इस
कोरोना समय में सबसे अधिक आरोपों का सामना यदि किसी विधा ने किया है तो वह कविता
है| विरोध करने वालों के अपने-अपने कारण और अपनी-अपनी राजनीति होती है| यदि मुझे
कहना हो तो मैं कहूँगा कि सबसे अधिक जिम्मेदारी जिस विधा ने निभाई वह कविता है|
राजनीति लोगों की हो सकती है कविता की नहीं| कविता कवि-नीति से निभती है जिसका
एकमात्र उद्देश्य होता है जन-जीवन की खुशहाली और समृद्धि| कवि निःस्वार्थ भाव से
इसी दायरे में रहकर श्रम करता है|
कोरोना
समय में रचित श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताओं में भूख है, भय है, त्रासदी है, प्रकृति
है| आगत भविष्य के प्रति कुछ आशंकाएं हैं तो स्पष्टता भी है| अपनी कविताओं में कवि
समस्याओं पर बयानबाजी नहीं करता अपितु यथार्थ स्थिति को उठाकर एकदम सामने रख देता
है| मजबूर और बेबस लोगों का ‘तप्त सड़कों’ पर नंगे पाँव चलना, ‘अटैची पर अटा पड़ा’
बच्चे को लाचार माँ द्वारा खीचकर घर की तरफ वापसी करना, अपनों के इन्तजार में
अपनों का वेबस होना, सुखी और सम्पन्न लोगों के अन्दर अधिक डर का होना, ये सारे के
सारे ऐसे दृश्य हैं जो कवि के हृदय को चीर कर निकले हुए हैं| चीर कर निकलना कोई
सरल मुहावरा नहीं है| कितना दुखी हुआ होगा कवि इन दृश्यों को देखकर यह सोचना सहज
है कविताओं का सामना करना बहुत मुश्किल है| मुश्किल इसलिए है कि सुख के दृश्य आदमी
बार-बार देखना चाहता है जबकि दुःख जिस तरह झेलना नहीं चाहता उसी तरह देखना भी नहीं
चाहता| इस मायने में श्रीप्रकाश शुक्ल ने एक जाग्रत कवि का परिचय दिया है|
इस कोरोना समय में सभी डरे हुए हैं| जो जितना शक्तिशाली है या सम्पन्न है वह उतना डरा हुआ है और जो जितना ‘निर्बल’ है या अभावों से घिरा है भयमुक्त है| ‘डर’ का अपना समाजशास्त्र होता है यह कवि ने ‘डर’ कविता में बताना चाहा है| इधर की स्थितियों को देखते हुए यह तो स्पष्ट हो ही
गया कि “बहुत ताकत बहुत डर पैदा करती है/ जो बहुत ताकतवर होता है/ डरा होता है!” यह साधारण सी बात है कि “बहुत ताकत का होना असल में/ बहुत के शोषण से संभव होता है/ और यह शोषण ही बहुत ताकत के तकिए के नीचे दबा होता है/ जो डराता रहता हैं” और डरे हुए लोग भयाक्रांत होकर इधर छिपते फिर रहे हैं|वैसे
हुआ यह पहली बार है जब शोषण करने वाले आपदा की गिरफ्त में हैं अन्यथा तो शोषित ही
समस्याओं के हत्थे चढ़ता था| कवि डर कर घर में बैठने के लिए नहीं है| वह सामाजिक
गतिविधि पर बराबर नज़र रखे हुए है| गतिविधियाँ बिलकुल सामान्य नहीं हैं| चारों तरफ
अफरा-तफरी मची हुई है| इतनी कि ‘इंतजार’ के निमित्त “एक दृश्य देखता हूँ/ दूसरा
उछलने लगता है/ एक आंसू पोछता हूँ/ अनेक टपकने लगते हैं|” सहज मन भी अशांत होकर
ऊंघता है और एक घर से अनेक घरों को जाने-आने वाले के इंतजार में घुट-घुटकर जीता
है, ऊंघता है| ऐसे परिदृश्य में वर्तमान रहते हुए “हाय कैसे कहूँ कि हर क्षण
एक बीतता हुआ क्षण है/ और जो बीत रहा है/ वह किसी अनबीते का महज़ इंतज़ार
लगता है/ जिसमें सीझती हुई करुणा/ गुजरते
समय की उदासी बन/ कंठ में अटक सी गई है!” न
तो कुछ बोला जा रहा है और न ही तो कुछ समझा और समझाया जा रहा है|
इसी
कविता के माध्यम से कवि यह भी देखता है कि तमाम राहों के तमाम अटके-भटके लोग,
बच्चे नहीं पहुँच पा रहे हैं जिनके वियोग में “दूर बहुत दूर कोई मां रो रही है/ अर्थ
तो बचा नहीं/ भाषा भी खो रही है|” दुःख से भाव और भाव से भाषा की विकृति का होना
सामाजिक प्रक्रिया का क्षीण होना है| माँ की जिन आँखों को सुख-सुविधा हेतु
सांत्वना देकर एक बालक दूर-देश में गया होता है वही बालक सब कुछ गंवाकर पुनः उसी
माँ के पास ‘लौटना’ चाहता है| कभी केदारनाथ सिंह ने कहा था ‘जाना सबसे खतरनाक
क्रिया है’ लेकिन मजदूरों, मजबूरों और महानगरों से ठुकराए गए लोगों को ‘तप्त
सड़कों’ पर नंगे पांव चलते, भागते और आते हुए देखकर कवि कहता है “जाना नहीं रही अब
एक ख़तरनाक क्रिया/ नई सदी में लौटने की यह क्रिया/ जाने से कहीं अधिक
ख़ौफ़नाक है!” इस अर्थ में कि-
भूख
तो बड़ी थी लेकिन उन्हें सिर्फ पहुंचना था
उन
तक पहुंचाए गए सारे आश्वासन अब तक बेकार हो चुके थे/ अनुशासन के नाम पर/ उनके पास अब सिर्फ एक जिद बची थी/ कि उन्हें
घर पहुंचना है
उनकी
जिद व घर के बीच एक गहरा तनाव था/ जिसमें घर लगातार निथर रहा था!
मुश्किलें
विकराल हो रही थीं/ जिनके समाधान के लिये
वे घर पहुंचना चाह रहे थे/ मानों ख़ैर ख्वाह यह घर/ उनके ख़ैर -मकदम के लिए वर्षों
से खड़ा हो!
उनकी
जिद लगातार बड़ी हो रही थी/ और इस जिद में बड़ी हो रही थीं उनकी उम्मीदें/ जिसे अब
एक घर से ही संभव होना था
कितना
ताकतवर था यह 'पहुंचना' कि/
एक पथियाई पथरीली जमीन पर कभी सायकिल से
तो कभी पैदल चलते/ ठंडे पानी की तरह बह रहा था उनके भीतर/ जिससे लौटने से अधिक पहुंच पाना
संभव हो रहा था
‘बाहर’ होना बेघर होना है| यह पहली बार लोगों को एहसास हुआ कि ‘घर’ सही अर्थों में ‘घर’ है जहाँ पहुँचना मात्र, अपनों द्वारा संरक्षित और सुरक्षित होना है| दूर प्रदेशों से घर की तरफ लौटना सही अर्थों में लौटना नहीं पहुँचना है| यहाँ उत्कंठा है, उत्साह है, डर है, भय है और इन सभी से निजात
तभी मिलेगी जब वह घर पहुंचेगा| “घर लौटने से अधिक पहुंचने के लिए होता है/ यह तब पता चला जब वे तप्त सड़कों पर/ संतप्त भाव से लौट रहे थे/ और अपनी पुरानी स्मृतियों को सहलाते/ नंगे पांव उस सड़क पर दौड़ रहे थे/ जिससे कभी वे गए थे|” जाने और आने के बीच की जो त्रासदी है वह हमें हतप्रभ करती है| इसलिए भी कि जो जिस हाल में है, भाग रहा है कि भगाया जा रहा है बस उसी हाल में चला आ रहा है| कवि की ‘बच्चा’ कविता एकदम से द्रवित कर देती है जिसमें एक बच्चे को हेतु बनाकर माँ की ममता, बच्चे की दयनीयता और एक हद तक सभी राही-बटोही की बेबसी के साथ-साथ जीवन-संघर्ष को शब्द-चित्र में पिरो दिया है कवि ने| कवि देखता है कि “सड़क पर अटैची है/ और अटैची पर अटा पड़ा एक बच्चा/ जो पहियों के बल सरक रहा है/ बच्चा डोरी से बंधा है/ जिसे मां एक टांग से खींच रही है/ अपनी दूसरी टांग से सड़क को नापती/ बच्चा मां की मदद कर रहा है/ वह चुप्प है/ कि ओह!/ सब कुछ घुप्प है!”सडकें
शांत हैं, लोग गायब हैं| हर तरफ नीरवता है| ‘घुप्प’ शब्द अपनी अर्थवत्ता लिए होता
है| सही अर्थों में कोरोना काल की “यह लगातार बड़ी होती जाती एक
खबर है/ कि जेठ की इस तपती दोपहरी में/ सड़क के ठीक बीचो बीच एक बच्चा शांत
है/ और मां की गर्दन की तरह सड़क को/ दोनों हाथ से जकड़ रखा है|” पूरा देश देख रहा
है इस दृश्य को| आह-वाह की प्रक्रिया चल रही है| न्यूज चैनल बहस कर रहे हैं|
विद्वान डिबेट का हिस्सा बने हुए हैं| दिल्ली का मुख्यमंत्री सुविधाओं का ऐलान कर
रहा है| कांग्रेस बस चलवा रही है और भाजपा उसे रोक रही है| इस बीच उसी गति में “बच्चा
चला जा रहा है/ और चली जा रही है यह माँ भी/ जिसके साथ लटक गई है यह कविता/ न तो
माँ को पता है/ न ही इस कविता को/ कि इनको
किस पते पर जाना है!” यहाँ कवि उसी दर्द से तड़प रहा है जिस दर्द से माँ
अपने बच्चे के लिए व्याकुल है| यह पूरे कोरोना काल का सबसे भयावह दृश्य है और
कवियों की भीड़ में पहली कविता| माँ की वेबसी में बच्चे की भूख जैसे गायब हो जाती
है उसी तरह सृजन की अनिवार्यता में कवि के आँखों की नींद गायब हो जाती है|
कवि यह देखकर हैरान है कि जिस देश में अभी भी
‘रोटी’ एक स्थाई समस्या है उसी देश में ‘आत्मनिर्भर’ बनने का मंत्र दिया जा रहा
है| यहाँ ‘रोटी’ बनने की प्रक्रिया सेलेकर बिखरने और अपदस्थ किए जाने तक की स्थिति
को जिस गंभीरता से वह रखता है हमें ठहरकर सोचने के लिए विवश होना पड़ता है| कवि
देखता है कि “रोटी बन रही है/ अनेक के इंतज़ार में/ लोई पड़ी है/ लोई से रोटी बनने
के बीच एक जगह है/ जहां उम्मीद है/ रोटी रोज़ ही इस उम्मीद के साथ निकलती हैं/ लेकिन
हलक़ के नीचे उतरने से पहले ही/ बिखर जाती है|” रोटी का बिखरना आम आदमी की इच्छाओं
और अभिलाषाओं का बिखरना है| यहाँ यह समझना जरूरी है कि ‘रोटी’ बनने और ‘आत्मनिर्भर’
होने के बीच ही ‘उम्मीद’ है जिस पर यह पूरा देश निर्भर है और यदि स्पष्टतः कहें तो जिन्दा है| जहाँ
तक सवाल ‘हलक के नीचे उतरने’ का है तो जो सदियों से भूखे और नंगे रहते आए हैं
फिलहाल ‘उम्मीद’ जैसी स्थितियां उनके लिए भयानक स्वप्न हैं| कवि मानता है कि इस देश में “रोटी का बिखरना/ नहीं
है कोई घटना/ जनता अभी भी सड़क पर है/ और उसके पलट प्रवाह के बीच/ देश आत्म निर्भर
हो रहा है/ आत्म निर्भर होता देश अब/ रोटियों
से आगे निकल चुका है!” अब यह कौन समझाए कि जो जनता सड़कों पर है वह
आत्मनिर्भर बनने के लिए ही निकली थी, लेकिन ‘रोटी’ के अभाव ने उसे फिर सड़कों पर
लाकर छोड़ दिया| जिस भूख को बार-बार अपदस्थ किया जा रहा है वही भूख जब इस देश की
स्थाई समस्या है तो कोई कैसे आत्मनिर्भर हो सकता है?
आत्मनिर्भर
तो प्रकृति हो सकती है| सबको अशांत करके स्वयं शांति का उदाहरण रखती है| मुरझाए
रहते हैं सब तो वह खिलखिलाकर हंसती है| जैसे मनुष्य प्रकृति को अशांत करके
खिलखिलाता है| ‘गुलमोहर’ कविता में कवि-दृष्टि की यह गंभीरता देखिये-
धूप
खड़ी है/ हवा स्तब्ध है
जेठ
की धरती पपड़िया गई है/ पगडंडियां चिलचिला रही हैं
सड़क
सुनसान है/ और आदमी अपनी ही छाया में कैद है
एक
ज़हर है/ जिसमें पूरी बस्ती नीली हो गई है
बस
बचा है केवल गुलमोहर/ जो अपने चटक लाल रंगों में/ अभी भी खिलखिला रहा है!”
सब
त्रासद स्थिति में फंसे हुए हैं तो ‘गुलमोहर’ ‘अपने चटक लाल रंगों में अभी भी
खिलखिला रहा है|’ होना तो यह चाहिए था कि सबके दुःख में दुखी होकर इसके चटकपन में
कमी आ जाती लेकिन नहीं आई| सबके विपद के दिन इसके लिए उत्सव के लगे| ठीक हमारे समय
के तथाकथित कवियों और विद्वानों की तरह| इन्हें और गुलमोहर को देखते हुए ऐसा लगता
है जैसे, यह समय आपदा का समय ही नहीं लोभ-वृत्ति को साधने और अंखुवाए लालची स्वभाव के पुष्पित और पल्लवित होने का भी समय है| यह
समय एक हद तक साहित्य का ऐसा विदूषक समय बनता दिखाई दे रहा हा जहाँ सभी ज्ञानी और
सभी कवि की भूमिका में हैं| इस तरह से लाइव और वाच पार्टी के मोहजाल में फंसकर ‘व्यस्त’ हैं जैसे यदि वे नहीं लाइव आएँगे तो देश का
बहुत अहित हो जाएगा| अधिकांश संख्या उन्हीं की है जो अभी तक
साहित्यिक दुनिया में ‘फोकस के बाहर’ रहे| ऐसे वक्ता-प्रवक्ता-कवि-साहित्यकार कवि
को दिखाई देते हैं जो कोरोना जैसी भयंकर आपदा को ‘अवसर’ के रूप में भुना रहे हैं|
दरअसल वे जानते हैं ये कि जितने गुण हैं उन्हें दिखाने का यह उपयुक्त समय है, बाद
में तो कोई पूछता नहीं| ऐसे लोगों की सक्रियता को कवि “विकल काल का विमल महोत्सव”
कहता है, जहाँ “लिखना कम है दिखना ज्यादा/
सिझना कम है खिझना ज्यादा/ भिदना कम है
छिदना ज्यादा/ सिट पिट कम है गिट पिट
ज्यादा|” यहाँ सिट पिट का अर्थ है चमत्कृत करती ध्वनि और गिट पिट का अर्थ है उलझी
हुई ध्वनि| एक तरफ तो चमत्कृत करने की लालसा है और दूसरी तरफ कुछ स्पष्ट न कर पाने
की वेबसी| इन सबको मिलाकर स्वभावतः ‘दिखना’ और ‘खिझना’ ही उनके अब तक के जीवन की
प्रमुख दिनचर्या रही है|
श्रीप्रकाश
शुक्ल के कवि-दृष्टि की एक खाशियत यह भी है कि वे अपने समय के सभी प्रश्नों पर
चौकन्ने रहते हैं| समय जब परिवर्तित होता है तो बहुत कुछ बदल कर रख देता है| कई नई
धारणाएँ जन्म लेती हैं तो कई टूटती भी हैं| यहाँ सारी-की-सारी स्थापनाएं धरी रह
जाती हैं और जिज्ञासु मन वेबस होकर उलझ जाता है|कवि ‘उत्तर - कोरोना...(आत्माएं
होंगी,आत्मीयता न होगी!)’ कविता में यह कहकर आश्चर्य व्यक्त करता है-“कितना विकट
समय है कि जब दुनिया का सारा विज्ञान एक रोएं के हजारवें भाग से भीछोटे वायरस की
काट नहीं खोज पा रहा है/ लगभग एक ब्रह्म की सूक्ष्म सत्ता की तरह इधर उधर छिटक रहा
है/ अपने स्वरूप को लगातार बदलता हुआ हर क्षण धरती का खून पी रहा है/ तुम मुझसे
उत्तर की अपेक्षा कर रहे हो” उत्तर कवि ही देगा यह भी सबको पता है| एक बार ‘बात
बात में’ चर्चा करते हुए श्रीप्रकाश शुक्ल ने कहा था ‘जहाँ सभी सत्ताएँ निरुपाय हो
जाती हैं वहीं से शब्द-सत्ता अपना कार्य शुरू करती है|’ आज जब कोरोना के सामने
विज्ञान से लेकर आध्यात्म तक विवश और हताश नजर आ रहे हैं तो यही शब्द-शक्ति है
जिससे हम संघर्ष की प्रेरणा ले रहे हैं| कवि यहाँ भी यही कहना चाहता है-“क्या तुम
जानते हो/ यह आस्थाओं के फड़फड़ाने का दौर है/ जिसमें संत कवियों की एक बार फिर से
वापसी हो रही है/ जब उन्होंने कहा था कि इस जगत में एक ही ब्रह्म की सत्ता है/ बाकी
सब मिथ्या है!” वह ब्रह्म शब्द है|
आस्थाएँ फडफडा रही हैं नये तरीके ढूंढ रही हैं जबकि शब्द संघर्ष कर रहे हैं और
हमें तमाम डर, भय और आशंका से मुक्ति दिला रहे हैं| कवि यह भी मानता है कि कोरोना
काल के बाद ऐसा समय आएगा-
जहाँ अभिव्यक्तियाँ होंगी/ लेकिन
आस्वाद न होगा/ लोग लौट रहे होंगे/ लेकिन लौटने के लिए कुछ न होगा
आत्माएं
होंगी आत्मीयता न होगी/ एक देह होगी जिसको एक आत्मा ढो रही होगी
यह
चिंताओं व शंकाओं के संघर्ष का दौर होगा/ जिसमें
हर कुछ एक भय की तरह समर्पित होगा/ जहां
स्वीकारने के अलावा और कुछ न होगा/ और संघर्ष के मोर्चे पर हर बार विवेक ही मारा
जायेगा
यह
जो समय अब हम कोरोना के साथ जी रहे हैं जैसे-जैसे समय बीत रहा है, कोरोना का आतंक
बढ़ता जा रहा है, सही अर्थों में हम उत्तर कोरोना काल में पहुँचते जा रहे हैं| घर
से बेघर हो रहे लोग दर-ब-दर होकर भटक रहे हैं| जिन्दा आदमी इतना डरा हुआ है कि
किसी को देखना नहीं चाह रहा है| कोई किसी को छू रहा है तो लड़ाई हो जा रही है| कोई
कुछ कह रहा है हम महज स्वीकार रहे हैं| विवेक का क्षरण पहले ऐसा हुआ कहाँ? कवि के
इस कथन में भी कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि “शासक बहुत उदार होंगे/ लेकिन उनमें सब
कुछ को पाने की एक जल्दी होगी/ लगभग इस समय की वाचाल मीडिया की तरह/ जहाँ ब्रेक के
बाद भी/ एक पुराना ही चीखता है|” पुराने की चीख ही वर्तमान सत्तासीन शासक के पास
शेष है| उसका अपना कार्य और कर्तव्य बिलकुल याद नहीं है|जब कवि यह कहता है कि “क्या
तुम जानते हो/ वायरस का कोई पूर्व काल नहीं होता/ उसका सिर्फ एक वर्तमान होता है/ जो
सदा एक उत्तर में बदल रहा होता है” तो हमें पता चलता है कि अतीत सिर्फ मनुष्य का
होता है जिससे वह सीख ले सके| काल और मनुष्य-शत्रु का मात्र वर्तमान होता है ‘जो
सदा एक उत्तर में बदल रहा होता है|” इस उत्तर कोरोना काल के बाद सही अर्थों में हम
ऐसे समय में पदार्पण करने जा रहे हैं जहाँ से “यह एक नई शुरुआत होगी/ लेकिन शुरू
करने के लिए कोई न होगा|” फिर? उसी शब्द की सत्ता होगी जिसेक नेतृत्व में मनुष्य
नए समाज की संरचना और नई व्यवस्था का विधान रचेगा|
अपने
समय के प्रश्नों से टकराना श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताओं का मूल उद्देश्य है| इस
उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह महज शब्द-व्यापार से कार्य नहीं चलाता अपितु
हृदय-पक्ष को भी सक्रिय रखता है| कवि-हृदय अपनी स्वाभाविकता में इस तरह रमा हुआ है
कि घर-परिवार से लेकर देश-समाज तक को दशा और दिशा उपलब्ध करवा रहा है| यही कोरोना
त्रासदी का भी कहना है| अपने से अपनों का ख्याल रखिये| जब हम श्रीप्रकाश शुक्ल की
इन कविताओं को पढ़ते हैं तो अपने से अपनों का ख्याल न रखने की बजाय सम्पूर्ण मानव
जगत पर चिंतित होते हैं| श्रीप्रकाश शुक्ल का कवि-हृदय सही अर्थों में यही चाहता है|
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