Tuesday 18 June 2019

परिवर्तन, सरोकार और कविता का समकाल



कविता में ‘परिवर्तन’ का समर्थन और ‘यथास्थिति’ का विरोध ही वह तत्त्व है जो उसे कविता रूप में जीवित रखता है| कवि अपनी सोच और समझ में स्वतंत्र होता है| वह वही अभिव्यक्त करता है जो उसका हृदय कहता है| भोगे हुए यथार्थ को कहना और देखे हुए दृश्य को कविता रूप में प्रस्तुत करना सहज नहीं होता| बहुत बार टूटकर, बिछड़कर बहुत सी चीजों से, जुड़ना होता है बहुत से सन्दर्भों से| इन प्रयासों में महत्त्वपूर्ण यही होता है कि कुछ नया हो और अतीत तथा वर्तमान से कुछ अलग हो| सच यह भी है कि, यदि आप जिन्दा हैं और यह मानते हैं कि जो कुछ हो रहा है वही न हो, अलग हो कुछ तो अभिव्यक्ति में परिवर्तन लाना होगा ही| ऐसी अवस्था में ध्यान बस यही रखना है कि परिवर्तन का सबकुछ सामाजिक मर्यादाओं के दायरे में हो अन्यथा आपका उद्देश्य निरुद्देश्य बन लोगों को भरमा भी सकता है|

इस सन्दर्भ में आपके पास एक प्रश्न हो सकता है कि ‘सामाजिक मर्यादा’ जैसी क्या स्थिति है? ऐसा तो निहायत ही आदर्शवादी मानसिकता सोच सकती है, जिसका या तो यथार्थ से कोई लेना-देना नहीं होता या फिर जो महज कल्पना के स्वप्न संजोता है? जब सभी विषय, समस्याएँ, विचार कविता के दायरे में आती हैं तो कविता के लिए सामाजिक मर्यादा जैसा बंधन क्यों? यह भी कि ‘मर्यादा’ के जो तत्त्व कभी सामाजिकता की भावभूमि को ऊर्जस्वित करते थे उनका आज विलोपन हो चुका है| विमर्शों पर आधारित विचारों ने बड़ा तोड़-फोड़ किया है| जो कभी मूल्य हुआ करते थे किसी सन्दर्भ में आज वही एक प्रकार की संकीर्णता में आते हैं| ऐसी स्थिति में ‘मर्यादा’ शब्द का प्रयोग कर साहित्य को उस द्विवेदी युग में ले जाकर पुनः छोड़ना है जहाँ आदर्शता के केन्द्र में ‘विचारों’ का हरण और प्रतिभावों का दोहन किया गया?



         ध्यान रहे कि जब हम आज के समय में ‘सामाजिक मर्यादा’ की बात करते हैं तो जीवन के अनसुलझे प्रश्नों से टकराते हुए ‘अस्मिता’ पर आधारित उन विचारों की तलाश की बात करते हैं जो मनुष्य को मनुष्य रूप में देखने और समझने का हिमायती है| यहाँ हम ऐसे वातावरण और परिवेश निर्माण की कोशिश करते हैं कि उस ‘विमर्श’ का हिस्सा सभी हो सकें| ऐसा इसलिए क्योंकि समाज समझौते पर आधारित सभी के समन्वय-प्रवृत्ति का नाम है| किसी एक वर्ग, समुदाय, जाति, धर्म, सम्प्रदाय पर आधारित करके या किसी को अलग करके ऐसा हम नहीं कर सकते| हमारी चिंतन भूमि में समन्वय हो न कि अलगाव| 

         अपने व्यापक अर्थों में कबीर इसी ‘मर्यादा’ के पोषक थे| वे संकीर्णता की एक विशेष मनोवृत्ति को दर्शाने वाली ‘हिन्दू’ ‘मुसलमान’ ‘उच्च’ ‘निम्न’ की मानसिकता के दायरे में न सिमटकर ‘मनुष्य’ को महज ‘मनुष्य’ के रूप में देखने के हिमायती थे| यह एक आश्चर्य का विषय है कि ‘कबीर-दृष्टि’ की प्रशंसा करते तो सभी हैं लेकिन कबीर जैसा होने का प्रयास अभी तक किसी ने नहीं किया| कुछ कवियों के पूर्वाग्रह और पक्षपात को छोड़ दिया जाए तो समकालीन हिंदी कविता में यह प्रयास दिखाई देता है|

          परिवर्तन की जो लहर स्वतंत्रता के बाद से उठती है तो वह आज तक की परिधि में अपने सम्पूर्ण चेतना के साथ वर्तमान है| उम्र की सीमाओं में कवि-दृष्टि को सीमित न किया जाए तो संकीर्णता के दर्शन कम ही होते हैं| वे कवि (नये-पुराने) जो दुनिया को सुन्दर बनाने में सक्रिय हैं उनमें-गणेश पाण्डेय, श्रीप्रकाश शुक्ल, मोहन सपरा, रमाकांत नीलकंठ, राजकिशोर राजन, नवनीत शर्मा, गणेश गनी, आत्म रंजन, कुमार विजय गुप्त, राहुल देव, सिद्धार्थ वल्लभ, माधव कौशिक, अनिरुद्ध सिन्हा, ज्ञानप्रकाश विवेक, देवेन्द्र आर्य, विज्ञान व्रत, अशोक मिज़ाज, राधेश्याम शुक्ल, मधुकर अष्ठाना, जयशंकर शुक्ल, बृजनाथ श्रीवास्तव, अवध विहारी सिंह, शलेन्द्र शर्मा, अवनीश सिंह चौहान, ओम प्रकाश सिंह, रमाकांत यादव, बृजेश नीरज, अवनीश त्रिपाठी, राजवंती मान, मालिनी गौतम, गीता पण्डित, आरती तिवारी, पंखुरी सिन्हा, रितु भनोट, डॉ. भावना, शर्मीला आदि प्रमुखता से सक्रिय हैं| ऐसा नहीं है कि ये नाम अंतिम हैं लेकिन इनमें चेतना के उस रूप का दिग्दर्शन होता जरूर है जो आज की कविता के सरोकार को स्पष्ट करते हैं|


क्रमशः 

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