Thursday 16 May 2019

दरअसल मुम्बईया स्टाइल में पान खाकर सड़कों पर थूकना साहित्य नहीं हैं


कभी जब आलोचना पर कार्य नहीं करता था तो अधिकतर आलोचकों को शक के नजरिये से देखता था| यह लगता था कि वे अपनी जिम्मेदारियों का सही निर्वहन नहीं कर रहे हैं| उन्हें जिन पर लिखना चाहिए उन पर नहीं लिख रहे हैं और जिन पर नहीं लिखना चाहिए उन पर लिख रहे हैं| आखिर कैसे साहित्यकार हैं? तब इस प्रश्न को उछालने में कोई संकोच नहीं करता था| जरूरत पड़ती थी तो इस विषय पर मंच से भी बोलता था|  


इधर कुछ दिनों से आलोचना-समीक्षा पर कार्य करते हुए अब ये प्रश्न नहीं कर पाता हूँ| कोशिश भी करता हूँ तो करते-करते रुक जाता हूँ| इस क्षेत्र में अब तक कई बार कई प्रकार के ऐसे कड़वे अनुभव हुए, जिन्हें साझा करते हुए भी डरता रहा| लेकिन आज कुछ कहने का मन कर रहा है| यह मन तब कर रहा है जब आलोचकों पर बिना मतलब के पटाखे फोड़े जा रहे हैं, अंगुलियां तोड़ी जा रही हैं| उनके श्रम, उद्यम करते रहने के बाद भी उनके सामर्थ्य पर प्रश्न खड़े किये जा रहे हैं|


पहली बात तो हर लेखक/कवि स्वयं को प्रेमचंद और निराला से कम नहीं समझ रहा है| दो कविताएँ लिखने वाला भी स्वयं को निराला की परम्परा का घोषित करवाने पर तुला हुआ है और दो पुस्तक से दस पुस्तकें लिखने वाला भी| आप यदि कह देते हैं कि फलां की परम्परा का निर्वहन फलां के साहित्य में बहुत सलीके से हुआ है, आप क्रन्तिकारी आलोचक से विद्वान समीक्षा तक बना दिए जाते हैं और वहीं यदि थोडा भी सच बोल देते हैं तो ब्राह्मणवादी, सामंती, संघी, वामी पता नहीं क्या-क्या बना दिए जाते हैं| यहाँ तो कई लोगों को मैंने देखा है जो विधिवत कूट देने, तोड़ देने, फोड़ देने, देख लेने तक की धमकी दे देते हैं| ऐसा लगता है जैसे साहित्य-सम्वाद न होकर किसी जमीन आदि का बंटवारा हो रहा है|   

किस पुस्तक पर लिखना है, क्यों लिखना है, कैसा लिखना है यह निर्धारित करने का अधिकार किसी भी आलोचक और समीक्षक के पास है| लेखक ऐसा नहीं चाहता| जिस समय वह फोन करता है समीक्षा कैसी होनी चाहिए उस तरफ इशारा भी कर देता है| आप व्यस्त हैं, मर रहे हैं, कोई समस्या है, परिस्थिति है लेखक से उसका कोई लेना-देना नहीं है| वह सबसे पहली शिकायत यही करेगा कि आपने मेरी पुस्तक पर अभी तक कुछ क्यों नहीं लिखा? इतने दिनों से तो इंतज़ार करते-करते तो थक गये अभी कितने दिन और करने होंगे?


हर कोई चाहता है कि उसके लिखे पर बात हो, चाहे जिस भी तरह से हो| ध्यान रहे यह भी कि समीक्षा के लिए कुछ भी समीक्षक को मिलना नहीं होता| कई बार जिस पुस्तक को स्वयं उसका लेखक भी नहीं पढ़े होता उसे पढ़कर भी उसकी स्थिति पर एक आलोचक और समीक्षक को बोलना होत्ता लिखना या बोलना होता है| जब तक आप नहीं लिखते हैं तब तक लेखक का फोन आता रहेगा| वह इस तरह आपके साथ पेश आएगा जैसे संसार का सबसे बड़ा हमदर्द वही है आलोचक का| जैसे ही आप लिख कर फुरसत होते हैं...दुबारा न तो लेखक का फोन सुनाई देगा और न ही तो उसकी हमदर्दी|


जिस लेख को एक समीक्षक दिन-रात मेहनत करके लिखता है उसे कोई पत्रिका प्रकाशित कर दे यह उसकी और लेखक के सम्बन्धों पर निर्भर करता है| लगभग पत्रिकाएँ नहीं प्रकाशित करती हैं| कवि आपसे बात नहीं करता, पत्रिकाएँ उसे प्रकाशित नहीं करतीं तो समीक्षक क्या करेगा उस समीक्षा का? इसका जवाब न तो लेखक के पास है, न कवि के पास और न ही तो किसी सम्पादक के पास|

यह इतनी आत्ममुग्धता का दौर है कि एक कवि दूसरे को कवि ही नहीं मानता| एक लेखक दूसरे को लेखक नहीं समझता| उसका लिखा हीरा है बाक़ी जो लिखे हैं वह कूड़ा-करकट है| बड़े से बड़े कवि जिसे इनके यहाँ चरवाही कर रहे हों...ऐसा वे दिखाने की कोशिश करते हैं| अब इतने समझदार और क्रांतिकारी लेखक/ कवि पर किसकी हिम्मत होगी कुछ लिखने की?  जो कुछ किसी को मानता ही नहीं यदि उस पर कभी ठीक तरह का कुछ लिख दिया जाए तो क्या वह जिन्दा छोड़ेगा कभी? यह अपने समय का एक बड़ा प्रश्न है|

यह सच है कि अली-गली में भटकने वाले अधिकाँश लोग भी सिद्धस्त कवि और लेखक का तमगा लटकाए चल रहे हैं| वे ऐसा पोज बनाते हैं कि आप उनकी महानता देखते हुए यह समझ लें कि साहित्य-संसार में जो हैं सो वही हैं| क्यों समझे भाई कोई आपको? आपने किया क्या है ऐसा कि लोग अनालाहक आपकी प्रशंसा किये जाएँ| इस प्रश्न का उत्तर भी बहुत कम लोगों के पास हैं|


दरअसल मुम्बईया स्टाइल में पान खाकर सड़कों पर थूकना साहित्य नहीं हैं| न ही तो हिप्पीकट बाल कटाकर रोब जमाने का नाम ही है साहित्य| इन सभी स्थितियों में आप लड़-झगड़ कर किसी तरह से बालीवुड में तो जगह बना सकते हैं, लेकिन साहित्य में सफल कितने होंगे, ऐसा आपकी शारीरिक क्षमता नहीं, यह आपकी लेखनी ही बता पाएगी| सुनिए, हो सके तो कुछ करिए| लिखिए तो ऐसा लिखिए कि उस पर पाठक अपनी राय बना सके| आलोचक उसे देखने और पढने के लिए विवश हो जाए| सम्पादक टार्च लेकर खोजे आपको| यदि ऐसा नहीं कर सकते गुरु तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता दीदी की तरह हिंसा न करो-कराओ|     


सभी चित्र गूगल से साभार 

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