Monday, 19 August 2019

परिवर्तन, सरोकार और कविता का समकाल ३


कविता में ‘परिवर्तन’ और समाज में ‘बदलाव’ को चिह्नित करने का प्रथम जरिया है ‘लोक’| यहाँ ‘लोक’ से हमारा तात्पर्य गाँव और गंवई परिवेश में जीवन यापन करने वाले वह जन या उन जनों का समूह होना चाहिए जिनकी परंपरा, संस्कृति और लोक-व्यवहार में आने वाली रीतियों-नीतियों में विश्वास और सहभागिता होती है| वैश्वीकरण के वर्तमान विकसित दौर में ऐसे ‘लोक’ की बात करना पिछड़ेपन की दहलीज पर खड़े होकर स्वयं को उपेक्षित होने के लिए आमंत्रित करना है|

पाठक ग्लोबल हो रहा है| वह नहीं चाहता कि कविताओं में खेत-खलिहान, क्यारी-फुलवारी की चर्चा-परिचर्चा हो| वह यह भी नहीं चाहता कि कवि कविता में गेंदा के फूल की खुशबू, चूल्हे की तपिस और चबूतरे पर चर्चा का जिक्र लेकर आए| आलोचक या तो विमर्शों की तलाश में है या फिर भूमंडलीकरण में अस्त-व्यस्त हो रही युवा पीढ़ी के लिए मशालेदार साहित्य-व्यंजन की व्याख्या कर उनकी मानसिकता को ‘विकसित’ बनाने की प्रक्रिया में सक्रिय| अब एक कवि ही है जो जबरजस्ती प्रचलित चलन के खिलाफ रहते हुए ‘लोक’ के सौंदर्य की स्वाभाविक प्रक्रिया को साधने में स्वयं को व्यस्त रखे हुए हैं|  
         
समकालीन हिंदी कविता का ‘लोक’ शहर नहीं है और न ही तो सभ्यता के उच्च पायदान को छू चुका महानगर है| लेकिन शहरों और महानगरों में जीवन यापन करने वाला ‘जन’ है क्योंकि पहले तो वह किसी न किसी गाँव से आया हुआ है| दूसरे भय, संकोच और अनागत विद्वेषपूर्ण समस्याओं से डरा हुआ है| यह डर असुरक्षा की भावना से उपजा डर तो है ही मूलभूत सुविधाओं से मुहताज रह जाने का डर भी है| यह स्थाई हो चुके डर का ही परिणाम है कि शहर में रहते हुए भी वह उसे अपना नहीं मानता और संचित असुविधाओं के चलते गाँव वापस आना नहीं चाहता| दिन भर रोजगार और रेजगार के चक्कर में भटकना शहर की नियति है| भटकता वही है जो घर-बार छोड़कर आया होता है| यह एक स्थिति है, दूसरी स्थिति में शहर का अकेलापन व्यक्ति से नहीं काटा जाता है|  ज्ञानप्रकाश विवेक बड़े सधे लहजे में इस वेबसी को अभिव्यक्ति देते हैं- “दिन भर भटकना शहर में आज़ाब है बड़ा/ ये दर्द दोस्तों, किसी बेघर के पास है/ ज़हमत नहीं उठाता कोई मेरे वास्ते/ डिब्बा दवाई का मेरे बिस्तर के पास है|[1] जहाँ बीमार व्यक्ति को दवाई देने वाला भी कोई न हो वहां रहना या वहाँ का होकर रहना कितना दुष्कर होता है, कल्पना भर किया जा सकता है|

कोई व्यक्ति चाहता भी है कि वह ग्रामीण सामाजिकता का निर्वहन शहरों में करे और सबसे मिल-मिलाकर रहे, तो यहाँ के धोखे, छल और षड़यंत्र उसे जख्मी किये बिना नहीं छोड़ते| नन्दल हितैषी की कविता ‘शहर’ में इस यथार्थ परिदृश्य को देखा जा सकता है – जब भी/ सोचता हूँ/ किसी के साथ/ कंधे से कंधा/ मिला कर चलूँ/ अनायास छिल उठते हैं,/ अपने ही कंधे/ कब फोफले पड़े?/ कब/ फूट गये/ कब/ जुड़े/ कब/ टूट गये?/ कुछ पता नहीं चलता|/ पते के नाम पर/ सिर्फ इतना पता है/ मैं शहर में हू|”[2]  शहर में होने की ये त्रासदियाँ बड़ी हैं और इनके होने के कारण मामूली बिलकुल नहीं हैं| विसंगतियों से ऊबे जिन व्यक्तियों के लिए शहर किसी खजाने से कम नहीं है; समस्याओं की दृष्टि से शहर जैसा कोई दूसरा भयानक माध्यम भी नहीं है उसके लिए| कुमार विनोद का स्पष्ट मानना है कि-लाख चलिए सर बचाकर, फ़ायदा कुछ भी नहीं/ हादसों के इस शहर का, क्या पता, कुछ भी नहीं|[3] शहर क्रूर होता है जो दूसरों के स्वभाव में ढलता नहीं अपनी रंगत में अपनी रंगत में दूसरों को ढाल लेता है| सही अर्थों में कहें तो शहर होता ही है हादसों के लिए| यहाँ कब क्या हो जाए और कौन किस रास्त्ते पर घेर लिया जाए, कुछ नहीं कहा जा सकता|  कितनों भी बच-बचाकर चलेंगे लेकिन लेकिन शहर का स्वभाव है ठोकर मारना तो वह मारेगा ही|

गाँव की विसंगतियों और अभावों से भाग कर व्यक्ति शहर जाता है तो शहर की परिस्थतियों में स्वयं को न फिट होता देख गाँव भागता है| इस प्रक्रिया में शहर की जिन विसंगतियों से ऊबकर आम आदमी गाँव में भागता हुआ आता है वही विसंगतियाँ और भी विकराल रूप धारण करके उसे यहाँ मिलती हैं| राधेश्याम शुक्ल कहते हैं दद्दा अगर आज जो होते/ अहा ग्राम्य जीवन पर रोते  इसलिए क्योंकि शहर यहाँ दबे पाँव आया और लोगों की आदतों से लेकर व्यवहार तक को परिवर्तित करके अमानवीय और असंयमित बना दिया| शहर से गाँव आए व्यक्ति के लिए गाँव में शहर के लक्षण का दिखाई देना उसे अचंभित करता है| सुभाष राय जैसे कवि शहरीपन वाले स्वभाव में गुम होते गाँव की यथास्थिति को देखकर आश्चर्य में हैं| यह आश्चर्य इसलिए भी है कि “मेरा वह गाँव खो गया है कहीं समय के कुहासे में/ पोखरे, ताल के ऊपर खड़ी हैं ऊँची इमारतें/ पानी ठहरता नहीं, उड़ जाता है वाष्प बनकर/ खेत के गीत नहीं सुनायी पड़ते अब/ बच्चे पैदा होने पर सोहर नहीं गातीं महिलाएँ/ नौटंकी नहीं होती, रहीम चाचा का आल्हा भी नहीं/ बैल बिक गए, गाएं प्लास्टिक खाकर मर रहीं/ बच्चे खेलते नहीं, न ही शैतानी करते हैं/ वे बोलने से पहले पढ़ना सीखने लगे हैं/ शहर बढ़ आया है गांव तक/ अपने छद्म, फरेब के साथ/ मैं परेशान हूँ उस मिटटी के लिए/ जिससे मैं बना हूँ, जिससे मैं जिन्दा हूँ|”[4] यह कितने आश्चर्य का विषय है कि जिसमें पला-बढ़ा बचपन उस मिट्टी का रंग-रूप बदलकर उसका भी कायाकल्प कर दिया जा रहा है| 

यदि ‘शहर बढ़ आया है गाँव तक/ अपने छद्म फरेब के साथ’ तो बंजर होती भूमि और पक्की होती सड़कों के साथ-साथ आदत और व्यवहार भी शहरीपन का लबादा ओढ़कर हमारे सामने प्रस्तुत हो रहा है| गाँव का शहर रूप में परिवर्तित होना कितना दुखद है, मधुकर अष्ठाना अपने नवगीत में इस चिंता को कुछ इस तरह अभिव्यक्त करते हैं-“बहुत दिनों पर/ गाँव गये तो लगा कि/ हम फिर शहर आ गये/ हँसी नहीं खिड़कियाँ/ और दरवाज़े भी/ मुस्काना भूले/ घुस आई रावणी-संस्कृति/ सब चाहते/ शिखर को छूलें/ खुले जुए के अड्डे तो/ अमृत के बदले जहर पा गये|” [5] जुए के अड्डों का खुलना और खिड़कियों का न मुस्काना, ये दोनों स्थितियां शहर और गाँव के बीच फैले स्पेस को तो पाटती हैं लेकिन ‘जन’ को अँधेरे में छोड़कर उसे भटकने के लिए विवश भी करती हैं|

आज के समय में परिवार का अधिकांश, शहर और गाँव, दो पीढ़ियों में बंटा हुआ है| गाँव और शहर में रह रहे दो पीढ़ी की वेबसी, भय और असुरक्षा की भावना को राधेश्याम शुक्ल ने अपने नवगीत में कुछ इस तरह अभिव्यक्त किया है-  पिता गाँव में,/ पूत शहर में/ पर, दोनों ही, दुःख के घर में|/ पूत, उलझ कर/ छीज रहा है/ रोज दिहाड़ी से;/ बूढ़े कंधे,/ दुखिया/ घर की बोझिल गाड़ी से/ धुंधलाई आँखों में सपने, बड़ी उड़ानें/ छोटी पर में |”[6] हमारे लोक का यथार्थ कुछ इसी तरह निर्मित होता है| घर में रहते हुए भी परिवार का सदस्य बाहर का होकर रहता है| शहरों की तरफ तेजी से भागती युवा पीढ़ी के बाद घर में या तो परिवार की तस्वीरें सुरक्षित हैं या फिर उनसे जुडी यादें|

यादों में खोया मन स्मृतियों को सहेजकर रखने का प्रयास करता है| अपनी एक ग़ज़ल में एक जगह माधव कौशिक कहते हैं गाँव से निकले कि सब फँसकर शहर में रह गये/ सिर्फ उनकी याद के पत्थर ही घर में रह गये|”[7] माधव कौशिक अपनी एक अन्य गज़ल में शहर से वापसी के बाद गाँव के गायब होने की बात करते हैं तो हृदय ‘मधुर स्मृतियों’ के खो जाने के भय से कम्पित हो उठता है—“जिसको बचपन में देखा वो पनघट पोखर ढूँढूँगा/ अगली बार गाँव में जाकर फिर अपना घर ढूँढूँगा|/ शहरों की शैतानी आंतें लील गईं हर चीज़ मगर/ दिल की बच्चों जैसी जिद्द कि तितली के पर ढूँढूँगा||” [8] मधुर स्मृतियों के खोने का भय और ‘पनघट पोखर’ ढूँढने की विवशता ने हमें सोचने के लिए मजबूर किया है| मजबूरी में हम अधिक मानवीय होते हैं और यह स्थिति गाँव को गाँव की तरह देखने और उसे बनाकर रखने के लिए सहायक होती है| ओमप्रकश सिंह जैसे नवगीतकार इसीलिए शहरों की कीमत पर अपने गाँव को लौटाने की बात करते हैं| उनका मानना है कि जो भी हो लेकिन-“मेरा गाँव मुझे लौटा दो/ स्वर्ण पंखुरी/ धूप सलोनी/ मेघ वृक्ष-सी छाया/ चन्दनवर्णी धूल उड़ रही/ ज्यों कुबेर की माया/ कली-कली पर खुशबू बैठी/ मेरा गाँव मुझे लौटा दो|”[9] 

हिंदी कविता में गाँव को गाँव की तरह बनाकर रखने और देखने की ईमानदार कोशिशें सूरदास के समय से होती रही हैं| जब सूरदास कहते हैं कि “ऊधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीं” तो समृद्ध नगर की अपेक्षा विकासशील गाँव को महत्त्व देते हैं| कविता के समकाल में यही महत्त्व आज की कविता, नवगीत और ग़ज़ल में गाँव का है| अनूप वशिष्ठ जैसे ग़ज़लकार गाँव के सौंदर्य पर मुग्ध हैं| बंजर शहरों से निकलने के बाद जब उर्वर गाँव में कदम पड़ते हैं तो वहां की सुन्दरता को गज़लकार कुछ इन शब्दों में अभिव्यक्त करता है-“खेलते मिट्टी में बच्चों की हंसी अच्छी लगी/ गाँव की बोली हवा की ताज़गी अच्छी लगी/ मोटी रोटी, साग बथुवे का व चटनी की महक/ और ऊपर से वो अम्मा की ख़ुशी अच्छी लगी|”[10] गाँव लाख विसंगतियों के बावजूद है कुछ ऐसा ही|



[1] विवेक ज्ञानप्रकाश, दरवाजे पर दस्तक, पृष्ठ-19
[2] हितैषी, नन्दल : बोलती दीवरें, पृष्ठ-39
[3] , कुमार विनोद, समकालीन हिंदी ग़ज़ल संग्रह, पृष्ठ-67
[4]  सुभाष राय, सलीब पर सच, पृष्ठ-31
[5] अष्ठाना, मधुकर : खाली हाथ कबीर, पृष्ठ-62
[6] राधेश्याम शुक्ल, कैसे बुनें चदरिया साधो  
[7] सपना सही सलामत दे, पृष्ठ-24
[8] माधव कौशिक, सूरज के उगने तक, पृष्ठ- 11
[9] गीत मेरे मीत, ओम प्रकाश सिंह, पृष्ठ-22
[10] वशिष्ठ अनूप, समकालीन हिंदी ग़ज़ल संग्रह, पृष्ठ-180

No comments: