मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008
आलस्य-युग में मनुष्य लक्ष्यहीन एवं पूर्णरूपें कर्महीन होगा
जंग करना आसान है। जंग में
विजय प्राप्त करना आसान है। किन्तु यह जंग तलवारों की हो न की आपसी विवादों
की । जहाँ जंग तलवारों की होती है वहां फैसला बाहुबल पर जाता है तथा विजय
प्राप्त करना कुछ हद तक मुमकिन हो जाता है। और जब यग लड़ाई आपसी विवाद की
होती है , तब दिल कुछ भी करनें से इंकार कर देता है। फिर इन्सान कर भी क्या
सकता है? कलह, अशांति व्यक्ति को इतना लाचार कर देती है कि व्यक्ति दिन
प्रतिदिन निराशा एवं आत्मग्लानी में डूबता जाता है। एक दिन वह समय आ जाता
है जब जिंदा आदमी बुत्परस्त बन जाता है । सब कुछ देखता हुआ भी अनदेखा कर
देता है । सब कुछ जानकर भी वह अनजान बन जाता है । अपनी पहचा वह इस कदर भूल
जाता है, जैसे डाल से टूटा हुआ पत्ता । यह आत्मविश्वाश ही कितना सहायक होगा
? नसीब ही कितना साथ देगी ? कोई किसी का भला क्या कर सकेगा ? इन सभी
विवादों में उलझाना, साथ ही साथ इन विवादों का निराकरण कैसे निकले ? कौन हल
करे ये छोटे- छोटे दो चार विवाद ?
अजीब विडंबना
है । आज इन्सान खुद को ही नहीं बता पा रहा है कि वह क्या है, उसके अंदर
कितना गुण समाहित है,वह समाज के लिए कितना उपयोगी है ? वास्तविकता तो यह है
कि आज प्रत्येक व्यक्ति अपनें स्वाभिमान के परे एक कायर की भांति जीवन
बितानें में अपना कर्तव्य समझ रहा है। फिर क्या हक है उसे किसी दूसरे पर
टिप्परी करनें की ? वह क्यों भाषण देता है कि हम परिवार या समाज की भलाई के
लिए अपना सबकुछ न्योछावर कर सकते हैं ? एक आलसी की भाँती जीवन यापन करना
इन्सान को शोभा नहीं देता। आलसी व्यक्ति अपनें किसी कार्य को करनें में
असमर्थ होता है । फिर वह परिवार समाज या किसी और के विषय में क्या सोंच
सकता है ? यदि आज जन जन, बच्चा - बच्चा आलस्य का त्याग नहीं करेगा तो आने
वाला समय आलस्य - युग के नाम से जान जाएगा। अर्थात , आलस्य-युग में मनुष्य
लक्ष्यहीन एवं पूर्णरूपें कर्महीन होगा । .............
सोमवार, 4 फ़रवरी 2008
फिर क्यों रख रो रही वह अपनी पकी रोटी?
जल रही आग के आगे
तप रहे तावे पर , बैठी
रख रही वह पिसान कि तहें
धीरे धीरे नरम हांथों से
उलटती पलटती देखती
फिर चौपतती
फिर पहुँचाती सबके सामने
कच्ची है रोटी
काले धब्बे ज्यादा पड़ गए हैं
अभी और पकाना था
नहीं लगाई आंच
पक तो गयी , पर जल गयी
ज्यादा लगाई आंच
नहीं इसमें कोई स्वाद
हो गया सब बर्बाद
रख , पका दूसरी रोटी
देना उसे जो आये मेरे बाद
जली , भुनी , रोई
पस्ताती फिर ले आयी रोटी
वही धुवां वही आग
पर पसीना है नया
उलट पलट तरासती
फिर वही नयी रोटी
बन गयी रोटी एकदम नयी
पर फिर क्यों रख रो रही
वह अपनी पकाई रोटी ?.............
रविवार, 3 फ़रवरी 2008
..........इज्जत क्या,उनको रोटी भी नसीब होती है तो इन्हीं चमारों के कारन
कभी कभी, जब कभी , कोई ऐसी रचना हमें पढनें को मिलती
है, जिसमें भारतीय वर्ण-व्यवस्था के प्रति व्यंग और मानव जीवन को पाने के
बावजूद पशुतर जीवन जीने के लिए मजबूर निचली जातियों, अर्थात दलितों की
समस्याओं को सत्य के धरातल पर रख उनके निरासमय जीवन के प्रति, कुंठित
भावनाओं एवं संवेदनाओं को, जहाँ दुखों को सहना उनकी परंपरा और वैसे वातावरण
में रहना, जहां न तो साफ सफाई हो और ना ही तो कोई घर बार हो , हो तो
झुग्गियां- झोपरियाँ । जिनका समय या असमय कभी भी नष्ट हो जाना निश्चित ना
हो, उनका परिवेश बन जाता है। ऐसी कहानियो को सुनकर या पढ़कर निश्चित ही
ह्रदय में दो तरहं की चिंगारियां फूटती हैं जिसमें एक वर्ण-व्यवस्था को
पूरी तरहं समाप्त कर देना चाहती हैं जबकि दूसरी उन दलितों को, जो पशुतर
जीवन जी रहे हैं, वर्ण-व्यवस्था के प्रधान, ब्रह्मण और क्षत्रियों के बीच
खड़ा कर देना चाहती हैं।
रामनिहोर विमल की कृति,"अब नहिं नाचाब" हालांकि इसकी रचना १९८०
के आसपास की गयी पर भारतीय वर्ण-व्यवस्था की प्रधानता से पूरी तरहं लड़ती
हुई और सूद्रों , चमारों एवं दलितों के अधिकारों का समर्थन करती हुई एक ऐसे
रंगमंच का निर्माण करती है जहां यदि दलितों को उत्साहित होनें की प्रेरणा
मिलती है तो क्षत्रियों और ब्राहमणों को ग्लानी और वर्ण व्यवस्था के प्रति,
जो हमारे पूर्वजों, वेदों, तथा उपनिषदों के द्वारा हमें प्रदान किये गए,
क्शोभित होनें के लिए हमें मजबूर कर देती है।
अपनें वक्तव्य में विमल
जी यह बात मानते हैं,"हमनें इस कहनीं को घटी होते हुए नहीं देखा।"पर आज के
परिप्रेक्ष्य में और खासकर जिस समय यह लिखी गई, पूर्णतः सत्य सिद्ध होती
है। कन्हाई भगत का, जो कहानी का मुख्य पत्र है, पंडित विद्याधर चतुर्वेदी
तथा बाबु साहब शेर शिन्घ से दंडवत प्रणाम करना और उनका ध्यान ना देना।
ध्यान देते हुए भी,"उठ उठ ससुर तुम लोग को समय असमय का जरा भी ख्याल नहीं ,
जब भी मेहरिया भेंज दिहिस, चलि दिहें।"दुत्कार कर अपमानित करना ब्रह्मण और
क्षत्रियों का तो परिवेश ही बन चूका था। आज के परिवेश में भी उत्तर प्रदेश तथा बिहार के लगभग ८०% दलितों
की, जहां सवर्णों की बहुलता पाई जाती है,यही दशा है । जो ना तो उनके
सामनें खड़ा हो सकते हैं और ना ही तो उनके साथ, उनके खाट पर बैठ ही सकते
हैं। ये आज भी समझते हैं,"चमारों की इज्जत जानें से गाँव की इज्जत नहीं
जाती। और जिस गाँव में चमारों की इज्जत होती है, उसमें फिर हम लोगों की
इज्जत नहीं होती।" पर शायद ये भूल जाते हैं कि इज्जत क्या उनको रोटी भी नसीब होती है तो इन्हीं चमारों के कारन।............................
सोमवार, 7 जनवरी 2008
मुस्कराहट
ग़जब की चीज है मुस्कुराहट
आ जाती है , खुद-ब-खुद
न कोई पता बगैर किसी आहट
रोता है दिल तो आती है
हंसती है महेफिल तो आती है
आती है मुस्कुराहट बेवजह
ना कोई पता बगैर किसी आहट
पर कई दिनों से
घट रहा जब सब कुछ
हो रहा जब सब कुछ
सब कुछ सहना ही रह गया
जीवन में कुछ
कोशों दूर कड़ी मुस्कुरा रही
ये स्वार्थी मुस्कुराहट
ना कोई पता बगैर किसी आहट................... ।
वह चिड़िया
वह चिड़िया
दूर से दिखती है
फर्फराते हुए उसके पंख
सुनाई देते हैं , वह लकती है
आंखों में कुछ सपने दिखाई देते हैं
सपनों को संवारने की ललक लिए
पिज़डे में पड़ीं खिड़कियों को निहारती है
वह चिड़िया
ऐसा एक दिन की नहीं
रोज रोज की कहानी हो गयी है
पहले था बचपना , पर अब सायानी हो गयी है
पिज़डा ही उसकी मंजिल, पिज़डा ही उसकी आशा
पिज़डा उसकी पहचान , पिज़डा ही उसकी भाषा
जैसा रहा बचपना वैसे ही बीती जवानी
नहीं कर पायी भेद उसमें और देखती रही सपने
वह चिड़िया ..................................... ।
गुरुवार, 27 दिसंबर 2007
स्मृति के झरोखे से
हुआ क्या कदम आज रुकने लगे
तुम मुझे आज बेगाने लगने लगे
ऐ प्रिये कुछ बताओ भला क्या हुआ
तेरे हर गम में खुश हम यूँ लगने लगे
याद कर लो उसी दिन को जब तुम मिले
थे मिटे उस दिन पहले के कितने गिले
फिर गिले आके आख़िर क्यों ऐसे मिले
कि एक दूजे के दुश्मन हम लगने लगे
तुमने कहा कुछ क्या हमने सुना
क्या हमने कहा तुम समझते गए
कुछ सुने भी गए कुछ रहे अनसुने
दोष तुमपे तुम हमपे यूँ मढ़ने लगे
चला न पता दोष किसका कहाँ तक
न तुम नम हुए ना ही हम कम हुए
बात एक दिन न हो न बिताए बिते
आज दूरी को ही नजदीकियां हम समझने लगे
चलो अच्छा है प्यारी ये अच्छा ही था
अब आगे बढ़ो कुछ समझते हुए
कुछ ऐसा करो कुछ लगे कुछ भला
ताकि दूरियां नजदीकियों में बदलने लगे ............... ।
तुम मुझे आज बेगाने लगने लगे
ऐ प्रिये कुछ बताओ भला क्या हुआ
तेरे हर गम में खुश हम यूँ लगने लगे
याद कर लो उसी दिन को जब तुम मिले
थे मिटे उस दिन पहले के कितने गिले
फिर गिले आके आख़िर क्यों ऐसे मिले
कि एक दूजे के दुश्मन हम लगने लगे
तुमने कहा कुछ क्या हमने सुना
क्या हमने कहा तुम समझते गए
कुछ सुने भी गए कुछ रहे अनसुने
दोष तुमपे तुम हमपे यूँ मढ़ने लगे
चला न पता दोष किसका कहाँ तक
न तुम नम हुए ना ही हम कम हुए
बात एक दिन न हो न बिताए बिते
आज दूरी को ही नजदीकियां हम समझने लगे
चलो अच्छा है प्यारी ये अच्छा ही था
अब आगे बढ़ो कुछ समझते हुए
कुछ ऐसा करो कुछ लगे कुछ भला
ताकि दूरियां नजदीकियों में बदलने लगे ............... ।
गुरुवार, 6 दिसंबर 2007
रिश्तों पर-2
दिया था कसम भौरों ने फूल को जब
जनम भर रहेगा ये बन्धन हमारा
कड़ी धूप में,वर्षा, ठंडी हर पहर में
चमका करेगा प्यार का ये सितारा
कहा फूल से एक दिन भौरे नें खिलखिलाकर
प्रिये तुम रहोगी सदा सर्वदा ही हमारी
न प्यारी खूबसूरती न लालच है यौवन का
न समझना कभी मुझे सौंदर्य का पुजारी
नियत ही है मन मानवीय स्वभाओं से निर्मित
कभी गर ये भटके तो कहेना न विलासी
अगर भूल चाहे चखना स्वाद तेरे हुस्ने जहाँ का
बनाना मुझे तत्क्षण स्व-मन मर्जी का प्रवासी
सौंदर्य का पुजारी तो जहाँ ही रहा है
न चलना मुझे रीति-पथ अनुसरण कर
कहाँ घर, जाती, धर्म, रीति कौन सा है तुम्हारा
न मतलब है रहेना हमें नैतिकता को वरण कर
बना स्वर्ण माटी वही जाती थी वह
बँटा पूर्व थाती वही धर्म था वह
बने थे हम दानव नैतिकता को तजकर
हुए थे विलासी वही रीति थी वह
वही परंपरा थी भूल कर्तव्य लड़े हम
जहाँ ने था देखा बर्बादी को अपने
सितारों ने बनाया था जो स्वर्ग इस जहाँ को
हुए नर्क से बद जो देखे न सपने ...................
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