अब मुझको पवन बन जन होगा
अब मुझको पवन बन जाना होगा
कितना दूर कितना पास
कौन कहाँ कब रखता है आश
पास पहुँच सबके अब मुझको
समाचार कुछ लाना होगा
अब मुझको पवन बन जाना होगा
कितनी खुशियाँ किसके घर हैं
कौन सचेत कौन बेखबर है
किसको कौन आता है रास
सोंच समझ मुझको ही अब
एक आंकडा नया बिठाना होगा
अब मुझको पवन बन जाना होगा
कहाँ रही बह नीर-नयन
सहत रहत जन भूख-शयन
रहा तड़प कौन प्यास से
कुछ पानी दाना पहुँचाना होगा
अब मुझको पवन बन जाना होगा
सो रहे जो प्रेस वाले हैं
राजगद्दी पर बैठे मतवाले हैं
उनके मन को पकड़ एक दिन
इन सुनें नगर को दिखलाना होगा
अब मुझको पवन बन जाना होगा ................. ।
कितना दूर कितना पास
कौन कहाँ कब रखता है आश
पास पहुँच सबके अब मुझको
समाचार कुछ लाना होगा
अब मुझको पवन बन जाना होगा
कितनी खुशियाँ किसके घर हैं
कौन सचेत कौन बेखबर है
किसको कौन आता है रास
सोंच समझ मुझको ही अब
एक आंकडा नया बिठाना होगा
अब मुझको पवन बन जाना होगा
कहाँ रही बह नीर-नयन
सहत रहत जन भूख-शयन
रहा तड़प कौन प्यास से
कुछ पानी दाना पहुँचाना होगा
अब मुझको पवन बन जाना होगा
सो रहे जो प्रेस वाले हैं
राजगद्दी पर बैठे मतवाले हैं
उनके मन को पकड़ एक दिन
इन सुनें नगर को दिखलाना होगा
अब मुझको पवन बन जाना होगा ................. ।
मंगलवार, 18 मार्च 2008
ऐसी आए मेरी रानी
हे इश्वर भगवन प्रभु
हे मावा महरानी
करो ऐसा जुवाड
जेसे आवे हमारो रानी
गोरी हो या वो काली
पर लगे सदा भौकाली
लहंगा पहने गोरखपुरिया
नथुनी राजस्थानी
पैर जुडा हो दोनों तन से
एक हो छोटा एक बड़ा
निकुरा हथिनी सूंड के जैसी
हो एक आँख की कानी
नाक निकुरे से छूती रहे
घूमें जूठ लगाए मुख में
चले जिधर भी करें घृणा सब
पर समझे वो ख़ुद को रानी
जब भी निकले घर से वो
कीचड तन में लगा रखे
तन भी फूली हो मुर्रा भैंसों सी
बैठत होवे परसानी
गर ऐसा प्रभु हो गया तो
होगी सटी सावित्री ही वो
बची रहेगी बुरी नजरों से सबके
मैं बना रखूंगा उसे अपनें महलों की रानीं
हे इश्वर भगवन प्रभु ..................... ।
हे मावा महरानी
करो ऐसा जुवाड
जेसे आवे हमारो रानी
गोरी हो या वो काली
पर लगे सदा भौकाली
लहंगा पहने गोरखपुरिया
नथुनी राजस्थानी
पैर जुडा हो दोनों तन से
एक हो छोटा एक बड़ा
निकुरा हथिनी सूंड के जैसी
हो एक आँख की कानी
नाक निकुरे से छूती रहे
घूमें जूठ लगाए मुख में
चले जिधर भी करें घृणा सब
पर समझे वो ख़ुद को रानी
जब भी निकले घर से वो
कीचड तन में लगा रखे
तन भी फूली हो मुर्रा भैंसों सी
बैठत होवे परसानी
गर ऐसा प्रभु हो गया तो
होगी सटी सावित्री ही वो
बची रहेगी बुरी नजरों से सबके
मैं बना रखूंगा उसे अपनें महलों की रानीं
हे इश्वर भगवन प्रभु ..................... ।
ऐसी आएगी मेरी घरवाली
स्वच्छ सुसज्जित सुनायनों वाली
आएगी मेरी घरवाली
मुख पर तनिक भी बात ना होगी
चमकेगी होठों पर लाली
थोडी सी वो गोरी होगी
हल्की ही सी सावली
पतली सी सारी पहनकर
कर देगी सबको बावली
उसकी भोली सी सूरत पर
हो जाऊंगा मैं कुर्बान
चाहे चर लात रोज ही मारे
जोहूँगा मैं उसकी मुस्कान
नाकों में नथुनी होगी
और कानों में लतकेगी बाली
सासु जी को हर समय तोदेगी
और श्वसुर को देगी गाली
कहते कविराज वो मायावी होगी
होगी चर घूँसा खानें वाली
अवगुण तो उसके पैरों तल होगी
ऐसी आयेगी मेरी घरवाली
ऐसी आएगी मेरी घरवाली .......... ।
सोमवार, 17 मार्च 2008
अगर कहीं कुछ हो जाता है
अगर कहीं कुछ हो जाता है
गजब की चिंता होती है मन में
हलचल सी उठ पड़ती है
हलचल सी उठ पड़ती है
एक मार्ग से हटते हटते
आँखें भी रो पड़ती हैं
पर धैर्य खो देता है तन
मन शांत नहीं रह पता है
अगर कहीं कुछ हो जाता है
लाखों करोरों भावनाएं
लेकर आसमा में चक्कर लगाते हैं
एक बार अंतरिक्ष पहुंचकर
धरती वापस आते हैं
मुख्य बिन्दु पर चलते चलते
बुद्धि ही खो जाता है
अगर कहीं कुछ हो जाता है
रहता एक कहीं अगर तो
चार उसे मैं बनता हूँ
अपनी झूठी खबरें देकर
सबको खुश कर जाता हूँ
पर मजबूरी हो चली यहाँ पर
असत नहीं छिप पता है
अगर कहीं कुछ हो जाता है
किसी हादसे में कहीं से
आलसी अगर आ जाता है
ch च करते करते वहाँ
ख़ुद घायल हो जाता है
अन्ताहल में आकर सबको उस पर रोना पड़ता है
अगर कहीं कुछ हो जाता है
कुछ अच्छे कुछ बुरे जुटते
रहते उस शोकापन में अपनी बीती बातों को
कह जाते एक घतानापन में
वो विचरते देते सुख हम पर
कह जाते एक घतानापन में
वो विचरते देते सुख हम पर
दुःख ही उनको मिलता है
अगर कहीं कुछ हो जाता है
कुछ सहकारी कुछ ग्रामीनी
आ जाते दो जन के गम में
कुछ घूसखोरी कुछ खिश्निपोरी
कर जाते उनके अंधेपन में
चिंता मुझको इस पर होता है
जल्द मानव घबडाटा है
अगर कहीं कुछ हो जाता है
अपनें विगत गत जीवन को वो
खुश्खोरों को बताते हैं
स्थ घूसखोरी के कारन
एक को चार बनाते हैं
सब बातों को छोड़ जवान दिल
इनकी बातों में उलझता है
अगर कहीं कुछ हो जाता है ................ ।
सोमवार, 3 मार्च 2008
और दे जायेंगे काम यही १०-५ रुपये
अब नहीं सहा जाता और ना ही तोदेखा जाता है आर्थिक तंगी
की दशा । जैसे जैसे दिन बढ़ रहे हैं , उम्र बढ़ रही है ऐसा आभाष होता है की
ये आर्थिक समस्याएं पूरी तरंह से हमें अपनी गिरफ्त में लेती जा रही हैं।
जबकि ऐसा नहीं है कि इससे मैं ही दुखित हूँ या ये कि मैं ही झेल रहा हूँ ।
भोग रहा हूँ। इस दशा को इसके पहले भी हमारे ही दादा, बाबा, यहाँ तक कि बड़े
भाई तक इस तंगी से मुखातिब हो चुके हैं । और जैसा कि अब भी झेल रहे हैं ,
हालांकि वैसी मुसीबत मेरे ऊपर नहीं आयी पर आज ये भी नहीं कह सकता कि मैं एक
एक पैसे के लिए नहीं सहका । आज मैं विद्यार्थी जीवन का निर्वहन कर रहा हूँ
,कहा जाता है कि विद्यार्थी जीवन सबसे सुखमय जीवन होता है। ना कूँ चिंता
और ना ही तो कोई फिक्र । खासकर आजके इस फैश्नबुल जमानें में तो और भी सही
है । पर ऐसी स्थिति में पैसे के मत्वा को तो नजरंदाज नहीं किया जा सकता ।
जब तक जेब में १०-५ रुपये नहीं होते न तो किताब नजर आती है और ना ही तो कुछ
पढ़नें का दिल करता है। वैसे भी १०-५ रुपये आज के इस महंगाई के दौर में
कोई मायनें नहीं रखता पर कहीं भी बैठ जाओ एक दोस्त के साथ तो २०-२५ के करीब
वैसे ही पड़ जाते हैं । पर क्योंकि कोई साधन नहीं है, कोई विशेष आश्रय नहीं
है और ना ही तो पिता की कमाई । माँ है जिसका ख़ुद का खर्चा अपाध है ,बड़े
भाई तो हैं पर क्योंकि १८ की उम्र पार कर चुका हूँ अब वह बचपना भी नहीं
रही कि जिद करके या रो के ले लूँ, मांग लूँ। बडा हो गया हूँ और स्वाभिमान
का अभिमान । १०-५ ही मेरे लिए बहुत है और कोशिश करता हूँ कि ये बचे रहें
खर्च न हों । पर फ़िर भी कमबख्त यूँ ही आँख के सामनें से ख़ुद के ही हाँथ से
स्वयं के जेब से निकलकर चले जाते हैं दूसरों के पास ।
पहले (बडे भाई के पास रहते हुए)समोसे अच्छे लगते थे ,न्यूदाल्स और मंचूरियन प्यारे लगते थे । वर्धमान मंदी
में जाकर गोल गप्पे खाना तो एक परिवेश ही बन गया था मेरा। पर वही जब अब
कहीं दिखते हैं तो तुरंत मन मचल जाता है। पहुँचनें की एक कोशिश तो करता हूँ
उनके पास पर असफल क्योंकि वही १०-५ अगर बच जाते हैं तो दूसरे दिन मिर्चा आ
जाएगा , या फ़िर एक्शातेंशन लाइब्रेरी में २ रुपये साइकिल स्टैंड के लगते
हैं और दी जायेंगे कम यही १०-५ रुपये । ऐसी स्थितियां प्रायः लोगों के पास
कम ही आती होंगी पर हमारी तो दिनचर्या ही इसी से सुरु होती है। अर्थात सुबह
से ही १०-५ रुपये को बचानें का उपक्रम करता रहता हूँ और शाम होते होते
२०-२५ रुपये खर्च होकर अंततः एक दिशाहीन मोड़ पर आकार सोंचानें के लिए
मजबूर हो जन पड़ता है।
आज नंददुलारे वाजपेयी द्वारा लिखित पुस्तक कवि निराला पढ़
रहा था और क्योंकि निराला की दिनचर्या भी लगभग इसी लहजे में हुआ करती थी
प्रारम्भ और यह जानने पर कि निराला का दानी स्वभाव बहुत हद तक उनकी अर्थ
समस्या थी " रिक्शे वाले या पं वालों को पैसा देकर वापस न लेना उनका स्वभाव
नहीं अपितु कट जाता था उसमें जिसे प्रायः वे उधार(कर्ज) लिए रहते थे । खीझ
उत्पन्न हुयी सम्पूर्ण मानवीयता पर पर यह जानकर कि आर्थिक दुर्दशा अन्य
दुर्दाषाओं से प्रायः थिक हुआ कराती है अपनें आप को समझाते हुए यह एक लेख
लिखना ही उचित समझा। ......................
हमपे क्या गुजरेगी जब हम उस गुरु को छोड़कर नव जीवन के नव आँगन में प्रवेश करेंगें ?
कादम्बनी के "आयाम" स्तम्भ में प्रकाशित विश्वनाथ त्रिपाठी की प्रायः गद्य विधा के संस्मरण विधा में रची रचना या आत्मीय लेख ,"उन छात्रों की याद आती है" पढ़कर सहज ही यह बात स्पष्ट हो जाती है कि गुरु गुरु ही होते हैं उनका स्थान तो कोई और ले ही नहीं सकता । एक स्थान पर वे जब कहते हैं,"गुरु माँ-बाप नहीं होता"तो मुझे ऐसा लगा जैसे कोई बहुत बडा रहस्य आज की पीढ़ी से, खासकर हम नवयुवकों से छुपाकर रखा जा रहा है । पर जब उसी अंदाज में आगे वे लिखते हैं,"वह कुछ ऐसा भी होता है, जो माँ-बाप नहीं होते" तो मुझे अपना छात्र जीवन याद आ जाता है । जो अब भी मैं अपनें उसी गुरु के संरक्षण में छात्रीय जीवन को न सिर्फ़ जी रहा हूँ अपितु उसका आनंद उठा रहा हूँ। श्रीमान त्रिपाठी जी जिस तरंह आपका श्री प्रकाश अपने घर के समस्याओं से आहत था ठीक वही दशा आज हमारी है। फर्क तो सिर्फ़ इतना है कि उसके पास आप गुरु विश्वनाथ त्रिपाठी थे और मेरे पास गुरु सुनील अग्रवाल जी जो कमला लोह्तिया सनातन धर्म कालेज( लुधियाना) के राजनीती शास्त्र के प्रमुख अध्यापक हैं। वह समस्याएं आपको सुनाता था मैं सुनील सर को ।
पर
निहायत ही आज के इस समय में बहुत से विद्यार्थी ऐसे होते हैं जो न तो अप
जैसे गुरु का दर्शन ही कर पते हैं और ना ही तो अपने आपको ऐसे छात्र के रूप
में प्रस्तुत ही कर पाते हैं जिससे कि गुरु और शिष्य के उस सम्बंध को एक उए
"आयाम"तक पहुँचाया जा सके । बात तो यह भी सही है कि "सभी छात्र इतनें
प्रिय और आत्मीय नहीं होते" क्योंकि
आज वे शिक्षा को शिक्षा की तरंह नहीं अपितु व्यावाशय के रूप में ले रहे
हैं । और ऐसी स्थिति में तो जो गुरु शिष्य परम्परा का केन्द्र होता है संवाद पूर्ण रूप से टूट गया है।जहाँ एक अध्यापक को अपने सिर्फ़ ४५ मिनट के लेक्चर से मतलब होता है वहीं विद्यार्थी का उस प्रणाली के डेली अतैन्देंस से
यथास्थिति तो आज ये कहती है की अध्यापक जन अपना अध्यापकत्वा ही खोते जा
रहे हैं । अब तो आप जैसे लोग जो यह कहते हैं ," विश्वविद्यालय में क्लास
लेनें के बाद तीसरे पहर , मैं अक्सर छात्रों के साथ बैठकर गप मरता था ।" न
होकर ऐसी श्रेणी के अध्यापक प्रायः हो रहे हैं जो उतने समय गप मरनें के भी
शुल्क (फीश) ले लिया करते हैं अन्यथा इस रूप में उनके पास नहीं बैठते की
उनके लिए उनके परिवार से ही फुरसत नहीं है।
पर
हकीकत यही तो नहीं है । संवाद का जरिया यहीं से टू खत्म नहीं हो जाता। एक
अनजानें अंचल पर रह रहा छात्र जिसका प्रायः ना तो उसका वहाँ घेर होता है और
ना ही तो उसका अपना जन्मभूमि । होते हैं तो आप ही "जो कुछ ऐसा भी होता है
जो माँ -बाप नहीं होते ।" ऐसी स्थिति में वह विद्यार्थी स्वार्थी तो नहीं
कह सकता पर अभागा जरूर हो सकता है जो अपनें गुरु नहीं गुरु के रूप में पाया
हुआ माता-पिता को अपना हाल नहीं देता और ना ही तो उसका लेता है ।वे शायद
यही भूल जाते हैं की "माँ-बाप का दुःख असहनीय होता है, वे रोते धोते भी
हैं"
वास्तव में जब आप कहते हैं,"मेरे अनेक
विद्यार्थी ऐसे भी थे, जो हमें बीच में ही छोड़कर चले गए । निहायत आत्मीय,
प्रतिभाशाली छात्र । उनकी याद से हूक सी उठती है । हमारी स्मृत चेतना विवश
चीख करती है और चुप हो जाया कराती है ।" मैं प्रतिभाशाली होनें की तो आशा
नहीं कर सकता और ना ही तो यह कह ही सकता हूँ की आपके श्री प्रकाश और अन्य
विद्यार्थियों की तरंह गुरु की पवित्र आत्मा में जगंह ही बना पाया हूँ पर
एक बात जो मुझे सालती है वह यह की आप तो गुरु हैं, अर्थात माता-पिता,
जिन्हें गमों और दुखों को सहेना लगभग एक आदत सी बन गयी होती है , किसी तरंह
उनके बिछुदन को सह भी लेते हैं , पर मैं या मेरे जैसे अन्य छात्र जब आप और
सुनील सर जैसे माता के आँचल और पिता के प्यार को सिर से उठाते देखते होंगे
या आभाष करते होंगे तो उनका क्या होता होगा ? आपकी इस रचना को पढ़कर
वास्तव में ह्रदय द्रवित हो गया है। आँखें नम हो आयी हैं । इसलिए तो हई है
की आप के दिल पर व आप पर क्या गुजरती होगी जब हर साल ऐसे शिष्य को विदा
करते होंगे , इसलिए भी की हमपे क्या गुजरेगी जब हम उस गुरु को छोड़कर नव
जीवन के नव आँगन में प्रवेश करेंगे ? क्या उस समय भी आप जैसे गुरु या सुनील
सर जैसे गुरु हमें मिल पायेंगें ? जो "छात्रों के साथ क्लास लेनें के बाद
तीसरे पहर में अक्सर बैठकर गप मारा करें."
बुधवार, 13 फ़रवरी 2008
जहाँ पढ़ना और पढाना ही सब कुछ होता है...
आज कई दिनों से जब मैं स्व-वेदना और पारिवारिक दुर्दांत के ग्रसन से मुक्त हो अपने अध्ययन कार्य में पुनः व्यस्त हो चुका हूँ, तबसे मेरे कुछ दोस्त अक्सर ये कहते हुए, और जैसा की मैं भी मनता हूँ कि मैं कालेज बराबर नहीं आ रहा हूँ। यदि आ भी रहा हूँ तो लगभग क्लासों में बंक मार जाता हूँ । मेरे चाहने वालों में तो कई लोग यह भी कहते हुए नहीं हिचकते कि कहीं मैं "इलाहबाद "में चल रहे "नहावन" में तीर्थ यात्रा करनें तो नहीं गया था। सही है उन सब का सोंचना, और जाहिर है ऐसे प्रश्नों का उठना । दरअसल अबतो मैं भी मनता हूँ कि मैं तीर्ता यात्रा में नहीं पर तीर्थ-स्थल
पर जरूर रहता हूँ । जहाँ पर कभी कभी मुझे इलाहबाद के ;"शास्त्री पुल"पर "
निराला" की "वह तोड़ती पत्थर"वाली औरत भी मिल जाया करती है और कभी कभी
मुंशी प्रेमचंद के "गोदान" का होरी गऊ दान
के स्वप्न लिए उसी तट पर दिखाई देता है । जहाँ दिनकर के "रश्मिरथी" का
कर्ण दलितों के उत्कर्ष के लिए हांथों में अर्ध लेकर सूर्य से प्रार्थना
करते हुए दिखाई देता है वहीं अज्ञेय के "हरी घांस पर क्षण भर" के लिए बैठे एक प्रेमी जोडा यह सोंच कर उठता हुआ प्रतीत होता है कि कहीं ये ईर्ष्यालु समाज उनको कुछ और न समझ बैठे ।
इस तीर्थ-
स्थल की जीतनी भी प्रसंसा की जाए उतनी ही कम है । क्योंकि यहाँ पर हमारी
संस्कृति है , सभ्यता है , परम्परा का निर्वहन कराने के लिए नए और पुराने
व्यक्तियों के बीच संवाद का जरिया है और है जीवन को जीने की कला । एक
ऐसी कला जिसमें मार्क्सवाद के दर्शन यदि आर्थिक समस्याओं के हल खोजने की
प्रेरणा देता है तो गाँधी जी के विचार उसको पाने का तरीका बतलाता है । जहाँ
कबीर दास ,"का बाभन का जुलाहा" कहकर समाज में भाईचारा को बढ़ने
और जाती-पांति को ख़त्म कर देना चाहते हैं वहीं घनानंद जी यह बतानें के
लिए उद्यत हो रहे हों कि इस मार्ग पर चलने का एक ही तरीका है और वह है प्रेम । एक ऐसा प्रेम "जहाँ सांचे sचले तजि अपुनपौ झाझाकी कपटी जे निसाक नहीं।"
यहाँ
मोहन राकेश के "अशाध का एक दिन"से संवाद करती मुक्तिबोध की "अंधेरे में
"खड़ी कविताएँ है जो पूर्ण होते हुए भी मोहन राकेश के दुनिया में "आधे अधूरे
" हैं। यहाँ पर आशा है, निराशा
है , वेदना है संवेदना है और है फणीश्वरनाथ रेणू की आंचलिकता । "मैला
आँचल" "परती-परिकथा"यदि जीवन की वास्तविकता पर आने के लिए मजबूर कर देती
हैं तो "रस्प्रिया", "तीसरी कसम", "आदिम रात्रि की महक",तथा "संवदिया"
मध्यम से श्रद्धालु परदों के पीछे छुपे हुए सत्य को पहचानकर मानवीय
संवेदना को वेदना के स्वर से भर कर समाज में नव क्रांति लाने को उद्यत हो
उठता है । जहाँ पर हर कोई ऐसे पवित्र स्थल पर मत्था टेक कर जतिवादिता और
वर्ग-भेदभाव के कारण खड़ी दीवार को तोड़ देना चाहता है, दहा देना चाहताहै और
चाहता है निर्माण करना ऐसे परिवेश और सभ्यता का जहाँ पर मानव का मानव के
साथ व्यापार का नहीं मानवीयता का सम्बंध हो ,और हर कोई , हर किसी से , अशोक
वाजपेयी जी के "कविता का गल्प" का माने तो संवाद करता हुआ दिखाई दे ,
चिंतन करता हुआ दिखाई दे , अपने जीवन के प्रति , अपनी वास्तविकता के प्रति
और सबसे आवश्यक तथा महत्वपूर्ण समस्या साहित्य और समाज के प्रति । की जब
साहित्य व्यक्ति की समस्याओं को केन्द्र में रखकर उनके लिए निराकरण खोजने
का प्रयास कर रहा है तो आखिर क्या कारण है कि साधारण-वर्ग से लेकर
उच्चा-वर्ग , और अध्यापक वर्ग से लेकर विद्यार्थी -वर्ग तक उससे अपनी
दूरियां बढाये जा रहा है । कि जब कविता चाहे "भिक्षु" हो या "दींन" , चाहे
"वह तोड़ती पत्थर" हो अथवा अर्थहीन जीवन का रोना रोता वृद्ध "चल रहा
लाकुटिया टेक" हो इन सबका इन सबके अपने अपने अर्थों में साथ दे रही हो तो
आखिर वे सब क्यों उसके विकास और संवर्धन के विषय में उदासीन हैं ।
वास्तव
में दोस्तों मुझे बहुत ही आनंद आ रहा है इस तीर्थ स्थल पर आकर। जो तीर्थ
यात्रा से ज्यादा पुण्य कमाने का अवसर देती है । श्रद्धा देती है और देती
है हौसला जबकि क्लास में क्या है वही ४५ मिनट डेस्क के सामने कुर्सी पर
बैठा एक इन्सानिं मूर्ती । या समय पर पहुँच कर लगातार ४५ मिनट लिखवाने
वाला ट्यूटर , अथवा फ़िर ये कहें कि गुरु के मर्यादाओं के साथ खेलते हुए
"बुद्धिमान बुद्धू" विद्यार्थिओं की संगती । बहुत हद तक अब तो आप सब ये
sweekare ही होंगे कि हाँ "ये सब ये सब कुछ" । तो जब ये सब ये सब कुछ है तो
आप सब भी आ जाओ इस तीर्थ स्थल पर "जिस तीर्थ स्थल का नाम है "साहित्य"
"साहित्य का संसार" और अगर गुरु प्रो० सुनील अग्रवाल सर का मानें तो "आनंद
का स्वर्ग" , जहाँ पर पढ़ना और पढाना ही सब कुछ होता है ।
..............................
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