Wednesday, 30 November 2016

जब रास्ते से गुजर रहा था




सुबह निकला घर से आसमान साफ़ था
न बदली छाई थी न कोहरा घना था
साफ़ था सबकुछ मन अनमना था
कुछ देर बे-मन खड़ा था
मन किया घूम आएं
शहर के इस छोर से लेकर उस छोर तक
शान्ति थी कोई शोर-शराबा नहीं
बड़े दिन बाद ऐसा सुयोग बना था |


कुछ लोग चर्चा में व्यस्त थे
देखा, जब रास्ते से गुजर रहा था
मौसम खराब हो सकता है
बादल बरस सकता है
आज की रात में कुछ ऐसा आभास हो रहा था
कुछ लोग कह रहे थे और कुछ लोग सुन रहे थे

कुछ और आगे बढ़ा तो देखा कि
एक परिवार के कुछ लोग चिल्ला रहे थे
कुछ को चिल्लाहट से घबड़ाहट भी हो रही थी
कपड़ा हटाया नहीं सारा भीग गया
बादल यहाँ बरस चुका था, कुछ कह रहे थे
क्या भरोसा है उसका; कब क्या कर दे?

यह भी दिखाई दिया कुछ और दूरी पर...
भीगे हुए थे कई लोग, और कोश रहे थे बादल को
सब के सब एक स्वरों में  
जैसे जमीं पर आ जाता तो मार ही डालते
न रहता बादल, न बरसता पानी और
न ही तो दुबारा कोई उठाता परेसानी

बे-मौसम बरसात!
क्या कारण था भला बरसने का
यह भी बउरा गया है, पगला गया है
कह रहे थे सभी आपस में
जब जरूरत थी नहीं बरसा, सारी खेती चौपट हो गयी
धान खलिहान में गेहूँ दूकान में
आलू का तो कर ही दिया सत्यानाश

नाशपीटा, यही तो करता आया है
हर समय दिया है धोखा
खड़ी  खेत पर गड़ाए रहा है नजर
मौका मिलते ही कर देता इधर से उधर
देखकर यह हाय-तौबा
मन तो विचलित था पर कह न सका  


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