निर्मला पुतुल की
भाजपा में शामिल होने की खबर लगभग सच है (स्पष्ट कुछ भी नहीं)। आज तीन-चार दिन से
सूची-वीरों में शामिल कुछ लोगों की नींद उड़ी हुई है। पता नहीं घर का चूल्हा जला भी
है या उपवास पर हैं बिचारे। यदि ऐसा है तो यह निर्मला पुतुल की व्यक्तिगत फैसला है
जिसे मैं हर दृष्टि से उचित मानता हूँ। जहां हैं निष्पक्षता से हैं। कम से कम
उनमें तो नहीं ही हैं जो एक तरफ तो विरोध करते हैं तो दूसरी तरफ
पद-प्रतिष्ठा-मान-सम्मान-मंच के लिए लालायित रहते हैं।
अब नाम तो बहुत हैं जिन्हें आप सभी समय-समय पर देख पहचान रहे हैं।
कहने की जरुरत अलग से
नही है। फिर भी एक नाम आप सभी के सामने रख ही देता हूँ। रमेश कुंतल मेघ जी से आप
सभी परिचित हैं। अघोषित मार्क्सवादी ये स्वयं को कहते रहे हैं बड़े मंचों से| इनके
पक्ष को लेकर भी कोई भ्रम की स्थिति शायद न हो लेकिन साहित्य अकादमी का पुरस्कार न
सिर्फ लिया इन्होंने अपितु मंच से यह भी कहा कि अकादमी की निष्पक्षता पर गर्व है
मुझे। पुरस्कार गैंग इनके पीछे भी पपड़ा लेकिन इन्होंने उसे लेने से इनकार करना उचित
नहीं समझा|
अब इनकी उम्र अधिक हो गयी है| लम्बे अधिक होने के कारण चलते हैं तो
झुक कर चलते हैं यूं कहें कि चल-फिर ठीक से नहीं पाते तो ज्यादा उचित होगा|
हरियाणा ग्रन्थ अकादमी और साहित्य अकादमी के कई कार्यक्रमों आप इन्हें शामिल हुए
पा सकते हैं| चंडीगढ़ में हुए राष्ट्रीय साहित्य अकादमी दिल्ली के युवा महोत्सव में
इनकी हास्यास्पद स्थिति देखने को तब मिली जब मैं भी युवा रचनाकारों को सुनने के
लिए पहुंचा हुआ था| आयु से बहुत बड़े और बुजुर्ग वाम रचनाकार की दयनीयता उस समय
मुझे सोचने पर विवश कर गयी जिस समय विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी को देखते ही कुर्सी
छोड़कर खड़े हो गए और उन्हें बैठने का आग्रह करने लगे। यह तो विश्वनाथ तिवारी जी थे
जो ऐसा आग्रह स्वीकार नहीं किये और इन्हें बैठने के लिए निवेदन करते रहे|
सवाल यह है कि यह
दयनीयता क्या वैचारिकता की दयनीयता थी? नहीं।
उस चेक की दयनीयता थी जो कुछ समय बाद उन्हें मिलनी थी। उदय प्रकाश की स्थिति भी
किसी से छिपी नहीं है। ऐसा भी बताया जाता है कि उदय प्रकाश उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक के हाथों पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं| आप रूपसिंह चन्देल दादा से ऐसे तमाम संस्मरण सुन सकते हैं।
ऐसे और भी नाम हैं जो मंच से
घोषित वाम विचारक होने का दावा करते हैं लेकिन जहां कुछ मिलना होता है उसी के हो
भी जाते हैं। अब यह सूचिबाजों का ही गैंग है जो किसी के ऊपर फतवा जारी कर
हुक्का-पानी बंद करने का ऐलान करता दिखाई देता है| इन्हीं गैंग कुछ ऐसे शातिर लोग
हैं जो मंचों पर इसलिए पहुँच जाते हैं कि किसी तरह घर का खर्चा चले, जबकि वहां से
आने के बाद तर्क देते हैं कि हमने खूब धोया मंच से भाजपाइयों को| अब ऐसे नामों का
क्या करियेगा|
इसलिए हे सूचीबाजों
कुछ बनाओ-खाओ। भूखे रहने से कुछ नहीं होने वाला। जिसको जो करना है वह करेगा ही।
तुम्हारे बन्दरबांट के झाँसे में कोई कैसे आएगा भला? खुद तो ऐश करोगे चंदे के पैसे से और दूसरे को क्रांति-भरम में मरने-खपने
का उपदेश दोगे। यह कब तक चलेगा आखिर? जनता सब समझती है भाई| वह जान गयी है कि तुम
सभी कितने निष्पक्ष हो|
महादेवी वर्मा के शब्दों में कहूँ तो -
रहने दो हे देव अरे यह मेरे मिटने का अधिकार।
रहने दो हे देव अरे यह मेरे मिटने का अधिकार।
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