Tuesday 19 May 2020

यह समय निश्चित ही हमारे लिए कठिन समय है


एक छोटी सी समस्या हमारे अस्तित्व के लिए चुनौती बन जाती है| सारे प्रयास और सारे प्रयत्न धरे के धरे रह जाते हैं| यह सोचने के लिए अंततः हम विवश हो जाते हैं कि इतने दिन आखिर किया क्या हमनें? क्या यही मनुज का संघर्ष है? यही उसकी बनाई दुनिया है जिसमें वह स्वयं नहीं सुरक्षित रह पा रहा है? इतने यंत्र, इतने मन्त्र, इतने षड़यंत्र सब के सब इस तरह धरासाई हो जाएँगे, क्या सोचा था किसी ने? नहीं सोचा था|
यदि सोचा होता तो प्रकृति को इतना अस्थिर करके न चलता| जितनी दयनीयता के साथ आज मनुष्य छिपा फिर रहा है, लोगों को छूने से बच रहा है, कैद कर रहा है सारी इच्छाओं को, इसका पचास प्रतिशत भी यदि पहले करता होता तो इतना बेबस न दीखता| तो किया क्या मनुष्य ने? मनुष्य ने जनसंख्या बढ़ाई| अपनी सुख-सुविधा में असमान गति से वृद्धि की| सिंगल सड़कों के जगह फोर लेन की सड़कें तैयार कीं| ओवर ब्रिज पर ओवर ब्रिज तैयार की| यह सब करते हुए कभी नहीं सोचा मनुष्य ने कि प्रकृति का क्या होगा?
एक बात तो मानकर चलिए कि प्रकृति स्वयं अपने ऊपर हावी हो रही विसंगतियों को नियंत्रित करती है| वह अपना मार्ग स्वयं चुनती है| मनुष्य प्रकृति के लिए हर समय एक संकट रहा है, हालांकि उसके लिए प्रकृति जीवनदायिनी भूमिका में रहती आई है| वह प्रकृति ही है जिसके द्वारा हमें हवा, पानी, जल मिल रहा है| प्रकृति के माध्यम से ही हम जी रहे हैं| भोजन से लेकर सयन तक के लिए हम प्रकृति पर निर्भर रहते आए हैं| यदि प्रकृति नहीं है तो हम हैं क्या?     
इस समय स्थिति यह है कि हम सब कोरोना को लेकर चिंतित हैं| होना भी चाहिए| इससे पहले भी कई प्रकार की महामारियां आईं| बहुत से अपने पलक झपकते बेगाने हो गए| जितने विकास किये थे वे सभी हमारे लिए विनाश सिद्ध हुए| हम हाय तौबा मचाते रहे तब तक जिंदगियां तबाह होती रहीं| इलाज सम्भव हुआ लेकिन देर से| आज भी हम असहाय हैं| मरने वाले मर रहे हैं| कहीं भूख से तो कहीं अभाव से| कहीं बीमारी से तो कहीं बसों, ट्रकों आदि के नीचे दबकर|  
यह सब आज हो रहा है| कोरोना काल में| कोरोना एक आपदा है| महामारी है| इसने हमारे अस्तित्व को चुनौती दी है| मनुष्य संघर्षों में और खिलता है, यह एकदम अलग बात है, ऐसे बीमारियों की वजह से नरसंहार बड़ी मात्रा में होती है और हुई भी| दिल और दिमाग खोलकर हम दिन-प्रतिदिन आंकडे देख रहे हैं| ये आंकड़े कितने भयानक हैं? कभी आंकड़े सुनते थे कि जंगल का इतना हिस्सा काटा गया| पहाड़ का ये हिस्सा तोड़कर सड़क बनाई गयी| इतने पेड़ को काटकर उद्योग स्थापित किये गए| हालांकि मृत्यु के आंकड़े भी कभी-कभी प्रकृति द्वारा खेले गए खेल में आते थे लेकिन इस तरह तो नहीं आते थे न?
सोचिये, कि सुबह से लेकर शाम तक समाचार चैनलों द्वारा जिस तरह से क्षेत्रीय और वैश्विक आंकड़े प्रस्तुत किये जा रहे हैं मृत्यु के, किसी भी मायने में मामूली बात तो नहीं है? हमें यह विचार करना होगा कि अभी भी, आध्यात्म और विज्ञान के क्षेत्र में इतने उन्नतिशील होने के बावजूद, हम प्रकृति को असुरक्षित रखने के दांवपेच से बाज नहीं आ रहे हैं| यह ध्यान देना होगा कि यहाँ न तो आध्यात्म काम दे रहा है और न ही तो विज्ञान| दोनों की सामर्थ्य शून्य हो गयी है| जिस आध्यात्म को हमें अपने दिनचर्या का हिस्सा बना लिया था वहां ताला लटक रहा है| जिस विज्ञान के खोज द्वारा हम स्वयं को सुरक्षित मान बैठे थे...सब के सब फेल हो गए? विज्ञान हथियार तो बना सकता है, परमाणु भी तैयार कर सकता है लेकिन अदृश्य समस्याओं से लड़ने में विज्ञान का क्या योगदान? इस पर विचार करने की जरूरत है|
 कोरोना पर जब हम गंभीर हों तब यह चिंता और जरूरी हो जाती है कि अब हमें करना क्या चाहिए? धर्म गुरुओं ने मौन साध लिया है| हालाँकि कुछ धर्मानुयायी इसे धर्म-विशेष को ख़त्म करने का साजिश मान रहे हैं लेकिन विश्व स्थिति को देखते हुए वे भी अब मान गए हैं कि समस्या गंभीर है| दवाइयां अभी तक नहीं बन पाईं हैं| खोज जारी है| अभी भी यह कयास लगाया जा रहा है कि लगभग जनवरी के बाद आम आदमी के लिए कोई दवा उपलब्ध हो तो हो, अन्यथा बचाव ही समझदारी है|
फिर? हमारा आत्मसंघर्ष ही एक स्थाई इलाज है, क्या यह ध्वनित नहीं हो रहा है? प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल कहते हैं “जब सारी शक्तियां, आध्यात्म और विज्ञान, असहाय हो गए हैं तो हमारे पास संत परम्परा द्वारा दिया गया ‘शब्द’ एक मात्र सहारा है|” वे कहते हैं “यह शब्द ही है जो इतनी समस्याओं के बाद भी हमें-आपको संघर्षशील बनाए हुए है| सोचिए कि जब सभी घरों में कैद हैं, कोई किसी से बोल-बतिया नहीं रहा है और यदि ये शब्द भी न होते जिसके जरिये हम सभी एक दूसरे से बातचीत कर रहे हैं तो क्या होता?”
आत्मसंघर्ष इस दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है कि हमारे अन्दर का रोग-प्रतिरोधक ख़त्म नहीं होता| जहाँ हम कमजोर होते हैं वहीँ ये समस्याएं और भारी पड़ जाती हैं| इस बीच सामाजिक गतिविधि कमजोर जरूर पडती है लेकिन बचाव का एकमात्र रास्ता यही बचता है| सामाजिकता का क्या है जभी समस्याओं से मुक्त हो, तभी लोगों से जुड़ना शुरू कर दो| सम्वाद का माध्यम बना रहे इसके लिए ‘शब्द-सत्ता’ पर विश्वास जताया जा सकता है|
यह समय निश्चित ही हमारे लिए कठिन समय है| देश में जिस तरह के हालात पैदा हो गए हैं वह और भी चिंताजनक है| राजनीतिक चुहलबाजी भी कम नहीं हो रही है| इधर कितने लोग तो भाजपा की हार और कांग्रेस की जीत तय करके बैठ गए हैं| बेहद गंभीर समय में इस तरह की आशाएं पालना कहाँ तक उचित है? कांग्रेस और भाजपा तब रहेंगे जब लोग रहेंगे? लोग मर रहे हैं और आप राजनीतिक मंथन में जुटे हैं? यह तो उचित नहीं है? फिर यह कैसा आत्मसंघर्ष?
आत्मसंघर्ष करना है तो इस दुर्दांत समय से बचने के लिए किया जाए| ऐसा करने से मानसिक रूप से लोक एक-दूसरे से जुड़ेगा| सहअस्तित्व और सहसामंजस्य की भावना को बल मिलेगा| जरूरत इसी भाव के विस्तार का है| यदि हम ऐसा करने में सक्षम होते हैं तो मानसिकता में घर कर गए डर से निजात पा सकेंगे| खोए हुए आत्मविश्वास को पुनः प्राप्त कर सकेंगे|  

No comments: