ज़िम्मेदार नहीं होता राजा
राजा कभी स्वयं लड़ता नहीं है
अपना दुखड़ा रोकर
मंत्रियों, कार्यकर्ताओं को धकेल देता है
रणभूमि में
बैठकर लेता है आनंद
चुपचाप अपने शयन कक्ष से
नेतृत्व के गुमान में अँधा हुआ कार्यकर्ता
स्वयं को राजा समझ लेता है
निरीह सैनिकों के सहारे कूद पड़ता है
विपक्ष की शक्ति का अंदाजा
होता है उसे पहले ही
खुश राजा को भी करना ही होता है
वह लड़ता है
खुद मरता है और सैनिकों को भी
मारता है जख्मी करता है
राजा घड़ियाली आँसू बहाता है
भूल कर क्षत-विक्षत कर्मियों को
दूसरा कोई और चुन लाता है वह
फिर खेलता है खेल अपने ही शयन कक्ष से
हार और नरसंहार का
ज़िम्मेदार नहीं होता है राजा
बदनाम होता है मंत्री ही और अपराधी भी होता है घोषित
खुद राजा बनने की कोशिश में
भिखमंगे जैसी स्थिति भी नहीं रह जाती उसकी||
यही दुकानदारी है
कस्बे में बैठा हर बनिया
गाली देता है
अपने पड़ोसी को
लुटेरा से लेकर
नरभक्षी तक कह जाता है
इसलिए नहीं
कि दुश्मनी होती है उसे किसी से
इसलिए कि
ग्राहक उसी के पास रह जाए
ग्राहक रिश्ता निभाता है
पूरी संवेदना के साथ जुड़ जाता है
व्यापारी बनिया से
सुख में वाह करता है
दुःख में आह भर संवेदना भी देता है
ग्राहक से हुए टुन्न-पुन्न में
सभी बनिया एक हो टूट पड़ते हैं
कर लेते हैं गारी-मारी तक
अवाक और ठगा हुआ ग्राहक सोचता रह जाता है
माँ-बहन तक करने वाले लोग
कैसे ईमान बेच हो जाते हैं संगठित
एक दूसरे के पक्ष में
अक्ल तो आती है गाहक को
लेकिन सब कुछ
लुटने के बाद
ग्राहक के लिए भाईचारा, संवेदना और जो यारी है
बनिया के लिए व्यापार है
वही दुकानदारी है
कुँए के मेढक
कुँए में रहने वाले सारे मेढक
अच्छे थे
अच्छा था व्यापार उनका
लड़ते थे झगड़ते थे
एक दूसरे की टांग भी खींचते थे
कई बार
एक दूसरे के साथ गाली-गलौज भी
माँ बहन की गालियां
हाथा-पाई तक आश्चर्य नहीं था उनके लिए
बाहर से आया आदमी
कई बार संवेदनशील हुआ
कई बार परेशान
हैरान भी कई बार हुआ
हर बार यही सोचता रहा ये लड़ते क्यों हैं
समय बीता बीतता रहा बराबर
मेढक बाहर निकलना शुरू हुए
एक दूसरे से बड़ा दिखाते
एक दूसरे से कहीं अधिक ताकतवर
नकारते हर किसी को
हर किसी को छोटा बताते
आदमी देखता रहा सुनता रहा
समझता रहा करतूतें
शौक बढ़ने लगे इनके प्रतिपल
प्रतिक्षण बदलते रहे
सभी मेढकों ने इच्छा जताई बारी-बारी
यह कि मेढक अब आदमी होना चाहते हैं
कुँए से निकलना चाहते हैं बाहर
आदमी ने आदमीयत के सब गुण बता दिए
सिखा दिए सब तरीके भी लगभग
अब वह हो ही रहे थे पारंगत कि
जाग गया मेढकपन उनका
वह सुखी थे सक्षम थे अपनी दुनिया में
मुश्किल था आदमीयत के परिवेश में एडजस्ट होना
सब मिलजुलकर एक दूसरे को समझा रहे थे
आदमी अब मेढकों की दुनिया छोड़कर
निकला आदमी की तलाश में
सब मेढक तड़फड़ा गए
करने लगे ताबड़तोड़ बैठकें
इस तरह फिर पहुंच गए उसी कुँए में
जहाँ पहले हुआ करते थे
सच में आदमी की दुनिया में शामिल होना
कितना कठिन है
यह मेढकों को चल गया पता आखिर
आदमी बनाना नहीं है सहज किसी को
आदमी भी मान गया है
रहना है यदि फिर भी उन्हें कुँए में ही
चलना पड़ेगा आदमी के हिसाब से
ठान लिया है इधर अब आदमी ने भी
रंगे शियार
क्या ही दौर है यह
भिखमंगा खाना खिलाने का
रोना रो रहा है
खुद रगड़ता नाक
हर गली चौराहे पर
दूसरे को दे रहा नसीहत इधर
ऐय्याश सत्संग की गद्दी पर
प्रवचन दे रहा है
चापलूस ईमानदार बन रहा है
जासूस यह दिखा रहा है कि
किसी से ईर्ष्या नहीं है उसे
क्या ही दौर है यह
समझो कि समय का समकाल यही है
यही है
औकात बड़े होने की
सब रंगे शियार हैं ये
जितना बच कर रहे भला इंसान
अच्छा है उतना ही।
कलम है, लैपटॉप है और हैं दो हाथ
जिस समय राजा को आदेश करना था
संकेत करके छोड़ दिया उसने
जनता मरती-मारती रही एक-दूसरे को
आह-वाह करते रहे हम सब दर्शक बनकर
कहीं ताली पीटते रहे
तो फिर कहीं पीटते रहे अपना सिर
चौंकने की जरूरत नहीं है कुछ भी
चौकन्ने रह सको तो तुम्हारी बुद्धिमत्ता है
तन्त्र को कुछ भी मत कहो कभी भी
देख सको तो यह देखो
हमारे समय का ‘लोक’ है यह
समर्पण पूरा है
‘तन्त्र’ के खूनी पंजों को सौंप दिया है अपना सिर
मीडिया टीआरपी के चक्कर में
अपने-अपने गढ़ और मठों के अनुकूल रहते हुए
घटनाओं को दिखाने में है व्यस्त
कोई मारा जा रहा है
यह उसके लिए सबसे अधिक ख़ुशी की बात है
सामूहिक रेप का शिकार होती स्त्री का दृश्य
सुखद आश्चर्य से कम तो कतई नहीं है
‘परछाहीं की झलक’ ही सही
देखकर संतुष्ट हो जाएगा इस देश का नपुंशक समाज
यह दौर ऊंचा बनने और दिखने भर का है
लेखक आवारा बन
खुद पर लिखी प्रायोजित समीक्षाएं
टीप रहा है फेसबुक पर
निर्लज्जता यह कि उसके सामने से गुजर रहे हैं लोग इस धराधाम से
आलोचक राजनीतिक विश्लेषण में हो गये हैं व्यस्त
समय नहीं उनके पास कि
जिस मानवीयता की मांग करते थे रचनाओं में कवि से
निर्वस्त्र होती सरेआम उसी पर दो शब्द बोल देते
मत पूछो कुछ कवि से यहाँ के हालात पर
जिसकी जिम्मेदारी थी बहते आंसुओं के सैलाब को रोकने की
प्रतिरोध में खड़े होने की
रक्त-पिपासु सत्ता के समक्ष
वह पार्टीगत लाशों की गिनती दिखा रहा है
फेसबुक पर
कहीं शो कर रहा है फूल-पत्तियों का कैप्शन
गा रहा है गीत प्रिय-मिलन-संयोग का
हम-तुम क्या कर सकते हैं ऐसे हालात में
जिसकी साँसें भी निर्भर हैं
सत्ता की दया पर
कलम है, लैपटॉप है और हैं दो हाथ
अपना कार्य कर रहे हैं
जितना भी बन पा रहा है
शायद यह मृत हो चुका समय
जाग ही जाए
व्यस्त और मस्त है जो अपनी तरह की गहरी निद्रा में
यह कोई नई बात नहीं है
यह कोई नई बात नहीं है
झुण्ड बनाकर जब किया गया हो आक्रमण
दुश्मन पक्ष से
कुछ जयचंदों की निगरानी में
हारा हो पृथ्वीराज चौहान
लड़ते-लड़ते युद्ध में झेला हो पराजय
यह खबर होना चाहिए जयचंदों को
समय अब वह नहीं रहा
सीखते हैं हम अतीत से ही
वर्तमान को रखते हैं सुरक्षित विवेक से
भविष्य की नीतियां
क्या हों यह नहीं पता होता पृथ्वीराज को भी
त्वरित लेता है निर्णय परिस्थितियों को देखते हुए
सोचो तो! रंचमात्र स्वार्थ के लिए
घर और परिवार तक को लगा देते हैं दाँव पर
बाहर' प्रिय इतना होता है
खबर 'चूल्हे' तक की दे देते हैं पड़ोसियों को
'विभीषण' की कमी इधर तो नहीं है फिलहाल
भरत' होने की शर्तें हर समय रही हैं चुनौतीपूर्ण परिवेश के लिए
चक्रव्यूह की रचना में हर कोई हो माहिर
हर कोई हो दक्ष उसे तोड़ने में
एक अभिमन्यु अकेला असफल हो जाएगा
संख्या कौरवों की नहीं ईर्ष्यालुओं की बढ़ी है
किसी को कम ही हुआ है संज्ञान
सबसे अधिक नजदीकी
करता है घाव सबसे तेज विश्वास पर
इस दंगे भरे दौर में
इस दंगे भरे दौर में
अकेले हो तुम
किस ओर से
कौन आए
भर समूह साथ लेकर
उतार दे
मौत के घाट
परिवार को कर दे तहस-नहस
कुछ नहीं कर सकते तुम
कुछ नहीं है तुम्हारा यहां
न देश
न राज्य
न सरकार
न आस-पड़ोस और समाज ही
तुम हो यह नहीं करता निर्भर
थोड़ा भी तुम पर
ज़िन्दा हो
यह उपद्रवियों की दया दृष्टि है
सरकारें और कानून
तुम्हें बन्धन में रखने के लिए बनी हैं
जरूरत हो जब भी उन्हें
उपयोग तुम्हारा कर सकें
खुशी से
तुम मरो या जियो
किसी का जाता ही क्या है आखिर
अभी तक मैं यही सोचता था
सुरक्षित शहर में हूँ
डर गया हूँ इस तरह इधर कि
कोई झोलाठाऊ लेखक
कर देना चाहता है कलम मेरा सिर
परिवार के साथ ज्यादतियां
महज आलोचना लिखने के अपराध में
बगल लगे गमले से
फूल तोड़ लेने के ज़ुर्म में
पड़ोसी दबा देना चाहता है गला बच्चे का
कोई साफा बाँधे आदमी
तोड़ देना चाहता है हाथ पैर मेरा
धरने पर बैठे आढतियों के पक्ष में न बोलने पर
हम सच में उस दौर में हैं
सन्त मारे जा रहे हैं
नक्सलियों की हो रही है पूजा
पूरे जोश-खरोश में
यह कविता लिख रहा हूँ अभी
लग रहा है जैसे
एक जीवन जी चुका हूँ अपने हिस्से का
अंतर ही क्या है आखिर अब
बंगाल और पंजाब में?
उम्मीद
बात-बात पर देते थे धमकी
मर जाने या फिर
भाग जाने की अपनों से दूर बहुत दूर
तमाम आपदाओं के ताण्डव के बीच
जीवन क्या है
पता इधर चल रहा है
आत्महत्या का विचार कभी आता था
अभी खूब जीने की तमन्ना है
मृत्यु की नजदीकियों ने
अपदस्थ कर दिया गुम होने की चाह
अब तो एक उम्मीद है
दिखता रहूँ सबको
देखता रहूँ दुनिया को
कोशिश यह रहेगी हर समय
धरा सुंदर बने
कोशिश यह रहेगी हर समय
कुछ नया हो परिवेश में
वह श्रम करता रहूँगा
आइना दिखाऊँगा कलम के व्यापारियों को
षड्यंत्रकारियों के उद्देश्य
विकृत की फसल उगाने की
न होने दूंगा पूरा कभी इस समय में
लाख आए समस्याएँ
श्रम-साधना से अपने मैं पीछे नहीं हटूंगा
इस धरा के सौंदर्य को
न बिगड़ने दूंगा कभी जीवित रहते हुए
मजदूर कलम का हूँ
करूंगा प्रतिदिन जी तोड़ श्रम
पैर के पसीने
चढ़ जाएंगे माथे पर जिस दिन
चू पड़ेंगे
धरा पर अपनी सम्पूर्णता में उस दिन
हो जाएगा अंकुरण
किसी नए वृक्ष का
उस दिन चैन से सोने का कर्म करूंगा
बनाई हमने है जो दुनिया, रहना ही है
मुस्कराने लगें सब यहाँ पर अभी
कोई ऐसी वजह पा भी जाएं सभी
कर जा ऐसा कोई कार्य हे ईश्वर!
लौट कर दुःख न आए यहाँ पर कभी
सब हैं डरे-डरे से सब हैं सहमें हुए
छोटे-बड़े जो भी, हैं सदमें में घिरे
कोई कहने की कुछ भी न स्थिति में है
हर कोई ही अजब की परिस्थिति में है
कैसी दुनिया बनाई किया क्या वरण
मर रहे हैं हमारे सभी साथी गण
जो कुछ तूने दिया हम गंवाते रहे
तुम भी तो हमको यहाँ भरमाते रहे
रो रहे हैं सभी सब हैं चिल्ला रहे
कोई स्थल सुरक्षित न हैं पा रहे
है चुका डूब रवि चाँद भी ढल गया
यूं मनुज का सिमटना अखर-सा गया
बस यही अब बता दो रहें हम कहाँ
जियें कैसे जीकर हम करें क्या यहाँ
हर गली मार्ग चौराहे बाधित हुए
घर से अपने ही हम सब विस्थापित हुए
यूँ तो कहना न था कुछ बहुत कह गए
दिल के अरमां अभी भी बचे रह गए
अब नहीं कुछ है कहना बस सहना ही है
बनाई हमने हैं जो दुनिया, रहना ही है
No comments:
Post a Comment