वह समय था कि 10 दिन पहले से ही पढ़ाई करने वाले बच्चों की
साँसें थमी रहती थीं| घर-परिवार वाले भगवान् से या तो प्रार्थना करते थे या फिर
बच्चे की स्थिति अनुसार लायक-नालायक होने का निर्धारण| पूरे गाँव में यह स्पष्ट
होता था कि इस बार कितने बच्चे 10 वीं और 12 वीं की परीक्षा दे रहे हैं| पूरा
परिवेश परीक्षा देने वाले के लिए किसी भयानक त्रासदी के आने जैसा प्रतीत होता था,
तब तक जब तक कि वह देख नहीं लेता था कि पास हुआ या फेल|
पास-फेल का पता होना आसान नहीं होता था| नेट/इन्टरनेट का
ज़माना नहीं था| समाचार पत्र या रेडियो के समाचार से यह पता चल जाता था कि फलां
तारीख को रिजल्ट आउट हो रहा है| कुछ निर्भीक और तिकड़म बाज युवा होते थे| उनकी तरफ
सभी भरी निगाहों से देखते थे| उन्हें यह आशा होती थी कि यही रिजल्ट लेकर आएगा
बोर्ड से| होता यह था कि अखबार में रिजल्ट आउट होता था जिसके लिए रात में ही घर से
लगभग 10-12 किलोमीटर की दूरी पर जाना होता था| लम्बी लाइन में लगकर किसी तरह अखबार
प्राप्त करके वह उसी रात आ जाता था घर पर|
सुबह होते ही या तो उस व्यक्ति के पास गाँव वाले इकट्ठे
होने लगते थे या फिर वह स्वयं लोगों के यहाँ पहुँच जाता था| यह दिन ऐसे युवा के
लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण दिन होता था| रोजगार की दृष्टि से वह अच्छा पैसा कमा भी
लेता था| लोगों की दृष्टि में नायक अलग से बन जाता था| यदि यह कहें कि परीक्षा
परिणाम देखना किसी मायने में सहज नहीं होता था, तो गलत नहीं होगा|
जिस तरीके से परीक्षा-परिणाम देखना सहज नहीं था उसी तरह
परीक्षा पास करना या अंक प्राप्त करना भी आसान नहीं होता था| बहुत कम बच्चे होते
थे जो प्रथम श्रेणी में आते थे| द्वितीय श्रेणी वाला विद्यार्थी भी किसी मायने में
कमजोर नहीं आँका जाता था| तृतीय स्तर प्राप्त विद्यार्थी इस दृष्टि से खुश हो लेता
था कि चलो किसी तरह पास तो हो गये| यदि फेल होते तो गाँव में बड़ी बेइज्जती होती|
फेल होने वाला विद्यार्थी कई-कई दिनों तक घर से बाहर नहीं
निकलता था| निकलता भी था तो कुछ बहाने लेकर| या तो वह बीमार बताता या फिर बैच (उड़न
दस्ता) से भयभीत होने का कारण| ख़ुशी तो बिलकुल उसके चेहरे पर नहीं दिखाई देती थी|
दरअसल ऐसा उसके ही चेहरे पर नहीं बल्कि पूरा घर ही शोकाकुल होता था| मातम जैसा
माहौल पूरे परिवेश में छा जाता था| माता-पिता अक्सर ऐसी स्थिति में यह कहते हुए पाए
जाते कि पैसे तो पूरे दिए थे, घर का कोई कामधाम भी नहीं करता था, अब नहीं पास हुआ
तो क्या करें? एक बार और एडमिशन करवा देंगे पास हुआ तो ठीक है नहीं तो फिर घर के
अन्य सदस्यों की तरह मजदूरी-किसानी कर लेगा|
यह भी सच है कि विद्यार्थी मेहनत भी खूब करते थे| गांवो में
बिजली की व्यवस्था नहीं होती थी तो लोग लालटेन या ढेबरी जलाकर पढ़ा करते थे| कुछ
बच्चे खेत के मेड़ों पर बैठ कर अपनी पढाई पूरी करते थे| अभाव हर समय उनके पीछा किये
रहता था| कई बार तो कई-कई दिन बच्चों को भूखा भी रहना होता था| आज का परिदृश्य ऐसा
बिलकुल नहीं है| आज तो गांवों में भी बिजली की अच्छी व्यवस्था हो गयी है| शहरों में
तो खैर बिजली हर समय उपलब्ध रहती ही है| लगभग बच्चे के पास मोबाईल फोन, लैपटॉप आदि
सुविधाएँ हैं|
बावजूद इसके पहले वाले बच्चों की तरह परीक्षा प्राप्त करने
वाले विद्यार्थित्यों में अब रौनक जैसा न तो टॉपर के चेहरे पर झलकता है और न ही तो
मातम जैसा फेल होने वाले के मुखड़े पर दिखाई देता है| आज के समय में पहले तो कोई
फेल नहीं होता और यदि हो भी जाता है तो फिर से परीक्षा देकर पास हो जाने की स्थिति
अपनाकर टेंशन मुक्त रहता है| नम्बर अब कम नहीं आते| इतना तो आ ही जाते हैं कि कोई
फेल न हो|
आज के समय में प्राप्त होने वाले परीक्षा-प्राप्तांक को
देखकर फ्री में मिलने वाले लंगर-प्रथा की याद ताजा हो जाती है| 500 में 499 अंक तक
बच्चे प्राप्त कर रहे हैं| यह स्थिति जहाँ एक तरफ देश के युवाओं के हौसले को देखकर
प्रसन्न हो जाने के लिए तैयार करती है तो वहीं दूसरी तरफ नंबरों के दौड़ में शामिल
‘भेड़-चाल’ पर तरस भी आती है|
अकादमिक जगत में चमक जाने वाले ऐसे बच्चों से कभी व्यावहारिक
जगत की बातें कर के देखिये...खीस निकल आएगी| दिनोंदिन व्यावहारिकता से दूर होने
वाले परीक्षाओं में आखिर इतने नंबर लेकर विद्यार्थी क्या करेंगे? क्या इसके जरिये
उसे कमजोर नहीं किया जा रहा है? क्या उसकी मानसिकता को पंगु नहीं बनाया जा रहा है?
वह सब कुछ हो रहा है जिसकी हम और आप परिकल्पना नहीं कर सकते| सच तो यह है कि प्राप्त
नम्बरों के आधार पर किसी विद्यार्थी को बहुत अधिक बुद्धिमान तब नहीं कहा जा सकता
जब तक उसके व्यावहारिक का आंकलन न कर लिया जाए|
यहाँ पता नहीं क्यों आमिर खान की दो फ़िल्में बार-बार याद आ
रही हैं| ‘तारे जमी पर’ और ‘थ्री इडियट्स”| ये दोनों फ़िल्में नम्बरों की भेड़-दौड़
से हमें अलग रहने के लिए प्रेरित करती हैं, कुछ अलग करने और खोजने के लिए तैयार
करती हैं; लेकिन समस्या यह है कि जैसे ही हम इन विशेषताओं को प्राप्त करने के लिए
मुड़ते हैं, नम्बरों के बाजीगर हमें ‘पिछड़ा’ हुआ घोषित ही नहीं करते अपितु भविष्य
की सम्भावनाओं पर बट्टा लगा देते हैं|
सवाल यही है कि ऐसी परीक्षा प्रणाली से क्या वाकई हम
योग्यता पैदा कर रहे हैं? क्या बच्चों का मानसिक विकास प्रश्नों के रटने में ही
सम्भव है? क्या कल्पना की ऊंची उड़ान भरने की जो उम्र है उसे हम यथार्थ के खुरदरे
जमीन घसीटते हुए अपंग नहीं बना रहे हैं? ये ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर सभी तलाश
रहे हैं लेकिन यह ऐसा आकर्षण बन चुका है कि छोड़ भी कोई नहीं पा रहा है|
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