इन दिनों के साहित्यिक परिवेश में
नकार का बाज़ार गर्म है| कोई किसी के साहित्य को कूड़े में फेंकवा रहा है तो कोई
किसी के साहित्य को कूड़ा करार दे रहा है| कई तो ऐसे हैं जो संग्रहालय में रखवाने
की बात कर रहे हैं| जब आप इनका विरोध करें तो प्रश्न भी गज़ब रखते हैं ये कि “असहमति
को क्यों दबाया जाएगा? सबके अपने विचार हैं और सबको हक़ है, यही लोकतंत्र है|” माने
ये कि लोकतंत्र न होकर गलत कहने और गलत करने का सर्टिफिकेट हो गया है| यदि यही है
तो फिर साहित्य में आने की जरूरत क्या थी? तमाम ऐसे क्षेत्र थे जहाँ आप तंत्र के
रक्षक बन सकते थे, लोक के तो खैर क्या बनेंगे?
कभी नामवर सिंह ने पन्त के सम्पूर्ण
साहित्य को, दो-चार को छोड़कर, कूड़ा कहा था| ऐसा कहने के पीछे यथार्थ का न होना
बताया था| ‘सामंतों के मुंशी प्रेमचंद’ करार दिया था डॉ. धर्मवीर ने यह कहते हुए
कि, उनके साहित्य में दलितों का पक्ष मजबूती से नहीं लिया गया, उन्हें कमजोर
दिखाया गया| कुछ सिरफिरे आए और आचार्य शुक्ल के साहित्य को भयंकर जातिवादी और
ब्राह्मणवादी करार दे दिए| रही-सही जो कसर थी उसे पूरा कर दिया हंस जैसी सी ग्रेड
की पत्रिका के संपादक संजय सहाय ने, जिसका कार्य है जातिवादी, हिंसक और यौनिक
रचनाओं को प्रकाशित करना|
ऐसा कोई भी अंक न होगा हंस का जिसमें
गालियों, बलात्कारों, लूट-खसोट को लेखन का माध्यम न बनाया गया हो| यथार्थ के नाम
पर तो कहानियों आदि में लेखक द्वारा रस लेते हुए पात्रों के विधिवत कपडे उतरवाए जाते
हैं| जो बहुत समृद्ध और सांस्कृतिक जीवन-शैली के पक्षधर हैं उनके यहाँ तो यह
पत्रिका भी नहीं जाती होगी| विचारणीय यह है कि जो व्यक्ति अपनी विरासत को न सम्भाल
सका वह समाज को सीख देने का बीड़ा उठाया है| जिसकी सामाजिकता से लेकर वैचारिकता तक
विवादों के घेरे में है वे भी उच्च और निम्न की श्रेणियां निर्धारित कर रहे हैं|
इधर यह प्रवृत्ति और बढ़ी है| जबसे
साहित्यकार के वेश में कुछ सिरफिरे और गैर जिम्मेदार लोग पदार्पण कर गए हैं तब से
ऐसी प्रतिक्रियाओं का आना स्वाभाविक हो गया है| हानि यह है इससे कि कुछ बहुत जरूरी
विमर्श निकलकर सामने नहीं आ पा रहे हैं| जो आ भी रहे हैं उनका कोई नोटिस नहीं ले
रहा है या नहीं ले पा रहा है| यह भी कि सारी राजनीति कुछ विधाओं में केन्द्रित
होकर रह गयी है| कितनी ही अच्छी विधाएँ इस राजनीति में कोमा में ढकेल दी गयी हैं|
हिंदी साहित्य में कई विधाएँ हैं
जिन्हें जानबूझ कर उपेक्षित किया गया और आज भी किया जा रहा है| यदि देखना है तो
देखिये कि नवगीत के ऐसे कई हस्ताक्षर मिले जिन्हें आलोचकों की चुप्पी और
पत्रिका-सम्पादकों की दकियानूसी ने उपेक्षित किया| समृद्ध से समृद्ध रचनाकारों को
गुमनाम होते देखा गया| इनकी गुमनामी का कारण क्या है? सोचिए और सोचते रहिये| ललित
निबन्ध जैसी विधुद्ध भारतीय परम्परा एवं संस्कृति को समर्पित विधा को उपेक्षा के
कगार पर ले जाकर छोड़ दिया गया है तो उसके क्या कारण रहे हैं? सोचिए और सोचते
रहिये| हंस जैसी पत्रिकाओं के जरिये जो जहर छोड़ा गया उसका विष अभी उतरा नहीं है|
यह स्थिति बद-से-बदतर होती जा रही है| चिंतनशील विषयों को निकल कर जहाँ आना चाहिए
वहां या तो पोर्न कंटेंट निकलकर आ रहा है या फिर जातीय हिंसा|
हिन्दी साहित्य को विमर्शों की
राजनीति में धकेल कर जिस तरह से अपंग और पंगु बनाने का षड्यंत्र रचा गया, वह मामूली
नहीं है| साहित्य में जहाँ वृद्धा विमर्श, किसान विमर्श, प्रकृति विमर्श, पर्यावरण
विमर्श होना चाहिए था वहां जातिवादी विमर्श लाया गया| दलित विमर्श, स्त्री-विमर्श,
आदिवासी विमर्श| यहाँ तक तो फिर भी ठीक था| इनके अपने अधिकार सुरक्षित होने चाहिए
थे, वह हो रहा है| इधर अति ने जरूर इन विमर्शों पर प्रश्न चिह्न लगाया है बावजूद
इसके ऐसे विमर्श का निकलना सम्भव और जरूरी था|
लेकिन यह प्रवृत्ति एक गलत मार्ग पर
चल पड़ी है| साहित्य में अब अब अहिर विमर्श, ओबीसी विमर्श की मांग भी बढ़ी है| कुछ
सिरफिरों ने और महज जाति के नाम पर उग आए महारथियों ने यह मांग रखी है, जिस पर
कितना ठहरकर विचार करने की जरूरत है, यह अभी नहीं आने वाले दस वर्षों के बाद पता
चलेगा|
खासकर तब, जब ठाकुर विमर्श, ब्राह्मण
विमर्श, बनिया विमर्श के साथ-साथ तमाम विमर्श निकलकर आएँगे| आने लगे हैं| इधर तो
कुछ लोग ठाकुर विमर्श की बात भी प्रस्तुत करने लगे हैं, यह कहते हुए कि ब्राह्मणों
ने क्षत्रियों पर परशुराम का फरसा चलाया और खुद हर जगह बैठ गया| ठाकुरों का शोषण
ब्राह्मणों ने किया इसलिए उनकी घेरेबंदी जरूरी है| हद है| अजीब स्थिति है|
जिस
प्रकार से ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हुई हैं ऐसे में आने वाले दिनों में हर
जातियों के अपने लेखक होंगे| जिस जाति के लोग होंगे उन्हीं जाति के लोग उनका
साहित्य पढ़ेंगे| ठीक उसी तरह, जिस तरह जिस जाति का भोज होता है उसी जाति के लोग
खान-पान में होते हैं| कितना भी मजबूत रचनाकार क्यों न होगा उसके खिलाफ पीढ़ी को
इतना भरा जाएगा कि पढना तो दूर देखना भी उचित नहीं समझेंगे| विश्वास मानिए ऐसे समय
में सभी कूड़े के ढेर पर पड़े होंगे| अभी भी देखते-देखते लोग उस कूड़े में जा गिरे
हैं जहाँ से निकलना बहुत मुश्किल है|
साहित्य नकार से नहीं स्वीकार से
समृद्ध होता है| स्वीकार सकारात्मकता में होती है| अपनत्व में होती है| जहाँ भेद है,
दुराव है, कटुता है, अस्वीकार ही अस्वीकार है, वहां समरसता और सामंजस्यता बड़ी दूर
की कौड़ी है| यह साहित्य का सबसे विरोधाभासी दौर है जहाँ रचनाकारों का मूल्यांकन रचना
के आधार पर नहीं जाति, धर्म और सम्प्रदाय देखकर किया जाता है, जो गलत है| इतना गलत
कि दलित, आदिवासी और मुस्लिम होना साहित्य में सौ प्रतिशत सफल हो जाना मान लिया
गया है| लेखन कितना भी कमजोर क्यों न हो यदि उसमें गाली है, नाटक है, नौटंकी है,
और उपरोक्त श्रेणी से ताल्लुकात रखते हैं तो आप समृद्ध और समर्पित हैं और यदि ऐसा
नहीं है तो बैठे रहिये राम-नाम की धूनी रमाए, दो कौड़ी की हैशियत भी नहीं है|
साहित्य
सही अर्थों में समाज में सामंजस्य और समरसता लाने का माध्यम है| असहमति के लिए
पूरी स्वतन्त्रता है लेकिन वह असहमति ईर्ष्या और बदले की भावना में तब्दील होकर न
पदार्पण करे| विचारों की सुचिता और व्यवहार का अनुशासन दोनों आवश्यक हैं| इन दोनों
में से यदि एक भी व्यक्ति के पास है, तो वह साहित्यकार है अन्यथा उसे कवि या लेखक
मानने से सीधे तौर पर इनकार किया जाए|
2 comments:
सटीक विचार
बिल्कुल सही साहित्य को वर्गों, गुटों और जातिवाद से मुक्त करना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
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