Tuesday 11 April 2017

सामाजिक जीवनबोध की सहज अभिव्यक्ति-दर्द का कारवाँ


         इन दिनों गज़ल-क्षेत्र में कुछ नये रूप सामने आए हैं| सच यह भी है कि इस विधा को स्थापित कुछ विशेष पूर्व-मान्यताओं के केन्द्र में नए रूप के लिए ही आरक्षित माना जाता रहा है, और यह विश्वास परिवेश में जमाया जाता रहा है कि जो प्रेम के दर्द से पीड़ित हो, गम से चोट खाए दिल को सांत्वना देने के लिए या फिर दिल को किसी ठीक ठिकाने लगाने के लिए वह गज़ल लिखता रहा है| इन स्थापनाओं को प्रेम की धड़कन बढ़ाने वाले युवाओं ने ही यथार्थ का जामा पहनाकर समकालीन समय-बोध को चित्रित करने वाली सशक्त विधा के रूप में परिवर्तित किया है| गजल को भोगे यथार्थ और आने वाले भविष्य के नए सन्दर्भों से परिचय करवाकर सामयिक एवं समकालीन जीवन-प्रक्रिया में प्रतिष्ठापित किया है|
         गज़ल-विधा के कुछ हस्ताक्षरों में अनिरुद्ध सिन्हा, माधव कौशिक, अशोक अंजुम, ज्ञानप्रकाश विवेक, अशोक मिजाज, मधुकर अष्ठाना आदि बड़े स्थापित रचनाकारों के साथ-साथ युवा रचनाकारों में अभिनव अरुण, डॉ० मोहसिन खान ‘तन्हा’, प्रवेश गौरी ‘गुरु’ आदि जैसे युवा पीढ़ी के रचनाकार सक्रिय रूप से अपनी भूमिका को निभा रहे हैं; जिनमें मांसल प्रेम की वायवी उड़ान न होकर मानवीय-प्रेम का यथार्थ अंकन स्पष्टतः परिलक्षित होता है| मानवीय समाज में वर्तमान तमाम रूढ़ियों के शमन के लिए इन रचनाकारों ने गुटबंदियों से दूर रहते हुए अपनी अलग पहचान बनाई है|  
         इन सब में मालिनी गौतम का अपना स्थान और अपनी भूमिका है जो हम सब को ‘दर्द का कारवाँ’ लेकर चलने वालों में शामिल होने के लिए विवश करती है| हलांकि यह सच है कि “वक्त को मुट्ठी में कोई कर सका है कैद कब/ ये फिसलती रेत है इसका न कोई ठाँव है” बावजूद इसके कारवाँ से जुड़ने की यह विवशता ऐसे समय में अनिवार्यता बनकर हमें प्रेरित कर रही है जब “जिन्दगी न अब कोई गुलमोहर की छांव है/ हो चुकी उम्मीद घायल थक चुका हर पाँव है|” यह कारवां मनुष्यता के मार्ग में आने वाली विडम्बनाओं को दूर कर सह-अस्तित्त्व पूर्ण जीवन-निर्माण को बढ़ावा दे सके इसलीए भी हम सब का जुड़ना आवश्यक हो जाता है| जुड़ते वक्त यह भावना जरूर उसके मन में वर्तमान रहनी चाहिए कि “सभी कुछ भूल जाना है/ अलख मुझको जगाना है/ यही हो जोश इंसा में/ जमीं पर चाँद लाना है/ भले हो आग का दरिया/ हमें तो पार जाना है|” आग के दरिया के पार जाने और धरती पर चाँद को लाने के लिए जिस साहस और जिस विश्वास की आवश्यकता होती है वह मालिनी गौतम द्वारा रचित “दर्द का कारवाँ” में वर्तमान है|
        मालिनी द्वारा विरचित गजलों की दुनिया में परिक्रमा करते हुए यह जिज्ञासा बराबर बनी रही है कि कल्पना और यथार्थ का, जो सर्वथा आदर्शों की देहरी को सुरक्षित रखे हुए है, समन्वयपूर्ण ऐसा संयोजन इस रचनाकार ने कहाँ से हाशिल किया? बिखरे हुए शब्दों को यथार्थ का आकार देना तो कोई इनसे सीखे| यह बगैर किसी संकोच के कहा और स्वीकारा जा सकता है कि, जब हम इन्हें पढ़ रहे होते हैं कहीं गहरे में एक रचना या मात्र एक पुस्तक ही नहीं अपितु सम्पूर्ण जीवन-प्रक्रिया का मानवीय रूप आत्मसात कर रहे होते हैं| यह इनके व्यावहारिक जीवन की छाया भी हो सकती है और रचनात्मक-जीवन के अभिव्यक्ति की शक्ति भी|
       समकालीन जीवनधर्मिता का निर्वहन कर रहे जन-मानस के लिए इनकी गजलों का महत्त्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि छान्दसिक विधा में यथार्थ का अंकन अधिकतर विरल रहा है| यहाँ अक्सर रचनाकार तुकबंदी के चक्कर में भावात्मकता की संकरी गली में उलझता जाता है| हर हाल में, न चाहते हुए भी आदर्षता का वरण करना उसकी मजबूरी बन जाती है| लेकिन यह मालिनी की शक्ति ही है कि यथार्थ को भी गजब का परिवेश ही नहीं देती अपितु अपने अनुशासन में उसे नया संस्कार भी देती है| मालिनी का गजल के माध्यम से यह कहना ही इस स्थिति की पुष्टि करना है-यथा,
इस तरह  क्यों  हुई  तू  विकल  ज़िन्दगी 
कुछ संभल, कुछ बहल, आगे चल ज़िन्दगी
हैं उमीदें कई, शेष अरमान हैं
थाम ले तू हमें यूँ न छल जिन्दगी
छन्द बहरों में नाहक तलाशा किये
चाक सीने से निकली गज़ल जिन्दगी
नित नयी मुश्किलों से जो घबरा गये
कर दे उनके इरादे अटल जिन्दगी
वो हैं नादां, हुई उनसे बेशक खता
दे न उनको सजा, कुछ पिघल जिन्दगी
देखकर क्रूर मंजर जो पथरा गये
उनकी आँखों को कर दे सजल जिंदगी
नव्य आशा, मिली है नयी चेतना
त्याग दे पथ पुराना, बदल जिन्दगी   
        जीवन जीना इतना आसान नहीं है और जीने की प्रक्रिया में जब एक मनुष्य होता है, जीवन-यथार्थ की परिकल्पना करना भी किसी प्रत्यक्ष परिस्थिति को स्वीकार करके उसे झेलना ही होता है| यह समय भी कुछ इन दिनों का बड़ा घातक हुआ है जहाँ मनुष्यता बार-बार हारती और पराजित होती प्रतीत होती है| यह प्रतीत होना यथार्थता के रूप में तब और अधिक विकराल अवस्था में वर्तमान हो जाता है जब प्रेम और भाई-चारे का सन्देश बांटने वाली मानवीय आँखें फूट और विध्वंस का षड़यंत्र रचती दिखाई देती हैं| इन आँखों की यथार्थता को अभिव्यक्त करते हुए मालिनी का यह कहना “भाई-भाई को काटे, क्या हिन्दू क्या मुस्लिम है/ खंजर और तलवारें हैं इन जहरीली आँखों में/ संबंधों पर गाज़ गिरी, पैसा ही सर्वस्व हुआ/ दो और दो अंकगणित इन भड़कीली आँखों में” उजड़ रहे मनुष्यता की संभावनाओं की तरफ इशारा करना है| 
       समाजिकत्व के केन्द्र में मनुष्य को एक जिम्मेदार व्यक्तित्व के तौर पर मनीषियों द्वारा चिह्नित किया गया है| अन्य जीवों की अपेक्षा उसकी भूमिका जिम्मेदारी की कुछ अधिक मांग करती है| कुछ हैं जो इस जिम्मेदारी को निर्वहन करने में असफल रहते हैं जबकि कुछ इसे अपना सौभाग्य समझते हैं| जो सौभाग्य समझते हैं वो कहीं न कहीं उनमें से हैं “नफरतों की कैद से जो हो गए आजाद हैं/ प्रेम का अमृत वही जीवन में अपने पा गए” ऐसे लोगों का यह प्रण कि “पड़े पैरों में हैं छाले मगर मैं फिर भी चलता हूँ/ कभी सहरा कभी दरिया से अक्सर मैं गुजरता हूँ/ नहीं गहराई नदियों की, नहीं सागर का खारापन/ बुझाने प्यास औरों की मैं झरना बन के बहता हूँ|” निश्चित ही झरना बनके बहने की प्रक्रिया ने मानव समाज को बहुत बड़ा संबल दिया है| और जो असफल रहे हैं जिंदगी का बोझ वो ढोने लगे/ हर मुख़ालिफ़ बात पर वो रोने लगे|” रोने की स्थिति वाले इस प्रकार के लोगों की संख्या मानवीय समाज को प्रगति-पथ पर आगे ले जाने में बाधक सिद्ध होती है| यहाँ जिम्मेदारी का एहसास न होकर समय और समाज से कटे होने की संभावना अधिक होती है|
          जीवन-समय में हर तरह के लोग वर्तमान हैं| कुछ कर्म को महत्त्व देते हैं तो कुछ कल्पना के वायवी उड़ान को| कुछ ‘खावे अरु सोवे’ में विश्वास करते हैं जबकि कुछ ‘जागे अरु रोवे’ के लिए जिज्ञासु रहते हैं| कवि ‘जागे अरु रोवे’ में अपनी समस्त इच्छाओं का तर्पण करने वालों में माना जाता है| समाज की तमाम विसंगतियों को देखते हुए भी वह निराश नहीं होता और यह आशा उसे रहती है कि “संग दिल इंसान सुधरेगा न आखिर कब तलक, यह दिले नादान मचलेगा न आखिर कब तलक|” दिल का मचलना इंसान के सुधरने की प्रथम सीढ़ी है| इसीलिए एक बचपन की-सी संभावना हृदय में बचाकर रखनी चाहिए| बचपन की अवस्था में जुड़ने की संभावना अधिक होती है| प्राप्त करने और संजोने की ललक देखी जाती है| इसीलिए कवयित्री यह सलाह भी देती है कि-
“बालक से तुम चलना सीखो
गिरकर आगे बढ़ना सीखो
ठहरे जल में तो बदबू है
कल-कल करके बहना सीखो
बंद किताबें किस मतलब की
बंद कली से खिलना सीखो
ठोस हुआ अंतर्मन सबका
बनकर मोम पिघलना सीखो
कालकूट की इस दुनिया में
निर्भय बनकर चलना सीखो
भूल न जाना प्रीत पुरानी
प्रेम अगन में जलना सीखो|”
         यह भी एक बड़ा सत्य है कि जीवन-पथ में मुसीबतें आती हैं| उन मुसीबतों से जूझते हुए ही नए पथ की खोज की जाती है| नए पथ का विस्तार कौन करना चाहेगा...जिसे प्रेम के यथार्थ को सम्पूर्ण समाज में विस्तार देने की लालसा होगी| सम्पूर्ण समाज में विस्तार देने के लिए ही समाज में संवादात्मक व्यवस्था का सृजन हुआ था| आज यह व्यवस्था अलगाववाद की संभावना को जन्म देते हुए अवसाद का शिकार हो रही है| मालिनी का स्पष्ट कहना है कि  “बीतते जाते बरस लेकिन नहीं संवाद है/ इसलिए तो जिंदगी में आज ये अवसाद है|” इस अवसाद के आवरण में घिरकर मनुष्यता पत्थर के आकार में बदलने लगी है और उसी का प्रभाव है कि “अब नहीं है दिल धड़कता जिस्म ये फौलाद है|” एहसास की ऐसी वेदना उन्हीं के लिए होती हैं जिनके अन्दर प्रेम की भावना का, अल्पांश ही सही, प्रवाह पाया जाता है|
         कवयित्री जानना चाहती है कि “आज रिश्तों में ये खटास है क्यूं/ मेरा मन आज फिर उदास है क्यूं?” हालाँकि वह यह भी जानती है कि “छोड़ सभी ने गुलसितां को उसके हाल पर” अपनी अपनी दुनिया सजाने में व्यस्त हो गए हैं| उनके इस व्यस्तता का ही परिणाम है कि “छाया है घनघोर अँधेरा फिर भी दीपक मौन खड़ा है/ शोर मचाती इस दुनिया में सन्नाटा भी बोल पड़ा है|” सन्नाटे के उठ खड़े होने से कलरव का अभाव खटका है| मनुष्य ने वाचालता की प्रक्रिया से हटकर मौन को आमंत्रण दिया है| मौन ने संवाद-व्यवस्था को गहरे में प्रभावित किया है| वह इन दिनों के परिवेश में मृतप्राय हुई है| संवाद व्यवस्था के मृतप्राय होने की वजह से ही व्यक्ति अहमवादी, अहंकारी और वैयक्तिक मान्यताओं को तवज्जो देने वाला निर्दयी दानव बन कर सामाजिक मान्यताओं को तिलांजलि दे रहा है|
        गजल को कहने और उसे सामाजिक आकार देने में मालिनी गौतम का अपना व्याकरण और अपना परिवेश वर्तमान रहा है| काव्य के अन्य विधाओं के साथ-साथ इस विधा में भी इनका मन खूब रचा-बसा है| सामाजिक रिश्तों की समझ और सामाजिक मान्यताओं की समृद्धता इनके कवि-हृदय के केंद्र में हर समय रहा है| भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और साम्प्रदायिकता के प्रति विद्रोह और प्रतिरोध का स्वर इनकी सम्पूर्ण रचनाधर्मिता में प्रमुखता लिए हुए है| मालिनी वाकई अपने तरह की एक ऐसी रचनाकार हैं जो मानवीय समाज को बचाने के लिए जितना अधिक प्रौढ़ मानसिकता को महत्त्व देती हैं उससे कहीं अधिक बाल-मन को भी तवज्जो भी देती हैं, जो अन्य रचनाकारों में बहुत कम या लगभग न के बराबर वर्तमान रह पाता है| यह कहना सुखद आश्चर्य से कम नहीं है कि कुछ इन्हीं गजलकारों की वजह से आज गजल-विधा से नजरें छुपा कर चलना समकालीन आलोचकों को भारी पड़ रहा है|




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