1.
जिस साहित्य को लोग सृजन और संवाद के रूप में लेते हैं, इधर
के दिन वह साहित्य नाम-इनाम की राजनीति में उलझे खेमेबाजी का जरिया बन गया है|
साहित्यिक परिवेश पर ध्यान लगाकर देखें तो सब स्पष्ट होता जाता है| सबसे अधिक असहज
मुझे तब होना पड़ता है जब कोई मेरे नाम के आगे युवा कवि या युवा आलोचक लगाता है|
मैं अपने नाम के आगे युवा जैसा शब्द लगाने के पक्ष में इसलिए नहीं हूँ क्योंकि जिस
‘शब्द’ पर सबसे अधिक जिम्मेदारी बढ़ी है उस शब्द की दुर्गति इधर के दिनों आलोचना और
कविता के साथ, सबसे अधिक हुई है| यह भी कि इधर के हिंदी साहित्य में दो पुस्तक की
हलकी समीक्षा भी कोई लिख लेता है तो स्वयं को नामवरी परम्परा का आधार स्तम्भ घोषित
कर लेता है| यदि वह नहीं भी करता है तो जिस पर लिखा गया होता है वह उसे उसी रूप
में प्रचारित करने लगता है|
यह इधर के सोशल मीडिया के युग में तेजी से हुआ है| पता नहीं
कितने युवा आलोचक और कवि को बनते और गायब होते देखा गया है| वरिष्ठ और गरिष्ठों की
तो एक पूरी की पूरी फ़ौज ही है जिनका अभ्युदय भी सोशल मीडिया की देन है| यहाँ कितने
ही कबीर (स्वयं को कबीर की परम्परा में रखने वालों) को चौराहे पर बैठ कर गाली देते
रोज सुनता हूँ तो कितने ही तुलसी (तुलसी के अनुयायियों में स्वयं तुलसी से भी
बढ़कर) को नित-प्रतिदिन ज्ञान बघारते पाता हूँ| हो सकता है कि इन्हीं में से एक
श्रेणी में मुझे भी आप पा जाएं लेकिन परिदृश्य है भयावह, जिसकी तरफ मैं आपका ध्यान
लाना चाहता हूँ| दरअसल साहित्य का सबसे अधिक अहित ऐसे क्रांतिकारियों और
समन्वयवादियों की वजह से हुआ है| यह मैं तब गलत मानता था लेकिन इधर अनुभवों से
एकत्रित ज्ञान के माध्यम से कहने के लिए विवश हूँ कि ऐसे लोगों की वजह से जरूरी
रचनाओं और महत्त्वपूर्ण रचनाकारों तक पहुँचने में बहुत बाधाएं आती हैं| इन सब की
वजह किसी एक परम्परा में कैद हो कर रहने वाले तथाकथित संप्रदायवादियों से है|
मैं यह नहीं कहना चाहता कि हम जैसे रचनाकारों को किसी परम्परा में देखने की कोशिश की जाए| जिम्मेदारी का भाव लिए व्यक्ति जिस रास्ते से चलता है परम्पराएं वहां से निर्मित होती हैं| कई बार जब आप किसी को एक खांचे में फिट कर देते हैं तो उसकी सीमाओं को नहीं अपितु अपनी सीमाओं का दायरा बताने लगते हैं| परम्पराएं कई बार आपके मिजाज से नहीं अपितु देशकाल परिस्थिति के अनुसार विकास पाती हैं| यह हिंदी के बहुत कम रचनाकारों के हिस्से आया है कि जब वह परम्परा विशेष से नहीं अपितु परम्पराएं उनकी वजह से निर्मित हुई हैं| जब आप किसी एक विचारधारा या किसी एक स्कूल की यथास्थिति के अनुसार चलने लगते हैं, तब आप परम्परा के अनुगामी होते हैं| रचना-प्रक्रिया में ऐसा होना कोई बड़ी बात नहीं होती| बड़ी बात होती है अपनी परम्परा पर अन्य अनेक को चलने के बाध्य करना| ऐसी बाध्यता कितने ला पाते हैं यही विमर्श का विषय होना चाहिए|
आलोचना के परिप्रेक्ष्य में बात करें तो मामला अधिक उलझाऊ
हो जाता है| अन्य सभी मुद्दों को छोड़ भी दें तो सवाल यहाँ निष्पक्षता का है| जब आप
कभी भी निष्पक्ष होकर रचनाओं का मूल्यांकन करेंगे तो कभी इस परम्परा में तो कभी उस
परम्परा में दिखाई देंगे या देने लगेंगे| हो क्या रहा है कि आपके बोलते देर नहीं
दूसरा एक नयी धारणा बनाकर आपको सुनना बंद कर देता है| यहीं एक जीवंत संवाद की
हत्या हो जाती है| इधर एक घटना बड़ी तेजी से घटित हुई है कि आप कुछ भी विशेष करने
चलें तो लोग आपके नाम के आगे टैग लगाना शुरू कर देते हैं| फेसबुक पर टैग करते-करते
टैगियाने का एक नया फैशन अपना लिया लोगों ने, जो गलत है| साहित्य में इस तरीके के फैशन
को ख़त्म करने की जरूरत है| यह तभी सम्भव होगा जब आप बगैर किसी संकोच के आगे
बढ़ेंगे| वह सोचेंगे जो आप चाहेंगे और जो करेंगे उसके प्रति पूरी गंभीरता से
प्रतिबद्ध रहेंगे|
2.
इधर की साहित्यिक हलचल में गंभीरता और प्रतिबद्धता जैसे
शब्द ऐसे ही नहीं लोप हो गये| जिनको अध्ययन और मनन में होना चाहिए था वह झोला ढो
रहे हैं और जिनको झोला ढोना था वह अध्ययन मनन में लगे हुए हैं| यह कम विडंबना की
बात नहीं है कि निबन्ध और ललित निबन्ध जैसी विधाएँ लगभग विलुप्ति (इसे अतिश्योक्ति
न मानें) के कगार पर हैं| चिंतन का प्रवाह और सोच का तरीका यहीं से विकसित होता
था| आलोचना के पैमानें यहीं से निर्मित होते थे और यहीं से वह मापदंड तैयार किया
जाता है जिसको आधार बनाकर किसी भी कृति या कृतिकार का मूल्यांकन किया जाता
है|
कविता की सशक्त विधाएँ हाशिए पर धकेल दी गयीं तो इसके पीछे
इसी प्रवृत्ति का हाथ था| लय और सुर जैसी स्थितियाँ तुक के नाम पर गायब कर दी गयी
हैं| आलोचना से काव्यशास्त्र को लगभग देश निकाला दे दिया गया है| कुछ विशेष शब्दों
को आधार बनाकर भावों का व्यापार करने वाले स्वयं को आलोचना का सिरमौर बना बैठे
हैं| ऐसे लोग भी आलोचना कार्य में प्रवृत्त हैं जिनका हृदयपक्ष एकदम शून्य है|
हृदयपक्ष से शून्य लोग बुद्धि का प्रयोग भी ठीक से नहीं कर सकते, यह स्पष्ट है| तो
क्या यह मान लिया जाए कि आलोचना महज बौद्धिक विलास बनकर इधर रह गयी है? ‘बात में
बात’ के तहत आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल ने एक दिन कहा था “कविता से दर्शन और आलोचना
से विचार को बड़े षड्यंत्र के तहत गायब किया गया|” उनका यह कहना गलत कैसे हो सकता
है भला? करने को आप विचार कर सकते हैं|
साहित्य के समकाल में परम्परा, गंभीरता और प्रतिबद्धता ये
तीनों ऐसे शब्द हैं जो इधर के दिन अपने अस्तित्व को लड़ रहे हैं| परम्पराएं जितनी
टूटेंगीं नवीनता उतनी ही समृद्ध होगी| सच यह भी है कि जितनी अधिक समृद्ध परम्परा
होगी नवीनता उतनी ही मजबूत और सक्षम होगी| इन तीनों से सीधा सम्बन्ध रचनात्मकता का
है| रचनात्मकता का आधार व्यावहारिकता होती है| जब रचनाकार, चाहे आलोचना हो या
कविता अथवा कोई अन्य विधा, व्यावहारिक नहीं होगा तो जीवन का सच और समाज का यथार्थ
कहाँ से अभिव्यक्त हो पाएगा? यह एक प्रश्न तो है ही|
ऐसे बहुत-से प्रश्न हैं जिन पर विचार किया जाना आवश्यक है| विचार कौन करे? यह प्रश्न सबसे बड़ा है| फेसबुक के वाल पर सबको एक ही दृष्टि से निहारने वाले विद्वान या फिर सबको एक ही दृष्टि से हांकने वाले महाविद्वान? जिम्मेदारी का निर्वहन करे तो कौन करे? युवा स्वयं को बड़ा मानकर चलता है| बड़े युवाओं को बच्चा समझते हैं| जो बच्चा समझते हैं, यह और बात है कि अपनी पूरी उम्र महज लोगों को कोसने में बिता देता है, स्वयं कोई जोखिम उठाना नहीं चाहते| कुछ हैं जो उठाते हैं तो एकदम से अराजक माहौल का निर्माण करना चाहते हैं|
साहित्य का समकाल विरोधाभास के इन्हीं कुछ विन्दुओं पर
चक्कर काट रहा है| अब युवा कहने को आप किसी को भी कह सकते हैं लेकिन कुछ
जिम्मेदारियां तो उसकी निर्धारित होनी चाहिए न? युवा कवि या युवा आलोचक होना
दुर्लभ नहीं है| ये पदनाम हैं किसी को भी दिया जा सकता है, जैसे आज किसी को भी
पी-एच.डी. की डिग्री देकर डॉक्टर बना दिया जा रहा है| यह साहित्य का सोशल मीडिया
का युग है| यहाँ सब कुछ अच्छा नहीं हो रहा है| रचना का विज्ञापन और विज्ञापन की
रचना ही शेष है इधर| साहित्यकार प्रचारक हैं प्रचारक साहित्यकार| तमाम लेखकों में
न तो सिद्धांत है और न ही तो कोई व्यावहारिकता| बे पेंदी का लोटा हैं| कहीं भी
अवसर मिले वहीं दौड़ लगाना शुरू कर देते हैं|
इधर भी मैराथन जारी है| हर कोई ऊँचा उठ जाना चाहता है| हर
किसी को नीचे उठाते हुए अपना उल्लू सीधा करना चाहता है| ऐसा करते हुए यह लगभग
भूल-सा गया है कि अवसर व्यक्ति को ललचाता तो है लेकिन महत्त्व नहीं देता| महत्त्व
प्रतिबद्धता से मिलती है| प्रतिबद्धता के लिए वैचारिक सक्रियता जरूरी मानी जाती
है| युवाओं में इधर सक्रियता का अभाव सिद्दत से दिखाई दे रहा है| इधर उधर की
सक्रियता दिखाने वाले युवाओं में भटकाव गहरे में वर्तमान है|
3.
साहित्य का सब कुछ सर्वश्रेष्ठ नहीं होता| इधर यह भ्रम और
अधिक विस्तार पाया है कि अमुक रचनाकार श्रेष्ठ है अमुक कमजोर| अच्छा और कमजोर का
निर्धारण पाठक द्वारा किया जाता तो बात कुछ समझ में आती| बगैर पाठकों के पुस्तकें
बेस्ट सेलर में आ जा रही हैं| जिन पुस्तकों के विषय में सुना तक नहीं गया होता है
उनका सहज रूप में आकर्षण का केंद्र बन जाना क्या हतप्रभ नहीं करता? जरूर करता होगा
लेकिन स्वीकार के अतिरिक्त हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं होता| इसलिए भी कि एक
दिन इसी प्रक्रिया में आने के लिए हर कोई परेशान दिखाई देता है| बाज़ार उन्हें
बेदखल न कर दे इसलिए आवाज तक नहीं उठाई जाती है|
बेस्ट सेलर की सूची अख़बारों, पत्रिकाओं द्वारा आती है तो क्या उन्हें वाकई बेस्ट मान लिया जाए? सूची तो लेखकों की भी आने लगी है तो क्या उन्हें भी बड़ा मानकर चला जाए? जो उन सूचियों में नहीं आते या नहीं लाए जाते उन्हें क्या कहा जाएगा? ये ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर बाज़ार के पास नहीं है और न ही व्यापारियों के पास है| चिंता बाज़ार को भी गुणवत्ता की है और व्यापारी को भी लेकिन अवगुणों को भुलाकर अवसर साधने की प्रवृत्ति इधर के दिन ही सबसे अधिक दिखाई दिए हैं|
कई बार तो पुरस्कार प्राप्त लोग भी राजनेताओं की तरह
हास्यास्पद हरकत करते नज़र आते हैं| वे करते तो फिलहाल कुछ भी ऐसा नहीं हैं जिससे
कि रचनात्मक साहित्य पर कोई असर पहुंचे लेकिन किसी भी इधर-उधर के रचनाकार को ‘चने
की झाड़’ पर चढ़ा जरूर देते हैं| ‘इधर-उधर’ से तात्पर्य ऐसे रचनाकारों से है जो महज
नाम के लिए साहित्य में बने रहते हैं| साहित्यिक दुनिया से लेकर सामाजिक सहभागिता
तक इनका कोई जुड़ाव हो, ऐसा फिलहाल नज़र नहीं आता है|
अभी हाल ही में चित्रा मुद्गल जी ने ऐसा ही किया| हिंदी के
एक प्रोफ़ेसर को सबसे बड़ा आलोचक बगैर किसी सोच-विचार के घोषित कर दिया और उस बड़े
आलोचक ने अपना विज्ञापन भी खूब करवाया| यह तब लोगों को पता चला कि वे भी कोई रचनाकार
हैं जब स्थानीय अख़बारों ने उसे प्रमुखता से स्थान दिया| विडंबना यहीं आकर रुक नहीं
जाती है| लोगों ने यह सोचकर आलोचक महोदय के विषय में जानकारी ढूंढना शुरू कि
चित्रा मुद्गल ने कहा है जबकि हिंदी साहित्य के अधिकांश रचनाकार तक उन्हें नहीं
जानते, पाठक की तो बात ही जाने दो| चित्र मुद्गल यहीं नहीं रुक जाती हैं आगे भी
सर्टिफिकेट देने का कार्य जारी रखती हैं| बाज़ार ने कार्य तो अपना यहाँ भी किया
लेकिन उसका हथियार अलग था|
चित्रा मुद्गल तो एक उदहारण मात्र हैं, ऐसे अनेक उदाहरण
आपको इधर के साहित्यिक गलियारे में मिल जाएंगे| यह प्रश्न आपके दिमाग में भी कौंध
रहा होगा कि आखिर ऐसा होता कैसे है? तो चौंकिए मत क्योंकि इसके लिए विधिवत पैसे खर्च
किये जाते हैं| लोलुप मीडिया को माध्यम बनाया जाता है, भाड़े के समीक्षक तैयार किये
जाते हैं और विधवत पैसा दिया जाता है| कार्यक्रम आयोजन करने वाली एजेंसियों पर पानी
की तरह पैसे खर्च करके अपने पक्ष में माहौल तैयार किया जाता है| अब यहाँ आकर
रचनाकार भी नहीं जानता होता है कि वह क्या बनने वाला है| पता दूसरे दिन के अख़बार
या कुछ दिन बाद की साहित्यिक घटनाओं से चलता है जब वह अचानक कोई पुरस्कार प्राप्त
कर अख़बारों के पृष्ठ पर दिखाई देता है|
लखनऊ के एक कथाकार हैं राम नगीना मौर्य, वे ऐसे ही कथाकार
हैं| कब इन्होने कदम रखा साहित्य की दुनिया में और कब बड़े कथाकार हो गए, पाठक को
कुछ नहीं पता है| अधिकारी हैं तो पुरस्कार प्रदाता संस्थानों को पता है और उनको भी
जो ज्यूरी मेम्बर में शामिल होते हैं| यह उदाहरण व्यक्तिगत रंजिश के चलते नहीं
अपितु इसलिए दिया जा रहा है कि लोग साहित्यिक समीकरण और बाज़ार के मांग और पूर्ति
के सिद्धांत को समझ सकें| पद और प्रतिष्ठा के ध्यान में मग्न रचना और रचनाकार नहीं
देखते हैं| देखते हैं तो वर्तमान स्थिति, जिसमें उनका अपना भविष्य सुरक्षित नज़र
आए|
पाठक एक अजनबी बन बाज़ार में प्रवेश करता है तो ठगा जाता है|
समझदार होता है तो अपनी अभिरुचि के अनुसार चलता है| बाज़ार में बैठे दलाल प्रवृत्ति
के लोग फिर उसे घमण्डी और न जाने क्या-क्या संज्ञा देना शुरू कर देते हैं| तो इससे
घबडाने या परेशान होने की जरूरत नहीं है| माहौल का हिसाब-किताब बाज़ार के हाथों में
होता है| पाठक तब अपने आप को ठगा महसूस करता है जब पुस्तक उसके सामने आती है| कहा
कुछ गया होता है निकलता कुछ और ही है| शीर्षक के अनुरूप विषयवस्तु तक को न पाकर जो
खीझ मन में उठती है वह एक पाठक ही बता सकता है, बाज़ार नहीं|
यह सब ऐसे नहीं हुआ है| आलोचना के लगातार कमजोर और आलोचकों के दरबारी होते
जाने से ऐसे परिदृश्य का जन्म हुआ है| कहाँ तो आलोचना विमर्श-केन्द्रित होती थी,
विचारधारा और विचार केंद्र में होते थे| कहाँ तो अब व्यक्ति-केन्द्रित होता है सब
कुछ| दरअसल गुणवत्ता परखने की फुर्सत इधर आलोचकों के पास नहीं है| कारण स्पष्ट है
कि वह इन दिनों समीक्षाएं लिखने में व्यस्त है| अपना समीकरण फिट रखने के लिए
प्रकाशकों के यहाँ स्वयं को गिरवी रख दिया है| वही बोलता और कहता है जो प्रकाशक
कहता और मानता है| इतने वर्ष हो गए कविता में कोई नया आन्दोलन उभर कर क्यों नहीं
सामने आया? क्यों नहीं बहस-मुबाहिशे में बाज़ार की विसंगतियों, राजनीति की कलुषताओं
को शामिल करके नया मुद्दा नहीं पैदा किया गया? ऐसा होता तो आलोचकों के ही माध्यम
से था| इधर इसलिए नहीं हो रहा है क्योंकि जोखिम कोई उठाना नहीं चाहता| यदि पका
पकाया हुआ मिल रहा है तो खाना पकाने का जोखिम कौन उठाए भला?
बिम्ब-प्रतिबिम्ब पत्रिका के लिए लिए जा रहे साक्षात्कार
में श्रीप्रकाश शुक्ल ने आलोचना की इस कमी को स्वीकार किया है| वह मानते हैं कि
तीस-चालीस वर्षों से आलोचना को लगातार कमजोर किया गया| वह यह भी मानते हैं कि ऐसा
होने में सोशल मीडिया ने अहम् भूमिका निभाई है| तमाम प्रकार के लोग, जिनका साहित्य
आदि से कुछ भी लेना देना नहीं था, वह इस क्षेत्र में आ गए और जहाँ साहित्य का
अधिकांश है वे नेपथ्य में धकेल दिए गए| इधर का समकाल अपनी खूबियों की वजह से नहीं
मूर्खताओं की वजह से चर्चा में है, एक बड़ा सच यह भी है| इसका एक बड़ा उदहारण हिंदी
साहित्य का कूड़ा-प्रसंग है| हालांकि यह अभी अपने प्रथम चरण में है| चरित्र-प्रसंग
ने अपने दूसरे चरण में पदार्पण कर लिया है| देखना यह है कि मूर्खता का नया चरण
साहित्य में क्या होता है?
4.
साहित्य के समकाल में यह भी एक सच है कि जो भिज्ञ हैं,
सर्वज्ञ वर्तमान हैं, पूजा उन्हीं की हो रही है| धन-वैभव का बोलबाला है| पद-वैभव
मद में परिवर्तित होकर दास प्रथा के उन्मीलन में रत है| आप इनके खिलाफ आवाज़ नहीं
उठा सकते| आलोचना नहीं लिख सकते| इन पर कविता और कहानी या उपन्यास भी लिख कर कहाँ
रहेंगे आखिर? अमर और अजेय हैं ये| इन्हें सभी प्रकार के निंदा के स्वामी और
निंदाओं की परिधि से बाहर का मानकर चला जाए तो अतिश्योक्ति न होगी|
समस्या वहां होती है जब ऐसे लोग भी निराला और मुक्तिबोध का प्रसंग रखते हुए विद्या और लक्ष्मी दो में से एक के होने का यथार्थ गढ़ बैठते हैं| निराला रोज इनके द्वारा अपमानित होते हैं और मुक्तिबोध लांछित| इन्हें न तो अपमान का फ़िक्र है और न ही तो लांछन का| कोई बैठा थोड़े ही है उन्हें देखने और समझने के लिए| इस प्रकार के लोग कब किसी की आलोचना करते रहते हैं और कब किसी की प्रशंसा पर उतर आते हैं, कुछ भी कहा नहीं जा सकता है| नौटंकी के जोकरों की तरह जिधर पलड़ा भारी देखते हैं उधर से ही बोलने और तरफदारी पर उतर आते हैं| कोई किसी प्रकार का लुभावना दे दे फिर तो कहना ही क्या? सारे काम-धाम छोड़कर चौकीदारी वृत्ति पर उतर आएँगे|
उत्तर प्रदेश और पंजाब इन दो प्रदेशों से मेरा गहरा सम्बन्ध
रहा है| आज भी है| पंजाब कर्मभूमि तो उत्तर प्रदेश जन्म-भूमि| इन दोनों स्थानों पर
आना-जाना और रहना जारी है| दोनों प्रदेशों के रचनात्मक लीला-प्रसंग को बखूबी देखा
और समझा जा रहा है| बहुत अच्छे रचनाकार दोनों जगह हैं| दोनों प्रान्तों में
नौसिखिये वरिष्ठों की कमी नहीं है| कुछ ऐसे भी रचनाकार हैं यहाँ जिनके पास है तो
बहुत कुछ लेकिन वे न तो छप पा रहे हैं और न ही तो चर्चा में आ पा रहे हैं|
प्रकाशित होने के लिए पैसे की जरूरत होती है| पैसा उनके पास नहीं है| अकादमियां
जरूरतमंद को अनुदान नहीं दे सकती हैं, यह उनकी वेबसी भी है और सीमा भी| वह उन्हीं
को देती हैं जिनसे वहां पर बैठे पदाधिकारियों का हित-लाभ हो| चर्चा कोई इन पर
करेगा नहीं क्योंकि न तो ऐसे लोग नोकरी दिलवा सकते हैं और न ही इनके लिए मंच-माला
की व्यवस्था कर सकते हैं| वे टाइप आदि की तकनीकी से भी सक्षम नहीं हैं|
ऐसा था तो हर समय लेकिन इधर कुछ ज्यादा हो गया है| पहले कुछ
अच्छे प्रकाशक थे जो रचना को महत्त्वपूर्ण देखते हुए जोखिम उठा लेते थे| इधर ऐसे
प्रकाशक न के बराबर हैं| पहले अपना फायदा लेते हैं फिर अन्य बात करते हैं| जालंधर
के एक-दो प्रकाशकों को मैं जानता हूँ जो पैसा लेकर ही पुस्तक-चर्चा करवाते हैं|
रचनाकार दे न तो क्या करे? गुमनामी से अच्छा है बदनामी को झेलना| लोग फिर भी कम से
कम जान तो जाते हैं| ये उदाहरण उत्तर प्रदेश और पंजाब का भले है लेकिन इसे अन्य
सभी प्रदेशों के लिए मानकर चलेंगे तो दिक्कत नहीं होगी| क्योंकि यही यथार्थ
है|
साहित्य के समकाल को देखें तो इन सबका प्रभाव यह पड़ रहा है
कि, लेखन-परम्परा से लेकर रीति-स्थापत्य तक की स्थिति हाशिए पर जा रही है| विदित
यह भी है कि पम्परा को संवारने और सँभालने का कार्य वही ठीक तरीके से कर सकता है
जिसे कुछ पता हो| कबीर बहुत पहले कह गए थे कि “जाका गुरु है आंधरा, चेला खरा
निरंध|” साहित्य-गुरुओं ने कभी भी साहित्य-परम्परा को बताया नहीं अपने शिष्यों को
और शिष्य मंडली ने कभी लेखकीय परिवेश पर विश्वास दिखाया नहीं| बड़ा और महत्त्वपूर्ण
दोनों बनना चाहते हैं| दोनों यह चाहते हैं कि उनका नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाए
और नामवर सिंह तथा केदारनाथ सिंह के बाद समकालीन हिंदी कविता का महत्त्वपूर्ण
हस्ताक्षर उन्हें ही स्वीकार किया जाए|
इधर बैठकबाजी का दौर लगभग गया प्रतीत हो रहा है| गैंगबाजी
जरूर हो रही है| काफी हाउस जैसे स्थल अब शायद जालंधर जैसे शहर में नहीं हैं| पंजाब
बुक सेंटर जैसा स्थान तो है अभी भी लेकिन यहाँ के अधिकांश लेखकों को नहीं पता है
कि वह कहाँ है? भूले-भटके कोई पहुँच जाए तो सेंटर के मालिक स्वयं को सौभाग्यशाली समझते
हैं| साहित्यिक पत्रिकाएँ पूरे जालंधर में इस एक दूकान को छोड़कर शायद ही कहीं
मिलती हों| हमारे फगवाडा जैसे शहरों में तो साहित्यिक पत्रिकाओं की परिकल्पना ही
नहीं कर सकते|
जालंधर के वरिष्ठ साहित्यकार सुरेश सेठ बताते हैं कि यहाँ
कुछ स्थान ऐसे थे जहाँ अक्सर हम लोग जुटते थे, बातें होती थीं और कहकहे गूंजते थे|
इधर के दिन न तो वह जुटान है, न बातें न कहकहे| सब आपस में मिल कर भलाई-बुराई की
चर्चा करते तो हैं लेकिन घरों में| व्यापार लाभ के लिए स्थापित ऑफिसों में| ठीक
तरीके से कहा जाए तो ऐसी स्थिति में विमर्श की संभावनाएं शून्य होती जाती हैं| जो
प्रवृत्ति निकलकर समृद्धि पाती है वह है व्यक्तिगत हानि-लाभ को दृष्टिगत रखते हुए
ईर्ष्या-द्वेष के भाव| उत्तर प्रदेश को छोड़कर यदि पंजाब के जालंधर जैसे शहर की बात
करें तो लगभग यही शेष दिखाई देता है|
अरसा हो गया जब हिंदी साहित्य से सम्बन्धी कोई विमर्शात्मक
कार्यक्रम यहाँ पर हुआ हो| सम्मान-पत्र बाँटने से लेकर पुस्तक लोकार्पण के
कार्यक्रम लगातार होते रहते हैं| लोग एक-दूसरे को
प्रेमचंद-मुक्तिबोध-निराला-महादेवी आदि-आदि कहते रहते हैं| समझते और समझाते रहते
हैं| नज़र उठाकर देखता हूँ कभी तो इस धराधाम से विदा हो चुके लेखकों की आत्मा स्वयं
को कोसते हुए दिखाई देती है| लोग बड़े ही बेशर्मी से हँसते हैं और आगे बढ़ जाते हैं|
ऐसा ही है साहित्य का समकाल| यहाँ जन अब उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि
तन्त्र| तन्त्र खुश और मेहरबान रहेगा तो जन को तो बस में कर ही लेंगे लोग
5.
साहित्य का समकाल अपने तमाम विसंगतियों के बावजूद एक सही
मार्ग पर है, यह कहने में भी कोई संकोच नहीं है| सार्थक मुद्दों पर चलने वालों की
कमी तो है लेकिन कुछ समर्पित हैं जो सकारात्मक पहल करते हुए आगे बढ़ रहे हैं|
लगातार चल रहे हैं| ऐसे लोग कुछ से बहुत कुछ विशेष कर रहे हैं| साहित्यान्दोलन भी
अपनी जगह पर गतिशील हैं तो इसके पीछे की वजह वही सकारात्मक लोग हैं|
विचार-विश्लेषण से लेकर भाव-व्यवहार तक इधर के दिन समृद्ध हैं| कुछ विशेष
रचनाकारों ने नए मुद्दे तलाशे हैं| ढर्रेवादी धारणा धीरे-धीरे धूमिल पड़ रही है|
कविता के विषय से नारों को मुक्ति मिल रही है और लोक अपनी तरह से उसमें पुनः
पदार्पण कर रहा है| बहुत दिन बाद नए काव्यान्दोलन के सूत्र पहचाने गए हैं| जल्द ही
वह विमर्श के दायरे में शामिल हों, यह अपेक्षा बनी रहेगी|
तथाकथित प्रतिक्रियावादी विमर्श के गर्त से साहित्य
धीरे-धीरे मुक्त हो रहा है, यह भी एक ख़ुशी की बात है| विमर्श में किसान, पर्यावरण
प्रदूषण, बाज़ारवाद, भूमंडलीकरण शामिल हुए हैं तो यह एक मजबूत कदम है साहित्य का
लोक के प्रति| कुंठा की जगह चेतना को विस्तार दिया जा रहा है| सोशल मीडिया हालांकि
अपनी नादानियों की वजह से चर्चा-परिचर्चा में बना हुआ है, अधिकांश मूर्खताओं के
बवंडर उधर से ही खड़े होते हैं, लेकिन कुछ गंभीर बातें कभी-कभी वहां भी देखने को
मिल जाती हैं| जो विशुद्ध साहित्यिक दृष्टि तलाशने यहाँ आते हैं उनकी दुर्गति बड़ी
भयानक होती है, यह तय है| सीखने की उम्र में ही लड़ने-झगड़ने के बीज यहाँ अंखुवाने
लगते हैं| जब तक एक सम्पूर्ण वृक्ष का आकर लें तब तक लोक उन्हें आवारा और सनकी की
श्रेणी में डाल चुका होता है|
कविता में गाली की जगह चेतना ने लेना शुरू किया है| कुछ बहके लोग प्रवेश तो किये थे कविता के विषय में आमूलचूल परिवर्तन का दिवास्वप्न लेकर लेकिन वे सफल नहीं हुए| पाठकों ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया| उनमें से ही कुछ कूड़ा प्रसंग की पालकी ढो रहे हैं तो कुछ किनारे पड़े कूड़े को अपने ऊपर गिराने में अभ्यस्त हो रहे हैं| ऐसे लोग स्वयं को सफाई कर्मी दिखाने में लगे हैं, तो यह भी एक गलत हुआ उनके साथ जो साहित्य की दुनिया में आ गये| कुछ प्रूफ रीडर इधर व्याख्याता होने के मूड में थे सफल न होने पर वह संस्थानों को ही गाली देना शुरू कर दिए| कुछ पुरस्कार झटकना चाहते थे बड़ा और जब उन्हें बहुत दिन तक नहीं पूछा गया तो वे अब पुरस्कार विरोधी गैंग के मुखिया का पद सम्भाले पड़े हैं| पुरस्कार लेने-देने-दिलवाने वाले भी अपनी गति से सक्रिय हैं जो हर तरह से साहित्य के समकाल को समृद्ध और मजबूत बना रहे हैं|
निबन्ध और ललित निबन्धों की दास्ताँ पहले ही इस लेख में
सुना दिया गया है| उपन्यास की दुनिया में कवियों ने कदम बढ़ाया है तो उपन्यासकार अब
कवि बन रहे हैं| दल बदल की तरह प्रशंसा-लाभ के मोह में विधा-बदल का कार्य बड़ी
प्रगति पर है| कितने ही व्यंग्यकार इधर निबन्धकार हो गये और निबंधकार कवि बन गये| कहानी
अभी पोर्नोग्राफी के दौर से अपने चरम पर है| कुछ नामी पत्रिकाएँ अभी पोर्न कंटेंट
राइटर की तलाश में हैं| लोक और लोक जीवन में भी वासना और सेक्स के अवसर तलाशने
वाले कथाकारों की कमी नहीं है| शिवमूर्ति, भगवानदास मोरवाल, उदय प्रकाश के साथ-साथ
गीता श्री, वन्दना गुप्ता, मनीषा कुलश्रेष्ठ और अन्य अनेक अभी कतारों में है,
लगातार इस प्रक्रिया को मजबूत बनने में सक्रिय हैं| कुछ विशेष कथाकारों ने अपनी
जमीन को बचा कर रखा हुआ है और लोक-जीवन की यथास्थिति को अभिव्यक्त करते हुए
जन-जीवन को समृद्ध करने में अपना योगदान दे रहे हैं|
परिवर्तन कहीं साहित्य में यदि ठीक से दिखाई देता है तो
गीत/नवगीत की दुनिया में| नवगीतकार होने की लालसा में गीतकारों ने इधर सही ट्रैक
पकड़ लिया है| अतिशय भावुकता के मोहपाश से मुक्त होकर जन संभावनाओं को तलाशने की
प्रविधि पर श्रम करना उन्हें अच्छा लगने लगा है| बुजुर्ग पीढ़ी से कहीं अधिक सही
दुनिया की तलाश युवाओं द्वारा की जा रही है| विधा पर विशेषांक लगातार निकल रहे हैं
तो कुछ नए आलोचक भी मिले हैं| हालांकि इन सबसे कुछ तथाकथित कुछ मठों को बड़ा घाटा
सहना पड़ा है लेकिन नाम-इनाम के लालच से दूर होकर सृजन कार्य करने का आनंद नवगीतकार
उठा रहे हैं|
पत्रिकाओं ने अच्छा विकल्प दिया है| अख़बारों के रवैये में
फिलहाल कोई परिवर्तन नहीं है| जन्संदेश टाइम्स जैसे अखबार लगातार यदि विचार की
दुनिया को समृद्ध कर रहे हैं तो उसके पीछे सुभाष राय जैसे जरूरी कवि और उनकी
सम्पादक-दृष्टि है| कुछ ऐसे भी सम्पादक हैं जो ग्राहकों के इंतज़ार में हैं| कोई
आए, बोली लगाए और वे बिकें| फिलहाल हम साहित्य के समकाल को देख-परख रहे हैं तो आप
भी अपने हिसाब से देखना-परखना शुरू करें|
दिन को
कहेंगे दिन रात को रात कहेंगे
जो सबने
कहा हम न वही बात कहेंगे
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