1.
मेरे जागरण के गान
ये न स्वप्न-प्रदेश वाले
ये न मधु के देश वाले
ये न रेशम वेश वाले
ये उषा के दान,
निशि की भूल के पहचान
ये श्रमिक के स्वेद-कण हैं
ये भ्रमित के ज्ञान-क्षण हैं
ये दलित के गलित व्रण हैं
ये अश्रु के गान,
जिनका हास है परिधान|
- शम्भुनाथ सिंह
समाज
की अपनी संरचना और अपना सिद्धांत है| वह उसी पर चलता है और उसी पर चलने के लिए
लोगों को विवश करता है| जहाँ कहीं सामाजिक संरचना और सिद्धांतों के विपरीत कोई
चलने की कोशिश करता है, उसे असामाजिक करार दिया जाता है| समाज अपनी संकल्पना में
अधिकार और कर्तव्य का ऐसा सुंदर समन्वय है कि सामाजिक परिक्षेत्र में आने वाली सभी
सुविधाओं पर सबका समान अधिकार और सभी एक-दूसरे के प्रति वफादार रहें| यह इतनी
सीधी-सी परिभाषा है समाज की| बावजूद इसके लडाइयां चलती रहती हैं| लोग एक-दूसरे-से
लड़ते-झगड़ते रहते हैं| टकराव के कई ऐसे मुद्दे होते हैं जो हमें अस्वाभाविक बनाते
हैं| सामाजिकता के केन्द्र में भी कई ऐसे खेल होते हैं जिनमें हम असामाजिक बनकर
भूमिका निभाते हैं| क्यों? इस पर आगे बात होगी नवगीत के साथ|
इस लेख में, जरूरत हाशिए पर धकेल
दिए गए समाज की उपस्थिति नवगीत में कितनी है; इस विषय पर चर्चा करने की है| यहाँ
हाशिए का समाज से तात्पर्य समाज में रह रहे उन वर्गों, जातियों और समूहों से है
जिनका जीवन उपेक्षित रहा या जिनके अधिकारों पर किसी न किसी रूप में कब्ज़ा रहा
लोगों का| दलित, आदिवासी, किसान, स्त्री, बुजुर्ग आदि को जिस तरह से हाशिए पर
धकेला गया और जिस तरह से आज धकेला जा रहा है, कारण अलग-अलग हो सकते हैं, उद्देश्य
एक ही रहा-अपना प्रभुत्व और अपना वर्चस्व उन पर बनाए रखना|
हिंदी साहित्य में लगभग 1985 के बाद
से विमर्शों की अवधारणा जन्म लेती है| एक लम्बा प्रयास चलता है कि जो हाशिए का
समाज है, उसका अपना साहित्य और अपना मंच हो; जिससे अपने ऊपर हुए अत्याचारों और
शोषण के विभिन्न रूपों को सबके सामने वह निर्भीकता से रख सकें| साहानुभूति और
स्वानुभूति का सवाल यहीं से शुरू होता है| जिन्हें हम अस्मितावादी विमर्श कहते
हैं, वह यही है| विमर्शों के मुख्य मुद्दे में दलित, आदिवासी और स्त्री रहे| बाद
में किसान, बुजुर्ग आदि को भी उपेक्षित जीवन जीने वालों में मान लिया गया| अब
प्रवासी, किन्नर, पर्यावरण जैसे मुद्दे भी इसमें शामिल कर लिए गए हैं| कविता,
कहानी, उपन्यास जैसी विधाओं में विमर्शों की अवधारणा इसके प्रारम्भ से रही| नवगीत
विधा में इसे अभिव्यक्त होने में समय लगा| इतना कि, अभी भी वह संगठनात्मक या
सामूहिक वैचारिकी इस विधा में कम दिखाई देती है|
विमर्शों पर बात करते हुए यहाँ
स्वानुभूति और सहानुभूति को अलग करके यदि कुछ खोजने का प्रयास करेंगे तो निराशा
हाथ लगेगी| ऐसा नहीं है कि दलित, आदिवासी, स्त्री, किसान, वृद्ध आदि पर बात नहीं
हुई इस विधा में, लेकिन जिस तरह से अन्य विधाओं में इसे एक आन्दोलन और सक्रिय
वैचारिक विमर्श के रूप में देखा गया, वह इधर नहीं दिखाई दिया| था भी तो इस दृष्टि
से उन रचनाओं और रचनाकारों को विश्लेषित करने का प्रयास नहीं हुआ| यह नवगीत-आलोचना
जगत की एक सीमा हो सकती है और रचनाकारों का उन क्षेत्रों से अधिक मात्रा में न आ
पाना भी हो सकता है, जो इनका प्रतिनिधित्व करते| यह भी हो सकता है कि मुझे इसकी
जानकारी कम हो लेकिन परिदृश्य कुछ ऐसा ही है| खैर...|
2.
सबसे पहले बात इस विधा में
दलित-चेतना और स्थिति की करते हैं| नवगीतकार यथास्थितिवादी बनकर नहीं रहना चाहते
हैं| वे समानता और सहअस्तित्व पर विश्वास करने और रखने वाले रचनाकार हैं| यही विषय
की गंभीरता और समय की मांग भी है| यह मांग इसलिए भी जरूरी है क्योंकि दलित जीवन के
लिए समानता महज एक स्वप्न बनकर रहा| माधव कौशिक ने ‘जोखिम भरा समय है’ संग्रह में
एक जगह कहा है-“जीवनभर की विषम विषमता/ मरते दम तक ढोई/ पैर मिले तो/ रस्ता गायब/
राह मिली तो पाँव गए/ अपने घर की/ इच्छा लेकर/ जाने किसके गाँव गये/ पल भर को यदि
अधर हँसे तो/ सदियों पलकें रोईं|”[1]यह
जो सदियों पलकों का रोना है यथार्थतः ‘जीवन भर की विषम विषमता’ से दुखित होना है|
समाज ने किस तरह विषमता की नीति अपनाई
यह कोई कहने की बात नहीं है| जिस भारतीय समाज में ‘तृण से लेकर आसमान’ तक की पूजा
की जाती रही, उसी समाज में मनुष्य के साथ जानवरों से भी बदतर बर्ताव किया गया, किस
आधार पर? यही विषमताएं थीं| जाति के नाम पर, वर्ग के नाम पर| रुतबे के नाम पर,
वर्चस्व के नाम पर, जितनी उपेक्षा की जानी थी उससे अधिक की गयीं| समस्या तो यह कि
उनका अपना पक्ष भी कभी नहीं सुना गया| अब जब उन्हें अवसर मिला है तो उनका यह
संकल्प कि “वर्तमान से/ जूझा हूँ फिर/
भोगा हुआ अतीत लिखूँगा”[2]
पूरी प्रतिबद्धता के साथ साकार होते हुए हमारे सामने आ रहा है| अतीत के कटु और
यथार्थ अनुभव के साथ वर्तमान-संघर्ष-स्थिति को जिस तरह रामकिशोर दहिया ने ‘हम ठहरे
गाँव के’ नवगीत में यहाँ प्रस्तुत किया है, उसे पढने के बाद आप यथास्थिति को ठीक
से समझ सकते हैं- वे कहते हैं,
लाल
हुए धूप में/ पाँव जले छाँव के/ हम ठहरे गाँव के/ हींसे में भूख-प्यास/ लिये हुए
मरी आस/ भटक रहे जन्म से/ न कोई आसपास/ नदी रही और की/ लट्ठ हुए नाव के/ हम ठहरे
गाँव के
पानी
बिन कूप हुए/ दुविधा के भूप हुए/ छाँट रही गृहणी भी/ इतना विद्रूप हुए/ टिके हुए
आश में/ हाथ लगे दाँव के/ हम ठहरे गाँव के
याचना
के द्वार थे/ सामने त्यौहार थे/ जहाँ भी उम्मीद थी/ लोग तार-तार थे/ हार नहीं
मानें हम/ आदमी तनाव के/ हम ठहरे गाँव के|”[3]
इस नवगीत के एक-एक शब्द और वाक्य को
पढ़ा जाना चाहिए| ‘उपेक्षा और शोषण’ का अतीत आपके आँखों के सामने आ जाएगा| वर्तमान
कहीं न कहीं कचोटेगा| कवि जब ‘हम ठहरे गाँव के’ वाक्य का प्रयोग करता है तब यथार्थ
और अधिक विद्रूपता के साथ अभिव्यक्त होता है क्योंकि गांवों में आज भी वही
संकीर्णता वर्तमान है जो पहले था| पहले से तात्पर्य जो सदियों से चला आ रहा है| सच
यह भी है कि समाज में जो प्रतिनिधित्व उन्हें मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला| उनके
अधिकारों पर एकाधिकार सवर्णों का रहा| अपने घर का कोना भी इनका नहीं था और आज भी
गाँवों में ‘इनका कुछ है’ एक हद तक संदेह बना रहता है|
इस संदेह को बनाए रखने में तथाकथित
‘उच्च’ और ‘बड़े’ लोगों ने अपनी कटुतापूर्ण भूमिका का निर्वहन किया| बात-बात में
उन्हें उनकी औकात में रहने की सीख दी गयी| उपदेश दिया गया| वे मजबूरी में ही सही
सार्थक दिनों की तलाश में भाग्य पर अविश्वास रख श्रम को महत्त्व दिए| यह भी लोगों
को सहन नहीं हुआ तो श्रम की विश्वसनीयता पर ‘डर’ फैलाया गया| जगदीश पंकज की यह
अभिव्यक्ति इस स्थिति पर गंभीर विमर्श को मजबूर करती है-यथा
छोटी
चादर देख हमारी/ पग-पग पर उपदेश मिल रहे/ केवल उतनी पैर पसारो/ जितनी पास तुम्हारे
चादर/ सिकुड़-सिमट कर लेट रहे हम/ लगा पेट से अपने घुटने/ निहित स्वार्थ के रखवालों
ने/ नहीं दिया पल भर को उठने/ जनम-जनम से संचित कर्मों को/ लेकर प्रारब्ध कह दिया/
हम कुछ बोलें उसके पहले/ खड़े कर दिए हैं अनगिन डर/ परंपरा की अगवानी में/ हमें खड़ा
कर दिया द्वार पर/ केवल जय-जयकार करें हम/ यह अपना कर्तव्य मानकर|”[4]
यह
और विडम्बना की बात है कि परम्परा की रखवाली करने और जय जयकार करने के लिए इन्हें
चुना गया जबकि फायदा जो कुछ हुआ उससे उपेक्षित रखा गया| यह उपेक्षित रखने की
रणनीति अर्श से लेकर फर्श तक और फर्श से लेकर अर्श तक अपनाई गयी|
सच तो यह भी है कि गली-मोहल्ले से लेकर
मंदिर आदि तक पर इनका कोई अधिकार नहीं रहा और न ही तो है अभी| राजनीति से लेकर
समाजनीति तक नदारद रहने वाले उपेक्षित जन पर ‘ईश्वर’ की न तो कोई कृपा रही और न ही
तो इन्हें ‘गीता’ की कोई संगति मिली| ये बात और है कि इन्हीं के नाम के नाम पर
उन्हें शोषण के दायरे में सीमित रखा गया| अवध बिहारी श्रीवास्तव अपने एक नवगीत में
कहते हैं-“पूरी ‘गीता’ नहीं, याद है/ ‘यदा-यदा’ केवल/ युगों-युगों से भोग रहे हैं/
पोथी का यह छल/ धनुष अँगूठा दान दे दिया/ हमने गुरुओं को/ क्रोध नहीं तो ‘एकलव्य’
होकर/ क्या करते हम|”[5]
दरअसल इधर का समय ‘एकलव्य’ होने वाला भी नहीं है| ‘शास्त्र’ के आवरण में ‘छल’ की
जो प्रथा थी वह लगातार बनाए रखने की कोशिश होती रही और हो रही है| शोषण के अस्त्र
वही पुराने हैं जबकि इधर इनके हिस्से महज ‘शोषण के निमित्त’ होने के अतिरिक्त और
कोई रास्ता नहीं|
एक विकल्प था| लोग गाँव से निकलकर शहरों
की तरफ पलायन किये| इस पलायन के बाद ‘जी हुजूरी’ और ‘माई-बाप’ वाली पद्धति से
छुटकारा मिली| एक हद तक समृद्ध हुए| लगातार होते रहे| अचानक षड्यंत्र यहाँ भी हुआ|
छटनी की प्रक्रिया में आम आदमी पिसा| घर छोड़कर जिस गंभीरता से वह कार्य-व्यापार में
तल्लीन था उसे पुनः घर का रास्ता दिखा दिया गया| रोजगार के छिन जाने से हुआ ये कि
“खिसक गये दिन रोटी वाले/ पिछले पखवारे से.../ आज कम्पनी ने छंटनी की/ कुछ लोग हुए
बाहर/ रामभजन का भाग्य निगोड़ा/ बैठा तनकर सिर पर/ पिता चल बसे/ अम्मा बेसुध अब दिन
बंजारे से|”[6]
ऐसी हालत में एक ऐसे व्यक्ति की क्या दशा होगी? यह आप सोचिये| युवा नवगीतकार आलम
आजाद के यहाँ ऐसा ही एक नवगीत है जिसमें वह घर-गृहस्थी में पिसते हुए मजदूर का
यथार्थ चित्र खींचते हैं| इस यथार्थ चित्र में पूरा भारतीय परिवेश अपनी गहन
अनुभूतियों के साथ चित्रित हुआ है| एक के बाद एक मुसीबतें कैसे गरीब, दलित मजदूर
पर हावी होती हैं और कैसे वे इस बिछे जाल में उलझकर रह जाते हैं वह आप देख सकते
हैं-
“टूटी
कौड़ी/ आधी पाई/ घुम्मन की बस एक कमाई!
नात-बाँत
और गाँव जेवारी/ राशन-पानी क़र्ज़ उधारी
कटर
किताबें पेन्सिल कॉपी/ और दवा के पर्चे
रब्बा
जाने कितने ख़र्चे!
मुनिया
की टूटी उँगली/ चुन्नू के जाँघ का फोड़ा
पगार
में इसी माह की/ नहीं ज़रा कुछ छोड़ा
सर
थामे वह बैठ गया है/ करे तो किससे चर्चे
रब्बा
जाने कितने ख़र्चे!
दर्रा
देती दीवारों पर/ नज़र गड़ाये मौसम
सन्नो
की मंगनी में कब से/ उलझा घरवाली का मन
उम्मीदों
का दिया बुझाती/ ओस रात में झर के
रब्बा
जाने कितने ख़र्चे!
पटवारी
ने नोटिस भेजी/ छप्पर अपनी हटवा ले/
सुबह
सुबह ही जाकर थाने/ नाम रपट से कटवा ले
सोच
रहा है संकट में इस/ अब किसको वह परखे
रब्बा
जाने कितने ख़र्चे!”
आप देखिये! किस तरह समय परीक्षा लेता है
गरीब और दलित परिवार का| एक चीज जोड़ता है तो दूसरा कम हो जाता है| इसी गृहस्थी में
रहते हुए न तो उनकी उन्नति हो पाती है और न ही तो उनके बच्चों की| इसलिए अक्सर
पीढियां मजदूरी के दल-दल में फंस कर व्यतीत होते-होते अतीत हो जाती हैं| इधर
‘दलित’ शब्द के मायने बदले हैं| इस बात के समर्थकों का कहना है कि दलित होना महज
छोटी जाति का होना भर नहीं रह गया है| वह सब इसके दायरे में आते हैं जो गरीबी और
भुखमरी की जहालत को झेल रहे हैं| और अब इस बात को संवैधानिक मान्यता भी 10 प्रतिशत
आरक्षण के तहत मिल गयी है| यह होना भी चाहिए| सही अर्थों में यदि हम आप देखें तो
जिस सामाजिक भेदभाव का शिकार वे हैं उसी के शिकार तथाकथित ‘स्वर्ण’ भी हैं| यह भी
यथार्थ है कि छोटी जातियों के लोग महज सवर्णों द्वारा उपेक्षित हैं लेकिन सवर्ण
सवर्णों और दलितों दोनों की उपेक्षा का कारण बन रहे हैं| नवगीतकार ओम धीरज की एक
नवगीत है ‘टपके छप्पर छानी’, इस नवगीत में सवर्ण-दलित की यथास्थिति को रखने का
प्रयास उन्होंने किया है जिसका कुछ अंश पढ़ा जाना चाहिए-
कैसे
कह दूं/ उन जैसी थी/ अपनी राम कहानी भी/
बीती रात खाट खिसकाते/ टपके छप्पर
छानी भी
चलते थे हम भी पैदल तब/ कोसों-कोस
पढ़ाई को
आध-अधूरे अस्त्र-शस्त्र ले/ जाते
बड़ी लड़ाई को
कैसे कह दें/ पढ़ते थे हम/ मांग
किताब पुरानी भी....
कहने को हम लोग सुघोषित/ बड़े बाप के
बेटे हैं
कई पीढ़ियाँ पहले के हम/ शापित दंश
समेटे हैं
कथन ‘गरीबी गरवीली’ को/ कहते चाल
सयानी थी
कुहरे घिरी भोर को कैसे/ कह दूँ
बहुत सुहानी थी|”
हालांकि इस बात पर ‘कुछ’ लोगों की
सहमति नहीं बनेगी लेकिन जब बात उठी है तो सामने आनी चाहिए| बतौर ओम धीरज “मैंने यह
नवगीत राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद जी की प्रतिक्रिया के बाद लिखा था जो मेरे अपने
भोगे जीवन का यथार्थ है|” एक सच्चाई तो समाज की है ही| ऐसी सच्चाई जिससे सभी
दो-चार हो रहे हैं लेकिन इसका राजनीतिकरण न होने से अभी उतना गम्भीर मुद्दा नहीं
बन सका| यह वर्तमान समय के रचनाकारों की दृष्टि है जो समय और समाज की सच्ची स्थिति
को रख रहे हैं बेबाकी से अन्यथा तो शोषण के खिलाफ बोल कौन पाता था? फिर पैसे और
रुतबे के आगे चेतना की औकात ही कितनी होती थी? लेकिन इधर ऐसा किया गया है| अन्य
विधाओं के साथ-साथ दलित जीवन और सन्दर्भ को गंभीरता से नवगीत में लाया जा रहा है|
हालांकि यह एक सच्चाई है कि इधर बहुत कम रचनाकारों की सक्रियता है इस विधा में|
इसलिए भले कुछ शोर न उठता हो लेकिन आवाज उठ रही है तो भविष्य में भी इस तरह की
आवाजें उठती रहेंगी|
3.
दूसरा मुद्दा स्त्रियों का है| यह
नवगीतकारों के यहाँ एक बड़ी चिंता का विषय है| वह चाहते हैं कि स्त्रियों के
सन्दर्भ में परिदृश्य बदले लेकिन निष्कर्ष वही ढाक के तीन पात| इस इक्कीसवीं सदी
में पहुँचने के बाद भी यदि सुधांशु उपाध्याय की मानें तो “दुनिया रही बदल/ पर
डिजिटल होते इस भारत में/ औरत खींच रही है हल !” इस स्थिति की सच्चाई प्रस्तुत
करते हुए वह आगे कहते हैं-“यह सदियों की पीर रही है/ औरत की तक़दीर रही है/ चाहे
जिस भी कोण से खींचें/ यह सच्ची तस्वीर रही है,/ यही
आज का सच है/ देखें, कैसा होता कल!”[7]
कल भले सुनहरा हो लेकिन आज की तस्वीर जो है वह भयानक और त्रासदपूर्ण है|
यह कहते हुए कोई संकोच नहीं है कि
हाशिए के समाज में आधी आबादी भी शामिल है| आप को सुनकर एक बार आश्चर्य होगा? अब
क्योंकि हम इस समाज के हिस्सा हैं तो आश्चर्य भले न हो लेकिन जो सुनता है वह एक
बार जरूर चिंता में डूब जाता है| सृजन से लेकर उत्पादन तक में जिसका बराबर
हस्तक्षेप हो वह भला कैसे उपेक्षित हो सकता है? इसका जवाब इस देश के धर्म ग्रंथों
से लेकर परम्पराओं तक में वर्तमान हैं| इस विषय में अपने पक्ष और अपने तर्क होते
हैं लोगों के, यह अलग बात है, लेकिन जो सच है उसे इनकार करना जोखिम का काम है| और
सच यही है कि आज भी इस देश में कोई नहीं चाहता कि उसके घर या आँगन में एक बेटी का
आगमन हो| माधव कौशिक की इस बात को ध्यान में रखकर देखें तो-“देखते ही देखते/ सब
नग्न/ संज्ञाएँ हुई हैं/ जन्म से ज्यादा/ यहाँ पर/ भ्रूण हत्याएं हुई हैं/ वृक्ष
की जड़ का विरोधी/ हो गया उसका तना है|”[8]
जिस औरत द्वारा जन्म लेकर हम इस धरा-धाम पर उपस्थित होते हैं उसी के विरोधी बन
बैठेंगे? ऐसी परिकल्पना तो नहीं की गयी थी? हालाँकि इसके पीछे के कारण और भी हैं
लेकिन सवाल मानसिकता का ही है जिसमें एक ‘स्त्री’ के लिए हमारे समाज में कोई जगह
नहीं है|
यह आए दिन हम सुनते हैं कि स्त्री
के साथ ऐसा हुआ, वैसा हुआ| बलात्कार, रेप, छेड़छाड़ यह सब आए दिन की बात हो गयी| घर
तक उसके लिए कोई ‘सुरक्षित’ ठिकाना नहीं है आज के समय में कि यह कहा जा सके-हमें
एक स्त्री के होने में गर्व और घमंड है| रिश्तों और सम्बन्धों में आ रही दूरियां
एक बड़ी वजह हैं| घर से बहार निकलकर देखें तो जगदीश पंकज का ये प्रश्न और अधिक
विचलित कर देता है-“डेरे, मठ, आश्रम, शरणालय/ सभी सवालों के घेरे में/ ऐसी जगह
कहाँ पर खोजें/ जहाँ सुरक्षित रहें बेटियाँ|”[9]
यह पहले ही कह दिया कि घर तक सुरक्षित नहीं है वह| भाई, पिता,चाचा आदि जो रिश्ते
हैं कहीं न कहीं वह सबसे बच-बचाकर निकलना उचित समझती है|
घर से स्कूल और स्कूल से कॉलेज तक
का सफर उसेक लिए कितना संघर्ष भरा होता है यह जय चक्रवर्ती के इस गीत में देखा जा
सकता है-“घर से कॉलिज बस में/ करती/ रोज़ सफ़र लड़की.../ व्यंग्य, फब्तियाँ,/ छेड़छाड़/
ज़हरीली फुफकारें/ भूखी-प्यासी/ हत्यारी नज़रों की/ तलबारें/ एक साथ लाखों/ विषधर/
ढोती तन पर लड़की|”[10]
यह महज शब्द-चित्र नहीं है| इस समाज में स्त्री-जीवन का कोरा यथार्थ है जो हम सब
अपनी खुली आँखों से देखते हैं और देख रहे हैं| बावजूद इसके वह उफ़ तक नहीं करती|
करती भी है तो हज़ारों नसीहतें उसके लिए बनी-बनाई होती हैं| गरिमा सक्सेना उन नसीहतों
को कुछ यूं रखती हैं-“पढ़-लिख कर ज्यादा क्या करना/ दादी ने शिक्षा को रोका/ बाहर
आया जाया मत कर/ माँ ने बार-बार है टोका”[11]
मना करने से लेकर टोकने तक की स्थिति में एक लड़की अपनी सफाई देती है लेकिन उसे
सुनता कौन है? घर से लेकर बाहर तक बदचलन से लेकर आवारा तक की भूमिका से नवाज दिया
जाता है लेकिन जो उसके साथ ऐसा करते हैं वे एक तरह से सुख का अनुभव करते हैं| जय
चक्रवर्ती के इसी नवगीत की ये पंक्तियाँ कि-“रुकें न उसके/ कदम/ उसे मंजिल तक जाना
है/ अपने होने का/ जग को/ अहसास कराना है/ इसीलिए/ सब सहकर चुप रहती/ अक्सर लड़की|”
चुप रहने में वेदना के किस जख्म को सहकर बैठना होता है अब यह तो एक लड़की ही बता
सकती है| पूछने और समझने वाला कोई हो बस| जो पूछ और समझ रहे हैं वह नहीं चाहते कि
लड़की का पिता बनें| लड़की की माँ और लड़की का भाई बनें| यह कम विडंबना की बात नहीं
है कि जो ऐसा नहीं चाहते वे भी अन्य लड़कियों के प्रति वही बर्ताव करते हैं| फिर भी
अभिभावक रूप में जो हैं उनसे पूछकर देखिये एक लड़की को पालने-पोषने से लेकर उसे
विदा करने में क्या स्थिति होती है? नहीं पूछ सकते तो मधुकर अष्ठाना के इस गीत को
पढ़ें और माँ के दुःख का यथार्थ कारण पता करें-
छोटी बिटिया/ हुई सयानी/ नींद गई
माँ की/
गली-मुहल्ले/ बाज़ारों तक/ जाती रोज
अकेले
चोर-उचक्कों/ बदचलनों के/ लेकिन बड़े
झमेले
अभी न लौटी/ की नादानी/ नींद गई माँ
की
नभ में गिद्ध/ धरा पर तन के/ रहें
भेड़िये भूखे
सोच-समझकर/ ढुलके आँसू/ और कलेजा
सूखे
रेप अपहरण की/ मनमानी/ नींद गई माँ
की
तपती धूप/ नौकरी छाया/ मगर हुई
जहरीली
लुट जाने पर/ रह जाती हैं/ आँखें
गीली-गीली
बची न पिछली/ लीक पुरानी/ नींद गई
माँ की|”[12]
सोचिए कि एक लड़की की यथास्थिति पर
‘नींद गई माँ की’ क्योंकि वह पाल-पोष रही है| इस समाज की यथार्थ स्थिति को एक
स्त्री होने के नाते देख-समझ और भोग रही है| माँ के भी बेटे हैं, पति है और अन्य
सम्बन्धी हैं जो इसी प्रकार की समस्याओं में सक्रिय भूमिका निभाते हैं, वह यह भी
जानती है|
दरअसल एक स्त्री होना किसी अपराधबोध
से ग्रसित होने से कम इस समाज में नहीं है| फिर भी वह आगे बढ़ रही हैं| तय यह भी है
कि संकीर्णता किसी के हौसले को पस्त नहीं कर सकती| तमाम स्थानों पर लड़कियों ने ऐसा
प्रदर्शन किया है कि इस संकीर्ण समाज में भी लोगों को सोचने के लिए विवश होना पड़ा
है| सच तो यही है कि “पूर्वाग्रह से/ ग्रसित आदमी/ भले उसे दुत्कारे/ किन्तु अडिग
वो/ चले राह पर/ कभी न हिम्मत हारे|”[13]
स्त्रियाँ बढ़ रही हैं आगे और निरंतर नए नए कीर्तिमान स्थापित कर रही हैं| हम उसे
देख रहे हैं| समाज अपनी तरह से मूल्यांकित कर रहा है| पहले से कहीं अधिक स्पेस बढ़ा
है स्त्रियों के लिए| जो संकीर्ण मानसिकताएं थीं कभी अब उनमें सुधार दिखाई देने
लगा है कुछ हद तक| कुछ हद तक लोग ‘स्त्री देह’ से अधिक ‘पूर्ण व्यक्तित्व’ के रूप
में देखने के लिए विवश हुए हैं| ये विवशता सही अर्थों में स्त्रियों के संघर्ष का
परिणाम है| ऊपर लिखे सुधांशु उपाध्याय के गीत की कुछ पंक्तियों को पुनः रखना
चाहूँगा-
हरी
नहीं यह डाल हो रही/ गरम- उबलता ताल हो रही
चूल्हे
पर यह बैठ- बैठ कर/ घर की ख़ातिर दाल हो रही ,
लाख
कोशिशें होतीं हैं पर/ नहीं रहीं अब गल !
दुनिया
में जयकार हो रही/ तेज मग़र है धार हो रही
नए
वक़्त की नई लड़ाई/ औरत भी तैयार हो रही ,
अभी
जोत लो खेतों में तुम/ कल देखोगे बल !
प्यार
मिला तो प्यार बनेगी/ आँखों में त्यौहार बनेगी
पेट
धँसा है ,
सूखी हड्डी/ यह हड्डी हथियार बनेगी
चीख़ों
में सब डूब मरेंगे/ ख़ामोशी के पल!!”[14]
बीसवीं सदी में हम सबने स्त्रियों
के उत्कर्ष देखे| इक्कीसवीं सदी उनके महत्त्वपूर्ण भूमिका को पहचान रहे हैं| आने
वाला कल कुछ संघर्षों से जरूर भरा होगा लेकिन यह विश्वास है कि उन्हीं संघर्षों
में आधी आबादी का उत्कर्ष और अधिक निखर कर सामने आएगा|
4.
वे लोग जो काँधे हल ढोते/ खेतों में
आँसू बोते हैं-
उनका ही हक़ है फ़सलों पर/ अब भी मानो
तो
बेहतर है।
जिनके सपने बेग़ैरत हैं/ अक्सर जो
चुप रह जाते हैं/ झिड़की खाने के
आदी हैं
फुटपाथों पर/ सो जाते हैं/ वे लोग
बड़े गुस्से में हैं
रुख़ पहचानो तो/ बेहतर है।
जिनके पुरखे भी ‘चाकर’ थे/ जिनकी घरवाली/ ‘बाँदी’
थीं
जिन पर कोड़े
बरसाने की/ कारिन्दों को/ आज़ादी थी
वे लोग खड़े सीना ताने/ उनकी मानो
तो
बेहतर है।
- उमाशंकर तिवारी
बात करें ‘किसान’ की तो यह हिंदी
साहित्य का एक मान्य विमर्श बनता जा रहा है| किसान सही अर्थों में समाज का एक अलग
और उपेक्षित वर्ग है जिसका अपने द्वारा उत्पादित वस्तुओं पर ही कोई अधिकार नहीं
है| हर वर्ग, जाति और स्तर के लोग किसानी जीवन में शामिल हैं| इनके पास कहने को तो
जमीन है, घर है, परिवार है लेकिन यह सब होते हुए भी वह अकेला और अनाथ है| मौसम पर
उसकी उम्मीदें टिकी होती हैं और उम्मीदों पर ही टिका होता है उसका अस्तित्व|
एकमात्र श्रम पर विश्वास रखने वाला यह वर्ग दयनीय और असहाय भी होता है, यह सुनने
में अजीब जरूर लग रहा है, लेकिन सच्चाई यही है|
इस सच्चाई को और किसानों से जुडी
अन्य अनेक सच्चाई को साहित्यिक विधाओं में गंभीरता से अभिव्यक्त किया गया है|
कविता में इसको लेकर थोड़ी सजगता अधिक है, ऐसा विद्वान आलोचक मानते हैं| समझना यह
जरूरी है कि किसानों की पीड़ा को लेकर कविता में चिंता जिम्मेदारी से व्यक्त की गयी
है तो नवगीत में क्या उसकी चिंता कम है? यह सोचने का नहीं देखने का विषय है| इस
स्थिति को लेकर कविता से कहीं ज्यादे जिम्मेदारी नवगीत में है| नवगीतकार उस
पृष्ठभूमि से कहीं अधिक गहरे में जुड़े हैं जिसे प्राप्त करने के लिए अधिकांश कवि
कल्पना के घोड़े दौडाते हैं| महानगरों में बैठकर गाँव की विसंगतियों पर कार्य करना
एक हद तक यथार्थ न होकर हवा-हवाई बातें होती हैं|
किसानों का जीवन एक तरह से ढर्रे का
जीवन होता है| यहाँ सब कुछ अनिश्चित और बिखरा-बिखरा होता है| निश्चित होता है तो
महज दुखों का आना और समस्याओं के आवरण में फंसकर अतीत होते जाना| जिस समय हम आप
आराम कर रहे होते हैं, नवीनता और परिवर्तन का आनंद ले रहे होते हैं उस समय “माड़
रहे मडनी गेहूँ की/ और पीटते धान/ उघरे तन पर/ पहन लँगोटी/ जूझे अभी किसान|”[15]
आराम हराम होता है यही इनका नारा होता है और यही इनकी जीवन शैली| सुबह हो कि शाम,
खेत और खलिहान में व्यस्त रहने वाले किसान हर समय युद्ध स्तर पर सक्रिय रहते
हैं-“हल की मुठिया/ मुख से टूटी/ फटा अंगौछा कांधे/ चूल्हा-चकिया, गाय बैल तक/ सब
हैं चुप्पी साधे/ हर क्षण जियें/ युद्ध मुद्रा में/ खेत और खलिहान|”[16]
खेत और खलिहान में युद्ध स्तर पर जुटे एक किसान की मनोदशा और यथार्थ परिवेश की
सच्चाई को अभिव्यक्त करते हुए अनूप अशेष देखते हैं कि “खेत में खटता पिता/ घर/
बंधा मन/ माँ-बहन/ कच्ची गिरस्थी/ चुका ईंधन/ सुबह/ ऋण खाते तगादे|” ईंधन की
अव्यवस्था से लेकर ऋण खाते के तगादे तक फंसा हुआ किसान न इधर का होता है और न उधर
का|
किसानी जीवन में यह भी ध्यान रखने
की जरूरत है कि जितना कार्य पुरुष करता है उससे कहीं अधिक व्यस्तता में स्त्री
होती है| खेत-खलिहान से लेकर चूल्हा-चक्की तक की प्रक्रिया बड़ी विवशतापरक होती है|
इतनी कि फिर भी जरूरत की चीजें उपलब्ध नहीं हो पाती हैं| खेती से खाना-खुराकी चल
जाए यह बड़ी बात होती है और शौक कहाँ से पूरे हों, ये प्रश्न बना रहता है| ऐसा समय
भी आता है जब एक किसान के सामने एक साथ कई समस्याएँ आ खड़ी होती हैं| नवगीतकार
रामसेंगर इसे ‘कठिन समय’ मानते हैं| उनकी अनुसार-
“कठिन समय ने खाल उतारी ।
ख़ाक विरासत थी पुरखों की/ आग समझ
जो हमने धोंकी
लपट कहाँ उड़ गई न जाने/ खोज अनवरत
अब भी ज़ारी ।
मिले मज़ूरी जीने-भर की/ लची कमर
असमय जाँगर की
मेहनत का फल मिले उसे क्या/ जिसका
खेत न खेतीबारी ।
दबा और कुचला हरिबन्दा/ बूढ़ा बाप
हो गया अन्धा
तेल दिये का कब तक चलता/ कर्कट ने
लीली महतारी ।
रोग-शोक-दुख,
दवा न दारू/ पकड़े खाट गई महरारू
गूँगा और अनाथ हुआ घर/ बिछुड़ गए सब
बारी-बारी ।
कैसे-कैसे पापड़ बेले/ बचे समर में
निपट अकेले
सुधियाँ धुलीं भविष्य बुताना/ साँसत
में है जान हमारी ।
कठिन समय ने खाल उतारी|”
ध्यान दीजिए कि ‘रोग-शोक-दुःख, दवा
न दारू’ होता है वह सिर्फ भगवान भरोसे होता है क्योंकि जितने में दवा करेगा उतने
में खर्च भी चलाना होता है उसे घर का| ‘गूँगा और अनाथ हुआ घर’ उनके लिए एक अभिशाप
बन सामने आते हैं| ‘रिश्ते’ बेगानेपन की दहलीज पर जाकर दम तोड़ देते हैं और एक दिन
ऐसा भी आता है जब अपने भी पहचानने से इंकार कर देते हैं|
दरअसल किसानी जीवन का दुःख इधर
इसलिए और बढ़ गया क्योंकि उसमें नए युग-परिवर्तन के अनुसार स्वयं को परिवर्तित करने
की लालसा जगने लगी| यह स्वाभाविक भी था| बाज़ार अपनी तरफ भरपूर खींचता है| इसी
प्रक्रिया के तहत समझना यह भी जरूरी है कि, जब संसाधनों की उपलब्धता आसानी से नहीं
होती तब व्यक्ति कर्ज की तरफ बढ़ता है| किसानों की यह अपेक्षा कि फसल होने पर वह
कर्ज चुका देगा मौसम की बेरुखी के कारण पूरी नहीं होती| फलतः वह कर्ज में डूबता
चला जाता है| इस जगह परिवेश और बाज़ार इन दोनों का प्रभाव उस पर पड़ा और इन दोनों की
वजह से स्वयं को वह बाज़ार के हाथों गिरवी रखता चला गया| ‘खेत की हिम्मत’ नवगीत में
श्याम सुंदर दुबे किसानों की इस स्थिति का यथार्थ दृश्य प्रस्तुत करते हैं| यह
पूरा नवगीत है सामने, इसे एक बार पढ़िए और देखिये कि किस तरह किसान समस्याओं में
पड़ता है और किस तरह बाज़ार के हाथों उसका अपना वर्तमान मुसीबतों में फंसता चला जाता
है-
किसान
भी क्या करे/ उसे भी हैं/ हजार लफड़े-सफड़े!
भेजना
है उसे/ अपने नौनिहाल-को/ शहर के पब्लिक स्कूल में
गुदड़ी
के लाल/ उसे चाहिए/ गाँव की बची-खुची धूल में
प्रधानमंत्री
सड़क है/ तो कार की दरकार है/ कार है तो चाहिए लकदक कपड़े
खेत
में खटने वाली/ घरवाली इंद्र की परी हुई/ स्त्री-विमर्श में उसका भी हिस्सा है
यह
कोई वर्चुअल प्रसंग नहीं/ यह खेत की हिम्मत का/ बेजोड़ किस्सा है!
इधर
खेत की सांवली काया/ फफोलों से भरी हुई/ उधर फैक्ट्री दरवान के
गाल
चिकने-चुपड़े
आंगन
के नथूनों में/ फसल गंध वर्षों से/ न अटक सकी;/ खेत सीधे मंडी में घुसते हैं
ओसारे
गेहूँ न/ सुफ़ली फटक सकी/ बाज़ार का भेड़िया/ घर में घुस आया/ मानुष गंध खोज रहे खून
लगे जबड़े|”[17]
दरअसल यही ‘लफड़े-सफड़े’ दुनियादारी
है| जो दुनियादारी पहले सीमित थी अब बाज़ार में प्रवेश कर विस्तार पा गयी है| जब
दुनिया बिंदास होकर कार से दौड़ लगा रही है तो किसान पीछे क्यों रहे? जब सब
स्त्रियाँ मैडम बनी घूम रही हैं तो स्त्री-विमर्श की हिस्सा किसान की स्त्रियाँ
क्यों न बनें? ये एक प्रश्न हमारे आपके लिए तो हैं और हो सकते हैं लेकिन ‘तेते पैर
पसारिये जेते चादर होय’ वाली स्थिति मुंह पर ताले लगा देती है| अब ‘खेत की हिम्मत
का बेजोड़ किस्सा’ यह है कि ‘महीने की तनख्वाह’ तो आती नहीं किसानों पर और खेती कभी
कोई अता-पता नहीं होता कि जो बोया गया है वह आ ही जाएगा घर, इसलिए अभी का किसान
फिलहाल ‘बाज़ार’ की चकाचौंध में भ्रमित है|
स्पष्ट यह भी है कि देश में जब भी
महामारी और भुखमरी आती है सबसे पहले किसानों पर आती है| यह नवगीतकारों का अपना
यथार्थ होता है क्योंकि किसी न किसी रूप में वे उसके हिस्सा होते हैं| जो कुछ
लिखते हैं वह एक चित्र बनता चला जाता है जहाँ शब्दों की जुगाली न होकर यथार्थ का
चित्रण होता है| मौसम पर निर्भर किसानी हर तरह से प्रभावित होती है| कम बारिस हुई
तो फसलों के न होने का अंदेशा बरकरार रहता है और अधिक बरसात का होना फसलों का नष्ट
होना है| चित्रांश वाघमारे कहते हैं-बाढ़ का पानी नदी से आ गया है गाँव तक/ हल बखर,
खलिहान आँगन/ खेत की तो राम जाने/ हो गयी नदिया महाजन/ अब नहीं सुनती बहाने/ इस
समय तो खबर भी/ पहुंची नहीं सरकार तक|”[18]
क्योंकि सरकारें बस्तियों के उजड़ जाने के बाद जागती हैं| बरसात के मौसम में
‘नदियों का महाजन’ होना किसानों कंगाल होने का पर्याय माना जाता है| बाढ़ का आना
महज एक आपदा नहीं है, किसानों के लिए त्रासदी है| कैसे घर से लेकर खलिहान और
खलिहान से लेकर खेत तक उस बाढ़ में प्रभावित होते हैं और कैसे किसान की यथार्थ
स्थिति भयावह हो जाती है, एक नजर उठाकर बाढ़-प्रभावित इलाकों पर डालें तो सब स्पष्ट
हो जाएगा| महज बारिस होती तो कोई बात नहीं थी| तूफान उठता है, ओले पड़ते हैं, पाथर गिरते
हैं और इन सब में फ़सलों का विनष्ट होना तय होता है| किस तरह अतिवृष्टि से फसलें
तबाह होती हैं और कैसे किसान फसलों के तबाह होने के साथ-साथ स्वयं तबाही के कगार
पर खड़े होते जाते हैं इसका एक दृश्य रमेश रंजक के इस नवगीत में देखा जा सकता है-
“उफ़
!/ अधपकी फ़सल के ओले/ भरी सभा में फेंके/ ज़ालिम बादल ने हथगोले
जौ
की टूटी रीढ़/ हरे गेहूँ को चक्कर आए
फूल
चने का खेत रह गया/ कौन किसे समझाए
हवा
पूस की/ कुटी फूस की/ काँपे हौले-हौले
झुनिया
उल्टा तवा डाल कर/ भरे गले से बोली
अबकी
बरस न ब्याज पटेगी/ नहीं जलेगी होली
नहीं
भुकभुके/ माँ की चाकी/ खाएगी हिचकोले”
ये सच्चाई है किसानों की| यही यथार्थ है
उनके जीवन का| एक समय के बाद व्याज मूलधन में जुड़ता है और फिर कई बार कर्ज भरने का
सिलसिला आत्महत्या के मुहाने जाकर ख़तम होता है| व्यक्तिगत समस्याओं के अतिरिक्त
मौसमी समस्याएँ अधिक हावी रहती हैं किसानों पर और इसीलिए वे परेशान और हताश रहते
हैं|
परेशानी और हताशा भरे वातावरण में रहते
हुए भी देश और समाज को जो कुछ किसानों द्वारा दिया जा रहा है उसके लिए उनके योगदान
को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा| सच यह भी है कि उद्योगपति से लेकर सरकारों तक की
उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है लेकिन एक दूसरा सच अगर ढूंढेंगे तो पायेंगे कि जो
थोड़ी बहुत मानवीयता और संस्कार आदि बचे हैं वह इन्हीं किसानों के कारण बचे हैं| ये
हद से ज्यादा विनम्र होते हैं और श्रम-साधना पर विश्वास रखते हैं|
5.
ज़िन्दगी नेपथ्य में गुज़री
मंच पर की भूमिका तो सिर्फ अभिनय है
।
मूल से कट कर रहे
परिशिष्ट में
एक अंधी व्यवस्था की दृष्टि में ।
ज़िन्दगी तो कथ्य में गुज़री
और करनी
प्रश्न से आहत अनिश्चय है ।
क्षेपकों के
हाशियों के लिए हम
दफ़न होते
काग़ज़ी ताजिए हम
ज़िन्दगी तो पथ्य में गुज़री
और मन बीमार का परहेज़ संशय है ।
-उमाकांत
मालवीय
जिन्होंने दुनिया बनाई हमारे आपके
लिए, जिनके जरिये हम आप इस स्थिति तक पहुँच सके कि सही गलत का निर्णय ले सकें, वही
इधर के समय में इतने अप्रासंगिक हो जाएंगे, यह कभी सोचा नहीं गया था| नहीं जाना
गया था कि एक दिन ऐसा आएगा कि डालियाँ जड़ों को बचाने के लिए विमर्श की मांग
करेंगी| आपको यह सुनकर आश्चर्य हो सकता है लेकिन सच्चाई यही है कि इधर ‘बुजुर्ग
विमर्श’ या ‘वृद्धा विमर्श’ की जरूरत समाज को पड़ी है| यह जरूरत ऐसे नहीं पड़ गयी|
दरअसल एक, दो या दस-बीस के साथ ऐसा नहीं हो रहा है| लगभग बुजुर्गों पर यह संकट आया
है जिससे एक सम्पूर्ण ‘बुजुर्ग समाज’ की संरचना उभर कर सामने आई है| इधर पिछले
10-15 वर्षों से यह ‘बुजुर्ग-समाज’ इस हद तक उपेक्षित हो रहा है कि इनके ‘अधिकार’
और ‘संरक्षण’ पर विचार करना जरूरी हो जाता है| इस जरूरत पर जब आप गंभीरता से विचार
करते हैं तो नवगीतकारों के योगदान को विस्मृत नहीं कर सकते| नवगीतकार गीता पंडित
कहती हैं “कहाँ छिपा/ बैठा है सूरज/ चिट्ठी उसको भिजवाएं/ दोहरी कमर/ हुई बरगद की/
बैसाखी भी काँप रही/ जोड़ जुड़े हैं फेविकोल से/ माँ घुटनों/ को जाँच रही/ संग चलो
तुम/ पवन डाकिए/ घर-घर उसको दिखवाएं|” यह जो पवन डाकिए का आह्वान है सही अर्थों
में नवगीत-दृष्टि का ध्यान उस तरफ आकर्षित करने का आह्वान है|
नवगीतकारों
की पृष्ठभूमि यथार्थतः गाँवों से निर्मित होकर समृद्धि पाती है| बुजुर्गों का मन
जितना अधिक गाँव में लगता है उतना कहीं अन्यत्र नहीं लगता| वे कहीं भी रहते हैं
लेकिन सूरदास के ‘ऊधव मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं’ की-सी तड़प बनी रहती है| यही तड़प
बार-बार उन्हें गाँव की तरफ खींचती है| मयंक श्रीवास्तव का नवगीत मन गाँव के उन
दिनों को, जिसमें संस्कार और सम्भावनाओं का यथार्थ हुआ करता था, प्राप्त करने के
लिए परेशान है| वे कहते हैं-"क्या पता है/ कब मिलेंगे/ गाँव की चौपाल वाले
दिन/ नीम पीपल/ नहर पनघट/ झील पोखर ताल वाले दिन/ ढूंढता हूँ रोज होली/ और कजली
गायकों के स्वर/ साफ माटी के बने घर/ घास लकड़ी फूँस के छप्पर/ एक रोटी/ चैन वाली/ और
रुखी दाल वाले दिन।" भागमभाग से दूर ‘एक रोटी/ चैन वाली’ गाँव में मिलती है,
यह पता है| ‘कजली गायकों के स्वर’ और ‘साफ़ माटी वाले घर’ भी गाँव में मिलते हैं तो
ऐसे सुख छोड़कर कोई बुजुर्ग क्यों महानगरों के ठूंठ जंगल में रहना पसंद करेगा? यहीं
पीढ़ियों के बीच एक अंतर्द्वन्द्व शुरू होता है| कमाई का जरिया महानगरों में है|
युवाओं को मजबूरन वहां प्रवास करना पड़ता है| माता-पिता घर-गाँव छोड़ना नहीं चाहते|
अब यदि युवा महानगर छोड़े तो माता-पिता की सेवा करे लेकिन पैसे के अभाव से कंगाल
हो, इसमें कोई संशय नहीं है| यदि पैसा देखे तो माता-पिता छूटें और समाज की नज़र में
खलनायक हो, दो राय इसमें भी नहीं है| यह दो पीढ़ियों के बीच होने वाले मनभेद का
यथार्थ है जिसे पकड़ने की कोशिश नवगीतकारों ने की है| राधेश्याम शुक्ल लिखते हैं
“पिता, गाँव में/ पूत, शहर में/ पर, दोनों ही, दुःख के घर में/ पूत, उलझ कर/ छीज
रहा है/ रोज़ दिहाड़ी से;/ बूढ़े कंधे/ दुखिया/ घर की बोझिल गाड़ी से/ धुंधलाई आँखों
में सपने/ बड़ी उड़ानें/ छोटे पर में|”[19]
‘स्वप्न और उड़ान’ दोनों अधर में हैं| युवा और बुजुर्ग दोनों के स्वप्न अधूरे हैं|
एक के सामने रोजी-रोटी का सवाल है तो दूसरे के सामने अपने अस्तित्व का प्रश्न|
भारतीय परिवेश यथार्थतः भावुक है और
कवि तो स्वभावतः होता ही है भावुक इसलिए बुजुर्गों का पलड़ा भारी होता है और इसके
भी अपने कारण होते हैं| जब कोई नहीं रहता घर पर तो किसके लिए बुजुर्ग दिन-रात
मेहनत करते हैं? यह प्रश्न हम-आप-सबके मन में होता है| ‘सपने का झुनझुना’ नवगीत
में अनूप अशेष ‘बूढी महराजिन’ के बहाने ये प्रश्न करते हैं कि “किसके लिए दहकती
सुबहें/ गली हुई/ बूढ़ी महराजिन|” इसी गीत को सम्पूर्णता में पढ़ना जारी रखें तो यह
भी समझ में आता है कि “चिड़िया नई डाल पर
बैठे/छोड़ा घोंसला/ जैसे हो घिन|” है भी क्या काम घोंसले के जब पंख हो आए तो चिड़िया
उड़ेगी ही-
“बड़े
द्वार की ड्योढ़ी जैसे/ बूढ़े बच्चे काम-धाम में,
खाली
पिंजड़े में/ डैने हैं/ क्या रखा मुर्दा-मुकाम में
चिड़िया
नई डाल पर बैठे/ छोड़ा घोंसला/ जैसे हो घिन
एक
कटोरे में दुपहर की/ जैसे पूरी उमर भरी हो,/ काँपे
पाँव
झुर्रियाँ
पहने/ माई की हर चीख मरी हो
सपने
का झुनझुना रात में/ लेकर आती/ दिन की बाँझिन|”
यहाँ चिड़िया का नई डाल पर बैठना हालांकि
उतना नहीं अखरता जितना दुःख होता है ‘झुर्रियां पहने’ बुजुर्गों का उन ‘चिड़ियों’
के प्रति चिंतित रहना और उसी चिंता में अपने जीवन को त्रासदपूर्ण बना देना| इधर के
दिनों में एक नया परिवर्तन दिखाई दिया है| घर में सब होते हुए भी ‘झुर्रियां पहने’
ये बुजुर्ग अकेले होते हैं| बेटा-बेटी-बहु-नाती-पोते इन सबकी उपस्थिति में अधिकांश
कोई ऐसा नहीं होता जो इनसे सही तरीके से सम्वाद कर सके या कर रहा हो| नईम की मानें
तो “कोई किसी को नहीं पूछता/ सब अपने में डूबे हैं/ गति की सीमाएँ उलांघते/ अपने
से ही ऊबे हैं|”[20]
वैसे भी सम्वाद-माध्यम में कभी दादा-दादी की कहानियां होती थीं और बच्चे इनसे
समृद्ध भी होते थे; इधर उन कहानियों का स्थान मोबाइल आदि ने ले लिया है| एक अलग
तरह का खालीपन दिखाई देने लगा है बुजुर्ग के लिए जिसमें रहते हुए वे ऊब चुके हैं|
अवनीश त्रिपाठी के नवगीत “अम्मा-बाबू” में इस यथार्थ को दिया गया है जिसे देखना
चाहिए हमें-
“पड़े हुए/ घर के कोने में/ टूटे फूटे बर्तन जैसे,/
'अम्मा बाबू'/
अपनी हालत/ किससे बोलें,किसे बताएँ।।
बेटे का घर/ घर में बच्चे/ हाथों में मोबाइल पकड़े,
गेम, चैट,/ नेट पर सीमित वे/ तकनीकी
युग में हैं जकड़े,
गंवई देशी/ ठेठ देहाती/ बोली भाषा वाले दोनों,
भरे हुए/ घर में एकाक/ कथा-कहानी किसे सुनाएँ??
नॉनस्टिक/ इंडक्शन वाली/ जेनरेशन अब नहीं समझती,
इतना अंतर/ बूढ़ी पीढ़ी/ ढोते-ढोते कितना सहती,
सुबह-शाम/ दिन रात दर्द से/ टूट चुके हैं
अम्मा-बाबू,
हाथ जोड़कर/ रोकर कहते/ हे ईश्वर!अब हमें उठाएँ|”
कोई स्वयं को ‘ईश्वर से उठाने’ का
निवेदन क्यों करेगा? यह गंभीरता से विचार करने का विषय है| इस नवगीत का हालाँकि एक
अंश काट दिया गया है जिसमें देहाती और समृद्ध गंवई भोजन के दूर होने और
पिज्जा-बर्गर के परोसे जाने से इधर बुजुर्गों की बेचैनी और अरुचि बढ़ी है लेकिन जो
कुछ अभी भी दिखाई दे रहा है इस नवगीत में, यही वर्तमान के हालात हैं| यह
ए.सी.रूमों में बैठकर पिरोया गया यथार्थ नहीं, खुली आँखों से देखा और भोगा हुआ यथार्थ
है जिसका कवि स्वयं भुक्तभोगी है| निर्मल शुक्ल का यह प्रश्न अचानक हमें सुनाई
देने लगता है “रिक्त सम्वादों के जो/ आकाश हैं फैले/ तुम्हें दिखते नहीं क्या?”[21]
संजय शुक्ल जब इस यथार्थ से परिचित होते हैं तो यह मानते हैं-“घर’ शब्द ने ही खो
दिए/ अपने पुराने माइने/ चेहरे विकृत आते नज़र/ धुँधले हुए सब आइने”[22]
जिसमें सम्वाद जैसा कुछ दिखाई देना अब मुश्किल होने लगा है| यह मुश्किल इधर अवनीश
के एकदम नए युग वाली मुश्किल है| इसी मुश्किल में बुजुर्गों की उपेक्षा सम्भव हुई
है जो चिंता का विषय है|
इतना कुछ सहने और होने के बाद भी
बुजुर्गों के मन में कभी कोई असंतोष नहीं होता| वे एकदम अधीर और निष्पक्ष होते हैं
अपने कर्तव्यों के प्रति| गणेश गंभीर की मानें तो “एक चोट के बाद/ दूसरी के/
स्वागत को तत्पर/ अपनी-अपनी/ अँजुरी में/ आँसू का सागर लेकर/ मुँह धोते हैं”[23]
इसके बावजूद उफ़ और आह तक नहीं कहते| यह सांस्कृतिक सम्पन्नता और मानसिक परिपक्वता
का नतीजा है जिससे इधर की पीढ़ी नदारद हो रही है| इधर ‘स्वागत को तत्पर’ न होकर
देखते ही मुंह फेर लाने की आदतें विकसित हुई हैं और हो रही हैं| बाहर वालों से
मुंह फेरने की आदतें धीरे-धीरे अपनों से भी दूर करने लगीं हमें जिसका विकास यहाँ
तक हुआ कि माता-पिता, दादा-दादी हमारी पहचान के बाहर हो गये|
[1] कौशिक, माधव : जोखिम भरा समय है, नई दिल्ली : सामयिक
प्रकाशन, पृष्ठ-139
[2] कविता कोश, रामकिशोर दहिया
[3] कविता कोश, रामकिशोर दहिया
[4] पंकज, जगदीश, समय है सम्भावना का, दिल्ली : ए आर
पब्लिशिंग कम्पनी, पृष्ठ-124
[5] श्रीवास्तव, अवध बिहारी, मंडी चले कबीर,
कानपुर : मानसरोवर
प्रकाशन, पृष्ठ-103-104
[6] श्रीवास्तव, बृजनाथ, कैसी है बन्धु! यह सदी, कानपुर : ज्ञानोदय
प्रकाशन, पृष्ठ-77
[7] सुधांशु उपाध्याय, कविता कोश
[8] कौशिक, माधव, जोखिम
भरा समय है, नई दिल्ली : सामयिक प्रकाशन, पृष्ठ-31
[9] पंकज, जगदीश, मूक संवाद के स्वर, दिल्ली
: ए. आर पब्लिशिंग कम्पनी, पृष्ठ-32
[10] जय चक्रवर्ती,
थोड़ा
लिखा समझना ज्यादा, लखनऊ : उत्तरायण प्रकाशन, पृष्ठ-107,108
[11] सक्सेना, गरिमा, है छिपा सूरज कहाँ पर, नई दिल्ली
: बेस्ट बुक बडीज, पृष्ठ-90
[12] मधुकर अष्ठाना, पहने हुए धूप के चेहरे, मुरादाबाद
: गुंजन प्रकाशन, पृष्ठ-105-106
[13] चुप्पियों को तोड़ते हैं, योगेन्द्र
प्रताप मौर्य, जयपुर : बोधि प्रकाशन, पृष्ठ-38
[14] कविता कोश, सुधांशु उपाध्याय
[15] ओम प्रकाश सिंह, तंग
जड़ों में होंगे अंकुर, नई दिल्ली : नमन प्रकाशन, पृष्ठ-154
[16] ओम प्रकाश सिंह, तंग
जड़ों में होंगे अंकुर, नई दिल्ली : नमन प्रकाशन, पृष्ठ-154
[17] दुबे, श्याम सुंदर, सुख दुःख की कमीज, दिल्ली : विजय
बुक्स, पृष्ठ-43-44
[18] सं. शिवाय, राहुल, चित्रांश वाघमारे के गीत, नयी
सदी के नये गीत, जयपुर : किताबगंज प्रकाशन, पृष्ठ-63
[19] राधेश्याम शुक्ल, कैसे बुने चदरिया साधो,
गाजियाबाद : अनुभव प्रकाशन, पृष्ठ-43
[20] नईम, लिख सकूँ तो, नई दिल्ली : भारतीय ज्ञानपीठ,
पृष्ठ-39
[21] निर्मल शुक्ल, नहीं कुछ भी असम्भव, लखनऊ :
उत्तरायण प्रकाशन, पृष्ठ-64
[22] संजय शुक्ल, फटे पाँव में महावर, गाजियाबाद :
अनुभव प्रकाशन, पृष्ठ-30
[23] गणेश गंभीर, सम्वत बदले, इलाहबाद : अंजुमन
प्रकाशन, पृष्ठ-25
2 comments:
नमस्ते,
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" गुरुवार 18 जून 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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