Friday 8 May 2020

कबीर, निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन होना सरल नहीं है


कवि के साथ पाठक का मामला अलग है| आलोचक और आलोचना को जाने दीजिए| कई बार बहुत प्रिय लगने वाला कवि बहुत हद तक चुका हुआ कवि लगने लगता है| उसकी व्यावहारिकता आपके लिए आकर्षण हो सकती है लेकिन रचना में वह वही नहीं रह जाता, जो देखते हुए आप उससे बतौर पाठक जुड़े होते हैं| कहने को आप इसे मोहभंग भी कह सकते हैं और कहने को यह भी कह सकते हैं कि कवियों में एक समय के बाद दुहराव आने लगता है| वही भाव, वही सम्वेदना, शिल्प भी वही, तो पाठक कितना झेलेगा? यह आप एक बतौर कविता प्रेम समझ सकते हैं|  
कई बार जिस कवि की वर्तमान स्थिति को देखते हुए आप अलग रहना जरूरी समझने लगते हैं, लगातार और निरंतर वह आपकी मानसिकता पर दबाव बना रहा होता है| यह दबाव सैद्धांतिक नहीं होती, व्यावहारिक तो कतई नहीं, स्वाभाविक होती है, इसमें कोई शक भी नहीं है| ऐसा इसलिए क्योंकि आप सैद्धांतिकता को नकार सकते हैं क्योंकि आपके अपने सिद्धांत होते हैं| व्यावहारिक रूप से यदि कोई प्रक्रिया आप पर दबाव बनाए तो आप उससे निकल सकते हैं| लेकिन कोई स्वाभाविक रूप से दबाव बनाता है, तो मुश्किल हो जाता है ऐसा करना|
मानसिकता पर दबाव का मतलब यह भी नहीं है कि ऐसा उसके सीधे हस्तक्षेप से होता है; होता सब कुछ रचनाओं के भीतर से रचनाओं द्वारा है, लेकिन जुडाव आपका हृदयगत होता है| प्रिय लगने वाले अनेक कवियों पर वह अकेला भारी पड़ने लगता है| आप बतौर पाठक से कब एक समीक्षक और फिर कब एक आलोचक की भूमिका में उतर आते हैं, यह वही कवि सिखाता है आपको| कवि कहना शायद गलत होगा, कविता मानकर चलिए|
अच्छी रचनाएँ ही आपकी मानसिकता को कुछ सही और सार्थक कहने और करने के लिए प्रेरित करती हैं| अच्छे आदमी को आप बाहर रख दीजिए थोड़ी देर के लिए क्योंकि अपने समय का जो सबसे अच्छा मान लिया जाएगा, वह अच्छा आदमी तो होगा, अच्छा कवि भी हो, इसमें संदेह रहेगा|
अच्छा आदमी हर समय सोचेगा कि कहीं कुछ ऐसा न कह दें कि लोग बुरा मान जाएँ| जो अपने समय में बुरे के रूप में विख्यात होगा, वह खुलकर कहेगा, निर्भीक होकर कहेगा| उसे यह डर नहीं होगा कि कौन नाराज होगा और इसकी भी परवाह नहीं करेगा वह कि कोई उसे छोड़ देगा| छूटा वह पहले ही होता है| उपेक्षित वह पहले ही होता है| संग-साथ के लोग हुक्का-पानी तक बंद किये होते हैं| अपने कार्यक्रमों में न बुलाना और कोई बुलाए तो उसे मना करना, यह सब वह झेल चुका होता है या झेल रहा होता है|
जब आप इतना कुछ समझ लेंगे तो यह भी समझ लेंगे कि कबीर, निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन होना सरल नहीं है| मुश्किल है और बहुत मुश्किल है| इतना कि हर पग उपेक्षित होना एक नियति बन चुकी होगी| किसी भी इधर-उधर को सुनना और किसी भी इधर-उधर को सहना एक आदत बन चुकी होगी| प्रभाव तो खैर इसका भी कुछ नहीं पड़ना है उस पर क्योंकि उसके सामने स्वयं का जीवन तो है ही नहीं| कबीर के सामने, निराला के सामने, मुक्तिबोध के सामने, नागार्जुन और त्रिलोचन के सामने स्वयं का अपना क्या था? कुछ नहीं था| वे सब समय को बेहतर और समाज को मानवीय बनाने के लिए संघर्ष किये और उनके नक़्शे कदम पर चलने वाले ऐसा कर रहे हैं|
हिंदी साहित्य में कुछ कबीर हैं जिनमें साहित्य का सत् और व्यक्तित्व की निरपेक्षता अभी शेष है| जब भी आप इनकी खोज में निकलेंगे सम्भव है बड़ी संख्या में आदिकालीन रासो कवि-परम्परा के कवि-वंशज आपको मिल जाएं और शौर्य-प्रदर्शन करते हुए कवि-कुल-परम्परा के शाश्वत प्रतिमानों से परिचय कराने लगें? यह भी सम्भव है कि रीतिकाल के वे कवि मिल जाएं जिन्होंने कभी स्त्री-सौन्दर्य के आगे बढ़ने की हिम्मत ही न दिखाई? जब यह सब सम्भव है तो आप आगे बढ़ ही जाएँ, यह सम्भव नहीं है| कभी एक निबन्ध पढ़ा था, किसका? यह मुझे पता नहीं है| उसमें यह लिखा था कि बुराई हृदय में अटल भाव धारण करके बैठती है| जहाँ अच्छी चीजें या अच्छे लोग होते हैं वहां पहुँचना कई बार बहुत मुश्किल होता है| यह सब ग्रह-रूप होते हैं| फिर भी यदि पहुंचना है तो उनकी तरह उपेक्षित होने और हाशिए पर धकेले जाने की स्थिति को झेलने के लिए तैयार रहिये|
ध्यान रहे, यह सब मैं तीसरे लोक की बात नहीं कर रहा हूँ| इसी लोक और इसी दुनिया की बात कर रहा हूँ| यह सब वर्तमान काव्य-जगत का एक काला चिट्ठा है जिसे सफेद करने के लिए बहुत कवि-आलोचक-प्रकाशक आए, लेकिन कर नहीं पाए| कुछ तो उसी में शामिल होकर काले बन गए| यह कहावत वहां खूब फब्ती है-“काजल की कोठरी में कैसो भी सयानों जाए, एक लीक काजल की लाग हैं सो लागि हैं|” निश्चित ही यह किसी समर्थ कवि या आलोचक ने कहा है क्योंकि सफेद होने के चक्कर में वह अधिक से अधिक काला ही हुआ| यह कथन उसकी आत्मपीडा मानकर चलिए| कुछ ऐसे हैं जिसे विधिवत देश निकाला दे दिया गया|
देश निकला जिन्हें दिया गया उन्हें पत्रिकाओं ने छापना बंद कर दिया और प्रकाशकों ने भाव देना| इन दोनों के प्रभाव में रहने वाले समीक्षकों ने ऐसा किनारा किया, जैसे वे जानते ही न हों उन्हें| कभी मिले ही न हों, कभी कोई बातचीत ही न किये हों किसी से? वे इन दोनों की भी कभी नहीं सुने तो यह होना तो निश्चित था ही| सम्पादक मतलब इन्द्र प्रकाशक मतलब ब्रह्मा| नारद की भूमिका में ‘समीक्षकों’ को आप गिन सकते हैं| ये बिचारे न लेखक के होते हैं और न प्रकाशक के होकर रह पाते हैं| दोनों के साथ बनाए रखने के मोह में कभी-कभी पिसते भी हैं/ पिस भी जाते हैं| करने को आप इस प्रश्न भी विचार कर सकते हो कि देवताओ को भला कब अपना प्रतिद्वंदी अच्छा लगा है?
अब भी लोगों को कहते सुनता हूँ कि कबीर जैसे रचनाकार इधर कहाँ? रैदास जैसे कवि इधर कहाँ? कहाँ हैं मुक्तिबोध और निराला जैसे कवि, तो विश्वास मानिए, मन करता है पकडूं कालर और पूछूं कि आँख खोलकर बात कर रहा है या कुम्भकरण-नींद से जागकर उठा है? सच यह है कि ऐसा पूछ नहीं सकता क्योंकि उन्हीं प्रश्न करने वालों में से एक मैं भी हूँ| इस प्रकार के प्रश्न यदा-कदा मैं भी करता रहता हूँ| हालांकि मुझे अब कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण रचनाकारों, कवियों और आलोचकों का पता चला है, मैं अब इन दिनों उन्हीं को पढने-लिखने की तरफ उन्मुख हो रहा हूँ| जब आपको मैं कुछ सार्थक करता नजर आऊं तो इधर जरूर मुड़ने की कोशिश करना| कोशिश करना तो दमखम के साथ करना| अपनी स्थिति और औकात अपनी देखकर करना| आने के बाद कुछ देर और कुछ दूर चलना, कभी अलविदा न कहना. 

1 comment:

Unknown said...

साहित्य जगत् में चल रहे राजनीतिक षड्यंत्रों ने साहित्यकारों के लिए परेशानी खड़ी कर दी है। साहित्य की दुर्गति के पीछे प्रकाशकों की भी अहम भूमिका है।सचमुच कबीर और निराला जैसा अक्खड़पन लेकर इनके समक्ष डटे रहने की आवश्यकता है।