सदानीरा
पत्रिका के माध्यम से आग्नेय और अविनाश मिश्रा की ऐसी कुकृत्य पर बहुत अधिक
हाय-तौबा मचाने की जरूरत नहीं है| यह सब होना था|
दरअसल इस सबकी भूमिका तभी शुरू हो गयी थी जब धूमिल ने "हर
तीसरे गर्भपात के बाद" स्त्री को धर्मशाला कहा था| तब
भी हमारे साहित्य के तथाकथित आलोचकों ने इसे कविता और राजनीति की यथार्थ
अभिव्यक्ति कहा था| आज जब सदानीरा के सहारे आग्नेय के इशारे
पर अम्बर पाण्डेय और मोनिका की 'गुदा' पर
कविताएँ आई हैं तो फिर से उसकी व्याख्या राजनीति और समाजनीति से की जानी शुरू की
गयी है|
दरअसल
समाज में कुछ ऐसे अय्यास हैं जिनकी दृष्टि में स्त्री एक योनि और गुदा से बढ़कर कुछ
है ही नहीं| ऐसे लोग ही आपको बलात्कार और रेप के विरोध में नारे लगाते हुए मिल
जायेंगे| असहिष्णुता के नाम पर पुरस्कार वापसी का नाटक करते दिख जायेंगे| इनकी ऐसी
हरकत को देखते हुए यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि सबसे बड़े बलात्कारी और
रेपिस्ट यही हैं| कविता में अभिव्यक्ति-स्वतन्त्रता के माध्यम से स्वच्छंदता की खतरनाक
प्रवृत्ति को बढ़ावा देने वाले ऐसे ऐय्यास साहित्यकारों को सडकों पर खींच कर लथेड़ा
जाए, विश्वास मानिए बलात्कार जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति कहीं न हो|
ध्यान
रहे इसके पहले शुभम श्री 'रोमालियुक्त
योनी वाली माँ' की रचना कर के स्त्री योनि के गहराई तक जाकर
ऐय्यासी का नमूना पेश किया था, मुझे जहाँ तक याद पोएट्री
मैनेज करने के एवज में उन्हें भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार से नवाजा भी गया था|
सरला माहेश्वरी जी ने उसके बाद की एक कविता में शुभमश्री पर एक
कविता भी लिखा| जड़ परंपरा पर क्रांति करती स्त्री तक करार दे
दिया था| उदय प्रकाश विधिवत इनको पुरस्कृत किये और यह दावा उनके अन्य समर्थकों
द्वारा किया गया की अब हिंदी कविता को वैश्विक हो जाना चाहिए| काव्यशास्त्र की परिकल्पना नए सिरे से की जानी चाहिए| वैश्विकता का
प्रमाण ‘स्त्री देह” की गहराई में प्रवेश करने से ही मिल सकता है, यह जड़ मूर्ख,
असभ्य और जंगली रचनाकारों से सीखा जा सकता है| इनका लोकतंत्र, इनकी सोच,
अभिव्यक्ति स्वतंत्रता यही है जो हम देख और पढ़ रहे हैं|
पिछले
दिनों मनीषा कुलश्रेष्ठ, गीता
श्री, उदय प्रकाश और भगवानदास मोरवाल जैसे सस्ते रचनाकारों
की सड़कछाप रचनाओं को केंद्र में रखते हुए मैंने एक लेख भी लिखा था| वहां भी देह-मर्दन-दर्शन से अधिक कुछ नहीं था| उनके
भी समर्थकों ने उन्हें समाज में घटित हो रहे यथार्थ का संवाहक कहा था| यहाँ जो है
उसे सब देख ही रहे हैं| चिंता करने की बात नहीं है| अभी आग्नेय आए हैं, कल उदय प्रकाश भी आ जायेंगे|
अशोक वाजपेयी भी कूद पड़ेंगे| दिल्ली के आधे से
अधिक साहित्यकार, संपादक, प्रकाशक उतर जायेंगे मैदान में इन्हें क्रन्तिकारी और
साहसी की भूमिका से नवाजने के लिए| जो इन ऐय्यास
साहित्य-गैंग के प्रतिरोध में बोलेगा वह या तो आरएसएस का कार्यकर्ता कहलायेगा या
फिर भाजपा का एजेंट अथवा पुरातनपंथी|
ये
प्रगतिशील हैं और यही इनकी प्रगतिशीलता| दरअसल सभ्य समाज के प्रति किया जाने वाला विरोध व्यक्ति को गंदे नाले में
ही गिराता है| इनका क्या ये तो कीड़े हैं कहीं भी गिरेंगे खाने-पीने-सोने भर का
खुराक पा ही जायेंगे| समाज को ये ऐसा ही (गंदे नाले के कीड़े के सामान) देखना चाहते
हैं| निर्वस्त्र, ऐय्यास, जंगली और यौन-रत भूमिका में सबको
मदमस्त रखना चाहते हैं| इनकी कविताओं को पढ़कर कविता और कवि जैसे शब्द को लिखते हुए
भी शर्म आ रही है| यह भी नहीं पता है कि ये इसी समाज के हिस्सा हैं या किसी और समाज
के| मुझे तो लगता है ये अपनी ऐय्यासियों की ही वजह से घर-परिवार-परिवेश से मारकर
भगाए गए हैं| अब कुछ नहीं बचा तो नंगा होकर ऐय्यासी पर उतर आए हैं|
दरअसल ये अकेले नहीं हैं| समकालीन
हिंदी साहित्य में इनकी पूरी जमात है| अभी पिछले दिनों नचिकेता की ऐय्यासी प्रवृत्ति
पर लिखा तो बहुत से महानुभाव यह कहते हुए पाए गए कि उनका भोगा हुआ यथार्थ है|
साहित्य में वैसा (सस्ता) लेखन करना साहस का काम है| अब महानुभावों को कौन कहे कि
कोरे और बिस्तर पर की गयी ‘उठापटक’ के यथार्थ की प्रस्तुति साहित्य नहीं
पोर्नोग्राफी है| अब जल्द ही साहित्यिक पोर्न स्टार का एक विज्ञापन दिया जाए
अखबारों में| इन सभी को अच्छा रोजगार तो मिल ही सकता है| आखिर है तो यथार्थ ही| जब
यथार्थ को कविताओं और कहानियों के जरिये पाठकों सौंपा जा सकता है तो इस क्षेत्र
में भी हाथ आजमाना चाहिए|
इधर साहित्य अकादमियों को भी इस
विषय में गंभीर चिंतन करना चाहिए| उन्हें “पोर्न साहित्य फेस्ट” के आयोजन पर विचार
करना चाहिए| एक पुरस्कार समिति का गठन भी किया जाना चाहिए जिसके प्रमुख निर्णायक
मंडल में उदय प्रकाश, अशोक वाजपेयी जैसे वरिष्ठ रचनाकारों को शामिल किया जाना
चाहिए| यह एक सुझाव भर है| यदि इनसे भी अच्छा कोई निर्णायक मिल सके (मुझे तो नहीं
दिखाई दे रहा है) तो आप स्वतंत्र हैं उसे चुनने के लिए|
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