1
चलने की प्रक्रिया में
पहुँचने की
प्रतिबद्धता हो तो
रास्ते साफ़ होते जाते हैं
गायब होते जाते हैं
गली-कूचों के वे आवारा झुण्ड
अक्सर जिन्हें होती है
परेशानी
सच के सामने आने से
2
मेढकों की टोलियाँ
आक्रामक तो होती हैं
इस रास्ते
शोर गायब होता जाता है
कोयलों की सुरीली आवाज की
निरंतरता में|
परिवेश अशांत बनाने की प्रक्रिया में
शांति के पढ़ने लगते हैं
श्लोक
मूर्खता के कारखाने में
पले-बढ़े नौसिखिये|
3
इधर के दिनों में
कौवों के काँव-काँव
बढ़े हैं
हंसों ने चलने से मना भले किया है
लेकिन
बगुलों की मटकन पर विश्वास नहीं है
जन को तनिक भी
शांति का वही रूप लेकर
कबूतर
जन-लोक में भ्रमण कर रहे हैं
भौरे संदेश दे रहे हैं
किसी के बुलावे की
जुगुनुओं की चकमक में
तारों के गायब होने की
परिकल्पना नहीं है इधर कहीं भी
पूरे चाँद को पाने की ललक
है जरूर इन दिनों, लेकिन
सूर्य को गाली देने की मूर्खता से दूर रहते हुए
4
चींटे-चीटियों के बचाव में
इधर कुछ कीड़े-मकौड़े सक्रिय हैं
घर-बार छोड़कर लगे हैं
पूरी निर्लज्जता से रख-रखाव में
मंत्री होने की ख्वाहिश ने बना दिया है
उन्हें सिद्ध चौकीदार
रास्ता रोकने के लिए वे
बात बलि का बकरा बनने की कर रहे हैं
नहीं पता है उन्हें शायद
अहिंसावादी पूरी तरह
नकार चुके हैं
हिंसा के मार्ग पर उतरने से
बेमतलब का रोना तो
पहले से छोड़ रखा था उन्होंने
इधर धार कलम की
तेज जरूर किया है
कहना है जो कहेगी कलम
वे चुप हो देखेंगे
बंजर ज़मीन के और अधिक
बंजर होने के मंजर
1 comment:
वाह!क्या प्रतीक योजना है। हालांकि मैं हमेशा कविता को समझने में असमर्थ रही हूं फिर भी वर्तमान स्थितियों पर जो व्यंग्य बाण छोड़े गए हैं सचमुच सराहनीय है। भवानी प्रसाद मिश्र की कविता चार कौए उर्फ चार हौए जैसी सपाट बयानी। माफ कीजिएगा तुलना नहीं कर रही हूं।
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