता है क्योंकि उसे मनोरंजन करने-कराने का अधिकार भी प्राप्त होता है| लेकिन इस जुगत में वे सिर्फ सामाजिक अराजकता का साम्राज्य भर विस्तृत कर पाते हैं, देने और लेने की परिपाटी में असफलता ही हाथ लगती है उनके| छुट्टे सांड की तरह पूरी-की-पूरी बागबानी को विनष्ट करते हुए और रौंदते हुए उसके ही मालिक को दोषी ठहरा रहे होते थे| “एक उत्तेजक दोपहर में/ अपने शरीर के उस विह्वल गुम्फन में” गुत्थम-गुत्था होकर दुनिया की ईमानदारी की टोह ले रहे होते थे| वर्तमान कविता के एक ‘देव-पुरुष’ जिन्हें आम-जीवन से बड़ा सरोकार है और जो पुरस्कार गैंग के सिरमौर हैं उनके इस कविता से यह परिदृश्य और भी निखर कर सामने आ जाती है —
“कहाँ होती है दुनिया उस समय
जब मैं तुझे सारे अंगों से थाम लेता हूँ
और एक तृप्ति में स्थिर कर देता हूँ
तेरा सौंदर्य?

जब हम सुन्दर होते हैं
अपने शरीर के उस विह्वल गुम्फन में
कहाँ होती है दुनिया उस समय
उसके वे क्षुब्ध पिता और पागल-परेशान भाई
क्यों उस समय दफ्तरों या क्लासों में
काम करते होते हैं,
और क्यों सिर्फ हमारे लिए सुरक्षित छोड़ दिया जाता है
हलकी धूप में उजाला सूनसान
खिड़की के बराबर आकाश का एक नीला टुकड़ा
और एक उत्तेजक दोपहर?
कहाँ होती है दुनिया उस समय
जो बाद में मोड़ पर मिलती है—परेशान
पर हमें अपमानित करने को तैयार
अपनी-अपनी पत्नियों से अतृप्त अनुभवी बुजुर्गों की
बदहवास और हितैषी दुनिया
कहाँ होती है उस समय
--जब हम सुन्दर होते हैं
एक उत्तेजक दोपहर में
अपने शरीर के उस विह्वल गुम्फन में |[1]
                  (अशोक वाजपेयी, कहाँ होती है दुनिया (कविता), 1961)
         अब इन महाशय से कौन कहे कि दुनिया उस समय ‘समाज’ को स्थायित्व देने में मशगूल थी जिस समय तुम “अपने शरीर के उस विह्वल गुफा में” लीन होकर ऐय्यासी कर रहे थे? यह कौन समझाए कि जिस समय तुम “अपनी-अपनी पत्नियों से अतृप्त अनुभवी बुजुर्गों की” यौन-संलिप्तता से सीख ले रहे थे उस समय का आम जनमानस तुम्हारे उस पुरस्कार के लिए धन इकठ्ठा कर रही थी जिसे असहिष्णुता के नाम अभी-अभी वापिस करके आये हो? कवि का यह पूछना कि “उसके वे क्षुब्ध पिता और पागल-परेशान भाई/ क्यों उस समय दफ्तरों या क्लासों में/ काम करते होते हैं,” तो भाई वे कविता के दलाल नहीं थे, सरकारी नौकरी भी नहीं थी उनकी, मजदूर थे और क्योंकि उन्हें चिंता दो-वक्त के रोटी की होती थी न कि कोठे पर बैठकर तुम्हारी तरह ‘‘उत्तेजक दोपहर’’ का जश्न मनाने की| यह कौन बताए महाशय को कि उस समय दुनिया सामाजिक संस्कार की भावभूमि को अपने श्रम-जल से सींच कर समृद्ध भारत का स्वप्न देख रही थी, जिस समय तुम अपने सीमाओं में कैद रहते हुए व्यभिचार कर रहे थे? रही बात तुम जैसे कवियों के ऐय्यासी की शक्ल में जनता का ‘‘अपमानित करने को तैयार’’ होने की तो साहब ये समाज है| इसके अपने कुछ नियम और कायदे होते हैं| हो सकता है तुम्हें नियमों से परहेज हो; तो सुनों व्यापक जनसमुदाय यहीं से व्यवहार और संस्कार ग्रहण करता है| हो सकता है तुम्हें संस्कारों से चिढ़ हो (क्योंकि तथाकथित प्रगतिशील झंडेबाजों की दृष्टि में यह पुरातनपंथी और जड़ मानसिकता की निशानी है) लेकिन ‘लोक’ इन्हीं से समृद्ध होता है और भविष्य को सुरक्षित रखने का उपक्रम करता है| जबकी कवि-दृष्टि में यह साबित होता है कि तुम ‘लोक’ को परलोक में हस्तानान्तरित करना चाहते हो|
         यह सच है कि इस अस्तित्वमूलक समय में, जब सभी किसी भी प्रकार से जीवन को जी लेना चाहते थे उस समय इन कवियों द्वारा किसी दूसरे ‘लोक’ में पदार्पण कर जाने की तैयारी की जा रही थी| अब यह लोक से हटकर परलोक जीवी बनकर रहना नहीं तो आखिर क्या है कि जहाँ जनता के अधिकांश भाग को टूटी खटिया और फटी कथरी भी नशीब नहीं हो रही थी वहां तुम जैसे कवि ‘धरती का हरा बिछौना’ बनाकर “केलि” करने की उद्घोषणा करते हैं?—यथा
मैं बिछाता हूँ धरती का हरा बिछौना
मैं खींचता हूँ आकाश की नीली चादर
मैं सूर्य और चन्द्रमा के दो तकिये सम्हालता हूँ
मैं घास के कपडे हटाता हूँ
मैं तुमसे केलि करता हूँ ( केलि, 1985)”[2]
           मनुष्यता के इस लोक में भला घास का कपड़ा किसे नशीब होता है? चन्द्रमा के दो तकिये की तरफ निगाह तो जाती है लेकिन उसे सम्हालने की फुर्सत किसे होती है? दिन भर खेत या कंपनियों में खटने के बाद ‘केलि’ के प्रसंग नहीं बच्चों को सम्हालने और दो-दम्पत्तियों के बीच घर-गृहस्थी को चलाने की तरतीब भिड़ाने की बरबराहट होती है| यहाँ नायिका पिसती है तो नायक खीझता है| उनके पिसन और इनके खिझन में ही रीझने की थोड़ी सी ख़ुशी मिलती है कि दूसरा दिन फिर याद आता है बीते हुए दिन की तरह| यह भी कि यहाँ प्रेम करने के लिए एक दूसरे की प्रतीक्षा नहीं होती क्योंकि प्रतीक्षा तो आप जैसे सुविधाभोगी ‘परलोकी’ प्राणियों के लिए है और न ही तो किसी प्रकार के अँधेरे की खोज उन्हें होती है| अँधेरा का पर्याय ही उनका जीवन है| पूरा जीवन काल उनका आँधियों-तूफानों से बचे-खुचे समय में ढेबरी के तेल और बिन बाती के लालटेन-से झिलमिलाता एक लौ भर होता है| जैसे वह हिलता डोलता रहता है वैसे ही ‘लोक’ में निवास करने वालों का जीवन हर समय कांपता और हिलता प्रतीत होता है|
“बहुत उजाला है
और उसमें एक अँधेरा कोना खोजते हैं हम
जहाँ चीखते संगीत और शोरगुल के बीच
जयजयकार के तुमुल के बीच
उसकी आवाज सुन सकें |

छू सकें उसके हाथ
उसका शरीर
उसकी गरमाहट
उसका संकोच
उसकी उत्सुकता

और कहें
कि सौभाग्य यह है
उन दो वृत्तों के बीच
उन दो के बीच की गहरी आर्द्र घाटी में |

जब सब थे
यहीं आसपास
तब कहाँ थीं तुम सुमुखि?
जब कोई नहीं है आसपास
तब कहाँ हो तुम सुमुखि? (1982)
          यह सार्वजनिक रूप से काम-पीड़ा का उद्वेग नहीं तो आखिर क्या है? संयत और संस्कारित हो रहे ‘लोक-संवेदना’ के साथ मजाक नहीं तो आखिर क्या है? और यदि यह सब मानवीय स्वभाव ही है, एक विशेष प्रकार की स्वतंत्र भी, फिर रीतिकालीन दरबारी संस्कृति और छायावादी सौंदर्य का विरोध समकालीन हिंदी आलोचकों द्वारा क्यों?  यह समझना ही समझ से बाहर है कि जिस समय ‘सुमुखि’ की उपस्थिति और अनुपस्थिति पर केन्द्रित होकर कवि रति-क्रिया के प्रयोगशाला में “उन दो वृत्तों के बीच/ उन दो के बीच की गहरी आर्द्र घाटी में” निमग्न केलि-रत थे और इस आभास की आशंका से रोमांचित थे कि-
“उसके शरीर में भर गयी सुगंध
जैसे आकाश में नीलिमा
और दूब में हरीतिमा—
अब आश्चर्य की तरह खुला है संसार
और एक-एक पंखुरी की तरह
खिलता मुरझाता रहेगा समय | (अशोक वाजपेयी, भर गई सुगन्ध, 1985) लोक’ डर, भय और आशंका भरे वातावरण में अपने समय का अंतिम गीत गाने में निमग्न था| जिस सौंदर्य में कवि को “आश्चर्य की तरह खुला है संसार” की अनुभूति हो रही थी वही सौंदर्य कहीं निरंकुशता के साथ कुचला और उपेक्षित किया जा रहा था| बलात्कार, शोषण और दमन की विभीषिका में उलझी मनुष्य होने के लिए स्वयं को कोस रही थी|
          अशोक वाजपेयी की तमाम कविताओं के माध्यम से यह कहते हुए कोई आश्चर्य नहीं रहना चाहिए कि जिस समय ‘लोक’ व्यथित होकर खर-पतवार-माटी खाने के लिए अभिशप्त था, उस समय के कवि अपनी प्रेमिकाओं के उरोज और पुष्ट नितम्ब देखने में मशगूल थे| जिस समय का ‘लोक’ तन ढकने के लिए कपड़े को तरसा करता था उस समय के कवि अपनी प्रेमिका को वृक्ष बनाकर उसमें समाहित हो जाने का स्वप्न देख रहे थे| जन-समुदाय की दुखती संवेदना पर मरहम लगाने के बजाय शब्द को वृक्ष पर से लिपटाने की परिकल्पना कर रहे थे| रति क्रिया में सक्रिय स्त्री के “आत्मसमर्पण के क्षण में” व्यथित मनोदशा को से खेलकर उसे सांत्वना दे रहे होते थे| “अनावृत उरोज और सहरता कनकतन” में लीन होकर पूर्ण “समर्पित हो जाने का” ढोंग कर रहे होते थे| 
“आत्मसमर्पण के क्षण में
जब तू फूट-फूटकर रो उठती है
अपनी करुणा से घिरकर
--तो जानती है मुझे क्या देती हैं तेरी आँखें,
तेरे अनावृत उरोज और सहरता कनकतन :
एक दुःख तेरे होने का,
और होकर प्यार करने का
और प्यार कर समर्पित हो जाने का|
फिर मैं तुझे कामना से नहीं देख पाता
क्योंकि आंसुओं में डूबकर तू इतनी अधिक मेरी हो जाती है
कि मुझे सुन्दर और अस्पृष्ट और अक्षत लगने लगता है
मेरी बाहों में समाया तेरा बचपन
जिसमें तू रोती है
और जो दुःख होता है                                        
तेरे होने का—(अशोक वाजपेयी, दुःख तेरे होने का, 1960)”[3]
          सौंदर्य का बाहों में आकर सिमटना कवि के लिए “दुःख होता” है या फिर सुख की गहरी अनुभूति यह अशोक वाजपेयी जैसे कवि जानें लेकिन आम-जनमानस के लिए क्या कुछ बचा कर रखा होता है ऐसे साहित्य में इसे तो समकालीन आलोचकों को ही बताना पड़ेगा| या फिर उनको जो इन्हें भगवान मानकर पूज कर रहे हैं| प्रेम की कुलांचे मारने वाले ऐसे कवियों के लिए प्रेम-वेम भी कुछ होता नहीं महज एक छलावा को छोड़कर| यह सच है कि समकालीन सजग पाठक इस छलावे और  धंधे को अब सिद्दत से दरकिनार कर रहा है|
2.    
          समकालीन हिंदी ‘कविता का लोक’ राजनीतिक पैंतरेबाजी का एक कुशल अखाड़ा भी दिखाई देता है| यहाँ आम जनमानस के मुद्दे और सरोकार न होकर अपने-अपने स्वार्थ और अपनी-अपनी तरतीबें पूरी बेशर्मी लिए सिद्दत से वर्तमान हैं| साहित्य अकादमियों के द्वारपालक और जनसमान्य के स्वघोषित हितैषी कवियों की लोक से कटी हुई काव्य-दृष्टि राजनीतिक नेताओं की वायदों के समान कई मुद्दों पर उलझी हुई होती है| आम पाठक यह समझ पाने में स्वयं को असमर्थ पाता है कि ये कवि है या फिर किसी राजनीतिक दल के पार्टी-प्रचारक? इस स्थिति के लिए सस्ती लोकप्रियता हाशिल करने की तरतीब भी हो सकती है और स्वयं को स्थापित करने का एक षड्यंत्र भी| बहुत बार ऐसे कवि जनता के बीच दुत्कार भी पाते हैं और बहुत से बार पुचकारे भी जाते हैं| पुचकारे और दुत्कारे जाने के बावजूद कवि अपनी नीयत को स्पष्ट नहीं कर पाता| यहाँ अपने तमाम प्रकार के उद्बोधनों के साथ अंततः उसकी स्थिति भेड़ों की दौड़ में शामिल उस एक भेड़ की मानिंद रह जाती है जो अंत तक यह निर्धारित कर पाने में असफल रहता है कि इस पूरे प्रकरण में उसकी अपनी क्या भूमिका रही?
          एक आलोचक की दृष्टि से बात करें तो मुझे यह नहीं समझ में आता कि भूख और रोटी का मुद्दा लेकर प्रवेश करने वाला कवि आखिर क्यों अपनी लोकप्रियता की ढपली बजाता हुआ भेड़-चाल जैसे उपक्रमों में शामिल हो जाना चाहता है? सम्पूर्ण मानवीय संवेदना को सहेजते हुए “वसुधैव कुटुम्बकम” की परिकल्पना को साकार करने का स्वप्न संजोए कोई कवि आखिर क्यों ‘वैचारिक’ राजनीति में उलझकर अपने बढ़ते कारवाँ को नेस्तनाबूत कर देता है| कवि का मुख्य ध्येय होता है कि वह समाज में समानता की स्थिति को अपनाने के साथ-साथ शांति के महत्त्व को भी रेखांकित करे| जबकि वैचारिकता के केंद्र में आज के कवि क्रांति ही ला देना चाहते हैं| और क्रांति भी किसी विशेष परिस्थिति से लड़ने के लिए नहीं अपने ही संस्कृति और अपनी ही राष्ट्रीय मान्यताओं के विरोध की क्रांति पैदा करने के लिए| समकालीन हिंदी कविता के कवि-कर्म में उदय प्रकाश की इस एक छोटी सी कविता को रेखांकित किया जाना चाहिए-
 “गांधी जी
कहते थे—

‘अहिंसा’ 

और डंडा लेकर
पैदल घूमते थे|”   (उदय प्रकाश, अबूतर कबूतर, पृष्ठ-85)
        जो राजनीतिक पैंतरेबाजी भारतीय लोकतंत्र में चुनाव प्रचार के समय आजमाई जाती रही है वही और लगभग उसी शक्ल में समकालीन हिंदी कविता में भी| फर्क यही है कि वहां वायदे होते हैं और यहाँ पर दावे| वहां जुलूस होता है और यहाँ पर जुलूस की शक्ल में मंत्रणा की रवायतें| बैठकें बाकायदा राजनीतिक पार्टियों वाली ही होती हैं| इनके भी अपने गुट और संगठन होते हैं| महामंत्री, मंत्री, अध्यक्ष होते हैं| विषय हृदय की आवाज पर नहीं पार्टी के हुक्म पर निर्धारित होते हैं| संवेदनाएं मानवीयता की सुरक्षा के लिए नहीं रणनीति की सफलता के लिए होती हैं| यहाँ कवि ‘आह से उपजा होगा गान’ की बजाय नारों से उपजी होगी संवेदना का हिमायती अधिक दिखाई देता है| कहने के लिए वह जन-वेदना के दुःख-दर्द  अभिव्यक्ति दे रहा होता है लेकिन गहरे में ऐसा करने के बजाय अपने गुट का झंडा उठा कर चल रहा होता है| बाहर कुछ भी हो जाए लेकिन वह अपने झुण्ड से आगे जाने के लिए राजी नहीं होना चाहता| कवि का यह कहना कि—
“मैंने
अंत में कहा—

विश्वयुद्ध के विरोध का मतलब
समूची विचारधारा का
विरोध नहीं
निर्मल जी!

यह तय है
कि एक सही राजनीति और सही विचारधारा ही
कभी न कभी इसे रोक पायेगी! (उदय प्रकाश, अबूतर कबूतर, पृष्ठ 77)
       उग्र वैचारिक प्रतिबद्धता की भावना को जन्म देना है| जन पैरोकार के रूप में स्व-स्थापित कवि जब प्रायोजित लेखन करेगा तो कविता कहाँ होगी यह एक चिंतन का विषय हो सकता है| जब दिनों रात मानवीय व्यवहार की टोह लेने के बजाय पार्टी-नीति के निर्धारण में कवि व्यस्त रहेगा, वह क्या सोचेगा और कैसी कविता समय को समर्पित करेगा यह भी विचार का विषय हो सकता है| आखिर लेखन है क्या? अनुभव ही तो है; जो कवि जिस परिवेश से जैसा अनुभव हाशिल करेगा या  कमायेगा वही तो लोगों के बीच सांझा करेगा? इस क्षेत्र में बड़े अनुभव संपन्न व्यक्तित्व हैं उदय प्रकाश| समकालीन हिंदी कविता के एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में इनकी सिनाख्त की गयी है और चर्चा-परिचर्चा से लेकर तमाम साहित्यिक व्यवहार के लिए इन्हें अग्रगण्य माना गया है| एक प्रचार और नारेबाजी झंडेबाज की भूमिका को निभाते हुए कविता की शक्ल में उदय प्रकाश के इन उक्तियों को देखा जा सकता है
“मैं अपील करता हूँ राष्ट्रपति से कि
वे घोषित करें
खिचड़ी, ठठेरा, मदारी, लोहार, किताब, भड़भूजा,
कवि और हाथी को
विलुप्तप्राय राष्ट्रीय प्राणी

वैसे खड़ाऊ, दातुन और पीतल के लोटे को
बचाने की इतनी सख्त जरूरत नहीं है
रथ, राजकुमारी, धनुष, ढाल और तांत्रिकों के
संरक्षण के लिए भी जरूरी नहीं है कोई कानून

बचाना ही है तो बचाए जाने चाहिए
गाँव में खेत, जंगल में पेड़, शहर में हवा,
पेड़ों में घोसले, अख़बारों में सच्चाई, राजनीति में
नैतिकता, प्रशासन में मनुष्यता, दाल में हल्दी

क्या कुम्हार, धर्मनिरपेक्षता और
एक-दूसरे पर भरोसे को बचाने के लिए
नहीं किया जा सकता संविधान में संसोधन

सरदार जी, आप तो बचाइये अपनी पगड़ी
और पंजाब का टप्पा
मुल्ला जी, उर्दू के बाद आप फ़िक्र करें कोरमे के शोरबे का
जायका बचाने की

इधर मैं एक बार फिर करता हूँ प्रयत्न
कि बच सके तो बच जाए हिंदी में समकालीन कविता|” (उदय प्रकाश, कवि ने कहा, 93)
           इन्होंने पार्टी लाइन से बाहर न जाते हुए एक विशेष प्रकार की नारेबाजी शैली में किस तरह समकालीन कविता को बचाने की बात रखी है, यह स्पष्ट देखा जा सकता है| इन कवियों की दृष्टि में जनता के हिस्से की बात हो या न हो लेकिन भगवा-विरोध और एक विशेष प्रकार की संस्कृति की अवहेलना जरूर होनी चाहिए| “हिंदी में समकालीन कविता” को बचाने के लिए इनके ‘प्रयत्न’ को इसलिए भी नहीं नकारा जा सकता क्योंकि अभी हाल ही में इनको ‘भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार’ देने की जिम्मेदारी दी गयी थी और इसके नाम पर जो पोएट्री मैनेजमेंट इन्होंने किया था, वर्तमान कवियों एवं आलोचकों के लिए यह आश्चर्य का विषय ही नहीं विवाद का विषय बनाना भी जरूरी था|  
            समकालीन कविता को बचाए रखने के लिए किए गये इन्हीं प्रयत्नों की देन है कि इधर कविता के लोक में राजनीतिक दांवपेंच के समानांतर पुरस्कारों की राजनीति बड़ी सफल रही है| समकालीन हिंदी कविता के पहले पुरस्कारों की रवायतें बहुत कम देखने को मिलती हैं| उस समय के प्रतिष्ठित से प्रतिष्ठित कवि का पुरस्कार से कोई लेना-देना शायद ही होता हो| समकालीन हिंदी कविता में हर एक कवि के पास अपना एक ‘ख़ास’ पुरस्कार है| पहले तो स्वयं उसे हाशिल करने की जुगत भिड़ाता है और फिर बाद में उसका निर्णायक बनकर लोगों को बाँटता फिरता है| अब इन्होने “अबूतर-कबूतर” में अपने अनुभव-जगत को रूप देते हुए अपने समानधर्मा/धर्मी लेखकों/लेखिकाओं के सम्बन्ध जो ये सत्य-आरोपित किया है कि “हम कोयल हैं/ सरकार के,/ हम साजिन्दे हैं/ दरबार के!” उसमें इनका अपना सत्य तो है समकालीन साहित्यिक परिवेश का भी एक बड़ा सच सामने आता है| पूरी कविता की तरफ ध्यान दें तो बात और भी स्पष्ट हो जायेगी—यथा,  
हम कोयल हैं
सरकार के|
बत्तख के पैर जैसे ठंडे हैं
हमारे विचार|
निश्चिन्त रहें आप|

हम लेंगे बख्शीश,
नज़र उतारेंगे,
ईनाम पायेंगे|
जहाँ भी जायेंगे
आपकी दुन्दुभी बजायेंगे|

कोई चिंता नहीं है हमें|
हमें फ़िक्र है तो
है बिम्बों की,
भाषा की तलाश है|
हम रचना के स्वयत्त क्षण में
जीते हैं
मरते हैं|
फिर-फिर जन्म लेते हैं|

हमें पुरस्कृत करें अन्नदाता
विधाता|

हम कोयल हैं
सरकार के,
हम साजिन्दे हैं
दरबार के!    (उदय प्रकाश, अबूतर कबूतर, पृष्ठ-96)                
        यह सत्य, कि “हम लेंगे बख्शीश,/ नज़र उतारेंगे,/ ईनाम पायेंगे|/ जहाँ भी जायेंगे/ आपकी दुन्दुभी बजायेंगे” कोई बनावटी जुमला नहीं है और न ही तो सुनी-सुनाई बातों पर नमक-तेल लगाकर पाठक के सामने परोसना ही ही| बहुत कुछ स्पष्ट करने की जरूरत न होते हुए भी यह कहना अनिवार्य हो जाता है कि यह कवि का अपना भोग हुआ यथार्थ है| उदय प्रकाश ऐसे ही उदय प्रकाश नहीं हो गये और कोई भी ऐसे ही नहीं हो जाता है| इसके लिए निश्चित ही दिल्ली के दलालों के बीच इनकी बोलियाँ लगती हैं| इन्हें कई हाथों, कई नज़रों से होकर गुजरना पड़ता है (‘मोहनदास’ कहानी का अकादमी पुरस्कार प्रकरण ध्यान में रखा जाना चाहिए) अपने अस्तित्व और आत्मा पर दाँव लगाकर झंडेबाजों की मानिंद रिरियाना पड़ता है फिर कहीं जाकर इनाम और पुरस्कार की स्थिति स्पष्ट हो पाती है|
        समकालीन हिंदी कविता के बहुत से कवि इनाम-पुरस्कार की रवायतों तक ही सीमित है, इस बात से इनकार करना इधर की कविता के अस्तित्व को ही नकारना है| नारों और व्यभिचारों से भरा-पूरा यह (समकालीन) साहित्यिक आन्दोलन महज एक बौद्धिक खुरापात भर है न कि जनता की आँखों में दीपक-लौ जलाने वाला क्रन्तिकारी वैचारिक आदर्श| यदि इस प्रवृत्ति का गंभीर विवेचन किया जाए तो जरूर यह निष्कर्ष निकलकर सामने आता है कि भूखे-नंगे-मजबूर जनता के सम्मुख सन् 60 से लेकर आज तक के समय में वर्तमान ‘कविता का लोक’ महज एक षड्यंत्र और धोखा दिखाई देता है|





[1] वाजपेयी, अशोक, खुल गया है द्वार एक, नई दिल्ली : राजकमल, 2014 
[2] वाजपेयी, अशोक, खुल गया है द्वार एक, नई दिल्ली : राजकमल, 2014  

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