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कोरोजीवी कविता ने सांस्कृतिक धरातल पर गम्भीरता से अपनी उपस्थिति दिखाई है| इस
दौर के नवगीत में प्रेम, साहचर्य, सद्भाव और सहभागिता पर भी कार्य हुआ है|
सांस्कृतिक सहभागिता के एकीकरण का प्रयास किया गया है| सामाजिक सद्भाव और
सांप्रदायिक एकीकरण पर बल दिया गया है| हर परिस्थिति में मनुष्यता को बचाए रखने का
आह्वान किया गया है| इधर सबसे अधिक आक्रमण सहभागी प्रवृत्ति पर हुआ है| ऐसा न हो
कि मनुष्य एक-दूसरे के खून का प्यासा हो और साथ-सहयोग की जगह मार-काट की प्रवृत्ति
को लोग शौक से अपनाने लगें, नवगीतकारों का चाहना है कि इन सब पर गंभीर होकर मानवीय
और करुणा से परिपूर्ण बनें|
गरिमा सक्सेना के नवगीत की पंक्तियों के सहारे कहें तो “कई चेहरे नित्य बस/ तस्वीर
होते जा रहे हैं/ कीमती कितने करीबी/ लोग खोते जा रहे हैं” फिर भी वह कौन लोग हैं
जो मनुष्य को मनुष्य से दूर करने पर आमादा हैं? क्या इतनी त्रासद स्थितियां उनकी
आँखों को खोलने के लिए कम हैं अभी? जो खो रहे हैं उनके साथ का अभाव भी क्या
एक-दूसरे को संग-साथ रहने की स्थिति को नहीं समझा पा रहा है? नहीं समझा पा रहा है
क्योंकि छुआ-छूत, भेद-भाव का नया संस्करण आ गया है इधर| नवगीतकार ओम धीरज देखते
हैं कि अभी हम ठीक से सामाजिक हो भी नहीं पाए थे, सामाजिक विसंगतियों को तोड़ ही
रहे थे कि “छुआछूत फिर से आ धमका/ लेकर रोग बहाना,|” लम्बे जीवन अनुभव के आधार पर धीरज कहते
हैं कि “भुक्ति -युक्ति के बीच मुक्ति हित/ सदियों लड़ा जमाना/ तब जाकर कुछ
दशाब्दियों में/ छूटा दाग पुराना!” लेकिन कोरोना के आगमन से पुराना दाग विवशता का
रूप धारण कर लिया|
जिस छुआछूत से उबरे थे उससे भी गहरे रूप में जुड़ गए| छुआछूत के इतिहास का अवलोकन करते हुए ओम धीरज कहते हैं-“उपासना के संग चला था/ पहुँचा चूल्ह -कड़ाही तक,/ भोज -भात, पानी-परात से/ जा पहुँचा परछाईं तक|” कहाँ तो हम मंदिरों में प्रवेश और निषेध के लिए लड़ रहे थे, फिर खान-पीन के व्यवहार से दूरी बनाए, भोज-भात में दूरियां बढ़ीं, इधर अब परछाहीं का बचाव किया जाने लगा है| स्थिति तो यह है कि इतने डरे और भयभीत हैं लोग कि एक दूसरे को देखना और छूना तक नहीं पसंद कर रहे हैं| माधव कौशिक का यह कहना कितना सही है कि“पहले ही अलगाव बहुत था/ अब सामाजिक दूरी/ कैसे कोई कर पायेगा/ समरसता को पूरी/ जंगल के दावानल जैसा/ संकट पसर गया|” इस संकट में कोई मर जा रहा है तो उसको कन्धा तक देने के लिए तैयार नहीं हैं|
सामाजिकता जितनी तेज से बढ़ रही थी, जातिवाद, छुआछूत-भेदभाव जितने तीव्र गति से
समाप्ति के कगार पर थे, इन सब में अब उतना ही विश्वास दिखाई देने लगा है| मानवीयता
के मार्ग पर बढ़ते हुए लोग अचानक अमानवीयता को ही अपना जीवन-शैली बनाने लगे हैं| इन
सभी को रोकने के लिए बुद्धिजीवियों को सामने आना चाहिए| उन्हें जगदीश पंकज सरीखे
नवगीतकारों के इन पंक्तियों से प्रेरणा लेनी चाहिए कि ‘जब सभी संवाद, पीड़ित/ संक्रमण से ग्रस्त,
तब फिर/ बैठ मिलकर/ हल तलाशें सब परस्पर” ताकि विभेदकारी शक्तियां न
सक्रिय हो पाएं और सब मिलजुलकर संकटग्रस्त समस्याओं से लड़ सकें और धरा-धाम को
सुंदर से सुन्दरतम बना सकें|
कोरोना की त्रासदमय स्थिति में रचनाकारों को पर्यावरण प्रदूषण का भी ख्याल आया
है| चिड़ियों का प्यासे रह जाना, बैठने के लिए पेड़ की शाखाओं का उपलब्ध न होना, हवा
का विषाक्त होना, भरे-पूरे, हरे-भरे परिवेश का जंगल में परिवर्तित होते जाना
नवगीतकारों की चिंता है| पकज परिमल अपने नवगीत में स्वीकार करते हैं-"जो निसर्ग से मुफ़्त मिले,
वे/ दूषित हुए हवा औ' पानी/ आज शुद्धता अनुपलब्ध हो/ करती है अपनी मनमानी|” इस मनमानी में हम सब
शामिल हैं अपनी अज्ञानता और जिद के साथ| परिदृश्य तो यह है कि ईंटों से निर्मित
महलों ने भारत की स्व-निर्मित आवास-प्रणाली को लगभग समाप्ति के कगार पर लाकर खड़ा
कर दिया है| पहले छान-छप्परों के रहने से कुछ भले न हो लेकिन जीव-जंतुओं को भी
रहने का आसरा मिल जाता था| रविशंकर पाण्डेय की चिंता वर्तमान परिवेश के लिए जायज
है-“छानी छप्पर/ सब लील गए/ जंगल के जंगल ईंटों के/ आदमजाये/ बिलबिला रहे/ अंडों
बच्चों से चींटों के ,/ छोटे छोटे कोठे/ क्या हैं ज्यों/ छत्ता एक
तइया का!” ये नए जमाने के आशियाने हैं जहाँ जीव-जंतुओं की चिंता न होकर बस अमीर से
अमीर दिखने के शौक-साधन शेष हैं|
अतीत-स्मृति के सुख को खोजते विवेक आस्तिक के इन प्रश्न भरे चिंता में हम सब
की चिंता शामिल है कि “कहाँ छुप गए गुलर-फूल से/ प्यारे-प्यारे दिन/ अब तो आँखें
कसक रही हैं/ गौरैयों के बिन|” जीव-जंतुओं, गौरैयों आदि के विलुप्ति के कगार पर
होने से धरती का सौन्दर्य विनष्ट हुआ है| रवि नंदन सिंह की दृष्टि में इन सब
स्थितियों का परिणाम यह हुआ है कि “आसमां की गोद में अब/ शाम भी ढलने लगी,/ लौटती लहरें तटों को/ अलविदा
कहने लगीं,/ डूबते सूरज से उसकी/ रश्मियाँ भी बिछुड़ गयीं|”
शेष क्या हैं फिर? मनुष्य की अह्मंयताएं, मूर्खताएं और अज्ञानताएँ जो इधर प्रकृति
से दूर रहते हुए किताबों के पन्नों से साक्षर हुए लोगों में बढ़ी हैं|
सामाजिक स्थिति बद से बदतर की तरफ बढ़ती जा रही है| पर्यावरण का प्रभाव इधर
सम्पूर्ण परिवेश पर देखा जा रहा है| इधर के दौर में बढ़ी सांस्कृतिक विकृति से भी
हम इनकार नहीं कर सकते हैं| कोरोजीवी कविता का प्रयास है सांस्कृतिक समृद्धि बनाए
रखना| रहन-सहन, बात-व्यवहार, चाल-चलन से लेकर आचार-विचार तक की प्रक्रिया पर
नवगीतकारों ने गीत दिए हैं| इन गीतों में संस्कृति के उन विन्दुओं पर चर्चा की गयी
है जिनसे आचार-विचार-व्यवहार आदि का निर्धारण होता है| धर्म-कर्म, पूजा-पद्धति आदि को हम आचार-विचार को संयमित
रखने का साधन मानते थे लेकिन पंकज परिमल “पूजा , हवन , अजान , प्रार्थना/ रुँधे
कंठ की मौन
व्यथायें” मानते हैं| इन सब से दुःख कम नहीं हो रहा है और न ही तो कोई आसरा
मिल रहा है| हम जितना इनकी तरफ बढने की कोशिश कर रहे हैं दुःख उतना ही अधिक सघन
होता जा रहा है| शांति तो बहुत दूर की बात हो गयी है|
वैसे भी
ईश्वर, ईश्वर के रूप और उनके मोह से आदमी का मोहभंग इधर हुआ है| बृजनाथ श्रीवास्तव
का यह प्रश्न “वक्त कठिन है/ ऐसे में हम/ किसको आराधें” हर उस व्यक्ति का प्रश्न है
जो इस त्रासदी चपेट में आया है| यह पहले भी किसी लेख में कहा जा चुका है कि
शब्द-सत्ता के सक्रिय होने का समय है ये| सभी सत्ताएँ, चाहे वह ईश्वरीय हों या
मानवीय, असहाय और लाचार हुई हैं इधर| जगदीश पंकज कहते हैं “अब समायोजन-प्रबंधन का/ जटिल है समय/ आओ, मान्यताओं पर/ विचारें पुनः
मिलकर” ताकि आपदाओं में हमारा साथ देने वाला न भी हो तो हम आत्मबल से ही सही, लड़
तो सकें कम से कम|
यह संकट का समय चल रहा है| जीवन संकटों से होकर हर समय गुजरता रहता है| हम अन्य समस्याओं से इतने भयभीत कहाँ होते हैं जितना इधर के दिन कोरोना से हो रहे हैं? जीवन को निर्भय और सकारात्मक पथ पर लाने के लिए हमें पंकज परिमल के गीत की इन पंक्तियों को समझना होगा-“थोड़ी-बहुत दिक्कतें आती रहती हैं/ पर मन को छोटा करने से क्या होगा/ अपनी नज़रों की ही ताकत कम होगी/ आँसू को मोटा करने से क्या होगा,” चिंताएं बढ़ेंगी, समस्याएँ अनायास पैदा होंगी, शारीरिक रूप से हम कमजोर होंगे तो किसी न किसी रूप से कोरोना जैसे अदृश्य वायरस के भाजन ही बनेंगे| इसलिए समस्त चिंताओं को छोड़कर वर्तमान को जीने में तत्परता दिखानी चाहिए क्योंकि “हरदम नहीं/ महामारी का/ मंजर होगा/ खुद से या फिर/ नहीं हवाओं का/ डर होगा/ कुम्हलाए/ पौधों में जीवन/ संभव होगा (योगेन्द्र मौर्य)|” ये महज स्वप्न एवं आशा के वाक्य भर नहीं है मनुष्य और मनुष्यता को बचाए रखने के लिए ऐसी पंक्तियों को आशा भरे आधार मन्त्र मानकर चलना चाहिए|
इधर के नवगीतकार लगातार आम जन की सम्वेदना को शब्द देने में सक्रिय हैं| शुष्कता और भावुकता को त्यागकर यथार्थ परिदृश्य का अवलोकन ही नहीं कर रहे हैं, साहस के साथ अभिव्यक्त कर रहे हैं| हमें नवगीत के स्वर को समझना होगा| उसके साहस को मानना पड़ेगा| किसी भी विधा को बगैर पढ़े ख़ारिज कर देने की तत्परता से बचना होगा| कविता की अन्य सभी विधाओं से कम सक्रियता नहीं है इधर| कोरोना समय में नवगीत ने अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन खूब किया है और वर्षों से आलोचकों की इस मांग को कि नवगीत में यथार्थ बोध के क्षमता नहीं है, पूरा किया है| कोरोजीवी कविता में नवगीत के सामाजिक संघर्ष पर यह अपनी तरह का लेख है जिसके सारे सन्दर्भ फेसबुक से लिए गए हैं|
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