कविता अपने समय के सत्य को रूपायित
करती है | ऐसा करते समय उसे इस बात का भय विल्कुल नहीं होता कि सामने वाला क्या
सोचेगा? क्या प्रतिक्रिया देगा? संभव है कि जिस दिन कविता में भय की यह गुन्जाईस
हो अथवा यह सोचने की समझ जगे उस दिन कविता सच्चे अर्थों में कविता के स्वभाव में न
होकर प्रशस्ति-पत्र का रूप धारण कर लेगी | इस अवस्था में एक रचनाकार का कवि के रूप
में प्रतिष्ठित होने की संभावनाएं भी लगभग हाशिए पर होगी | यदि घटनाओं का
मानव-समाज में घटित होना स्वाभाविक है और उसका किसी न किसी रूप में सामना करना मनुष्य
की नियति है तो फिर स्वाभाविकता और नियति की स्थितियों को साकार रूप देते हुए
जनसामान्य से उसका प्रत्यक्ष साक्षात्कार करवाना कविता का दायित्व है |
साहित्य-जगत् में इस दायित्व का निर्वहन कवि-कर्म द्वारा ही संभव है | स्वार्थता
की कितनी ही बड़ी मानसिकता लोगों में क्यों न घर कर गयी हो पर कहीं न कहीं “संतन को
कंह सीकरी सो काम” की-सी भावना तो कवि-मूल में होता ही है |
जहां और जिस कवि अथवा जिस कार्य में
‘सीकरी’ की चिंता होगी वहाँ निरपेक्षता न होकर चाटुकारिता, स्वार्थता और गुटबंदी
की भावना अधिक रूप में व्याप्त होगी | गुटबंदी और चाटुकारिता की भावना से वर्तमान
साहित्य और समाज दोनों प्रभावित हैं | समाज में अर्थ को जितनी तेजी से महत्व देने
की प्रवृत्ति इन दिनों बढ़ी है वैसी प्रवृत्ति मानव-समाज के शायद ही किसी युग में
रही हो| आश्चर्य तो इस बात का है कि इस प्रवृत्ति से परसान भी सभी हैं और हैरान भी
पर इसे नकारने या इसका प्रतिरोध करने की क्षमता किसी में नहीं दिखाई दे रही
क्योंकि इसके मूल में लालच है | अर्थ का, सम्मान का, मान का| परिणामतः गुटबंदियों
में बंधकर किया गया कार्य न तो वर्तमान समय के लिए हितकर हो पा रहा है और न ही तो
आने वाले भविष्य के लिए किसी प्रकार का शुभ-संकेत देने में कामयाब | सवाल ये है कि
जो समाज अपनी विकासशील प्रवृत्ति के लिए जाना जाता है और जहां विचारों के केंद्र
में सभी व्यवहारों का घटित होना स्वाभाविक समझा जाता है, वहाँ समाज और साहित्य की
निरपेक्षता का दंभ भरने वाले लोग आखिर इसे किस दिशा और दशा में देखने का प्रयत्न
कर रहे हैं? चिंता का विषय यह भी है कि क्या वे चाहते हैं कि सभी वास्तविक
स्थितियों से अपना ध्यान हटाकर जो जैसा हो रहा है उसे उसी रूप में स्वीकार कर लिया
जाय? पता यह भी है कि झूठ और अहंकार के दंभ पर बनी ईमारत ज्यादा दिन टिकने के बजाय
जर्जर होकर ढह जाती है| क्योंकि कहीं न कहीं वास्तविक स्थिति की पहचान तो सबको
होती है, वह न बोले ये बात और है; पर ऐसा तो नहीं है कि सभी की निगाहें उस स्थिति
को समझने और जानने की प्रक्रिया से अछूती रह जायेंगी? यह तो सत्य ही है कि सत्य को
कितना भी झुठलाने और नकारने का प्रयत्न किया जाय परन्तु उसका पारखी तो उस झूठे
नकार की वास्तविक स्थिति को लोगों के
सामने रखने का प्रयत्न करेगा ही | कवि और कवि-हृदय से निकलने वाली उसकी कविता इसी
प्रयत्न के प्रतिरूप हैं |
वर्तमान समय को केंद्र में रखकर रची गयी
‘कंगाल होता जनतंत्र’ कविता-संग्रह साहित्य और समाज में व्याप्त झूठे प्रतिमानों
को ढूँढने का एक सशक्त माध्यम है | संभव है कि इस माध्यम पर भविष्य में कई प्रकार
के आरोप-प्रत्यारोप भी लगाए जाएं; पर सच्चाई यह भी है कि कवि को इस बात की विल्कुल
परवाह नहीं है | न तो समाज के उन नुमाइंदों से, जिनके जरिये कितने ही साहित्यकार
अपना घर-गृहस्थी चला रहे हैं और न ही तो साहित्य के उन पुरोधाओं से जिनके
छत्र-छाया में रहते हुए स्वयं को लब्ध-प्रतिष्ठित
घोषित कर चुके कवि, आलोचक एवं रचनाकार समाज में वाहवाही लूट रहे हैं |
जबकि
साधारण जनता, जो इन दोनों स्थितियों से
निरपेक्ष है, जिसकी सुध न तो समाज के नुमाइंदों को है और न ही तो साहित्य के
पुरोधाओं को हाँ, तरफदार दोनों हैं | जनता की बात को, उसके जज्बात को अपने
उद्देश्यों की पूर्ती होने तक तो ये उसके हर कदम दर कदम पर आने वाली समस्याओं का
जायजा लेना अपना कर्तव्य समझते हैं पर जब ये प्रतिष्ठित हो जाते हैं, उसे भूलने
में कोई कसर नहीं छोड़ते | ‘कैसे मेरे ये
रहनुमा हो गये’ नामक कविता में अनिल शर्मा
इसी प्रवृत्ति को रेखांकित करते हैं |
‘झोपड़ी
से आवाजें उठाते चले,
महलों में
जाकर कैद्नुमा हो गये
|
जमीन की
बातें सुनाते-सुनाते,
हकीकत में
वो आसमानुमां हो
गए||
सूखी
हड्डियों में लहू को जगाते-जगाते,
न
जाने कब वो चर्बीनुमां हो गए |
बदबू
तो जस की तस बजबजाती रही
न
जाने कहाँ से वो खुशबूनुमां हो गए||”1
शर्मा की ये काव्य पंक्तियाँ वर्तमान समय
के सच को बहुत ही सुन्दर तरीके से अभिव्यक्ति करती हैं | पहली दो पंक्तियाँ जहां
मार्क्स का झंडा उठाए झंडाबरदारों के सत्य को उद्घाटित करती हैं वहीँ अंतिम की दो
पंक्तियाँ उन्हीं झंडाबरदारों के साथ आवाज बुलंद करने वाले साहित्यकारों के सच को
सामने रखती हैं | ध्यान देने की बात ये है कि मार्क्सवादी विचारों का आगमन भारतीय
परिवेश और हिंदी साहित्य में लगभग थोड़े-बहुत अंतराल के बीच साथ-साथ होता है |
सामाजिक तबके के बहुत से लोग मार्क्स दर्शन की सफलता का स्वप्न भारत में देखने लगे
| उन्हें लगभग यह आभाष भी होता रहा कि दिनों दिन क्रांति की लहर आएगी और पूंजीवादी
संस्कृति का पतन हो जाएगा | ऐसा होना संभव भी था क्योंकि कभी भी किसी भी बदलाव का
संकेत समाज में विचार ही लाते हैं | परन्तु दूसरों को नसीहत देकर स्वयं आदर्शों का
उलंघन करना स्वयं की जिंदगी को तो बर्बाद करता ही है अपने साथ साथ दूसरों को भी ले
डूबती है | ‘बदबू तो जस की तस बजबजाती रही’ अर्थात जिस गरीबी, तंगहाली और लाचारी
से जनसामान्य को मुक्त कराने की बात मार्क्स दर्शन और उससे प्रभावित साहित्य में
की जाती रही उसके पुरोधा, इसमें कोई शक नहीं है कि, स्वयं फाइव स्टार होटलों में
विलासिता का जीवन वहन कर रहे हैं | जो गरीब अपने स्वप्नों का उड़ान लिए इनके
आन्दोलनों में सहभागी हुए, कितनी विडंबना की बात है, न घर के हुए न घाट के हुए|
‘कॉमरेड का असर’ कविता में कवि कामरेडों के इसी झूठे प्रभाव को बेनकाब करता है|
कवि मानता है कि झूठी क्रांति का झांसा देकर
“वो
ऐसा गरीब ढूढ़ते हैं
जो लड़ सकें
और
लड़ने के सिवा न कुछ कर सकें
वो
लड़ाते रहें और ये लड़ते रहें
“तुम्हारे
भूख की वजह भरे पेटों की शरारत है”
यही
समझते हुए......
एक
ऐसी दुनिया गढ़ते हैं
जहाँ
संघर्ष के सिवा कुछ नहीं है
कमजोर
टूटी पसलियों पर
सिद्धांतों
के कफ़न का मरहम लगाते हुए
ये
इन्कलाब के नारे बड़े बेचारे लगते हैं|”2
नारे तो कभी बिचारे नहीं होते लेकिन ऐसा
न होने के लिए उसमें समर्पण और संघर्ष का होना आवश्यक जरूर होता है| मार्क्सवादी
विचारधारा में न तो समर्पण रहा और न ही तो संघर्ष| जिस शोषण को उखाड़ फेंकने के लिए
बुद्धिजीवियों ने मार्क्स-दर्शन को अपनाया, उसी शोषण की प्रवृत्ति को अपना सबसे
प्रिय कवच इसके रखवालों ने बना लिया| आम आदमी साधारण से अति साधारण में तब्दील
होता रहा और ये साधारण से असाधारण में| इनका विरोध परम्पराओं एवं आस्थाओं से सबसे
अधिक रहा पर देखा यह भी गया कि जीवन के अंतिम दिनों में ये उन्हीं परम्पराओं को
मानते, प्रचार करते अपने जीवन अंतिम क्षण बिताया| जनता इन्हीं विरोधाभासों के मध्य
झूलती रही| वह यह नहीं समझ सकी कि आखिर ये बात किस सिद्धांत करते हैं| जिनके
सिद्धांतों का कहीं कोई अता-पता न हो उसका व्यवहार कैसा होगा...यह वर्तमान समय के
कामरेडों को देख कर आसानी से समझा जा सकता है| ये वही कामरेड हैं जो रातों रात
क्रांति लाने का दिवास्वप्न देखते थे, भूख को ख़त्म करके समानता और बंधुत्व का
साम्राज्य स्थापित करना चाहते थे| चीखने और चिल्लाने से यदि ऐसा संभव होता फिर कोई
कार्य भला क्यों करता? वह धरने और नारे से अपना काम चलाता|
ऐसा इन कामरेडों ने खूब साधा भी लेकिन जब
सफलता नहीं मिली तो अराजकता पर उतारू होकर जंगलराज का निर्माण करने पर बल देने
लगे| समाज जंगल-संस्कृति को क्यों पसंद करेगा? परिणामतः वर्तमान समय-समाज में इस
विचारधारा और इससे जुड़े लोगों को कोई तवज्जो नहीं मिला| कवि इनकी स्थिति स्पष्ट
करते हुए कहता है-
सुनो
कामरेडों!
क्रांति
के मतभेदों
तुम्हारे
लाल झंडे के कई टुकड़े हुए
कि
हम रह गए मात्र डंडे पकड़े हुए
अब
क्रांति तुम्हें गरियाती है
भूख
हाथी पर बैठ कर जाती है
सायकिल
भी चलाती है
मंदिर
में रखे पत्थर को
गरियाते-गरियाते
तुम ढह गये
किन्तु
पत्थर तो प्रतिमा बन गये||”3
यहाँ अज्ञेय की इस स्थापना को ध्यान
देना कामरेडों यानि मार्क्सवादियों के दृष्टिकोण को स्पष्ट करने के लिए आवश्यक हो
जाता है | अज्ञेय का स्पष्ट मानना है कि “संस्कृति
की दुहाई देकर परम्परावादी भी बने रहा जा सकता है और प्रतिक्रियावादी भी बना जा
सकता है, लेकिन उतना ही सच यह भी है कि संस्कृति के सवाल उठाए बिना न आधुनिक बना
जा सकता है, न प्रगति की जा सकती है और न वास्तव में मनुष्य ही बने रहा जा सकता
है|”4 जबकि इस विचारधारा के
समर्थक संस्कृति का प्रचार प्रसार करने वालों को ढोंगी, रूढ़िवादी और बहुत कुछ कहते
आए हैं | यह सत्य है कि परंपरा-प्रियता को इन कामरेडों द्वारा जितनी अधिक गालियाँ
दी गयी, परम्पराएं उतनी ही अधिक फली-फूली और विकसित हुई| पर इनके हालत और हालात
अनवरत बद से बदतर होते गए| आज समाज में इनकी पहचान उन मौसमी मेढकों की तरह हो चुकी
है जो मात्र बरसात होने पर ही टर्रतोएँ टर्रतोएँ करते सुनाई देते हैं | देश में जब
भी चुनावी मौसम आता है सब एक सुर से पिल पड़ते हैं आम आदमी का अस्तित्व और स्वयं का
व्यक्तित्त्व बोध इन्हें इसी समय आभाषित होता है| कवि की दृष्टि में इनका स्तर
बृक्ष की डाल पर लटके ‘सूखे पत्ते’ और बरसात में भीगे हुए सड़े-गले वस्तु के समान
है, जिनका उद्देश्य गन्दगी फैलाते हुए विनष्ट हो जाने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं
होता-यथा
सूखे
पत्ते की तरह खड़खड़ाते हो
बरसात
में भीगकर सड़ जाते हो
चुनाव
में उखड़ जाते हो
एक
मंच पर बिखर जाते हो
कई
तरह की बोली है
और
बन्दूक में भरी गोली है|”5
वैचारिक
और बौद्धिक दृष्टि से प्रबल और सामर्थ्य मार्क्स-दर्शन के समर्थकों में अब वह
वैचारिक एकता नहीं रही| लोभ और लालच में इन सबने अपने अस्तित्व को भुला दिया और
कभी इस छोर तो कभी उस छोर में शामिल होकर वैचारिक उठापटक को अंजाम दिया| यह उठापटक
अनवरत जारी है| साहित्य, समाज और राजनीति ये तीनों स्थान, जहां मानव और मानवीयता
की अधिक संभावनाएं होती हैं, इनसे दूर होकर स्वतंत्रता की मांग करने लगी हैं| जिस
वैचारिक प्रतिबद्धता के लिए जनता का एक बहुत बड़ा भाग इनसे अपना सम्बन्ध प्रगाढ़ करने
के निमित्त इनका प्रचारक बना था उस वैचारिकता में अपना अस्तित्व और भविष्य
सुरक्षित न पाकर दूसरी वैचारिकता में जगह खोजने लगे हैं| यहाँ एक बात विशेष ध्यान
देने की है... राजेंद्र यादव और दलित लेखकों द्वारा तुलसी का विरोध किया जाना,
दरअसल स्त्री-संवेदना और दलित-सरोकार यही दो विचार-धाराएं वामपंथी विचारधारा के
मूल में थी और जब इनको भी दलित लेखकों ने (दलित-लेखन और संवेदना को) अपना कहा और
राजेंद्र यादव ने (स्त्री लेखन और संवेदना को) अपना, यहाँ आकर नामवर समेत कई
वामपंथी आलोचकों एवं रचनाकारों को अपना मुख्य स्वर परिवर्तित करना पड़ा|
संग्रह की व्यंग्य-कविता “टालस्टॉय के भाई” के सम्बन्ध में भूमिका के
बहाने अपना अभिमत रखते हुए पी. एन. सिंह ने नामवर के जिस वैचारिक उदारता को
रेखांकित किया है6 वह इसी विफलता और मोह, लालच का परिणाम है न कि नामवर
सिंह की दृष्टि प्रगाढ़ता| तुलसी और कबीर के बहाने नामवर ने कबीर-तुलसी के चिंतन
में व्याप्त मूल स्वर को पकड़ने के लिए नहीं अपितु एक नई परंपरा खड़ी करने के लिए
प्रयास किया था और जब उसमे सफलता नहीं मिली, विरोध और प्रतिरोध दिखाई देने लगा तो
दामन तुलसी का थामे| यह लालच मात्र नामवर द्वारा ही नहीं अपितु उनकी परंपरा के
रखवाले उनके समकक्ष और उनके बाद के चिंतकों द्वारा भी किया जाता रहा है| जिसे कवि
‘‘टालस्टाय के भाई’’ के रूप में परिभाषित करता है वह काशीनाथ सिंह ही नहीं अपितु
वे सभी हैं जो इनके कारवाँ को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाए फिर रहे हैं| साहित्य जगत
में जो कार्य बहुत पहले होना चाहिए था वह अब हो रहा है| आश्चर्य तो इस बात की है
कि ऐसा प्रयत्न कवि और कविता द्वारा किया जा रहा है न कि आलोचना द्वारा| जिस बात
को समकालीन और सामयिक आलोचक इसलिए नहीं कह पाए कि उनके आका नाराज हो जाएँगे, उस
बात को कवि अनिल कुमार शर्मा धड़ल्ले से कह जाते हैं| इनके कहन के इस साहस को यहाँ
उद्धृत करना आवश्यक है-
“एक सेमिनार में/
हिन्दी
के टालस्टॉय/
और
उनके भाई थे/
टालस्टॉय
नें खोमचा लगाया/
भाई
ने स्वाद हल्दी राम से उम्दा बताया/
तुलसी
दास कबाड़ी थे/
कबीर
उम्दा खाँड़सारी थे/
यही
आलोचना है/
दूसरी
परंपरा को खोजना है/
कालिदास
की तरह/
विशाल
बृक्ष की शाखा पर बैठकर/
उसे
अपने हिस्से की ओर से काट दो/
असली
को असली से ही बाँट दो/
यही
बात है/दूसरी शुरुवात है/.......
ये
आलोचना तो सात अंधों की जुबानी है/
जो
एक हाथी के जिस्म की कहानी है
समग्र
का खण्डित है/बहुत बड़ा पंडित है|”7
समग्र का खण्डित और बहुत बड़ा पंडित
होने की घोषणा स्वयं नामवर की है जिसे वे स्वयं स्वीकारते हैं और कई बार यह भी कहा
जाता है उनके समर्थकों द्वारा “नामवर लिखते नहीं, जो बोलते हैं वही इतिहास होता है|”
इतिहास बनाने के लिए या फिर इतिहास में प्रसिद्धि प्राप्त करने के लिए कई बार बहुत
कुछ गलत करना पड़ता है जिसके लिए इतिहास का समय और और आने वाला समय कभी उसे माफ़
नहीं करता| नामवर आज उसी मुहाने पर खड़े हैं जिनके हिस्से मात्र और मात्र विद्रोह
और विरोध है | यह इसलिए भी क्योंकि साहित्य जगत में नामवर का बड़ा होना एक सच्चाई
है और समस्त साहित्यिक प्रतिमानों पर इनकी ज्यादतियां भी समय की एक सच्चाई है |
नामवर के नाम मात्र से कितने ही झोला-छाप प्रोफ़ेसर साहित्य और समाज की गलत
व्याख्या करके भारतीय संस्कृति का मखौल उड़ा रहे हैं जबकि उनसे कहीं अधिक
योग्यतावान शिक्षक पक्षपात का शिकार होकर
अपने किस्मत को कोष रहे हैं | समय का बदलाव अब आया है और यह बदलाव ही कहा जाएगा
क्योंकि इनकी कुनीतियों को बेनकाब किया जा रहा है | इनको अब किसी भी तरह से दबाया
नहीं जा सकता और क्योंकि सत्य है तो उस पर अडिग रहने से झुकाया भी नहीं जा सकता|
कवि की यह सच्चाई तो देखते ही बनती है----
“यह
आदमी कलम का गोलबंदी करता है
एक
कलामधारी से दूसरे कलमधारी पर वार करता है
एक
बार नहीं हर बार करता है
उसके
पिंजरे में बैठा कौआ कोयल को मात करता है
गूंगा
भी तानसेन की तरह करामात करता है
उसकी
चारण चिट्ठियाँ राष्ट्र की धरोहर हैं
उसका
अंगूठा छाप भी
किसी
के लिए सफलता की मोहर है
कलम
का मशीन में जाना
और
कागज़ पर बाहर आना
उसके
सुमिरन का प्रभाव है
आज
का तो यही स्वभाव है|”8
कवि
की दृष्टि में साहित्यिक गुटबंदियां पर जहां आक्रोश व्याप्त है वहीं दिन प्रतिदिन
प्रकृति का बनता बिगड़ता संतुलन भी वर्तमान है | कितनी बड़ी विडंबना है जिस हरियाली
को सुरक्षित और सुन्दर बनाए रखने के लिए पूर्वजों के हाथों के घट्ठे भी अभी नहीं
पुजे उसी हरियाली को उजाड़ कर घर के आँगन में गमले सजाए जा रहे हैं| मनुष्य की कृति
में सजावट में प्रकृत के ‘‘फूल नहीं काँटे नहीं” हैं समय के थपेड़े जरूर हैं| उन
थपेड़ों को सहने की क्षमता वर्तमान समय के जीवन में कम ही रह गयी है| जहां किन्हीं
आशाओं के बुझाते हुए संभावनाओं की एक पूरी दुनिया सामने आ जाया करती थी अब उन्हीं
आशाओं एवं संभावनाओं के मध्य ‘मृत जीवन’ थका, हारा नजर आता है|
फूल
बगीचों की खुशियाँ, हवेली में लटकती तस्वीरों में,
अख़बार
की इस धरती पर, जौहरी हथियारों के खतरे|
सर्द
पहाड़ों से मीठी दरिया, दरिया से समंदर के बादल,
बादल
के बरसते पानी में, गिरती ये तेजाबी जहरें||
कंकड़
के घरौदों में, इन गमलों की बिसातें कितनी,
गर्म
धरती के छीजे चादर से, आते हुए आसमानी खतरे||”9
स्वयं से दूर होते हुए स्वयं को
स्थापित करने की जो जद्दोजहद वर्तमान समाज में मची हुई है सच मानो तो पुरातनता और
नवीनता के मध्य का अंतर्द्वंद्व अपने प्रचंड रूप में उपस्थित है| अंतर्द्वंद्व की
यह प्रचंडता घर-परिवार के प्रत्येक सदस्य पर हावी है| यह इसी का परिणाम है कि वह
प्रत्येक व्यक्ति जिसे कभी अपने समाज और देश में घटित होने वाली घटनाओं से सरोकार
होता था आज स्वयं के अस्तित्व को भूल गया है| कवि की दृष्टि में यह अस्तित्व मात्र
जीवन को जीने का अस्तित्व नहीं है अपितु दो संस्कृति और दो विचारधाराओं के अंतर्द्वंद्व
से उपजे विद्रोह एवं सामंजस्य का अस्तित्व है| “तुम कौन हो मैं कौन हूँ” कविता के
माध्यम से कवि सांस्कृतिक अंतर्द्वंद्व का सुन्दर चित्रण प्रस्तुत करता है-
आँचल
से ढक के लौ को जलाती हो तुम
पछुवाँ
हवा मैं झोंक देता हूँ
पुरवाई
की स्वागत में तुम लीपती हो आँगन
चौखट
पर खड़ा होकर मैं रोक देता हूँ
तुम
कौन हो?
मैं
कौन हूँ?
आँगन
में तुलसी को सींचती हो तुम
गमले
में कैक्टस मैं रोप देता हूँ
आस्था
की सफेदी लगाती हो तुम
बुद्धि
की कालिख मैं पोत देता हूँ
तुम
कौन हो?
मैं
कौन हूँ?”10
पहचान का विलुप्त होना सांस्कृतिक
वाग्जाल में उलझना भी हो सकता है और सामाजिक मूल्यहीनता से उपजी संकीर्णता भी| कवि
इन दोनों स्थितियों से होकर गुजरता है| वह सांस्कृतिक उलझाव में घिरे मनुष्यों की
दयनीय दशा का भी साक्षात्कार करता है और सामाजिक मूल्यहीनता के शिकार हुए मनुष्यों
का भी| और सबसे बड़ी बात तो ये है कि यह साक्षात्कार उसके द्वारा उस समय होता
है, “जब कभी इंसान होता” है-
“जब
अक्सर ऊब जाता हूँ/
कहीं
मैं डूब जाता हूँ/
कहीं
फूलों से रूठा/
कहीं
कांटों में उलझा/
बहुत
परेसान रहता हूँ/
जब कभी इंसान होता हूँ|”11
फूलों से रूठना और काँटों से उलझना ये
मामूली बात नहीं है| यह सत्य की खोज है और जहां सत्य के खोज का प्रयास होता है
वहाँ बनावटीपन नहीं होता| मोह नहीं होता| भावुकता नहीं होती| त्याग होता है,
समर्पण होता है| किसी के आकर्षण में बंधकर पिसने का नहीं अपने कर्तव्य और समाज की
विसंगतियों में उलझते हुए सत्य को प्राप्त करने के प्रति होता है| कवि समय के
शास्वत सत्य को प्राप्त करने में सफल तब होता है जब वह देखता है कि समाज के लोग
निहित स्वार्थों के आवरण में ईश्वर को भी नहीं छोड़ रहे हैं| उसके नाम की ज्वाला
में खुद तो जल ही रहे हैं सम्पूर्ण मानवीयता को भी जला का राख कर रहे हैं | और यह
सब उस ईश्वर के सम्बन्ध में किया जा रहा है-जो शास्वत है, न निराकार है न साकार
है-
“ईश्वर होने का कितना बड़ा प्रपंच
धर्म
की ज्वाला कितनी प्रचण्ड
रक्तपात
होते हैं
अपने
स्वकृत ईश्वर की स्थापना में
जो
शास्वत है
न
विगत है
न
आगत है
गढ़े
मूल्यों की परिधि में
विवादी
है”12
यह है अपने समय का कटु यथार्थ | दरअसल
देश में इन दिनों कई ऐसे कांड हुए जिनके केंद्र में ईश्वर ही रहा| इन काण्डों के
केंद्र में जहां पूर्व प्रचलित ईश्वर के स्थापित मूल्यों को प्रचारित करने का नशा
छाया रहा तो बहुत से जगंह स्वयं को ईश्वर के रूप में प्रतिष्ठापित करने की
हठधर्मिता भी| इन घटनाओं से जहां जनता-आहत हुई वहीँ राजनीतिज्ञों ने इसका फायदा भी
उठाया| इन परिदृश्यों को देखकर और क्योंकि ये घटनाएँ किसी एक दिन की नहीं प्रतिदिन
की कहानी हो गयी...फलतः कवि-मन आहत होता है | कवि राजनीतिज्ञों की स्वार्थी नीतियों
से भी दो-चार होता है| यह अक्सर कहा जाता है कि कविता राजनीतिज्ञ नहीं होती लेकिन
“पिछले दशक में कविता और राजनीति के संबंधों को लेकर काफी बहसें हुई हैं और माना
गया है कि आज की प्रतिबद्ध कविता अपने समय की राजनीति से सरोकार रखती है |”13
समकालीन राजनीति ने हृदय से लेकर
मस्तिष्क तक को प्रभावित और आंदोलित किया है| कहने को तो प्रजातंत्र है; जनता
द्वारा चुना गया जनता का राज; लेकिन व्यवहार में निरंकुश जंगल राज है| यहाँ हर कोई
छला जाता है| लूटा जाता है | लूटने और छलने की स्थितियां देखकर कवि हैरान है और
जानना चाहता है कि-
“सत्य
का चेहरा क्यों सत्य से इतना अलग है
झूठ
का मुकुट और झूठ का नग है
किसी
कोने से झांकता कोई ठग है
सच
के मोती को झूठ के धागों में पिरोकर
क्यों?
सच, सत्य से बिलकुल अलग है|”14
यहाँ
के लोकतंत्र में बोला कुछ जाता है और किया कुछ जाता है| होता कुछ है और दिखाया कुछ
जाता है| सबकुछ इतना झूठ और फौरेब के आवरण में पिरोया गया होता है कि अंततः
स्वीकार कवि को यह भी करना पड़ता है कि-
कितने
तुम्हारे चोंचले नये
कि
हम तो काम से गये
तुम
और तुम्हारे सत्य नये—नये
विचार
का संदूक खोलकर
खुद
बंद हूँ....
समृद्धि
की हवाओं से
कंगाल
होता जनतंत्र हूँ|”15
जनतंत्र कंगाल है फिर यहाँ के निवासी उससे
बड़े कंगाल | ‘जैसी राजा वैसी प्रजा |’ राजा और राज्य अलग मांगने-खाने में व्यस्त
हैं और उसके निवासी अलग व्यस्त हैं अपने जीवन-यापन का विकल्प खोजने के लिए| विकास
की बातें आम आदमी की पहुँच से बाहर है क्योंकि उसके विकास की प्राथमिकता सबसे पहले
उसकी भूख है| “केवल पूंजीपति अथवा रिश्वत आदि के पैसे के बल पर जीने वाला वर्ग ही
अपने जीवन में सम्पन्नता पता है | दिन प्रतिदिन बढती मंहगाई, कारों का बोझ, भ्रष्ट
शासन-तंत्र तथा नौकरशाही की अकर्मण्यता, जनता के कष्टों को और भी बढाती हुई जीवन
जीने की स्थितियों को विषमतर बनाती जा रही है | इस स्थिति में सामान्य आदमी अपने
को अत्यंत कष्टदायक, दारुण स्थिति में फंसा पाता है | यदि आदमी कहीं से पैसा जुटा
भी लेता है, तो उसके लिए सामान्य सी राशन-पानी की वस्तुएं भी दुष्प्राप्य हैं |”16
अनिल कुमार शर्मा की कविताओं में भी
यही कटु यथार्थ है जो इन्हें अपने समय का कवि होने के का बार-बार एहसास कराता है |
फाइलों का बनना, भाषण का होना और जनता का एकत्र होकर उसे सुनना, कुछ न प्राप्त
होने की स्थिति में आत्महत्या तक को मजबूर हो जाना ही वर्तमान समय की सच्चाई हो
गयी है| कवि राजनीतिक षड्यंत्रों में शामिल राजनीतिज्ञों की चारुता प्रिय
कुनीतियों को कितने सुन्दर तरीके से अभिव्यक्त करता है कि आज के राजनीतिज्ञों के
जो हाथ जनता के दुखती रगों को सहलाते हैं, उनके स्वार्थ ही होते हैं जनता के दुःख
नहीं-
यहाँ
राजनीति के पंजे
चंगुल
बन करुणा के जाल बिछाते हैं
एक
चोट को दूसरी चोट से सहलाते हैं
ईश्वर
के होने और न होने के मध्य
सवाल
का दायरा इतना बड़ा है कि
यहाँ
भूंख का कोई हल नहीं|”17
यह
अनिल कुमार शर्मा की खूबी कही जाए या फिर साहित्यिक सामाजिक एवं राजनीतिक सरोकारों
के प्रति उनकी अपनी प्रतिबद्धता; समय-समाज में विद्यमान विसंगतियों से परिपूर्ण
मानवीय व्यवहारों का बड़ी तल्लीनता से खबर लेते हैं | सत्य को हर हाल में दिखाने का
प्रयत्न करते हैं | निःसंदेह ऐसा प्रयत्न साहित्यिक क्षेत्र में कम ही देखने को
मिलता है लेकिन जिसने किया मनीषियों द्वारा नवीन धारा का सूत्रपात उसे ही घोषित
किया गया | सत्य कहने की क्षमता कवियों में होती है क्योंकि वे सत्य के हिमायती
होते हैं | यहाँ एक बात अवश्य समझने की आवश्यकता है कि अब वह समय भी नहीं
रहा...किसी को रोते या बिलखते देखकर अपना कवि हृदय उसे अर्पण करदें...अब समय उन
आँसुओं के पहचान की है क्योंकि रोने वालों में से अधिकांश घडियाली आंसू बहा रहे
हैं| इनकी पहचान आवश्यक है | कवि अनिल कुमार शर्मा का कवि-हृदय इस लिए भी प्रसंशनीय
है कि वे इन आसुओं की पहचान करते हैं और घडियाली आँसू बहाने वालों का चुन-चुन कर
खबर लेते हैं |
सन्दर्भ-संकेत-
1.
शर्मा, अनिल
कुमार, कंगाल होता जनतंत्र, दिल्ली, विकल्प प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-32
2.
वही, पृष्ठ-51
3.
वही, पृष्ठ-114
4.
वात्स्यायन,
सच्चिदानन्द, युगसंधियों पर, (राजनैतिक संस्कृति और सामाजिक संस्कृति) दिल्ली :
सरस्वती विहार, 1981, पृष्ठ-100
5.
शर्मा, अनिल
कुमार, कंगाल होता जनतंत्र, दिल्ली, विकल्प प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-114
6.
शर्मा जी यह भूल
जाते हैं कि नामवर जी ने अपनी इस भूल को समझा और उसके तुरंत बाद रामचंद्र शुक्ल के
तीसरे ग्रन्थ को सम्पादित किया और एक लम्बी खूबसूरत भूमिका लिखी| जब राजेंद्र यादव
और दलित लेखकों ने तुलसी पर आक्रमण करना शुरू किया तो नामवर सिंह ही तुलसी के पक्ष
में खड़े हुए और यहाँ तक कहा कि तुलसी के बिना हिंदी साहित्य खड़ा ही नहीं हो सकता|
तुलसी और कबीर का मूल्यांकन “असली को असली से ही बाँट दो” के लिए नहीं बल्कि उनके
मूल स्वर को पकड़ने के लिए किया जाता है| (वही, पृष्ठ-20)
7.
शर्मा, अनिल
कुमार, कंगाल होता जनतंत्र, दिल्ली, विकल्प प्रकाशन, 2015,पृष्ठ-55-56
8.
वही, पृष्ठ-56-57
9.
वही, पृष्ठ-40
10. वही,
पृष्ठ-39
11. वही,
पृष्ठ37
12. शर्मा,
अनिल कुमार, कंगाल होता जनतंत्र, दिल्ली, विकल्प प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-39
13. तिवारी,
विश्वनाथप्रसाद, समकालीन हिन्दी कविता, नई दिल्ली, राजकमल प्रकशन प्रा. लि.,
पृष्ठ-200, १९८२
14. शर्मा,
अनिल कुमार, कंगाल होता जनतंत्र, दिल्ली, विकल्प प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-100
15. वही,
पृष्ठ-101
16. सिंह,
डॉ० पुष्पपाल, समकालीन हिंदी कहानी, समकालीन हिंदी कहानी-साहित्य समालोचना
ग्रंथमाला-1, चंडीगढ़, हरियाणा साहित्य अकादमी, 1987, पृष्ठ-39
17. शर्मा,
अनिल कुमार, कंगाल होता जनतंत्र, दिल्ली, विकल्प प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-99
3 comments:
सुन्दर प्रस्तुति
सुन्दर प्रस्तुति
शुक्रिया सर
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