Tuesday 11 May 2021

वायरस से कहीं ज्यादा विष विचारों में है (कोरोजीवी कविता और गणेश गम्भीर के नवगीत)

 

कोरोजीवी कविता दुखी मनुष्य का आर्तनाद है| वेदना से ग्रसित उस आदमी का बयान है जिसका न तो देश है, न सरकार है और न ही तो कोई व्यवस्था है| वह ‘स्वयं से’ है तो है अन्यथा नहीं है| यह कविता अंतिम पायदान पर खड़े उस मनुष्य की संवेदना है जो समाज द्वारा निर्मित तमाम व्यवस्थाओं के लिए महज एक देह है “नाम कुछ भी हो” हलकू हों, शंकर हों या मुहम्मद जमालुद्दीन हों| कवि गणेश गंभीर जैसा सिद्धस्थ नवगीतकार ही यह बता सकता है कि पूंजीपतियों के लिए “देह थे वे/ देह हैं वे” जिनसे काम लेते हुए वह अपना उत्पादन बढ़ाना जानता है| एक कवि या साहित्यकार के लिए “भूख थे वे/ भूख हैं वे” जिनका वर्णन करते हुए वह साहित्य अकादमी पा सकता है और समाज में वाहवाही लूट सकता है| मल्टीनॅशनल कंपनियों के लिए “माल थे वे/ मॉल हैं वे” जिनकी नुमाइंदगी करके वह ‘लोक’ को अपने लोभी और सोथक पंजों में दबोच सकता है| राजनीति के लिए “लाश थे वे/ लाश हैं वे” जिनके विषय में चुनाव शुरू होने के पहले और समाप्त होने के बाद वह ‘लाश’ महज आंकड़ा है| 


बाद उसके घर से बाहर किये गये लोग असम भाग रहे हैं या फिर प्रायोजित हिंसक भीड़ द्वारा बंगाल में मारे जा रहे हैं, इसका संज्ञान लेने वाला कोई नहीं| “लाशों का उत्पादन-विपणन/ खूब हो रहा आज/ एक तरफ हैं गिद्ध सैकड़ों/ एक तरफ हैं बाज़” और आम आदमी महज पक्ष-विपक्ष की नीति में महज लाश है जिसको दोनों अपनी-तरह से नोचते-खाते हैं| सच यह भी है कि जिनके जरिये तमाम व्यवस्थाएं निर्मित हुईं “वे थे दुनिया के लिए/ उनके लिए दुनिया न थी” रेल की पटरियों पर कट रहे हैं या फिर तपती सडकों पर चलते हुए ट्रकों द्वारा कुचले जा रहे हैं, किसी के लिए किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं| ऐसे लोग देश-समाज-परिवेश को सुंदर से सुन्दरतम बनाने के लिए सक्रिय रहे लेकिन अफ़सोस यह कि “दे न पायी ज़िन्दगी/ उनको कभी भी ज़िन्दगी|’ हजार स्वप्नों को लिए स्वप्न हो जाने वाले ऐसे लोगों के लिए “साजिश-भगदड़/ भय-भावुकता/ होना घर से बेघर” ही नियति है तो इस नियति में स्वयं के होने को लेकर पश्चाताप ही त्रासदी| 

मनुष्यता संकट में है| ‘भूख’ का यथार्थ लिखकर एक कवि बड़ा बन सकता है लेकिन भूख का इलाज खोजकर मानवीयता को ऊंचे स्थान पर काबिज किया जा सकता है| इस समय बड़ा बनने की जरूरत नहीं है| मानवीयता को ऊंचा उठाने के प्रयास की आवश्यकता है| भूख का बन्दोबस्त यदि हो जाए तो तो सारे क़ानून, सारे नियम आसानी से माने


जाएं| यदि भूख पर कंट्रोल नहीं है तो “भूख मिलेगा जब भी अवसर/ तोड़ेगी क़ानून/ उसकी आँखों में दिखता है/ गुस्सा-नफ़रत-खून|” “भूख कोरोना से भी ज्यादा/ बड़ा भयानक रोग” है| यदि इससे लड़ा जा सके तो कोरोना के लॉकडाउन की अनुपालना करने में किसी को क्या दिक्कत हो सकती है? इसलिए भी क्योंकि “पेट की ज्वाला बुझाना/ काम उनका रोज का” तो सबको रोक लोगे लॉकडाउन में लेकिन उनका क्या होगा जो दिहाड़ी पर अपना पेट पाल रहे हैं?

कोरोजीवी कविता शब्दगत न होकर संवेदनागत है| बोलती कम दिखाती ज्यादा है| इस समय लोग सुन नहीं रहे हैं महज देख रहे हैं| सब कुछ जैसे संकेतों में घटित हो रहा है| गणेश गम्भीर मितभाषी हैं| सधे बिम्बों और प्रतीकों के कवि हैं| समकालीन विमर्श-विन्दु की सूक्ष्म परख इनको ‘गम्भीर’ बनाती है तो ईमानदार अभिव्यक्ति जिम्मेदार कवि-रूप में सक्रिय रखती है| पक्ष-विपक्ष के बीच जारी आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति को देखते हुए गणेश गम्भीर मानते हैं कि “लॉकडाउन फँस चुका है/ दुष्प्रचारों में|” वह यह भी मानते हैं कि “वायरस से कहीं ज्यादा/ विष विचारों में है|” ‘विचार’ एक ऐसी स्थिति है जो गलत दिशा में चल जाए तो चेतनाशील बनाने की अपेक्षा मनुष्य को ‘जड़’ बना देती है| 

किसी विशेष के द्वारा जो कहा जाता है अक्सर उसका गलत अर्थ प्रचारित करने के पीछे इसी जड़ता का हाथ है| आपदा में अवसर’ और ‘आत्मनिर्भरता’ जैसे शब्द इसके ज्वलंत उदाहरण हैं| वर्तमान षड्यंत्रकारी राजनीति की भाषिक संरचना को देखिये तो “शब्द/ अर्थों से विमुख हैं/ दुःख


में डूबे सभी सुख हैं|” सही अर्थों में वायरस की दवा तो फिर भी किया जा सकता है, विचारों की नहीं| जिन विचारों को भाईचारा, समन्वय और समता के लिए कार्य करना चाहिए गणेश गंभीर की दृष्टि में वही बांटने का कार्य कर रही हैं| भारत तेरे टुकड़े होंगे’ ‘भीम-मीम’ जैसी अराजक स्थितियां इन्हीं विचारों की देन हैं| इनकी यथार्थता पर विचार करते हुए क्या इससे इंकार किया जा सकता है क्या कि “सड़े दिमागों में सदियों से/ पनप रहे हैं कई वायरस/ मानवता का चूस रहे हैं/ धीरे-धीरे, बूँद-बूँद रस”, नहीं कर सकते क्योंकि आप यदि वैचारिक दुराग्रह से इन्हें मेट भी दें तो इनके यथार्थ के “इतिहासों से साक्ष्य मिलेंगे|”  
 

यथार्थ परिदृश्य को देखते हुए जब गम्भीर कहते हैं कि “साजिशें कुछ/ निडर होकर/ हँस रही हैं/ मृत्यु बोकर” तो तमाम दंगों की तस्वीर आँखों के सामने नाच पड़ती हैं और निरपराध उजड़े घरों में छाई अँधेरी जकड़ने लगती है| यह कितनी विसंगति की बात है कि जिस संकट के समय वैचारिक परिपक्वता का परिचय देना चाहिए उसी विपदा के समय “वैचारिक-मल ग्याग रहे हैं/ कतिपय अफलातून|” ये वही अफलातून हैं जो एक दिन पहले कहते हैं कि देश में सम्पूर्ण लॉकडाउन लगना चाहिए (4 अप्रैल, 2021 को राहुल गांधी लॉकडाउन के पक्ष में 5 अप्रैल, 2021


को लॉकडाउन के विरोध में) और ठीक दूसरे दिन यह कहते हुए पाए जाते हैं कि हम लॉकडाउन के पक्ष में नहीं हैं| एक बार सभी मिलकर कहते हैं कि वैक्सीनेशन नहीं करवाना है और जब वैक्शीन एक्सपायर होने के करीब दूसरे देशों में भेजी जाती है तो शोर मचाते हैं| दिल्ली जैसे केन्द्रशासित प्रदेश के मुख्यमंत्री का यह कहना कि “मैं मुख्यमंत्री रहते हुए कुछ नहीं कर पा रहा हूँ” ऐसे ही अफलातूनों का यथार्थ है| इनसे सर्वथा बचाव ही कोरोना जैसी भयंकर त्रासदी से निपटना है|

कोरोजीवी कवि ‘कबीर’ की तरह महज समस्याओं का रोना ही नहीं रोते अपितु उसके समाधान का विकल्प भी देते हैं| गणेश गंभीर मानते हैं कि इस भागते हुए समय में ठहराव संजीवनी का कार्य कर सकता है| जिन्हें जल्दबाजी है उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि “आतुरता से हो सकता है/ अब तक जो भी किया निरर्थक” इसलिए सरकारों और पुलिसों के लिए नहीं अपने लिए रुकना और ठहरना चाहिए| गणेश गम्भीर का यह कहना हमारे लिए शिक्षाप्रद है कि “आगे की


यात्रा हो सम्भव/ इसके लिए जरूरी रुकना/ सावधान रहना ही होगा/ दुर्घटना से यदि है बचना|” हमनें जब भी जल्दबाजी की है भयंकर त्रासदियों के शिकार हुए हैं| यदि समझने और देखने की स्थिति स्पष्ट है, तो आज भी शिकार हो रहे हैं, यह देखा जा सकता है| क्या यह जल्दबाजी का परिणाम नहीं है कि कोरोना को कंट्रोल करने की “कोई कोशिश काम न आई/ निष्फल सारे दाँव”? यह समझिये और समझते की कोशिश करते रहिये| दूसरों को भी प्रेरित करिए|

 

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