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नवगीत विधा में जिस राजनीतिक चेतना की कमी का आरोप था इधर कोरोना समय के दौरान वह चेतना सम्पूर्ण उर्वरता लिए दिखाई दी| योगेन्द्र मौर्य की दृष्टि में “नये गीत से/ नये समय का/ अनुभव होगा/ धरती के चेहरे पर/ फिर से/ उत्सव होगा|” उत्सव तब होगा जब सभी सुरक्षित, संयमित रहते हुए अपने अधिकारों के प्रति सचेष्ट होगा| इस हेतु भी वरिष्ठ और युवा रचनाकारों ने गम्भीरता के साथ अपने समय का मूल्यांकन किया| ‘तन्त्र’ के प्रतिरोध में होकर ‘जन’ की आशाओं और आकांक्षाओं को लेकर अपना पक्ष स्पष्ट किया| इस स्पष्टता में यह ठीक तरीके से दिखाई दिया कि नवगीत समकालीन परिस्थियों को अभिव्यक्त करने में पूर्ण सक्षम विधा है| नवगीत की परिधि में रहते हुए आप देखेंगे तो स्पष्ट यह भी हो जाएगा कि ‘तन्त्र’ द्वारा इस कोरना समय में जन को सबसे अधिक ठगा गया| ‘लोक’ अवाक रह गया|
नवगीतकारों ने लोकतंत्र के सहभागी प्रवृत्ति को ‘लोक’ बनाम ‘तन्त्र’ की भूमिका में चिह्नित किया| जिस राजा को प्रजा के हित कार्य करना चाहिए, वह राजा उसके अहित में मग्न होकर मदमत्त है| जिस ‘तन्त्र’ को ‘लोक’ का आवरण दिया गया वह पूर्ण रूप से लोक को विलुप्त के कगार पर खड़ा कर उसे ‘तन्त्र-निर्मित’ कुछ हाथों की कठपुतली बना दिया| यहाँ यह कहना सर्वथा उचित है कि— “मुखिया को मुख-सा होना था/ भूल गये शुचि मूल मन्त्र यह,/ कुछ हाथों की कठपुतली हम/ कैसा अपना लोकतंत्र यह,/ दीवारें भी बोल रही हैं/ बहुत अशुभ होता है नृप-मद ।(नवगीत-सुनो प्रियंवद, अक्षय पाण्डेय)” विडंबना यह है कि जिस परिवेश की दीवारें ऐसा बोल रही हैं उसी परिवेश में रहने वाली जनता मूकदर्शक बन गुमनाम करने के खेल में सहभागी है| नृप-मद इतना कि उसे सामूहिक नरसंहार भी ‘उत्सव’ दिखाई दे रहा है| ऐसा पहली बार फिलहाल नहीं हो रहा है कि ‘तन्त्र’ के निर्माण में ‘लोक’ को मृत्यु के मुंह में धकेल दिया जा रहा हो, लेकिन इतना तय है कि जिस अंदाज में हो रहा है, वह पहले कभी शायद ही हुआ हो|
यह सभी को पता है कि कोरोना एक आपदा है, प्रकृति-आपदा है या मनुष्य-जनित, यह बाद की बात है| ऐसी आपदाओं में आदमी रस्म-रिवाज तक को निभाने से कतराने लगता है| जगदीश पंकज एक जगह कहते हैं कि “दौड़ती सी ,भागती सी/ फिर रही है मौत/ सड़कों, अस्पतालों,/ और गलियों में मचलकर” जिसका समाधान करने की बजाय राजा चुनाव में मग्न है और इस मग्नता में मरते लोग न दिखाई देकर ‘आपदा में अवसर’ की तलाश लिए लोगों का जीना दुश्वार कर रहा है| ‘भूप है चुनाव में मगन’ में अक्षय पाण्डेय का यह कहना हमें सत्ता के अवसरवादी प्रवृत्ति को दिखाना है-“कोरोना काल बन खड़ा/ जीना दुश्वार कर रहा,/ दुःख में अवसर तलाश कर/ कोई व्यापार कर रहा,/ मानवता शर्मसार है/ उसकी यह देख कर ठगन|” मानवता शर्मसार है लेकिन सत्तासीन लोग और उनके समर्थित एकदम निर्लज्ज होकर आँख मूंदे पड़े हैं|
यश मालवीय की मानें तो “सत्ता के सब दलाल,/ नोंच रहे बोटी/ जल रही चिताओं पर,/ सेंक रहे रोटी|” जनता की बात करने की जरूरत जहाँ है, जहाँ उनके दुःख-दर्द को अंधी शासन तक पहुँचाने का कार्य करने की जरूरत है वहां सब सत्ता की दलाली में मशगूल हैं| कोई केंद्र की दलाली कर रहा है तो कोई राज्य सरकार की| कोई पक्ष को कोस रहा है तो कोई विपक्ष को| जबकि पक्ष-विपक्ष महज सत्ता के लिए केन्द्रित हैं, मनुष्य की गति-दुर्गति से कोई लेना-देना नहीं है उनका| सत्ता-व्यवहार अभी किसी को नहीं दिखाई दे रहा है तो यह एक गंभीर समस्या है| सत्ता और केंद्र भी एक दूसरे पर तोहमत फेंक कर स्वयं मुक्त हो जा रहे हैं जिसे यश मालवीय ने बड़ी गंभीरता से दर्ज किया है-“केंद्र राज्य पर छोड़े/ राज्य केंद्र देखे/ देश मर रहा, मुखिया/ बस जुमले फेंके|” यश की दृष्टि में यह उसी जुमले का प्रभाव है कि-“क़दम-क़दम पर मिलता,/ मौत का कुआँ|” स्थिति तो ऐसी है कि क्या गाँव क्या शहर, हर गली हर नगर, कोई न कोई कोरोना संक्रमित पाया जा रहा है और किसी न किसी का करीबी गुज़र रहा है|
नवगीत में सत्ता से समझौता का फिलहाल कोई सवाल नहीं है| जन महत्त्वपूर्ण है और जन संवेदना की सम्भावनाओं को पंख देना उद्देश्य| अनामिका सिंह ‘अना’ अपनी नवगीत में सत्ता को ही जिम्मेदार ठहराया है| इस जिम्मेदारी में उन्होंने मुखिया को निशाना बनाते हुए कहा कि गली-नगर-सडकों पर “साँसें पड़ीं शांत जितनी भी/ उन सबके हो हत्यारे/ दृष्य भयावह टर सकते थे/ लेकिन तुमने कब टारे|” समस्या है सबको पता है लेकिन समस्या को भाग्य और आपदा में तब्दील करके देखने से विकरालता बढ़ जाती है उसकी| इस विकरालता में सुभाष वशिष्ठ का यह प्रश्न हम सबका प्रश्न बन मन-मस्तिष्क को बेधने लगता है- रोग,रोगी,चिकित्सालय/ आपदा भयभीत सब/ "सामने अदृश्य रिपु है/ पा सकेंगे जीत कब?" अदृश्य सिर्फ कोरोना होता तो समस्या का समाधान हो भी सकता था| इधर दोयम दर्जे की राजनीति हो रही है तो ‘सादृश्य रिपु’ भी ‘अदृश्य रिपु’ में परिवर्तित हो गए हैं|
इधर के नवगीतों में सत्ता-प्रतिरोध पर अडिग रहते हुए परिवर्तन पर भी विचार किया जा रहा है| सही भी है, क्योंकि लोकतंत्र में परिवर्तन का विकल्प हर समय मौजूद होता है| यही विकल्प गलत करने से रोकता है और सही के ‘चुनाव’ के लिए प्रेरित करता है| बृजनाथ श्रीवास्तव का मानना है कि “शल्य चिकित्सा लोकतनत्र की/ अब तो बहुत जरूरी है/ और लोक से बनी हुई जो/ आज तंत्र की दूरी है/ हिम्मत बाँधो लौटेंगे फिर/ दिवस गये जो रूठ|” रूठे दिवस को वापस लाने के लिए विचार-मंथन की प्रक्रिया पर मजबूती से कार्य करना चाहिए| अब यहाँ यदि कवि-कथन पर विश्वास करें तो कहीं ऐसा तो नहीं कि वर्तमान ‘शासन-व्यवस्था’ का प्रतिकार कर ‘अतीत-व्यवस्था’ के आगमन के लिए सब्र की बात की जा रही है?
‘तन्त्र’ से
‘लोक’ की दूरी को समाप्त करने के लिए ‘वर्तमान’ या ‘अतीत’ पर मंडराना ठीक तो नहीं
होगा? भविष्य के लिए विचार करने की प्रवृत्ति अपनानी पड़ेगी तो इसके लिए ‘व्यवस्था’
के चेहरों में परिवर्तन की बात करनी चाहिए| जब इस प्रकार के परिवर्तन की बात की
जाएगी तो वह कुछ हद तक स्थाई और मजबूत व्यवस्था होगी| इस परिवर्तन में नेताओं की
जगह लेखकों, पत्रकारों आदि के शासन व्यवस्था में हस्तक्षेप की मांग हो और यह
अपेक्षा हो कि इनके आने से राजनीति का स्वरूप परिवर्तित हो सके| यहाँ कवि ‘कबीर’
की तरह मात्र समस्याएँ न देकर ‘तुलसी’ की तरह साफ़ विकल्प दे तो परिदृश्य और भी
स्पष्ट हो सकता है|
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