Monday 10 April 2017

प्रिये, कहो तो सच कहूं

तुम पूंछ रहे थे कैसा हूँ प्रिये
तो सुनो तुम्हारी अनुपस्थित में इन दिनों
बहुत खाली खाली-सा होता जा रहा हूँ मैं
कहाँ हूँ, क्या कर रहा हूँ, कैसे हूँ, क्यूं हूँ, कहाँ जा रहा हूँ
सब कुछ भूलता सा जा रहा हूँ मैं, क्योंकि
तुम नहीं हो, जो कहती थी छत का एंगल पकड़ कर
शाम को थोड़ा जल्दी आना घर पर  

तुम रहते थे तो एक गजब का कलरव रहता था परिवेश में
पूरा रूम चलता रहता था अपनी मौज में जैसे
बजता रहता था एक-एक सामान यहाँ का अपने आवेश में  
जैसे कि झरना कोई चल रहा हो दूर पहाड़ से
पुकारते थे तुम मुझे जिस व्यवहार से  
खिंचा चला आता था तुम्हारे सौंदर्य के सत्कार से  

तुम्हारे आवाज की निरंतरता
प्रेम भरे इन्तजार की वर्तमानता
हर समय गूंजता रहता था हृदय में
जब तक नहीं पहुँच कर देख लेता तुम्हें
जैसे खोया-खोया-सा रहता था जंगल-वन में
तुम नहीं हो तो मौन-सा है कोना-कोना घर का
कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है इन दिनों शहर का   

हाँ, तुमने यह भी पूंछा था
कुछ खाया-पीया कि नहीं अभी तक
डांट लिया था उस समय मैंने लेकिन सच बताऊँ
इन दिनों नहीं कोई पूछ रहा है वैसे, जैसे
खाना बनाकर थाली में सजाकर आते थे तुम
और मैं कह दिया करता था नहीं खाना मुझे, आवेश में  
बार-बार मनाती थी तुम मैं बार-बार रूठता था
तुम जुड़ती जाती थी मुझसे मैं स्वयं से टूटता था

प्रिये, कहो तो सच कहूं
तुम्हारे बिन जिन्दगी बहुत त्रस्त है
घर का सामान सब अस्त-व्यस्त है
क्या क्या सहेजूँ सब छूट-सा रहा है
नेह हृदय का अब टूट सा रहा है
कि तुम नहीं हो इन दिनों मेरे पास
दिन है डरावना तो रात है उदास
बहुत कुछ सँभालने के चक्कर में प्रिये
बहुत कुछ पकड़ से छूट रहा है
जैसे मेरा विश्वास साथ छोड़ रहा है मेरा
मुझसे मेरा ही जैसे कोई लूट-सा रहा है  ||

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