कवि
का सम्बन्ध राजनीतिक दलों से हो या न हो यह एक दूसरी समस्या है लेकिन राजनीति की
सच्चाई को लोगों के सामने रखना और लोगों की सम्पन्नता हेतु कार्य करने के लिए किसी
राजनीतिज्ञ पर दबाव डालना, एक कवि की बड़ी ज़िम्मेदारी है| सत्ता जरूरी नहीं कि अपने
स्वाभव में लोकहित के लिए चिंतित रहने वाली हो, सत्ता का स्वभाव ऐसा होता भी नहीं
है| सबल उसके ‘एजेंडे’ में होता है और निर्बल हर समय ‘हाशिए’ पर रखा जाने वाला
जीव| ‘निर्बल’ जितना अधिक परेशान होगा सत्ता उतनी अधिक शक्ति के साथ ‘सबल’ के पक्ष
में होती जाएगी|

जिन
घटनाओं को हम ‘हो सकता है’ ‘हुआ तो क्या हुआ’ ‘होता रहता है’ मानकर छोड़ देते हैं
कवि मन पर वही घटनाएँ बहुत प्रभाव डालती हैं| घटनाओं के समक्ष जब कोई नहीं बोलता
तो वह कवि ही है जो साहस के साथ बोलता ही नहीं अपितु जन के साथ खड़ा भी होता है|
देवेन्द आर्य कहते हैं-“कवि नहीं बोला/तो बोलो कौन बोलेगा?/ किसकी दस्तक पर ज़माना
आँख खोलेगा?/ किसको अपने आँसुओं में/ पाएगी दुनिया/ घाव अपनी पीठ के दिखलाएगी
दुनिया/ अंत में किसकी शरण में जाएगी दुनिया?” कवि घटनाओं की तहरीर तो नहीं
लिखता लेकिन घटनाओं से बचे रहने की तरतीब जरूर सुझाता है| जिस समय लोग दुखित करने
वाली समस्याओं और घटनाओं का आनंद ले रहे होते हैं वह समय एक कवि के लिए तमाशा
देखने का नहीं अपितु समस्याओं का निराकरण खोजने का होता है| आम आदमी जिन विशेष
परिस्थितियों में समस्याओं से घिरा होता है कवि उसकी दुर्दशा और वेदना में स्वयं
को देखता होता है| इसी कविता के अंत में देवेन्द्र आर्य कहते हैं-“एक कवि ही
है/ जो दुःख का भेद खोलेगा/ अपने शब्दों को पसीने में भिंगो लेगा/ कवि नहीं बोला/
तो उसका मौन बोलेगा|” कवि जिस समय बोलने की स्थिति में नहीं होता उस समय उसका
मौन यथास्थिति के प्रति मुखरित होता है|
देश
असमानताओं की खाईं में धंसा जा रहा है| बेरोजगारी की समस्याएँ हद से बेहद होती जा
रही हैं| सांप्रदायिक दंगों और वर्ग-संघर्ष की दलीय मंशा बलवती होती जा रही हैं|
गरीब मर रहे हैं और अमीर समृद्ध हो रहे हैं| इन मुद्दों पर अपना ध्यान लगाने के
स्थान पर राजनीतिज्ञ अपनी राजनीतिक फायदों के लिए जन सामान्य को अलग ही समस्याओं
में उलझा रहे हैं| रोटी की मांग करने वालों को यह सख्त हिदायत दी जा रही है कि-“तुम
रोटी के बारे में नहीं/ सोचो तुम देश के बारे में/ तुम सोचो और सिर्फ सोचो/ अगर
सोच सकते हो तो/ देश के नक्शे के बारे में/ आरती उतारो उसकी/ फटा सुथन्ना पहने/ भूखे
रहकर/ दूखे रहकर भी/ वर्ना तुम्हारी कर ली जायेगी शिनाख्त/ एक देशद्रोही के बतौर|”[1]
तो इसका अर्थ क्या यह नहीं निकल रहा है कि सार्थक मुद्दों पर बात और राजनीति न
करके जन सामान्य को बेवजह की गैरजरूरी मामलों में उलझाया जा रहा है| ज्ञानप्रकाश
विवेक का यह कहना कितना तर्कसंगत है-सियासतदान दान का जलवा तो देखो/ कि सुलझा
तार उलझाया गया है”[2]
और उलझाए हुए तार में विकास और उन्नति के मुद्दों की बजाय उन मुद्दों को लाकर ठूंस
दिया गया है जिनसे न तो समाज को फायदा होना और न ही तो समाज में रहने वाले लोगों
को| जब आप उन्हें जन-सामान्य की स्थिति पर ध्यान देने की बात करते हैं तो वे आपको
विकास का पैमाना छूने के लिए आमंत्रित करते हैं| माधव कौशिक जैसे रचनाकार यह कहते
हुए इस आमंत्रण का प्रतिरोध करते हैं कि-“ख़त्म हो सकती है कैसे दौड़ आटा-नून की/
जब मयस्सर ही नहीं है रोटियां दो जून की|”[3]
जब
बात दो जून के रोटी की आती है तो ‘भूख’ केन्द्र में आ जाता है और सभी मुद्दे गौण
हो जाते हैं| भूख ही है जो किसी मजबूर को मजदूरी करने के लिए विवश करती है| भूख ही
है जो किसी को शोषण की चक्की में पिसने के लिए अभिशप्त करती है| यह भूख ही है कि
जब लोग अपने तथाकथित अधिकारों के लिए धरना-प्रदर्शन, तोड़-फोड़ कर रहे होते हैं तो
जन साधारण जीवन-अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहा होता है| राजनीतिज्ञों
द्वारा ऐसा कुछ नहीं किया जाता| वह सिर्फ रोटी पर राजनीति करते हुए अपना खजाना भर
रहा होता है| यानि यहाँ भूख के समानांतर ‘लूट’ का कारोबार सिद्दत से चल रहा होता
है-“एक आदमी ज़मीन जोतता है/ फिर कर्ज़ में डूब, भूख से परेशान/ आत्महत्या कर
लेता है/ एक आदमी देश जोतता है/ और जनता को लालीपॉप दिखाकर/ अपना ज़ेब भरता है/
मुस्कुराते हुए ऐश करता है/ ध्यान रहे/ देश की कानून व्यवस्था/ मृतकों के लिए नहीं
होती|”[4]
यहाँ “जनता को लालीपॉप’ दिखाने का
कार्य उन राजनीतिज्ञों द्वारा किया जाता है जो कहीं गहरे में ‘भूख’ और ‘रोटी’ का
कारोबार कर रहे हैं|
यह कारोबार नहीं तो आखिर क्या है कि जनता
भूख से पीड़ित है और उसे देशभक्ति का पाठ पढ़ाया जा रहा है| युवा वर्ग बेरोजगारी के
दंश को झेलते हुए कुंठा और संत्रास की स्थिति में जा रहा है और सरकारें विकास का
पैमाना सेट कर रही हैं| युवा नवगीतकार गरिमा सक्सेना जब जब कहती हैं “सरकारी
रिक्तियाँ अधूरी/ झूठे हैं वादे/ सुविधाओं के बल पर आगे/ निकल रहे प्यादे/ ऊपर से
शिक्षा ऋण का/ युवकों को गड़ता पिन”[5]
तो यथार्थ सामने आकर मुंह चिढ़ाने लगता है| रोजगार यदि किसी परिवार में है भी
तो वहां की भी हालत कम खस्ता नहीं है| एक कमाने वाले के आसरे पूरा परिवार है|
देवेन्द्र आर्य की यह पीड़ा वाकई समझने लायक है कि-“एक पगार में कितने लोग पलते हैं/ इसका तो हिसाब बड़े बाबू के पास है/ मगर
एक पगार के लिए कितने लोग ड्यूटी करते हैं/ इसका हिसाब किसी वेतन आयोग ने आज तक
नहीं किया/ सुबह नौकरी पर मुझे जाना है/ और पूरा घर न चाहते हुए भी सारे धारावाहिक
समेटकर/ दस बजते-बजते बिस्तर पर पड़ जाता है”’[6]
जहाँ एक व्यक्ति के नोकरी पर होने से पूरा परिवार नाचता दिखाई देता
है वहीं दैनिक आवश्यकता की पूर्ति फिर भी न हो पाने के कारण स्वयं को संकट में
फंसा समझता है|
यह
कम चिंता का विषय नहीं है कि जहाँ इस देश की युवा पीढ़ी पंगुता की स्थिति में आकर
दम तोड़ रही है, सरकारें ‘विज्ञापन’ का खेल खेल रही है| विकास के सारे पैमाने इन
दिनों ‘विज्ञापन’ से निर्धारित हो रहे हैं| हवाबाजी इतनी अधिक है कि जैसे चार बूँद
नील का पानी में डालने से सारे कपडे उजाले की रंगत में आ जायेंगे| जबकि हकीकत यह
है कि अँधेरा और अधिक गहराता जा रहा है, समस्याएँ विकट होती जा रही हैं| समस्याओं
के हल होने के नाम पर महज आश्वासन दिया जाना कि सब ठीक हो जाएगा, गले नहीं उतरता|
राहुल शिवाय का यह नवगीत उसी स्थिति को अभिव्यक्त करता है| “होगा विकसित देश/
सिर्फ/ विज्ञापन कहता है|/ राम भरोसे भोजन, कपड़ा/ शिक्षा और आवास,/ अर्थ-शास्त्र
भी औसत धन को/ कहने लगा विकास|/ सम्मानित समुदाय/ जेठ को/ सावन कहता है|/ जब-जब
बात उठी है/ बस्ती कब होगी माडर्न/ तब तब मुद्दा बनकर आया/ पिछड़ा और सवर्ण|/ क्या
हालत है,/ मुद्रा-दर का/ मंदन कहता है/ जिसने सपने कम दिखलाए/ हुआ वही कमजोर/
तकनीकों ने संध्या को भी/ सिद्ध किया है भोर/ सब हल होगा,/ बार-बार/ आश्वासन कहता
है|” यह आश्वासन ही देश को चला रहा है| राजा से लेकर प्रजा तक महज आश्वासन पर चल
रहे हैं| कविता के समकाल के हवाले से कहें तो सभी समस्याओं की जड़ राजनीति है| और
हैं भी क्योंकि नीति-निर्धारण की भूमिका में सरकारें हैं| योजनाओं को बनाना और
उन्हें कार्य रूप में परिणत करना उन्हीं के हाथों में हैं| जनता एक निमित्त मात्र
है| वह पाँच वर्षों में एक बार प्रयोग में लाई जाने वस्तु समझ ली गयी है|
विडंबना तो ये है
कि इन विषम परिस्थितियों पर विचार करने की बजाय यहाँ नित प्रतिदिन एक नई पार्टी का
एलान किया जा रहा है| शासक बनकर सभी जीना
चाहते हैं प्रजा की-सी त्याग भावना दूर तक नजर नहीं आ रही है| यहाँ शासकों की इतनी अधिकता हो गयी है कि जिम्मेदार नागरिक खोजना मुश्किल
हो गया है| कीर्ति केसर एक जगह कहती हैं कि “शासकों की भीड़ में/ अब कोई एक चाणक्य/ शायद नहीं बदल सकता/ इस स्वतंत्र
राष्ट्र की/ नियति को, परिणति को|” ऐसा
इसलिए क्योंकि नियति गरीब को गरीब बने रहने देना है और अमीर को और अधिक सुविधाएँ
देकर समृद्ध करना है| परिणति जो है वह सबके सामने है|
एक तरफ चंद्रयान-2 का सफल परीक्षण किया जा रहा
है और दूसरी तरफ कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ का ताण्डव-नृत्य चल रहा है|
इस
प्रकार के ताण्डव-नृत्य पर आज कवि वहां रुकता भर नहीं ठिठक जाता है| यह ठिठकना
पश्चाताप करना नहीं है| वर्तमान को अतीत की संकीर्णता से मुक्त कराना तो है ही
भविष्य के लिए स्वयं को गतिमान करने की प्रेरणा भी देना है| कवि को पता है कि किस
तरह आम आदमी को राजधानी में अनसुना कर दिया जाता है इसलिए वह उन्हें यहाँ आने से
रोकता है-“तुम्हारे जैसे सरल लोग क्या करेंगे यहाँ/ ये राजधानी सियासत की राजधानी
है|”[7]
यह रोकन इसलिए है क्योंकि ईमानदार आदमी यहाँ ठगा जाता है| है भी यह एक तरह का
व्यंग्य क्योंकि वर्तमान समय की राजनीति में छल, कपट और विद्वेष के अतिरिक्त कुछ
है भी नहीं|
कविता,
नवगीत, ग़ज़ल विधा में राजनीतिक व्यवस्था के प्रति इस प्रकार की अभिव्यक्ति का आना
यह स्पष्ट करता है कि कविता का समकाल समृद्ध है| रचनाकारों में अपने समय और समाज
को गतिशील बनाने का साहस है| सामर्थ्य है उनमें हवाओं के रुख को अपनी तरफ मोड़ने
का| एक आक्रोश है उनमें जो उन्हें व्यवस्था के प्रति एक प्रतिरोधी के रूप में सचेत
रहने के लिए प्रेरित करती है| यदि साहित्य राजनीति के आगे मशाल लेकर चलने वाला
माध्यम है तो उस माध्यम की ऊर्जस्विता को बनाकर रखने में समकालीन हिंदी कविताओं की
बड़ी भूमिका है| सत्ता सापेक्ष होकर प्रशंसा पाने की अभिलाषा से दूर होकर उपेक्षित
और हाशिए पर धकेले जा चुके जन-जीवन के लिए संघर्ष करना आसान कार्य नहीं है| ‘कविता
का समकाल’ ‘कहन’ की दृष्टि से ही नहीं ‘चयन और प्रस्तुति’ की दृष्टि से भी एक
महत्त्वपूर्ण रचनात्मक पड़ाव है जिसमें समकालीन जीवन-बोध विस्तार से परिभाषित होता
है|
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