Wednesday 12 April 2017

यथार्थ और आदर्श की प्रतिरूप “किरण”


         सभ्यता और संस्कारों की बात करना जैसे इन दिनों के कवियों और कविताओं में बेइमानी सी हो गयी है| जन-संवेदी रचनाकार इन दिनों यथार्थ चित्रण में इस तरह मशगूल हो गए हैं कि लगता है जैसे उनके रोने से ही एक बड़ा सामाजिक परिवर्तन हो जाएगा| यह कहना किसी भी रूप में गलत नहीं है कि यथार्थ तभी अपने साकार रूप में अनुकरणीय होगा जब उसे आदर्श के माध्यम से अमलीजामा पहनाने की कोशिश की जायेगी| आदर्शता एक ऐसी स्थिति है जो व्यक्ति के अन्दर समझ विकसित करती है| आदर्श के गलियारे से गुजर कर आने वाला रचनाकार एक हद तक अनुभवशील और परिपक्व होता है| यह परिपक्वता रचनाकार के लिए जितनी संतोषप्रद होती है समाज के लिए उतनी ही सुखद|
          डॉ० जयशंकर शुक्ल एक ऐसे ही रचनाकार हैं जिनकी रचना-दृष्टि आदर्श के मुहाने से होते हुए यथार्थ का संस्पर्श करती है| इनकी अनुभवशीलता संस्कारों की जो किरणें बिखेरती है सम्पूर्ण परिवेश उससे प्रभावित और आच्छादित होता दिखाई देता है| परिवेश का आदर्षता से आच्छादित होना अपने सम्पूर्ण अर्थों में संस्कारशीलता से अनुप्राणित होना है| जीवन में मानवीय व्यावहारिकता संस्कारशीलता के ही प्रभाव से प्रवेश पाती है अन्यथा तो व्यक्ति पाशुविकता के आस-पास मंडराता फिरता है| कवि यह कहना-मानव-पशु में अंतर कितना रह जाता है,/कार्य हमारा, जाने क्या-क्या कह कह जाता है|/ मानव की श्रेणी में रहने वालों की,/ पहचान कराती, ऐसी मधुमय मानवता है ये||/ जीवन यात्रा में यदि चाहो आगे बढ़ना,/ निर्दय बनकर जग में यारों कभी न रहना/ दया-धरम की धरती माँ ये घोषित करती,/  भर लो अंचल, ऐसी सुन्दर मादकता है ये”, आदर्शता की संभावनाओं के साथ जुड़कर रहने की स्थिति को स्पष्ट करना है|
             सृष्टि के प्रारंभ से लेकर आज तक के विकास यात्रा में यदि देखने का प्रयत्न किया जाए तो ‘मानव-पशु में अंतर’ बहुत ज्यादा नहीं पाया जाता है| मानव जहाँ मानवता के लिए अपने अतीत से प्रेरणा ग्रहण करते हुए वर्तमान को जीने और भविष्य को सुखकर बनाने की परिकल्पना करता है वहीं पशु न तो अतीत की तरफ देखने का कष्ट उठता है और न ही तो भविष्य के लिए चिंतित दिखाई देता है| जैसे भी होता है वह वर्तमान से खुश और संतुष्ट दिखाई देता है| मनुष्य यहीं नहीं रुकना चाहता| वह अतीत से अनुभव जुटाता है तो वर्तमान को खुशहाल बनाने के लिए उसे अपने जीवन में प्रयोग भी करता है| यह प्रयोग अपने गहरे यथार्थ में मात्र वर्तमान के लिए हो ऐसा बिलकुल भी नहीं है| ऐसा इसलिए क्योंकि स्वयं के लिए जीना ही उसका उद्देश्य कभी नहीं रहा| प्रसिद्ध छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद के इन शब्दों के माध्यम से कहने का प्रयास किया जाए तो “औरों को हंसते देखो मनु, हंसो और सुख पावो, अपने सुख को विस्तृत कर लो, सबको सुखी बनाओ” उसके जीवन का मुख्य निहितार्थ होता है| उसके इसी निहितार्थ का परिणाम है कि वह यथार्थ संभावनाओं की खोज और भविष्य के निर्माण में अनवरत सक्रिय रहना चाहता है| इस सक्रियता में वह अपना गौरव और स्वाभिमान समझता है| समझ में जब स्वयं के साथ-साथ सम्पूर्ण मानव-हित की चिंता हो तो मानवीयता स्पष्टतः अपने यथार्थ रूप में दिखाई देती है| गौरव और स्वाभिमान की इसी प्रक्रिया को ‘गौरव’ कविता के माध्यम से जयशंकर शुक्ल मानव की इसी स्थिति और वास्तविकता को कुछ इस तरह स्पष्ट करते हैं-
गौरव को बेताब मनुज यह
प्रति पल उद्यम करता जाए |
अपनी या अपनों के खातिर
जग में कितने कष्ट उठाए ||
खुद की इच्छा गौण समझकर
ममता से परवश हो जाए |
स्वजनों की चाहत के कारण
धरा सींचने गंगा लाए ||
शौर्य त्याग मर्यादा से जुड़
कभी न पीछे मुड़ने पाए ||   
          कभी न पीछे मुड़ने की स्थिति को मनुष्य के सिवाय शायद ही किसी दूसरे प्राणी ने अपनाया हो| यह मनुष्य ही है जो “आपस में निमग्न स्नेह रस के महासागर में/ धरा के प्राणियों हित प्रेम-सुधा बरसाता रहा|” जीवन-गत तमाम प्रकार की व्याधियों को स्वेच्छा से झेलते हुए वह भविष्य का मार्ग प्रशस्त तो करता ही है, दूसरों को भी इस तरह बनाता और तराशता है जिससे समय-समाज में उसकी भी उपयोगिता जीवन-जगत के लिए अनवरत बनी रहे| यह भी सही है कि ऐसे समय में, जब मनुष्य महत्त्वपूर्ण माना गया है समाज में अन्य की अपेक्षा तो यह सम्पूर्णता में बनी रहे न कि अवगुण और अनाचार के मार्ग पर चलते उसे मृतप्राय करने के लिए उद्यत हो| कवि सम्पूर्ण मनुष्य जाति को संबोधित करते हुए कहता है “सबल बनो पर तुमको इतना याद रहे/ निर्बल की भी आहें होती हैं, भान रहे|/ हृदय गुफा में बैठा प्रभु साकार रूप में/ आता इसके साथ अग्नि की दहकता है ये|” ईश्वरीय कोप और सामाजिक अपयस से सर्वथा बचाव के लिए जो सच्चे मनुष्य हैं उन्हें अपने इस उपयोगिता का अभिमान होता भी नहीं है| ऐसा करते रहने के पीछे प्रत्येक मनुष्य का स्पष्ट मानना होता है की “मानवता की उपासना ही हमारा धर्म है/ शास्त्र और आचार का एक यही मर्म है|”
      जीवन-पथ पर आगे बढ़ने के लिए उसकी पहचान बहुत आवश्यक मानी जाती है| हम कहाँ जा रहे हैं और क्यों जा रहे हैं इसके विषय में कुछ तो जानकारी होनी ही चाहिए| इस जानकारी के लिए ही मनुष्य ने ‘शास्त्र’ का चयन किया है| शास्त्रों के द्वारा संस्कारशीलता का उपनयन किया है| आज के इस संक्रमण के दौर में ‘शास्त्र’ को ही सभी विसंगतियों के लिए उत्तरदायी ठहराया जा रहां है| तमाम प्रकार की विडम्बनाओं के लिए उसे शक के दायरे में रखकर खारिज करने का साहस किया जा रहा है| विडम्बना का विषय यह भी है कि ऐसा उनके द्वारा किया जा रहा है जिन्हें न तो शास्त्र की समझ है और न ही तो शास्त्रगत-आचार की| यही वजह है कि जो आचरण की परिभाषा ‘किरण’ के कैनवास से कवि बताता है “आचरित बन स्वयं किसी अप्रतिम अलबेले से/ सामाजिक स्नेह भाव के आधार को संवारते|/ कर दे पिक, काक को अपने सहज कौतुक से/ हॉवे महिमामंडित जो उसे आचरण पुकारते” आज बहुत कम ही लोगों में देखने और जानने को मिल रही है|
         यह भी सही है कि ऐसे लोग सिद्धांतों मात्र में अडिग तो रहना चाहते हैं लेकिन जब बात व्यावहारिकता की आती है तो कहीं दूर हट जाना चाहते हैं| शास्त्र के प्रतिरोध में अनेक कोकशास्त्र भी इन दिनों के परिवेश में लोगों द्वारा रचे गए हैं और निरंतर रचे भी जा रहे हैं लेकिन वे नितांत बनावटी, दिखावटी और मतिभ्रम करने वाले ही साबित हुए हैं| कवि का यह कहना “हाय रे हतभाग्य/ तुमने/ अपने चारों तरफ/ बनावटी दुनिया के ताने बाने/ कृत्रिमता के बहाने तथा/ उपलब्धि की इच्छा में/ स्वयं को उसकी छाया से/ दूर कर लिया है/ बहुत दूर कर लिया है” उसकी अपनी यथार्थ स्थिति को दिखाने का ही प्रयास है|
         इस प्रयास में शास्त्र के बहाने जहाँ जीवन-पथ को सुन्दर बनाने की परिकल्पना की गयी है वहीं अपने समय के साथ-साथ इस वर्तमान की संवेदनशील समस्याओं पर भी गहरी दृष्टि दौडाई गयी है| सबसे पहले तो बात कर लेना उचित होगा देशभक्ति की| आज सम्पूर्ण चिंतन-प्रक्रिया दो धाराओं में बंटी हुई है| देशभक्ति और देशद्रोह| देशभक्ति और देशद्रोह की परिभाषाओं से आज का बच्चा-बच्चा वाकिफ है| जो ठीक से दौड़ना भी नहीं सीखा होगा भक्ति की स्थिति से कहीं ज्यादा परिचित होगा| सवाल ये है कि जो दौड़ रहे हैं लगातार ऐसी भक्ति को ढोंग और ढकोशला बता रहे हैं और मन-माफिक देशभक्ति के दायरे से बाहर होते हुए जन-भक्ति का जुमला उछाल कर सम्पूर्ण परिवेश को दूषित और प्रदूषित कर रहे हैं| जो भावी युवा हैं देश के ऐसे जुमलों से संक्रमित जरूर हुए हैं और समाज-देश-विरोधी संस्कृति की तरफ बड़ी तेजी से उन्मुख हो रहे हैं| देश के बच्चों में ‘भारत की तकदीर’ को देखते हुए जयशंकर शुक्ल यह कहना देश और समाज के लिए तत्पर होना तो सिखलाता ही है संस्कृति से जुड़कर कार्य करने के लिए प्रेरित भी करती है-यथा
बच्चों तुम भारत माँ की तकदीर हो
देश को चमकाओगे ऐसे वीर हो
तुमसे बढ़ता मान देश का
गौरव स्वाभमान देश का
ज्ञात विश्व में जान सके ना
ऐसा मधुमय आन देश का
जन-उत्थान कराने वाले
विविधा के रणधीर हो|
           काव्य की ऐसी पंक्तियाँ निश्चित ही देश समाज और संस्कृति से जुड़ने के लिए प्रेरित करती हैं| यह स्थिति आज के कवियों में बहुत कम देखने को मिल रही है| गीतों और नवगीतों में तो ऐसी परंपरा वर्तमान है लेकिन तथाकथित समकालीन कविता जिसे मुक्त-छंद के नाम से ही समझने का प्रयत्न किया जा सकता है, में इसका बहुत बड़ा अभाव दिखाई देता है| वहां भारत को भारत मानने के लिए ही लोग तैयार नहीं हो रहे हैं “माँ” शब्द से विभूषित करना तो बहुत दूर की बात है| इसीलिए देश में इन दिनों “भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह इंशाअल्लाह!” जैसे नारे जन्म ले रहे हैं| देशभक्ति के पाठ पढ़ने वाले बच्चों को उकसाए जा रहे हैं| उन्हें परम्परावादी और रूढ़िवादी सिद्ध किये जा रहे हैं| यहाँ कवि संस्कारशील बच्चों को पुरातनपंथी न कहकर उन्हें ‘आने वाले युग का नायक’ कहता है
“आने वाले युग के तुम नायक हो
प्रातः रुपी धनुहा के सायक हो
नये क्षितिज को विस्तृत करके
बनो दीप तुम लायक हो
जो बलि जाए राष्ट्र धर्म पर
तुम वो शूर वीर हो ||बच्चों||
         यहाँ कवि जाति-धर्म या समाज-धर्म की बात न कहकर राष्ट्र-धर्म की संवेदना को महत्त्व देता है| यह भी वर्तमान की एक विसंगति है कि जाति-धर्म के आगे किसी का कलम और किसी की सोच कम ही चलती हुई दिखाई दे रही है| हमारे आज के इस समय की यह भी एक बड़ी सच्चाई है कि जिनसे उन्हें सीख मिलनी चाहिए वे पाठ्य परिवर्तित कर के उनके स्थान पर ऐसे रचनाओं को जगह दिया जा रहा है जिनमें प्रेरणा नाम की चीज न होकर विखंडन की विसंगतियां भरी पड़ी हैं| जिस देश का साहित्य जैसा होगा उस समाज-संस्कृति  की स्थिति की पारिकल्पन कुछ वैसी ही की जायेगी| सदियों से चले आ रहे भारतीय समाज में असमानता की जो जगह थी शिक्षा जगत में उस असमानता को और भी विकसित किया गया है| महापुरुषों को गलियां दी जा रही हैं तो महात्माओं पर व्यभिचार के दोष मढ़े जा रहे हैं जबकि कपटी, धूर्त और अहंकारी तथा समाज-विभाजक के सूत्रधार राजनीतिक षड़यंत्र का फायदा उठाते हुए पुरस्कृत हो रहे हैं| अर्थात विखंडन की जो भी नीतियाँ कारगर हैं उन्हें अपनाया जा रहा है जबकि इस देश की संकल्पना में विखंडन न होकर “साम्यरस की छटा” हिलोरे ले रही थी, कवि विभाजन कारियों को यही सन्देश देना चाहता है कि-
मान क्यूं दे रहे हो कृपन के लिए/ मान देना है दे दो सुमन के लिए
आप के सामने ऐसा हो जाएगा/ आग भी रो उठेगी तपन के लिए
एक दीपक जला करके देखो जरा/ बाती घी में डूबा करके देखो जरा
अन्धकार अपने आप में घुट जाएगा/ रोशनी की छवि भरके देखो जरा|
दूरियां हर दिलों की सिमट जाएँगी/ अन्तराएं अँधेरे की मिट जाएँगी
राह की दोस्ती के चलो कुछ कदम/ मुश्किलें रास्तों की भी हट जाएँगी|
आदमी-आदमी जैसा दिखने लगे/ आदमीयत की आभा निखरने लगे
अपनी जैसी समझ लो पराई व्यथा/ साम्यरस की छटा फिर सँवरने लगे|”
             ‘साम्यरस की छटा’ से चाटुकारों को हर समय भय रहा है| मुफ्त की खाने वालों को हर समय दिक्कत रही है| भला वे कब चाहेंगे कि “आदमी आदमी जैसा दिखने लगे/ आदमीयत की आभा निखरने लगे”? यदि ऐसा हुआ तो फिर लूटने-खाने के लिए कहाँ से मिलेगा उन्हें? कवि इन स्थितियों की यथार्थता को लेकर पूरे संग्रह में चिंतित दिखाई देता है| उसके इस चिंता में ‘जनसँख्या का विस्फोट’ भी है और लेबर चौराहों पर लग रही मजदूरों की बोली भी है, महापुरुषों की जरूरत भी आज के इस समय में उसे आभासित हो रही है और भाषा-संस्कृति की दुर्दशा पर भी बेहद संवेदनशील है| कुल मिलकर ‘किरण’ में वह चाहता है कि सभी व्यक्ति अपने अपने हिस्से की रोशनी को देखें ताकि समाज व्याप्त अंधियारा समाप्त हो सके| सम्प्रेषणीयता में तुकबंदी कहीं कहीं बाधक जरूर है लेकिन भावात्मक सघनता होने की वजह से बोधगम्य भी है| सहज शब्दों के माध्यम से सब कुछ कह देने की इनकी अपनी विशेषता है जिसे विशिष्टता भी समझा जा सकता है और इनकी कमजोरी भी|










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