Sunday 2 May 2021

कोरोजीवी कविता और नवगीत विधा का सामाजिक संघर्ष

 

3

अपने किसी लेख में यह बात मैं पहले से ही कहता आया हूँ कि दलित-विमर्श और स्त्री-विमर्श की तर्ज पर लम्बे समय से हिंदी साहित्य में किसान-विमर्श की मांग उठ रही थी| उनके जीवन के यथार्थ को अभिव्यक्त करने की अपेक्षा बराबर बनी रही लोगों की| ऐसा नहीं है कि साहित्य में किसान की यथास्थिति पर विमर्श नहीं है| अन्य विधाओं की बात करें तो मुंशी प्रेमचंद से उदाहरण हम ले सकते हैं| कविता हो या नवगीत इन विधाओं में किसान के जीवन-यथार्थ पर गंभीर कार्य होते रहे हैं| यदि सक्रियता और सतर्कता के साथ इस विमर्श को परिचर्चा का माध्यम बनाया गया होता तो परिदृश्य वही न होता जो आज है| कहने को किसान सुखी और समृद्ध हैं| हर सुविधाओं का फायदा उठा रहे हैं| यही स्थिति जब आप किसानों से पूछेंगे तो उनके ही नहीं आपकी आँखों से भी आंसू चू पड़ेंगे| मैं बड़े रहीसों और ठेकेदारों की बात नहीं कर रहा हूँ| ऐसे किसानों की बात कर रहा हूँ जो वाकई किसान हैं तमाम विडम्बनाओं को जीते हुए भी वर्तमान हैं|


कोरोजीवी समय के नवगीत विधा में किसानों की यथास्थिति को गंभीरता से लिया गया है| यदि यह कहें कि यथार्थ-स्थिति की अभिव्यक्ति का पूरी संवेदना के साथ जीवंत चित्रण हुआ है, तो अत्युक्ति न होगी| कोरोना समय में ही राष्ट्रीय स्तर पर किसान आन्दोलन हुए| आन्दोलन की आड़ में छल छद्म की राजनीति भी खूब हुई, यह एक अलग मुद्दा है| फ़िल्मी दुनिया से हटकर किसानों के लिए यथार्थ में पहली बार ऐसा आन्दोलन देखने को मिला| किसान अधिकारों के लिए साहित्य, कला, संगीत, राजनीति, समाज हर क्षेत्र के लोग आगे आए, हालांकि यथास्थिति का जायजा लेते हुए कुछ अलग भी होते गए| जिस समय लोग कोरोना के भय से घरों में दुबके पड़े थे उसी समय किसान अपने अधिकारों की मांग पर अड़े थे| यह एक सहस का कार्य तो है ही|

कोरोजीविता के दौर में हर समय शांत रहने वाले कुछ नवगीतकारों को छोड़ कर अधिकांश ने किसान की यथास्थिति पर पूरी निर्भीकता से अपनी अभिव्यक्ति दी| अनामिका सिंह ‘अना’ किसानों की सभी त्रासद स्थितियों का जिम्मेदार पूंजीवाद को मानती हैं-कृषक हितों की बात छलावा/ पूँजीवाद महान|” उनका प्रश्न है कि “उचित मूल्य फसलों का हलधर/ कब-कब हैं लाये” जब भी वह आगे आए हैं, षड्यंत्रों की बलि बेदी पर चढ़ा दिए गए हैं| उचित मूल्य की क्या कहें, सरकार और पूँजीवाद की मिलीभगत में ‘कम’ के लिए भी लाइन में लगे रहते हैं| यदि अनामिका की दृष्टि में “कृषि प्रधान है देश हमारा/ भूखा मगर किसान” तो किसी भी देश और समाज के लिए इससे बड़ी त्रासद स्थिति और क्या होगी कि, जो दूसरों का पेट भर रहा है स्वयं भूखा है|

भूख और बेगारी की स्थिति से जुड़े किसानों के लिए न्यायलय है, संसद है, पूँजीवाद है सब हैं, बावजूद इसके वह असहाय, अनाथ और लाचार-वेबस के रूप में जीवन यापन कर रहा है| ऐसा इसलिए क्योंकि उसका सच कोई रखने वाला नहीं है| नवगीतकारों ने इस सच को कहने और प्रस्तुत करने का साहस दिखाया है| आन्दोलन में आए ‘किसानों की स्थिति’ और उनकी तत्कालीन परिस्थिति को राहुल शिवाय अपने नवगीत में स्पष्ट दिखाते हैं-“वह बँटेदार रामू जो था/ उसका उपजा फिर नहीं हुआ/ अफसर, मुखिया, कर्जे में ही/ राहत का पैसा सभी बँटा/ वह आंदोलन कर लौट गया/ पर मिला नहीं कुछ दिल्ली से/ राधा चूल्हा-चौका करती/ दुखिया दो बेटी छोड़ गया/ नीलाम हुआ जब घर उसका / वह दुनिया से मुख मोड़ गया/ राधा-सी कितनी रोती हैं/ वह भूख मिटाएगीं कैसे|” अधियारो (बंटेदार) की स्थिति सभी जानते हैं| खेत-बारी उनका नहीं होता लेकिन करते सभी कार्य वही हैं| ऐसे किसानों की संख्या देश में बहुत है| आपदा में आई राशि ऐसे किसानों के पास कभी नहीं पहुँचती| इनके गुजरने के बाद ‘राधा-सी’ बहुत होती हैं जिनके आपद-विपद में कोई सहायक नहीं होता| इनके लिए राजनीति किसी छल से कम नहीं है| शिवाय यह दिखाने का प्रयत्न कर रहे हैं कि-“राजमार्ग पर सिसक रहे हैं/ गेहूँ, मक्का, धान/ धीरे-धीरे उघर रहा है/ सत्ता का परिधान” क्योंकि कभी किसी दल ने कोई सहायता प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शायद ही की हो| दिल्ली में ऐसे बहुत किसान थे जिनको अब उनका पड़ोस भी शक की दृष्टि से देख रहा है|  

भारतीय कृषि मौसम पर निर्भर है| चुनावी मौसम, षड्यंत्र के दिन से उबरता है जब किसान तो प्रकृति भी उसके साथ क्रूर मजाक करती है| फसलों का असमय नष्ट हो जाना, सूख जाना या अंकुरित ही न होना, ये सभी स्थितियां किसानों को अनाथ करती हैं| व्याकुलता भरी स्थिति में किसान यही सोचता है कि “खुल कर कभी न/ रो पाए हम/ मन करता रोएं दहाड़ के!!” इसी नवगीत में रविशंकर पाण्डेय किसानों की यथास्थिति पर कहते हैं-

सावन सूखे/ भरे न भादों/ बहक गए हैं/ दिन आषाढ़ के

किस्मत अपनी/ रहे बांचते/ मौसम-/ सूखे और बाढ़ के !

पारसाल बूड़े उतराए/ आसौं/ सूखे की चपेट में

पहले कमर/ एक ने तोड़ी/ दूजा मारे लात पेट में ,

फिर भी/ बोते रहे खेत हम/ सस्ता मद्दा मूस काढ़ के !

समय चक्र के/ उलट फेर से/ यह कैसा अंधेर हो रहा

कल तक जो/ चेरापूंजी था/ अब वह जैसलमेर हो रहा,

औंधी कोठली और बखारी/ क्या रखते/ हम काट माड़ के !

गाते आए/ रो धो करके/ हम जीवन भर बारहमासी

हरी धनखरी की/ छाती में/ उग आई क्यों सत्यानाशी,

         

‘चेरापूंजी’ का ‘जैसलमेर’ होना, ‘सूखे’ और ‘बाढ़’ के बीच अपनी किस्मत को बांचना ही भारतीय किसानों का यथार्थ है| इधर कोरोना समय में आपदा ने किसानों के लिए एक नयी समस्या पैदा कर दी है| अवनीश त्रिपाठी मानते हैं कि इनके दिन कटते हैं तामझाम में/ अंदेशे में रात/ नहीं सुधरते लेकिन अब भी/ मौसम के हालात/ टूटी खपरैलों के/ कारण/ सिसक रही दीवार|” तामझाम में दिन बिताने वाला किसान स्वयं तामझाम बनाकर रह गया इस कोरोना समय में| अभी लॉकडाउन लग जाए तो दो वक्त की रोटी भी मुश्किल हो जाए छोटे किसानों के लिए, जो एक गंभीर समस्या है|

          कोरोजीवी नवगीत अपनी सम्पूर्ण चेतना के साथ मनुष्य की वेदना को अभिव्यक्त करती है| इधर के नवगीतों में हर चीजें गौण हो चुकी हैं| किसान की सम्पन्नता, खेतों का सौंदर्य, फसलों की हरियाली से लेकर प्रेम, मनुहार जैसी स्थितियां एकदम गौण हो गयी हैं| ऐसे परिवेश की यथार्थता पर यश मालवीय उनका पक्ष रखते हैं-“भूखे से लोग जियें बदहाली,/ ऐसे में पेट हम भरें-गाएँ/ इससे तो अच्छा है मर जाएँ|” मरने का कारण सीधे तौर पर यह है कि हाहाकार, डर, भय, चिंता, व्यग्रता जैसे भाव परिवेश में हावी हो रहे हैं| किसानों का जीवन इनसे अछूता नहीं है| वे सब भय और त्रासद की स्थिति में हैं| उनकी वर्तमान स्थिति को अक्षय पाण्डेय विश्लेषित करते हुए कहते हैं कि-“रोज हरा सपना किसान/ आँखों में बोता है/ शीतलहर, पाला-पाथर संग/ जगता-सोता है/ जर्जर तार-तार छप्पर है/ तन पर फटी हुई चादर है” ऊपर से परिवार को पालने-पोषने की चिंता है, घर-बार चलाने की वेबसी है और सामने लॉकडाउन है, बंदी है, घर से न निकलने और हर हाल में वही करने की बाध्यता है जिनसे न तो उन्हें उबरना है और न ही परिवेश को|

यह नवगीत का सामर्थ्य है जिसकी वजह से परिवेश में आपदा में अवसर की जगह अभिव्यक्ति का साहस दिख रहा है| किसानों, मजदूरों, वेबसों की यथास्थिति को प्रस्तुत करते हुए निश्चित तौर पर एक ईमानदार रचनाकार होने का धर्म निभाया है नवगीतकारों ने| समकालीन मुद्दों पर सक्रिय सहभागिता के लिए इस विधा की वापसी हमें आश्वस्त करती है और कविता की ज़मीन से गायब हो रही उर्वरता को बनाए रखने के लिए प्रेरित भी|

6 comments:

Ravindra Singh Yadav said...

नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (03-05 -2021 ) को भूल गये हैं हम उनको, जो जग से हैं जाने वाले (चर्चा अंक 4055) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।

चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

#रवीन्द्र_सिंह_यादव

अनिल पाण्डेय (anilpandey650@gmail.com) said...

हमें खुशी होगी सर

PRAKRITI DARSHAN said...

समय चक्र के/ उलट फेर से/ यह कैसा अंधेर हो रहा

कल तक जो/ चेरापूंजी था/ अब वह जैसलमेर हो रहा,

औंधी कोठली और बखारी/ क्या रखते/ हम काट माड़ के ! गहरे संदेश को समाहित किए गए हुए गीत..।

अनिल पाण्डेय (anilpandey650@gmail.com) said...

आभार आपका

Marmagya - know the inner self said...

बहुत सुंदर समसामयिक विषय पर रचना!--ब्रजेंद्रनाथ

अनिल पाण्डेय (anilpandey650@gmail.com) said...

आभार आपका