Thursday 15 August 2019

नवगीत की नवता में सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति



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हिंदी कविता का संसार उजालों से भरा हुआ है लेकिन अँधेरा कम है या छंट चुका है, इसमें संदेह है और बराबर बना रहेगा| अब ऐसा भी नहीं है कि मुझे कवि-परख और कवि-दृष्टि-निष्पक्षता पर कोई शक है लेकिन कविता को बांटकर देखने की प्रवृत्ति पर मेरी तरफ से प्रश्न हर समय लगा हुआ मिलेगा| कहते हैं कि एक ईमानदार प्रश्न समय की सजगता को परखने के लिए पर्याप्त होता है लेकिन सवालों में ईमानदारी कहाँ से आए, यह तलाश रहेगी बराबर| इस तलाश में सम्भव है यह पता चले कि असली अपराधी आलोचक हों लेकिन सम्भव यह भी है कि हाशिये पर धकेले गए काव्य-विधाओं को साधने वाले पूर्व  के रचनाकार भी उतने या उससे कहीं अधिक का अपराध किये बैठे हों? आलोचक, जो रचनागत होकर कार्य करते हैं उनके लिए व्यक्ति नहीं रचनाएँ महत्त्वपूर्ण होती हैं| जो स्वयं को परखने के लिए आलोचकों को अपनी लेखनी से न बांध पाए या आलोचकों ने ऐसे लोगों पर चर्चा करना कोई जरूरी नहीं समझा, जो अपने समय और समाज को सुन्दर बनाने के लिए सृजन-श्रम में संलग्न रहे; ये दोनों स्थितियां एक गंभीर विवेचन की मांग करती हैं|
कोई रचनाकार बगैर किसी परख के केवल इसलिए मार दिया जाए कि उसने तत्कालीन समय में प्रचारित किसी विधा में न लिखकर प्रचलित विधा में लिखा है, यह तो कोई बात नहीं हुई| हालांकि यह बात स्पष्ट है कि क़त्ल तो नहीं किया गया यहाँ किसी का और किया भी गया हो तो कौन जानता है भला? एक रचनाकार को मारने के लिए चाकू, तलवार या बन्दूक की मार ही जरूरी नहीं है, उसकी रचनाओं को या जिस विधा में वह लिख रहा हो उसे हाशिए पर धकेल देना भी उसकी निर्मम हत्या करना है| गीत और नवगीत विधा को साधने वाले रचनाकारों के साथ क्या कुछ ऐसा ही नहीं हुआ? यदि नहीं तो कहाँ हैं वे रचनाकार जिन पर कविता की अन्य विधाओं के साथ-साथ शोध-कार्य से लेकर निवर्तमान पत्रिकाओं तक में गंभीर चर्चा-परिचर्चा तक होना चाहिए था?
यदि हुआ तो फिर कहाँ हैं नवगीत के वे वरिष्ठ रचनाकार जिन्हें अपने अस्तित्व के लिए लड़ना-झगड़ना चाहिए था? यदि हुआ तो फिर कहाँ हैं वे आलोचक जो अन्य के समक्ष शक्ति के साथ इन विधाओं की विशेषताओं और विशिष्टताओं को रखकर उन्हें बताने का कष्ट करते कि गीत/नवगीत के रचनाकार समकालीन विसंगतियों से लड़ने, जूझने और समस्याओं को अभिव्यक्त कर पाने में पूरी तरह सक्षम हैं? क्यों नहीं बताते कि इन्हें अपने व्यक्तिगत दुःख और ऐश्वर्य-अभिव्यक्ति की नहीं आम आदमी के रोटी-कपड़ा-मकान के न मिल पाने की चिंता है? ये शहरीकरण से प्रभावित नहीं हैं अपितु गाँव में शहरों के घुसपैठ से दुखी हैं? मल्टीनेशनल कंपनियों की चमक में फीके पड़ते मानवीय स्वभाव और ग्रामीण-संस्कृति के विलोपन का दुःख है इन्हें? राजनेताओं के चारणगान में मस्त होकर ये साम्प्रदायिकता का खेल नहीं खेल रहे हैं अपितु व्यवस्था के प्रतिरोध में खड़े होकर मानवतावाद को प्रतिष्ठापित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं?
बताना तो ये भी चाहिए था कि ये वे नवगीतकार हैं जिन्हें गागर भर रोना नहीं आता, जो रो रहे हैं उनके आँसू की यथा-व्यथा को अभिव्यक्त करने का जोखिम उठाना जरूर आता है| वियोग की दशाएं इन्हें व्यथित नहीं करतीं अपितु वियोगी बन जाने के लिए सहायक परिस्थितियां मजबूर करती हैं इन्हें सोचने के लिए, जिसके दायरे में हमारे समय की युवा पीढ़ी गहरे में आ चुकी है| महलों में रहने वालों के सौंदर्य पर गीतों की जुगाली करना इनका स्वभाव नहीं है लेकिन छान-छप्पड़, झुग्गी-झोपड़ियों में गुजर-बसर करने वाले लोगों के लिए प्राण-प्रण से लग जाने की चाह इनमें होती है| ये ए.सी. रूमों में बैठकर कविता लिखने वालों में से तो नहीं हैं लेकिन भरी दोपहर में बोझा ढोने के लिए विवश बुजुर्ग की पीड़ा, बेरोजगारी में हताश-निराश युवाओं के नयनों से बहते आँसू, घर-बार छोड़कर शहरों में बैठे परिवार के सदस्य को निहारते गाँव-देहात के लोगों की आशाएँ, ‘तन्त्र’ की जकडबंदी से ‘लोक’ को मुक्त करने और सभी को समान सामाजिक अधिकार के लिए प्रेरित करने, वैश्वीकरण के दौर में विघटित होते मानव-मूल्यों से सम्बन्धित चिंताएं उनकी रचना-दृष्टि में है, इसलिए वे आम आदमी के साथ उनके जीवन की प्रत्येक क्रिया-कलाप में स्वयं को संलग्न रखने वाले नवगीतकार हैं, क्या यह नहीं बताना चाहिए था या अब नहीं बताना चाहिए?   
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विधाओं की राजनीति में योग्यताओं की परख महज षड्यंत्रों और स्वार्थों की पूर्ति कर सकता है| यह प्रवृत्ति श्रेष्ठ साहित्य को सामने लेकर आए, ऐसा कहने में संकोच होता है| जैसे नई कविता के बहुत से ऐसे हस्ताक्षर हैं जो नवगीत विधा में उठाई जाने वाली विमर्शों से बहुत दूर हैं, फिर भी उनका जिक्र किया जा रहा है, उसी तरह नवगीत में ऐसे बहुत से रचनाकार हैं जो नई कविता में उठाए जाने वाले विमर्शों से बहुत पीछे हैं, लेकिन फिर भी उनकी चर्चा करके उन्हें श्रेष्ठ बताया जा रहा है| यह प्रवृत्ति घातक है| कम से कम आलोचना के दायरे में इस तरह का बर्ताव करते समय सोचना चाहिए| जब हम सोचेंगे तब निःसंदेह विधाओं में समान कार्य करने वाले रचनाकार निकलकर सामने आएँगे| कविता की चिंता हमारे समय और समाज के लिए कितना उपयोगी है, ठीक तरीके से स्पष्ट हो सकेगा|
इस लेख में बात क्योंकि नवगीत की नवता को लेकर है तो निश्चित ही चर्चा उन्हीं की होगी जिनकी सक्रियता इस विधा के अंतर्गत है| इस विधा में इन दिनों सक्रिय युवाओं द्वारा कुछ बेहतर किया जा रहा है| समय और समाज को लेकर इनकी सजगता हमें प्रभावित करती है| इनकी रचनाओं में विषय की नवता को लाने के साथ-साथ प्रस्तुति-गम्भीरता भी देखने को मिल रही है| जिन रचनाकारों की बात की जा रही है उनमें डॉ. राधेश्याम शुक्ल, अक्षय पाण्डेय, बृजनाथ श्रीवास्तव, डॉ. जयशंकर शुक्ल, जगदीश पंकज, गीता पण्डित, अवनीश त्रिपाठी, धर्मेन्द्र सज्जन, चित्रांश वाघमारे, राहुल शिवाय जैसे नवगीतकार प्रमुख रूप से सक्रिय हैं| इनकी सक्रियता नवगीत लेखन तक ही नहीं बदलते दौर के सामाजिक यथार्थ तक भी बनी हुई है|
 इनमें से कुछ पुराने हैं तो कुछ नए हैं| पुराने को स्वीकार करने में आपत्ति ये हो सकती है कि गुटबाजी में इनकी कोई दिलचस्पी नहीं है और नए को इसलिए नकार सकते हैं कि ये दरबार-गान करने में असमर्थ हैं| मुझे कहना हो तो यह कहूँगा कि ये दोनों स्थितियां नवगीत को ऊँचाई पर ले जाने के लिए समर्थ और सक्षम हैं| यह भी स्पष्ट कर देना उचित है कि इस लेख में शामिल रचनाकार अंतिम नहीं हैं और न ही तो अन्य को उपेक्षित करके इन कवियों को बढ़ाना कोई उद्देश्य है| इनके जरिये यह दिखाना उद्देश्य जरूर है कि नवगीत की नवता किस तरह समाज को सार्थक दिशा देने में सक्षम है|
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हमारे समय का सामाजिक यथार्थ उलझा हुआ है| आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक धरातल पर यह उलझाव इधर के दिनों में और अधिक सघनता लिए हुए दिखाई दिया है| सामाजिक संकीर्णता की परिधि में राजनीतिक षड्यंत्रों से जनता आक्रांत है| आर्थिक मोर्चों पर बुरी तरह झुलसा इस देश का युवा घर से बेघर होने की स्थिति में है| लौकिक देवताओं के केन्द्र में धार्मिकता ने साम्प्रदायिकता का रूप लेकर इस कदर साधारण जन मानस को डराया है कि ‘ईश्वर’ से विश्वास उठता जाता है| जो कुछ हम बोलते-सुनते, पहनते-ओढ़ते थे उनसे एक ऊब सी उठने लगी है और ‘कुछ नया’ धारण करने और बनाने के मोह ने स्वभाव से व्यवहार तक को परिवर्तन के मुहाने पर लाकर रख दिया है| परिवर्तन के मुहाने पर खड़ा समाज कुछ प्राप्त किया है तो बहुत कुछ खोने की स्थिति में भी पहुंचा है| नवगीत विधा के रचनाकार खोये हुए स्थितियों की पड़ताल और प्राप्ति का यथार्थ बड़े सजगता से अभिव्यक्त करते हैं| 
जिस भारतीय सामाजिकता की बात सम्पूर्ण समाज में निरपेक्ष भाव से की जाती है उस देश की यथार्थ सामाजिक स्थिति को कवि-हृदय से अधिक भला कौन समझ सकता है? ऐसा इसलिए क्योंकि हृदय पक्ष कमजोरियों को देखने में अधिक सक्षम होता है| इसका वास्ता सबसे कमजोर और निरीह प्राणी के प्रति होता है| गीता पंडित की दृष्टि में हम लाख कोशिश कर लें कि यह वह देश है जो अपने मूल रूप से बदल चुका है, ऐसा दिखाएं, लेकिन जब यथार्थ परिदृश्य का अवलोकन करते हैं तो पता चलता है कि “बदल गईं तारीखें सारी/ बदल गया है साल/ लेकिन बदला/ नहीं दीखता/ जन-मानस का हाल” क्योंकि वह आज भी उसी फटेहाल जिंदगी को जीने के लिए विवश है जो स्वतंत्रता से पूर्व या स्वतंत्रता के तुरंत बाद थी|
कागजों में सम्पन्नता दिखाने का एक फैशन जरूर चला है लेकिन गीता पंडित का यह स्पष्टीकरण हमें कागजों से निकलकर यथार्थ जीवन को देखने के लिए आमंत्रित करता है-“बदली कब/ किस्मत जन-जन की/ वही ढाक के पात/ बारह महीनें करें मजूरी/ वही निबल है गात|”  अब यह सच्चाई न देखकर हम अपनी ही बनाई धारणाओं से देश को विकसित बना दें यह अलग बात है लेकिन देश के जिन पात्रों को हम समृद्ध और विकसित बताते हुए थकते नहीं हैं गाँवों से लेकर महानगरों तक“अधनंगे से/ बदन वही हैं/ सड़कों पर हैं सोये|” किसान  इसी समाज के हिस्सा हैं| सबको पालने और पोषित होने का प्रबल माध्यम यदि कोई है तो वह किसान ही है| समाज में सपन्न और विपन्न की जो श्रेणियां हैं उनसे विपन्न स्थिति में ये किसान हैं| बड़े किसानों के यहाँ तो फिर भी खुशहाली दबे पाँव ही सही आ जाती है लेकिन जो छोटे किसान हैं उनकी स्थिति प्रेमचंद के होरी से कहीं अधिक त्रासदपूर्ण और भयानक है|
समाज के नुमाइंदों से गीता का यह पूछना हमें आशान्वित करता है कि “सूर्य किरण के उगने से भी/ पहले जो/ जग जाता है/ बिरवे बोकर माटी में/ फसलें नयी/ उगाता है/ उसके मन का/ हनन हुआ क्यूं?” क्या सिर्फ इसलिए कि वह पुश्तैनी परंपरा को सम्भाले हुए हैं अथवा इसलिए कि उसके कमाए हुए का सुख सब बराबर भोग रहे हैं? यदि यह सब सच है तो सच यह भी तो है कि “जो जीवन देने की खातिर/ अपना रक्त/ बहाता है/ क्या मिलता है उसको जग में/ यूँ ही वो/ ढह जाता है|” सही अर्थों में किसानों और मजदूरों का ढहना मानवीयता का ढहना है| उस मनुष्यता का पंगु होना है जिसको प्राप्त करने के लिए हमने इतने सदियाँ गुजार दीं| सामाजिकता के निर्वहन के लिए गीता का यह सुझाव हम सबको ठिठक कर सुनना चाहिए क-है जहाँ/ इंसान पकड़ो फिर से लाओ/ नेह करुणा उससे सीखो/ और सिखाओ/ पल की आँखों/ पर बंधी पट्टी हटाओ/ झोपड़ी में/ न्याय की तख्ती लगाओ|” हालांकि ऐसा करना आसान नहीं होगा और यदि होगा भी तो अकेला नहीं होगा| “झोपडी में/ न्याय की तख्ती” सही समय पर निरपेक्षता के साथ लगे और ‘नेह करुणा’ को सीखने और सिखाने का उपक्रम हम सब कर सकें इसके लिए दो कदम हम सबको बढ़ाना होगा|
जब हम इस दृष्टि से विचार करते हैं तो गीता पण्डित के इस बात का समर्थन करने के लिए कहीं न कहीं अपना समर्थन दे रहे होते हैं कि “एक कदम/ तुम भी बढ़ाओ/ एक कदम हम भी बढ़ाएं/ कह रहे हो स्वर्ग जिसको/ या कि/ कहते नरक जिसको/ है यहीं पर सब यहीं पर/ ध्यान से देखो जमीं पर/ आओ मिलकर/ इस धरा को/ स्वर्ग से सुन्दर बनाएँ |” स्वर्ग एक विचार है अवधारणा है जिसका साकार होना हम सबके प्रयत्नों पर ही निर्भर करता है| सामाजिकता का सही निर्वहन यदि हम आप कर सकते हैं तो स्वर्ग उससे उत्पन्न भावों का ही नाम है|  
भुखमरी, गरीबी, लाचारी ये शब्द भर नहीं हमारे अपने समाज के स्थाई अंग हैं| हम चाहकर भी इन्हें सभ्यता के शब्दकोश से निकाल नहीं पा रहे हैं| नवगीतों में भुखमरी और गरीबी पर गहराई से विचार किया गया है| बृजनाथ श्रीवास्तव का मानना है कि यह सब पूंजीवाद का प्रभाव है| जिसके पास पैसे हैं उत्पादन के साधनों पर उन्हीं का हाथ है| ‘पूँजी की लूट’ में आम आदमी बेगार करने पर मजबूर हुआ है| वह इस कदर टूट रहा है कि भूखे प्यासे चौराहे पर खड़ा है लेकिन कोई उसका ख्याल रखने वाला नहीं है-“अंदर बाहर लगी मशीनें/ पूँजी की है लूट/ हाथ माथ बेकार हुए हैं/ लोग रहे हैं टूट/ चौराहे की/ भीड़ों में अब/ भूख हुई ग़मगीन|” जिस समाज की भूख ही ग़मगीन हो वहां की यथास्थिति क्या होगी, कहने की बात नहीं है|
इस भूख के दायरे में क्या छोटे क्या बड़े सभी आए हैं| सभी शोषित और सभी ग़मगीन हैं| सभी भटक रहे हैं| बड़ों को किसी वस्तु की तरह लेबर-चौराहों पर बिकते देखा जा सकता है तो छोटे बच्चों को विभिन्न जगहों पर वस्तुओं और स्वयं को बेचते देखा जा सकता है| बृजनाथ श्रीवास्तव की निगाह में सड़कों, सार्वजनिक स्थलों, प्लेटफार्मों पर भीख मांगते, दो वक्त की रोटी के लिए अभिनय करते, करतब दिखाते ऐसे बच्चे हैं जिनका न तो बचपना पता चलता है और न ही तो जवानी| ऐसे बच्चों में शामिल वे हैं “अम्मा के संग/ बीन रहे जो/ कूड़ा पालीथीन/ और पिटारी/ लिए साँप की/ बजा रहे जो बीन/ बचपन के दिन/ ट्रेनों में जो/ नट के खेल करें....पढने के दिन/ दूकानों पर/ रो-रो धोते प्लेट/ सड़ा-गला/ जो कुछ मिल जाता/ बे-मन भरते पेट/ रात अँधेरी/ कैसे गुजरे/ चीखें और डरें|” यह चीखने और डरने वाले बच्चे पेट की भूख को लेकर या तो समय से पहले जवान हो जाते हैं या फिर कर दिए जाते हैं|
पूंजीवादी व्यवस्था के इस युग-समय में भूख का वैसे भी कोई महत्त्व नहीं है| भूखा उसे नहीं माना जा रहा है जिसके पास कुछ भी नहीं है, उसे माना और दिखाया जा रहा है जिसके पास सब कुछ है| पूंजीवादी व्यवस्था के प्रति आक्रोश सिर्फ नई कविता में ही नहीं है नवगीत में भी अपने खरे स्वरूप के साथ उपस्थित है| कभी तो निराला के यहाँ ‘तोड़ती पत्थर’ की नायिका महलों पर “करती बार-बार प्रहार” कहाँ तो वर्तमान समय में धर्मेन्द्र जैसे नवगीतकार “पत्थर-दिल पूँजी के दिल पर/ मार हथौड़ा” का उद्घोष करते हैं| इस उद्घोष के पीछे के क्या कारण है यह देश के हर नागरिक को पता है| अम्बानी, अडानी से लेकर वाड्रा तक ने आम आदमी के हिस्से की जमीनों पर कब्ज़ा जमा रखा है| धर्मेन्द्र का यह कहना कितना सच प्रतीत होता है-“कितनी सारी धरती पर/ इसका जायज़ नाजायज़ कब्ज़ा/ विषधर इसके नीचे पलते/ किन्तु न उगने देता सब्ज़ा/ अगर टूट जाता टुकड़ों में/ बन जाते/ मज़लूमों के घर”  क्योंकि जो तो बेघर हैं वे घर बनाने भर की जमीनों के लिए तरस रहे हैं और जिनको घर की जरूरत नहीं है वे अवैध कब्जे करके कंपनियों आदि का प्लांट बैठा रहे हैं|
समस्या यहीं तक होती तो चल जाता| इन कंपनियों को चलती हालत में लाने के लिए जिस आम आदमी ने खून पसीने एक कर दिया, उसी को अपदस्थ करके उत्पादन के साधनों पर इन पूंजीपतियों द्वारा कब्ज़ा जमा लिया गया| धर्मेन्द्र का यह कहना इस षड़यंत्र से समय को अवगत कराना है-“पैसा, ख़तरा, ख़ून हमारा/ सारा लाभ तुम्हारा/ मर-मर कर वो जिया सदा/ जो रहा अछूता तुमसे/ चारों खम्भे लोकतंत्र के/ चरण वन्दना करते/ सारी ख़बरों में बजता है/ तुम्हरा ही इकतारा” आम आदमी के हिस्से में न तो कंपनी है और न ही तो उत्पादित वस्तु है, मीडिया, बाज़ार, सरकार से लेकर न्याय व्यवस्था तक उनका है| आम आदमी रोये-गाये या मरे किसी को इससे क्या लेना| क्या यह कम विडंबना की बात है कि जिनका तो कुछ नहीं है वे आरामपसंद जीवन जी रहे हैं, सम्पन्न हैं, जिनका सबकुछ है वे ख़ट रहे हैं और भटक रहे हैं| मालिकों के फरमान पर दिनोरात चलता रहता है/ नींद चैन त्यागे/ फिर भी अब तक नहीं बढ़ सका/ एक इंच आगे”
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मनुष्य के स्वभाव और व्यवहार में इधर बड़ी तेजी से बदलाव दिखा है| भागम-भाग भरे जीवन में सब कुछ चकाचौंध से आच्छादित है| वस्तुओं का निर्धारण मनुष्य नहीं कर रहा है मनुष्य का निर्धारण वस्तुएं कर रही हैं| विकास का सच क्या है यह भी स्पष्ट होने लगा है| देश को विकास के पैमाने पर सर्वोच्च देखना है यह दुहाई हर तरफ से दी जा रही है लेकिन कैसे सम्भव होगा, इस पर मौन छाया हुआ है| राहुल शिवाय का पूछना जायज है कि नई सदी विकसित होने की/ ओर बढ़ रही है/ उन्नति के जो नित्य नए सोपान/ चढ़ रही है/ लेकिन क्या सच देख पा रही/ कैसे बढ़ी सदी|”  सच्चाई तो यह है कि हम अतीत से कुछ सीख लेना ही नहीं चाहते| कार्य-संस्कृति के प्रति हमारा कोई स्पष्टीकरण ही नहीं है इधर| जो स्वप्न हमने पाल बैठे हैं बदलाव के वह निरा कल्पना प्रमाणित हो रही हैं “सत्य पाँवों के तले है/ झूठ पहने ताज़ झूमे/ प्रेम भी अपराध है अब/ वासना आजाद घूमे/ सो रही बदलाव की हर/ कल्पनाएँ!” इसलिए कुछ विशेष बदलाव नहीं हो रहा है और हम यथास्थिति के दायरे में जीने के लिए विवश हैं|
सच यह भी है कि एक तरफ जहाँ दर-ओ-दीवारों पर नारे चस्पा किये जा रहे हैं वहीं दूसरी तरफ शिक्षा-व्यवस्था से लेकर वैज्ञानिक खोज-बीन तक पर बट्टा लगाया जा रहा है| जरूरी मुद्दों पर चर्चा और परिचर्चा करने की बजाय सवर्ण और पिछड़ा की राजनीति की जा रही है| राहुल शिवाय जैसे युवा नवगीतकार इस बदल रहे देश और बदले हुए माहौल से चिंतित हैं| देश के विकसित राष्ट्र होने की दिशा में राहुल शिवाय का ये स्पष्टीकरण विचारणीय है होगा विकसित देश/ सिर्फ विज्ञापन कहता है.../राम भरोसे भोजन, कपड़ा/ शिक्षा औ आवास/ अर्थ-शास्त्र भी औसत धन को/ कहने लगा विकास...../ जब-जब बात उठी है/ बस्ती कब होगी मोडर्न/ तब-तब मुद्दा बनकर आया/ पिछड़ा और सवर्ण|” जिस राष्ट्र में दो रुपये की दवा के लिए आम आदमी प्राण त्याग रहा हो, अपनी इच्छाओं को मारकर जीने के लिए अभिशप्त हो, दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति ही एक बड़ी समस्या हो, जन-सहयोग की अपेक्षा सवर्ण और पिछड़े के नाम पर जनता को लड़ाया जाता हो, उस देश को विकसित होने के नारे झूठे दिलासे नहीं तो और क्या हैं?
इन नारों के प्रचारात्मक व्यवहार को हम वास्तविकता मानकर निकल पड़ते हैं और यह लगभग भूल जाते हैं कि इस देश की व्यवस्था ने दिलासों के विज्ञापनी दलदल में हमें सत्तर वर्षों से रखा हुआ है| इसका परिणाम यह है कि “चमक-दमक से इतना प्यार हुआ है हमको/ दौड़ रहे हम बने फतिंगे जलती लौ पर/ काट रहे हम जीवन-जड़ का हर संसाधन/ पूंजीवाद के दल-दल में अपना शव ढोकर|” हमारी अपनी इच्छाओं का कोई मोल नहीं रह गया है| बाज़ार को हाथों गिरवी रखने में व्यवस्था ने जैसा चाहा हमसे करवाया| यदि यह मान ही लिया जाए कि आने वाले दिनों में हम विकसित राष्ट्र बन जाएंगे लेकिन प्रश्न यह भी तो है कि हमने और हमारी व्यवस्थाओं ने विकसित राष्ट्र बनाने के लिए क्या किया सिवाय इसके कि “सिर्फ बाँचने लगे समस्या/ छोड़ समस्याओं के कारण/ धर्म-पंथ विस्तार चाह है/ पर अधर्म पथ चुना गया है/ कितना ही षडयंत्र देश में/ जालों जैसा बुना गया है|”
जनता इन जालों से आजाद नहीं हो पा रही है| श्रम इस देश में हो नहीं रहा है| उत्पादन के साधन बंद हो रहे हैं| युवा पीढ़ी देश छोड़कर विदेशों में पलायन कर रही है| अब यह यदि यह सोचकर बैठें कि कोई जादुई छड़ी हो जाए हमारे पास और देश बदल जाए तो यह मुमकिन नहीं है-“कभी समस्या हल न करेगा/ जादू-मंतर/ इसे न जाने कब समझेगें|”  ऐसी नासमझी के साथ ही हम इस वहम में दिखाई दे रहे हैं कि सकारात्मक बदलाव आएगा और विडंबना की बात ये है कि इस स्थिति में अपेक्षा दूसरों से ही पाले बैठे हैं| सही अर्थों में तो “होगा तब बदलाव/ अगर/ हम तुम बदलेंगे/ सिर्फ रुदाली का गायन/ हमको करना है/ कल की चिंता है, शब्दों में/ बस कहना है/ अभी नहीं/ सँभले तो/ आखिर कब सँभलेंगे?” बदलाव अपेक्षित है लेकिन सकारात्मक हो इसके लिए हमें अपने विचारों एवं भावों में प्रौढ़ता लानी होगी| यदि ऐसा संभव होता है तो यह व्यक्ति-समाज से लेकर देश-राष्ट्र तक के हित में है|
गाँव की सभ्यता और संस्कृति-प्रेमी देश में ग्लोबल गाँव का स्वप्न एक तरह का छलावा ही है| यहाँ के लिए मोल-भाव की नीतियां नहीं सम्बन्धों की ऊर्जा जरूरी है| हमारे यहाँ प्रारंभ से ही बिकने और खरीदने की प्रक्रिया में दान करने का व्यवहार अधिक रहा है| यह कम चिंता की बात नहीं है कि जिन क्षेत्रों में हम नितांत व्यावहारिक थे उन क्षेत्रों में व्यापारी बन बैठे| अब हर वह वस्तु हमारे लिए फायदा का सौदा हो गयी और धीरे-धीरे बाज़ार की आवाश्कतानुसार हम भी वस्तु की श्रेणी में धकेल दिए गये| राधेश्याम शुक्ल का यह कहना उचित है कि “सुनो/ तुम्हारा मूल्य, तुम नहीं/ आँकेगा बाज़ार/ तुम्हें तो बस बिकना है|/ तुम केवल मशीन हो,/ जिसको वक्त चलायेगा/ तुम्हें हृदय की नहीं/ पेट की भाषा पढ़नी है/ ‘खुद्दारी’, ‘अस्मिता’/ हुईं कल की बातें, तुमको,/ बाज़ारू डिमाण्ड पर/ अपनी मूरत गढ़नी है/ बनना होगा/ ‘रेसकोर्स’ के घोड़े की रफ़्तार,/ तुम्हें तो बस बिकना है”  वेद, शास्त्र और वैज्ञानिक सोच-समझ वाले देश को पेट की भाषा पर लाकर छोड़ दिया गया है जहाँ सभ्यता, संस्कृति, संस्कार हाशिए पर हैं और विज्ञापन से भरा पड़ा हमारा व्यवहार केन्द्र में है| यह ऐसा समय है जहाँ“साँसों की कीमत पर भी/ कैरियर/ खरीद रहे हैं बच्चे/ खेल-खिलौने/ सब झूठे पड़ गये/ रह गये सपने सच्चे”  सपनों की उड़ान में जिस तरह से बचपन गायब हो रहा है उसी तरह से इस देश का भविष्य भी अँधेरे में खोता जा रहा है| 
शुक्ल जब यह पूछते हैं कि “चमकदार चीजों से/ भरा पड़ा ग्लोबल बाज़ार/ कबीरा क्या लेगा?” तो फ़िल्मी दुनिया से लेकर इन्टरनेट पर बिकने वाले अश्लील दुनिया के वे सभी प्रोडक्ट दिमाग के सामने आकर नृत्य करने लगते हैं जिनकी चकाचौंध में पूरी पीढ़ी गायब होती जा रही है| इन चमकदार चीजों के सम्मुख हम अपना विवेक खो चुके हैं और जैसा वह चाह रही हैं हम वैसा ही करने के लिए विवश होते जा रहे हैं| “ये कितने तोहफे लाये हैं/ ‘सस्ती कार’ ‘पेप्सी कोला’/ तुम सपनों में उडो/ दे रहे तुम्हें विदेशी ‘उड़न खटोला’ जिस पर बैठने के बाद हम संसार को एक परिवार में तो देख रहे हैं लेकिन अपनी धरती और अपना स्वाभिमान कहाँ जा रहा है, यह नहीं दिखाई दे रहा है| यह अपनी तरह का सच है कि अपने सभी माध्यमों को त्यागकर जीने के अभ्यस्त होते जा रहे हमारी स्थिति कुछ ऐसी हो गयी है कि-“मल्टीनेशनल प्लेटों में/ जैसे सजे ‘पुलाव’/ हमें परदेशी खायेगा” विदेशी  मॉल में पहुँचने के बाद जितने क्लर्क होते हैं वह हमारे देश के होते हैं, स्वीपर से लेकर चौकीदार तक को देखा जा सकता है| आर्थिक समस्या से जूझते हुए हमारी सोच क्लर्क तक आकर सीमित हो जायेगी यह तो नहीं कभी सोचा गया था| यह क्लर्कियल मानसिकता का ही परिणाम है कि“सभी अर्धबेहोश/ किसी को नहीं खबर है/ पश्चिम से उगते सूरज की/ कहाँ नज़र है/ छाँव आग बरसायेगी/ है इसका नहीं क़यास” स्वभाव से हम सीधे-साधे हैं इसलिए बाज़ारी समीकरण में न तो हम फिट बैठते हैं और न ही तो वह हमारे लिए किसी प्रकार हितकारी है| हिंदी नवगीतकारों ने यह प्रयास बराबर किया है कि जन सामान्य बाज़ार के दुष्प्रभावों से दूर रहे|
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इधर के परिवेश में लोकतंत्र से ‘लोक’ गायब है और ‘तंत्र’ अट्टहास कर रहा है| जगदीश पंकज कहते भी हैं कि “अब सदन में/ अट्टहासों को सजाओ/ रुदन का कोई न/ स्वर आये सुनाई” इसलिए क्योंकि व्यथाओं के आवरण में सिमटे जीवन अट्टहासों के जरिये ही आसानी से अपदस्थ किये जा सकते हैं| यह अट्टहास सीधे उस आम आदमी पर है जिसे या तो ‘आदर्श जनता’ के खिताब से नवाजा जाता रहा है या फिर ‘देशद्रोही’ करार दिया जाता रहा है| जनता तब तक आदर्श होती है जब तक सत्तापक्ष की हर नीति-अनीति के समर्थन में होती है| भले ही इसके लिए उसे अपना जीवन कुर्बान करना पड़े| जैसे ही अपनी सुविधा और जीवन यापन की चिंता होती है किसी को और उस चिंता में जरूरी संसाधनों की मांग कोई करता है तो अचानक वह ‘देशद्रोही’ हो जाता है|
ऐसी स्थितियों में स्वतंत्र होते हुए भी जनता न तो स्वाधीन हुई और न ही तो अपना वह अधिकार प्राप्त कर सकी जिससे यह कहा जाता कि वह राजा है अपने मन का मालिक| “कौन हुआ स्वाधीन, राज्य किसने भोगा/ जनता को तो मिले सदा थोथे नारे/ फेंक दिये वे मूल्य कहाँ नेपथ्यों में/ जिन्हें बचाने को चूमे थे अंगारे|” दहकती अंगारों पर चलते हुए देश को संवारने वाली जनता महज थोथे नारों पर संतोष करती है और वायदों के आवरण में फलने-फूलने वाला तन्त्र मस्त होकर विचरण करता है और उसके उपेक्षित जीवन पर अट्टहास करता है|
जिस समय यह सब हो रहा है उसी समय “देश निरंकुशता का अभिनय देख रहा/ देख रहा झूठे जुमलों को वादों को/ देख रहा जनतंत्र विवश मतदाता को/ और बदलते हुए नित्य सम्वादों को” बावजूद इसके न तो देश की इच्छा-अनिच्छा को देखा जाता है और न ही तो उस मतदाता की आशाओं-आकांक्षाओं की कोई खोज खबर ली जाती है| उनसे तो पूछने वाला कोई नहीं है कि जरूरत है भी किसी चीज की या नहीं| जो पूछता है जो कुछ कहना और करना चाहता है सरकारें उन्हीं के ऊपर अभियोग लगाकर अन्दर करने का षड़यंत्र रचने लगती हैं| यहाँ जगदीश पंकज की यह चिंता वाजिब दिखने लगती है कि “कैसा व्यवस्थित तन्त्र/ पीड़ित पर चला अभियोग है/ सच सोचना, सच बोलना भी/ एक छुतहा रोग है|” अब वह रचनाकार ही कैसा जो इस रोग से डरे और सत्य के पक्ष में खड़े होने में शर्म या भय महसूस करे| जगदीश स्वयं सत्यनिष्ठ होकर तो बढ़ते ही हैं अपने समानधर्मा लोगों से भी बढ़ने के लिए दबाव बनाते हैं, यह कहते हुए कि “एक स्वर अपना मिलायें/ उन स्वरों में/ जो अँधेरे से, धुएँ से/ लड़ रहे हैं/ तानकर मुट्ठी मिलायें, हाथ उनसे/ जो प्रबल प्रतिकार करते/ बढ़ रहे हैं|” यहाँ जगदीश पंकज को यह भली भांति पता है कि अँधेरे से लड़ने वालों संघर्षधर्मिता का अदम्य साहस होता है|
‘जो प्रबल प्रतिकार’ करने वाले होते हैं वे शोषण और षड्यंत्रों से कहीं गहरे में टूटे और बिखरे हुए लोग होते हैं| ऐसे लोगों का साथ देना समय और समाज को एक नई दिशा देना है| यहाँ कवि का यह आत्मविश्वास हतास और निराश लोगों के लिए एक प्रेरणा का कार्य करता है कि “सब कुछ ख़त्म नहीं/ अब भी, बहुत शेष है/ उसे संवारो|” जब चारों तरफ शांति और नीरवता छाई है ऐसे और इस शब्दहीन समय में आँखों में आँखें डालकर प्रश्न पूछने का साहस दिखाते हुए जगदीश पंकज जब यह कहते हुए प्रश्न करते हैं-“लड़ते रहे अँधेरे से हम/ पर तुम धुआँ रहे फैलाते/ बस प्रतिपक्षी निंदा में ही/ असफलता को रहे छिपाते/ अपनी पीठ ठोककर तुमने/ खोजे कितने नए जंजीरे” तो यह आभास होता है कि आम आदमी के पक्ष में बोलने वाले ईमानदार रचनाकार हैं नवगीत में|
यह ईमानदारी तब और प्रतिबद्धता लिए दिखाई देती है जब उनका यह स्पष्टीकरण सामने आता है “चुप रहूँ, कुछ न कहूँ/ सम्भव नहीं है/ देख कर विद्रूपताएँ/ इस समय की” इसलिए वे बोलते ही नहीं अपितु अपने अधिकारों के लिए अडिग रहने के लिए नई पीढ़ी को तैयार भी करते हैं| जगदीश पंकज के पास समकालीन विसंगतियों का समृद्ध जीवन-अनुभव है| उनके आँखों के सामने देश-समाज परिवर्तन की अकथनीय बेदी पर दमित हो रहा है ऐसे में ऐसे अनुभव-सम्पन्न व्यक्तित्व का काव्यात्मक विवेक जो कुछ कहता है उसे बहुत गंभीरता से लेने और सुनने की जरूरत है|         
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इस अर्थ-पोषित समय में परिवार क्या होता है, हम लगभग भूलते जा रहे हैं| जिन सम्बन्धों को हम एक समय के बाद बोझ समझने लगते हैं वही सम्बन्ध अपने साए में हमें सुरक्षित रखने का पूरा प्रयास करते हैं| इस प्रयास में कई बार व्यक्ति हाशिए पर जाता है बावजूद इसके नहीं चाहता कि उसकी सन्तान स्वयं को अकेला समझे| सही मायने में समस्याओं से उलझे माहौल में आगे बढ़ने के लिए रिश्ते हमें सम्बल प्रदान करते हैं| दिन भर का थका-हारा व्यक्ति जब घर पर पहुँचता है तो लगता है जैसे जंगल से निकलकर किसी शांत बस्ती में कदम रख दिया है| सम्बन्धों की आत्मीयता और ऊर्जा को महसूस करना हो तो नवगीत विधा को पढ़ना चाहिए| अक्षय पाण्डेय के नवगीत इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं| वैसे तो माता-पिता और परिवार के प्रति स्नेह-बलिदान लगभग नवगीतकारों के यहाँ है लेकिन जिस तरीके की अभिव्यक्ति अक्षय पाण्डेय के यहाँ है, वह आकर्षित करता है| 
इस अत्याधुनिक युग में बच्चों को एक पिता से शिकायत होती है कि वह उन्हें क्यों पैदा किया? क्या किया उनके लिए? जो कमाया-खाया उसे उड़ाया, आखिर क्या छोड़ा उनके लिए? नई सदी के बच्चों द्वारा उठाए गए इन प्रश्नों के उत्तर “मुन्ना क्या जाने” नवगीत में अक्षय पाण्डेय कुछ इस तरह देते हैं “कितनी रहती है ऊँची छत/ पिता जानते हैं/ खिड़की - दरवाजे की कीमत/ पिता जानते हैं/ किसकी है सन्दूक पुरानी/ घर की पूरी राम कहानी/ सियाहरन, सोने का हिरना/ मुन्ना क्या जाने|” सच है कि पिता जिन विषम परिस्थितियों में जीते हुए परिवार के लिए त्याग करता है वह बच्चे नहीं पिता ही जानता है| जिस समय परिवार का सब सदस्य सुविधाओं की मांग कर रहा होता है, पिता किस तरह माँग और पूर्ति के सिद्धांत में पिसता हुआ सब कुछ व्यवस्थित करने का श्रम करता है, वह न तो किसी को बताता है और न ही तो बच्चों को पता चलने देता है| घर परिवार और आस-पड़ोस के बनते-बिगड़ते समीकरण को भी चुपचाप वह देखता है और अवसरानुकूल यह प्रयास करता रहता है कि हालात ऐसे न हों कि लोगों को हँसने के मौके मिले-अक्षय पाण्डेय के नवगीत में “पिता” की यथास्थिति को देखा और परखा जा सकता है -
अपनी अकथ कहानी/ किससे - किससे कहे पिता । 
चेहरे अब पैरहन पहन/ पहचान छिपाते हैं
टूटे हुए घरौंदों के बस/ सपने आते हैं
उम्मीदों के वातायन से/ हवा नहीं आती  - 
घर में पसरी उमस – उदासी/ प्रतिपल सहे पिता । 

चूल्हे से चूल्हे का बँटना/ देख रहीं आँखें ,
नेह - छोह का रिसना – घटना/ देख रहीं आँखें
बीज न बोया जिन चीजों के/ बिरिछ उगे कैसे  - 
इसी सोच में, अतल दाह में/ घुट - घुट दहे पिता । 

आपस की बातों को/ हद से अधिक बड़ी कर दी
किसने मन के आँगन में/ दीवार खड़ी कर दी
रिश्तों ने सन्दर्भ बदल/ मुँह मोड़ लिये अपने 
ठहरी हुई नदी की पीड़ा/ पीते रहे पिता ।   
जब पिता यह सब चुपचाप सहन कर रहा होता, पीढ़ी जब यह प्रश्न करती है कि उसने किया क्या तो हृदय निकलकर जमीन पर गिरने को हो जाता है| पिता के साथ माँ के चरित्र का जो उजला पक्ष अक्षय पाण्डेय के यहाँ वह समकालीन नवगीत में नहीं अपितु कविता के समकाल में विरल है| यह कितनी विडंबना की बात है कि जो माँ परिवार की ज़िम्मेदारी को निभाते हुए “सगुन मनावे, सुरुज जगावे/ साध-दिया बारे/ रन में, बन में, जेठ-तपन में/ कबो न मन हारे” उसके सन्दर्भ में अक्सर यह शिकायत युवा पीढ़ी को होती है कि माँ-पिता गाँव छोड़कर शहर उसके साथ नहीं रहते लेकिन शहर जैसे तंग-हालात में एक माँ की आँखें क्या खोजती हैं वह अक्षय पाण्डेय इस तरह अभिव्यक्त करते हैं-“तुलसी-चौरे के जैसा कुछ/ होना ढूँढ़ रहीं हैं  ,/ माँ की आँखें उत्सवगंधी/ कोना ढूँढ़ रहीं हैं ,/ कितना यह घरबार धनी है/ बालकनी में नागफनी है/ सुधि यों के रोते खँड़हर में/ आई है अम्मा।“ जो गाँव जैसे उपवन में रह चुका है चारों तरफ से उलझे शहर जैसे खण्डहर में क्योंकर रहने लगे| यही वजह है कि “माँ की आँखें ढूंढ रही हैं/ होरी वाला गाँव” वह गाँव जिसमें आत्मीयता है| रिश्तों के प्रति अपनत्व और मनुष्यता है|
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     हमें अपने सांस्कृतिक स्थिति की जानकारी ठीक-ठीक नहीं है इसलिए संस्कृति-संस्कार से दूर रहने में ही अपनी भलाई समझ लिए हैं| हमारे इस समझ पर नवगीतकार डॉ. जयशंकर शुक्ल को ऐतराज है, इसलिए क्योंकि “सभ्यताएँ/ नग्न होती जा रहीं इस दौर में/ आचरण/ खोया न जाने कब कहाँ किस शोर में|”  व्यक्तिगत जीवन से लेकर सामाजिक व्यवहार तक आचरण की शुद्धता कुछ तो मायने रखती है| हालाँकि समय परिवर्तन के दौर में सामाजिक परिवर्तन के यथार्थ को स्वीकार कर लेना ही सांस्कृतिक प्रवाह के लिए जरूरी है लेकिन जिसकी वजह से हमारी एक अलग पहचान है, उस पहचान का क्या होगा? विडंबना की बात ये है कि इस शोर के प्रतिरोध में शांति की आवाज बुलंद करने का इरादा त्यागकर हमने इसमें रमकर रहना स्वीकार कर लिया है और यह इसी स्वीकार का परिणाम है कि “पार्टियों में/ मय थिरकता/ पश्चिमी संगीत में/ नृत्य करतीं/ युवतियाँ/ मदहोश होकर प्रीत में/ नशे के सौदागरों की/ छवि न मिलती भोर में|” एक रात को शुरू होकर दूसरी सुबह तक की चलने वाली आधुनिक पार्टियों में क्या कुछ चल रहा है किससे छिपा है? चलन में हमारे किन सांस्कृतिक मूल्यों का क्षरण हो रहा है छिपा यह भी नहीं है किसी से| क्या यह सच नहीं है कि “बिन ब्याहे रह रहे/ जोड़े नए परिवेश में अब/ स्नेह घटता जा रहा/ उन्मत्त मिलते क्लेश में सब.../ वर्जनाएं टूटती जातीं/ सुखों की चाह में ही/ कामनाएं बढ़ रहीं नित/ अनुकरण की राह में ही...|”  यदि सच है तो कच्ची उम्र के दायरे में रहने वाले हमारे बच्चे कहाँ जा रहे हैं? क्या कर रहे हैं वे कि आस-पड़ोस में मुक्त-यौन-संतुष्टि का भयंकर रोग फैलता जा रहा है? परिवेश तो दूर घर और रिश्तों के बीच बचपन सुरक्षित नजर नहीं आ रहा है|
यदि निर्लज्जता भरे वातावरण को कविताई स्वीकृति दे दी जाए तो हमारे उस मनुष्य होने का क्या जिसको प्राप्त करने के लिए इतने सफ़र तय कर लिए? जयशंकर शुक्ल द्वारा रचित इस गीत के साथ चलें तो यह स्पष्ट है कि “पछुहाँ के आने से/ पुरवा हैरान है/ सीमा पर सहमा-सा/ बैठा जवान है ...|/ लाजों के गहने अब/ बातें इतिहास की/ सबको ही छलती हैं/ रातें उल्लास की/ जो भी अब घटता है/ सब कुछ दिनमान है...|/ पश्चिम के बसनों ने/ पूरब को ताका है/ अंग सभी उघरे हैं/ सहमा हर नाका है/ अपनाये व्यसनों से/ दुनिया हैरान है...|” दुनिया इसलिए भी हैरान है कि इधर के इंटरनेट क्रांति के बाद हम और अधिक निर्वस्त्र होने की हद तक आ गये हैं| जयशंकर इस तरह के परिवेश में यदि यह कहते हैं कि “कभी-कभी/ अनजाने भय के/ साये से/ ये मन डरता है,” तो कुछ गलत नहीं कहते| यहाँ हादसों के शक्ल में घटनाएँ घटित होती हैं| यह सब पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण का परिणाम है| हमने परिवार नामक संस्था को लगभग छोड़ ही दिया है| अकेले रहने की अभ्यासी युवा पीढ़ी माँ-बाप को भी ओल्ड-एज-होम में रखने की सिलसिला शुरू कर चुका है| यह कहना भी जयशंकर का सच है कि “अपने मतलब में खोया/ मानव लगता है/ उन्मादी/ भौतिकता की होड़ मचा/ चादर कटुता की/ फैला दी/ बेजुबान मिटते दुनिया से/ ज्यों संतति सँग/ माँ-गैया|”  उन्मादी मनुष्य अभी और कहाँ तक जाएगा यह देखने की बात नहीं विचार करने की बात है|
अवनीश युवा हैं इसलिए संघर्ष की अधिकांश चिंता अभी-अभी समाज में आए विसंगतियों को लेकर है| यह विसंगतियाँ मीठे में पड़े उस जहर के समान हैं जिन्हें हम खाए जा रहे हैं और यह नहीं समझ पा रहे हैं कि हमारा अंत हो रहा है| “इंटेरनेट,/ सोशल साईट से/ रिश्ता-अपनापन” बढ़ाकर “टी.वी. चेहरे/ मुस्कानों के/ मँहगे विज्ञापन” में हम मशगूल होते जा रहे हैं| यही दुनिया है और यही संसार है| प्यार-तकरार से लेकर मान-मनुहार तक की स्थितियां यहीं घटित हो रहीं हैं और यहीं पर समाप्त हो जा रही हैं| समाज और समुदाय की खोज-खबर तो दूर घर-परिवार में क्या कुछ चल रहा है यह भी देखने-समझने का समय हमारे पास नहीं है| परिणाम यह है कि हमारे सामने “धूप-रेत/ काँटों के जंगल/ ढेरों नागफनी” उग आईं हैं और “एक बूँद/ बंजर जमीन पर/ गाँड़र, कुश, बभनी” फ़ैल चुकी हैं|
भारत देश में ‘जमीन की उर्वरता’ वैसे भी एक समस्या थी इन समस्याओं ने सामाजिकों को और अधिक उलझा दिया है| जो कुछ ‘खाद, पानी, बिसार’ पूर्वजों के हिस्से से मिल रहे थे उसे इन नव्य माध्यमों ने मृतप्राय कर दिया है| यहाँ आकर जब अवनीश कहते हैं कि “भोजपत्रों के गये दिन” तो यह समझते देर नहीं लगती-“खुरदरी/ होने लगीं जब से/ समय की सीढ़ियाँ/ स्याह/ होती रात की/ बढ़ने लगीं खामोशियाँ/ और/ चिंतन का चितेरा/ बन गया जब से अँधेरा/ फुनगियों/ पर शाम को बस/ रौशनी आती है पलछिन/ एक बूढ़ी-सी/ उदासी/ काटती है जब घरों में/ सिलवटें/ आहट, उबासी/ सुगबुगाहट बिस्तरों में” 
          इधर सम्वाद-संस्कृति पर गहरा आघात लगा है| कोई किसी से दो पल बोलने के लिए नहीं तैयार है संग-साथ रहने की तो बात ही दूर है| नवगीत विधा में सम्वाद-शून्यता को भरने का पूरा प्रयास हुआ है| चित्रांस वाघमारे की रचनाधर्मिता इस क्षेत्र में अभिनव प्रयोग करते दिखाई देती है| अज्ञेय ने जहाँ “मौन भी अभिव्यंजना है” कहकर उसके महत्त्व पर चिंतन करने की प्रेरणा दी थी वहीं चित्रांस का यह कहना है कि हमारे हृदय में जो बात हो, रोकना नहीं चाहिए, उसे खुलकर कहना चाहिए| यह मनुष्य की व्यावहारिक स्थिति है कि क्रिया की ही प्रतिक्रिया होती है| हृदय में घुटते शब्दों को बाँध कर रखना सम्वादहीनता को आमंत्रित करना है| हमें यह गंभीरतापूर्वक सोचना चाहिए कि-“बात जब घुटने लगे यों ही हृदय में/ बात वह जग के लिए अज्ञात होगी,/ खूब खुलकर तुम हृदय की बात करना/ बात निकलेगी तभी तो बात होगी|”  मानव जीवन में समाज की प्रासंगिकता इसलिए नहीं है कि लोग अपने अधिकारों के लिए ही लड़ें इसलिए भी है कि एक-दूसरे सम्पर्क में रहते हुए सुख-दुःख को साँझा करें| लेकिन ऐसा लोग आज के परिदृश्य में कम करने लगे हैं|
समाज तो दूर की बात है परिवार में भी संवादहीनता ने गहरे पैठ जमा लिया है| सम्वाद को आगे बढ़ाना कभी स्वभाव हुआ करता था मनुष्य का आज वह बदलकर विकृति का रूप धारण कर लिया है| चित्रांस की मानें तो “इस समय में भाव विकृत हो गए हैं/ शब्द है, पर शब्द के मानी नही है,/ और मन का व्याकरण इतना जटिल है/ आँख है, पर आँख का पानी नही है|” यह कम विडंबना की बात नहीं है कि हम हर किसी को नाराज देख रहे हैं लेकिन उनके जीवन में सम्वाद-शून्यता क्यों आई, यह पता लगाने की कोशिश नहीं कर रहे हैं| कभी तो जानवरों को अकेला देखकर हमारा हृदय फटा जाता था कहाँ तो मनुष्य को अकेला तड़पता देखकर हम खुश होने लगे हैं| इस प्रवृत्ति को छोड़कर यदि हम सम्वाद की स्थिति में आ जाएँ तो अवसाद, संत्रास और कुण्ठा जैसी मानसिक परिस्थितियां मनुष्य को न झेलना पड़े| पर इसके लिए हमें स्वयं पहल करना होगा| इस प्रवृत्ति का विकास हमें अपने अन्दर में करना होगा “स्वयं अपने  ही लगाए/ बंधनों को तोड़ देना,/ बेसुरी-सी ज़िंदगी को/ इक सुरीला मोड़ देना|” जिन्दगी से यहीं से गुलजार होती है और रूखेपन में भी उत्सव जैसा माहौल बना रहता है|  
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नवगीत विधा की अपनी सामर्थ्य और समझ है जिसे किसी विधा से कमजोर समझना उचित नहीं है| कुछ अटके-भटके लोगों को छोड़ दिया जाए तो इस विधा के रचनाकारों में छान्दसिकता को बचाए रखने के साथ-साथ सम्वेदनाओं को यथार्थ धरातल पर उकेरने की जिजीविषा है| जन से जुड़े रहने की छटपटाहट है तो जीवन की विविधता को व्याख्यायित करने की लालसा| पाठक दूर तक इनके साथ यात्रा करता है| यहाँ आदर्शों का जखीरा नहीं परोसा जा रहा है और न ही तो गुलमोहर, गुलाब, इत्र पर कविताई करने का शौक है| देह-दशा पर मुग्ध होने का बचकाना पन नहीं है और न ही तो सुंदरी के आँचल में छिपे रहने का लालच|
खुद के दुःख से दुखी होने की दशा में सम्पूर्ण संसार को दुःख के सागर में भिगो देने की पागलपंथी तो बिलकुल नहीं है और न ही तो अपनी ख़ुशी से सबकी ख़ुशी को आँक लेने की मूर्खता| जन से जुड़ाव है तो सीधे सम्वाद है उससे| वही अभिव्यक्ति में है जो व्यावहारिक है| सिद्धांत जैसा कुछ नहीं है यहाँ| जो सैद्धांतिक है वह गीतों आदि विधाओं के नामकरण में उलझा हुआ है| उसको न तो लोक से मतलब है और न तो परलोक से| उसकी अपनी दुनिया है जिससे न तो वह निकलना चाहता है और न ही तो कोई निकालने का जोखिम उठाना चाहता है| नवगीत विधा का सूक्ष्मता से अवलोकन करिए तो परिणाम यही निकलेगा कि “नवगीत की नवता समाज को सार्थक दिशा देने में सफल है|”




1 comment:

‘सज्जन’ धर्मेन्द्र said...

विषय को सार्थक करता बहुत ही विस्तृत और जानकारी भरा लेख है। समकालीन नवगीत में सामाजिक यथार्थ की अभियक्ति का बहुत अच्छा विश्लेषण किया है आपने। बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार।