धर्म
और संस्कृति भारत के प्राणतत्व हैं| यहाँ के जन-जीवन में इन तत्त्वों का समावेश
कुछ इस तरह का है कि अनादिकाल से ये मनुष्य को आकर्षित करते आए हैं| धर्म जहाँ
लोगों को ‘धारण करने’ की सीख देता है वहीं संस्कृति विशेष परिस्थितियों में ढलने
के योग्य बनाती है| आस्था, समर्पण, श्रद्धा और कर्तव्य के भाव जहाँ हों वहां
‘धर्म’ की प्रधानता स्वीकार करना चाहिए| रहन-सहन, बात-व्यवहार, चाल-चलन,
सम्वाद-विवाद की स्थिति में संस्कृति की भूमिका को चिह्नित किया जाना चाहिए| समय
के अनुसार दोनों की मान्यताओं में परिवर्तन होता रहता है| यहाँ धर्म की अपेक्षा
संस्कृति अधिक परिवर्तनशील है| यह कभी रूकती नहीं है, प्रवाह है एक जो अनवरत
गतिशील रहती है|
परिवर्तन
जब होता है, नकारात्मक है या सकारात्मक, काल-प्रवाह निर्धारित करता है| हम जो देख
रहे होते हैं और कहीं गहरे में जो भोग रहे होते हैं उसी के आधार पर भविष्य का एक
चित्र खींचते हैं| समकालीन हिंदी कवियों की दृष्टि में ‘भारतीय-संस्कृति’ को लेकर
जो बदलाव इधर के दिनों में देखने को मिले हैं, हितकर नहीं हैं| आकर्षण में बहुत
बार लोग छले गए हैं और आज भी छले जा रहे हैं लेकिन फिर भी इधर कुछ ऐसा है जिसे
त्यागना कम से कम ‘भारतीय लोक’ के लिए तो मुश्किल है| यह मुश्किल इसलिए भी है
क्योंकि कुछ चीजें परंपरा से अनवरत प्रवाहित होती आई हैं| जीवन-संकट से निकलने में
ये ‘कुछ चीजें’ सहायक होती हैं तो विश्वास बढ़ता जाता है|
घर
और परिवार उन विशेष चीजों में आते हैं जिन्हें व्यक्ति हर हाल में नहीं छोड़ना
चाहता है| कवि श्याम सुन्दर दुबे के शब्दों में कहें तो “नहीं छूटता/ पीछा घर का/
देश-विदेश खाई-खन्दक में/ वही जगाता/ एक फुरहरी/ देह-प्राण के विष्कम्भक में”
क्योंकि घर का महत्त्व भारतीय संस्कृति में प्रारंभिक समय से अभीष्ट रहा है| इसी
स्थिति को चिह्नित करते हुए निर्मल शुक्ल अपने नवगीत में कहते दिखाई देते
हैं-“सबके अपने-अपने घर हैं/ कुछ माटी के/ कुछ चन्दन के”[1] फिर
भी कुछ हैं जिनके लिए अब घर घर जैसा नहीं रह गया है| या तो वे घर से ऊबे हुए हैं
या फिर घर उनसे| जो घर से ऊबे हुए हैं उन्हें एक बार जरूर उन लोगों से घर के बारे
में जानना चाहिए जो घर से बेघर हुए हैं| माधव कौशिक का यह कहना वाकई सच है कि-“दर्द
कहाँ कितना होता है, कैसे क्योंकर नहीं हुआ/ उसको क्या मालूम जो अपने घर से बेघर नहीं हुआ|”[2]कई
स्मृतियाँ ऐसी होती हैं जो व्यक्ति के घर से जुडी होती हैं| जीवन की शुरुआत ही
घर-आँगन से होती है| बचपन से लेकर युवापन तक की बहुत सी रवायतें घर की दहलीज में
पूरी होती हैं|
यह
सांस्कृतिक बदलाव का ही प्रतिफल है कि जहाँ लोग एक दूसरे से गहरे में जुड़े होते थे
वहीं “अपनी अपनी दुनिया में है अपना पन/ फैला फैला अपनों का संसार नहीं|”[3]
एक बड़े कैनवास में सज कर समय और समाज को गतिशील बनाने वाले रिश्ते संकुचित हुए
हैं| इतने संकुचित कि ग़ज़लकार विज्ञान व्रत यह कहने के लिए विवश होते हैं कि “मैं
कुछ बेहतर ढूंढ रहा हूँ/ घर में हूँ घर ढूंढ रहा हूँ|” घर में रहकर घर ढूँढने
की वेवशी इधर के दिनों में और अधिक सघन हुई है| घर-परिवार से दूर रहना मुनाशिब
समझने वाले इस अत्याधुनिक समय के लोग बूढ़े माता पिता की खांसी तक से परहेज करने
लगे हैं जिसे अवनीश त्रिपाठी अपने नवगीत में कुछ इस तरह अभिव्यक्त करते हैं
“सहयात्री के साथ नया/ अनुबंध नहीं हो पाया/ छतें, झरोखे, अलगनियों/ के साथ नहीं
रो पाया/ पीडाओं का अंतर भी अब/ है घनघोर उदासी/ सही नहीं जाती है घर को/ आंगन की बूढी खाँसी|”[4]
घर को घर की तरह न पाना, बड़े-बुजुर्गों को बोझ समझना, यह सम्वादहीनता का परिणाम
है| कभी जिनके होने भर से सारा परिवेश गुलज़ार होता था अब उनकी उपस्थिति मात्र से
उदासी घर कर जाए, सहज विश्वास नहीं होता| ज्ञान प्रकाश विवेक का यह स्पष्ट मत है
कि “सानेहा ये, आजकल अनबन में सब मसरूफ़ हैं/ वक्त होता था कभी सारा मुहब्बत के
लिए|”[5] आज भी
जिस घर और परिवार में सम्वाद है वहां का पक्ष उजला है|
संस्कृति
का एक अहम् हिस्सा है सम्वाद| हमें घर परिवार और सम्बन्धों को बचाने के लिए सम्वाद
को बढ़ावा देना ही होगा| जहाँ सम्वादहीनता है वहां अवसरों की तलाश स्वयं करनी होगी|
यहाँ विज्ञान व्रत का यह सुझाव भी सम्वाद की तरफ हमारा ध्यान आकृष्ट करता है कि “मुझ
से मिलने-जुलने को/ अपने पास बहाने रख/ वरना गुम हो जाएगा/ खुद को ठीक-ठिकाने रख|”[6]
समय किसी के पास नहीं है यह सच है लेकिन अकेलेपन में कुंठा और संत्रास का
शिकार होने से अच्छा है कि पास-परिवेश से जुड़ कर रहने के लिए बहाने तलाशे जाएँ|
इस
स्थिति में एक तरीका तो यह हो सकता है कि कुछ ऐसा प्रयास करो कि सामने वाला सम्वाद
की पेशकश स्वयं करे या फिर अपने अहम् को त्यागकर सम्वाद के लिए दूसरे को तैयार
करो| कवि अमरजीत कौंके का ‘दिल करता है’ कि “जिनके साथ/ जाने-अनजाने/
गुस्ताखियाँ की/ अपने अहम् में डूबकर/ जिनको बुरा भला कहा/ प्यार में/ जिनके साथ
लड़ता रहा/ फिर मुंह फेर लिया/ दिल करता है/ उन सबको मना लूँ|” इस मनाने में ही
सम्बन्धों की ऊर्जा को बचाने का संकल्प छिपा है| हालाँकि यहाँ इस बात से भी कवि
भिज्ञ है कि “बीत गए पल/ लौटते तो नहीं” लेकिन उसकी अपनी व्यावहारिकता उसे झुकने
के लिए विवश करती है जो कहीं न कहीं हम सबकी व्यावहारिकता हो सकती है|
रहन-सहन
की स्थिति में भी परिवर्तन लक्षित हुआ है| घर-परिवार से दूर होना और सम्वाद की
व्यावहारिक स्थिति ठीक न होने से युवाओं में भटकाव चिह्नित किया गया है| खाली
दिमाग यदि खुरापात करता है तो इसकी शुरुआत भारतीय समाज में बड़ी तेजी से हो गयी है|
अब भारतीय परिवेश और व्यवहार की बातें करना पिछड़ेपन का द्योतक हो गया है| जो चीजें
और स्थितियां देश-व्यवहार में नहीं हैं उनका आचरण करना प्रगतिशील माना जा रहा है| माधव
कौशिक की मानें तो यह ऐसा दौर है कि“जीवन की बुनियादी शर्तें/ धीरे-धीरे बदल
रही हैं/ धूप, हवा, पानी या रोटी/ कपड़ा, लत्ता या मकान की/ बातें करना/ दकियानूसी
होने जैसा लगता है/ घर का खाना/ ठीक वक्त पर घर को जाना/ बीवी से मिलकर हँसना भी/
गये दिनों की बात हो गई|”[7]
बीवी के स्थान पर प्रेमिकाओं को घुमाना यह वाकई आज के युवाओं की पसंद होती जा
रही है| शादियाँ हो जाने के बाद भी लिव-इन-रिलेशन को अपने व्यवहार में शामिल करना
एक अलग तरह का फैशन होता जा रहा है| जयशंकर शुक्ल की दृष्टि में “बिना व्याहे रह
रहे/ जोड़े नये परिवेश में अब/ स्नेह घटता जा रहा/ उन्मत्त मिलते क्लेश में सब”[8] जिससे
एक बड़ा प्रभाव यह हो रहा है कि युवा पीढ़ी का अधिकांश कुण्ठा और संत्रास से भरा हुआ
दिखाई दे रहा है|
तेजी
से बदलते समय में वह दिग्भ्रमित हुआ है| स्थितियां बिलकुल उसके वश में नहीं हैं|
अधिकांश युवा या तो आसमयिक मृत्यु के शिकार हो रहे हैं या फिर नशे की दलदल में
स्वयं को समर्पित कर दे रहे हैं| बृजनाथ श्रीवास्तव की दृष्टि में सही अर्थों में
भारतीय परिवेश में “यह अराजक वक्त फिर से/ हाँ, अधर्मी हो चला है/ देखिये कब तक
चलेगा/ यह अमानुष सिलसिला है|”[9]
यदि यह भी कहा जाए कि हम जहाँ से शुरू हुए थे स्भ्यता के उच्च शिखर पर चढ़ने के लिए
वहीं पुनः वापस होते जा रहे हैं| यह अमानुषिक सिलसिला वाकई हमारे परिवेश को अराजक
और हमें अमानुषिक बना रहा है|
जिस
धर्म में ‘धारण करने’ की प्रवृत्ति थी उसमें ‘नकार के स्वर’ अधिक मुखरित होते देखे
गये हैं| धार्मिक कट्टरता, रूढ़िवादिता, बढ़ते आडम्बर को देखते हुए कई बार ऐसा लगता
है जैसे हम इक्कीसवीं सदी में न होकर मध्यकालीन जीवन को जी रहे हैं| उस जीवन को
जहाँ किसी भी स्थिति पर विश्वास कर लेने के सिवाय और कोई दूसरा रास्ता नहीं रह
जाता है| तन्त्र-मन्त्र का प्रभाव, पूजा-पाठ की पद्धतियाँ, सिद्धि प्राप्ति के लिए
दान-बलिदान की व्यवस्था, श्रेष्ठताबोध, छुआ-छूत, भेद-भाव, पवित्रता-अपवित्रता को
लेकर जो संकीर्णता हमारे मन-मस्तिष्क में वर्तमान हैं वे सभी धार्मिकता की
अधार्मिकता में परिवर्तित होते जाने की कहानी कहते हैं| इन कहानियों की यथास्थिति
पर हमारे समय के कवि कविता के समकाल में धर्म के प्रभाव को लेकर जो दृष्टि अपनाया
गया है वह कोरा यथार्थ है|
धर्म
के नाम पर इधर बहुत अधिक दंगे हुए| दलितों और स्त्रियों पर अत्याचार किये गये|
उन्हें आज भी कहीं न कहीं मंदिरों के उपयुक्त नहीं माना जाता है| हिन्दू-मुस्लिम
नाम पर वैमनस्यता आज से नहीं बहुत दिनों से चली आ रही है जो विकसित होते दौर के
लिए एक बहुत बड़ा प्रश्न है| कहीं भी चलते हुए यह डर तो बना ही रहता है कि कहीं
किसी मामले या दंगे की चपेट में न आ जाएं| मुजफ्फरनगर और कैराना जैसे शहरों के
दंगे आज भी मन-मस्तिष्क में कौंध उठते हैं| जब डी एम मिश्र जैसे शायर यह कहते हैं
कि “दंगे करा रहे हो मज़हब के नाम पर/ बस्ती ज़ला रहे हो मज़हब के नाम पर/ कल तक
तो बांटते थे पैगाम अमन का/ अब खूं बहा रहे हो मज़हब के नाम पर” तो गली चौराहे
और चौकों पर चलते हुए यह डर बना रहता है कि कब किस सम्प्रदाय और धर्म के लोग
उतापात मचा दें और आप उसमें घिरकर लहूलुहान हो जाएँ, कुछ भी निश्चित नहीं है|
देवेन्द्र
आर्य का यह प्रश्न भी यहाँ वाजिब लगता है कि जब धर्म का आविष्कार भाईचारे को बढ़ाने
और बिखरे हुए लोगों को जोड़ने के लिए हुआ तो यह समझ नहीं आता कि “हमारी सारी
आस्थाएं बदले पर क्यों टिकी हैं?/ यह
ईश्वरों को ख़ून ख़राबा क्यों पसंद है?”
क्यों लोग मज़हब के नाम पर तलवारें निकाल लेते हैं? क्यों लोग बेगुनाहों को मारने
लगते हैं? धर्म के नाम पर, मंदिर और मस्जिद के नाम पर लड़ने वालों को यह क्यों नहीं
समझ आता कि “धर्म मानवीय चिन्तन/ परिवेशगत उत्पत्ति/ जीने की विकासशील कला है/
मनुष्य नहीं गुलाम/ जनक है/ जड़ता मौत/ विकास जिन्दगी है|”[10]
जिन्दगी की सच्चाई और जरूरत को उपेक्षित करके मात्र धर्म की रक्षा के लिए
परिवेश को कुरुक्षेत्र बना देना बिलकुल भी उचित नहीं है|
यहाँ
धार्मिक होना सबके संग-साथ होना नहीं है| सम्पन्न का श्रेष्ठ होना है| कमजोर और
गरीब का गुलाम होना है| आम आदमी जब भी ईश्वर के यहाँ गया है दीन-हीन बनकर गया है|
ईश्वर के प्रताप उसे हर समय याद दिलाए गये हैं, वह क्या है बताने की कोशिश कभी
किसी ने नहीं की है| कवि मनुष्य की शक्ति से परिचित है इसलिए वह सबकी तरह शीश नमा
कर नहीं तर्क के साथ जाता है| आम आदमी का प्रतिनिधित्व करते हुए शक्ति और क्षमता
से परिपूर्ण होकर जाता है| श्रीप्रकाश शुक्ल संकीर्ण मानसिकता में पूर्णतः उलझे आम
प्रवृत्ति से दूर रहते हुए सम्पूर्ण मानवीय प्रवृत्ति के साथ ईश्वर के सम्मुख
प्रस्तुत होने का प्रयास करते हैं “हजार वर्षों के तुम्हारे इतिहास में प्रभु!/
हमारे हाथ सिर्फ तुम्हारी पूजा में उठे हैं/ हमारी करुणा सिर्फ तुम्हारे भय के
आश्रित रही है/ तुम्हारे रंध्रों में सिर्फ और सिर्फ/ या तो दूध व गंगाजल उतरता
रहा है/ या फिर तुम्हारी मिट्टी के बने पुतलों का खून/ यह तो तुम भी नहीं चाहते
होगे प्रभु!/ कि हमारे हाथ उठें/ या तो दया में या फिर करुणा में”[11]क्योंकि
जिस दिन ‘दया में या फिर करुणा में’ हाथ उठने शुरू हो गये उसी दिन ईश्वरता नाम की
कोई चीज नहीं रह जायेगी और सुविधा-कवच के रूप में निर्मित आशियाना ढहता जाएगा|
आज
का कवि चाहता है कि सुविधा-कवच टूटे और मनुष्य आपसी सम्बन्धों में ईश्वर-प्रतीक का
स्तेमाल न करके स्वयं को ईश्वर-जैसा दिखाए| आस्थाओं पर प्रश्न आज इसीलिए उठने शुरू
हो गये हैं| अंकित काव्यांश अपने एक गीत में भजन और प्रार्थना से कहीं अधिक जरूरी
जन-वेदना पर ध्यान देने की बात करते हैं क्योंकि “भजन उपेक्षित/ हो भी जाएं फिर
भी रोज सुने जाएंगे।/ लेकिन चीखें/ सुनने वाला ध्यान कहाँ से हम लाएंगे?”[12]
यह प्रश्न उठाना युवा पीढ़ी का जागरूक होना भर नहीं है मानसिक संकीर्णता से ऊपर
उठकर यथास्थिति पर विचार करने के लिए लोगों को प्रेरित करना भी है| लोगों ने विचार
करना शुरू कर दिया है इसीलिए मनुष्य और ईश्वर के बीच ब्याप्त अंतर ख़त्म होते जा
रहे हैं| मनुष्य अपने कर्मों पर निर्भर होता जा रहा है|
ऐसा करते हुए यह भी नहीं
है कि वह ईश्वर हो जाना चाहता है; वह मनुष्य ही रहना चाहता है लेकिन जीवन को अपने
मन-माफिक जीना चाहता है| दिविक रमेश को इस बात का ‘बोध’ होता है तो वे यह कहने से
नहीं चूकते-“ओ मेरे युग-देवता!/ क्षमा करना/ यदि मैं प्रकट करता हूँ/ तुम्हारे
प्रति/ अनास्था ।/ क्योंकि/ मेरे युग-राक्षस ने/ तुम्हें विजित कर/ सिखा दिया है
जीना ।/ अन्यथा मैं भी/ बन जाता एक कड़ी/ आत्महत्याओं की/ श्रंखला की|”[13]यह
समय आस्थाओं पर विश्वास करने से कहीं अधिक समय-सापेक्ष चलने की मांग करता है| विसंगतियों
से भरे दौर में एक सीमा से अधिक आशावादी होना स्वयं के पैर पर कुल्हाड़ी मारना है|
आशा भी उसकी की जाए जिसका अस्तित्व तो कम से कम हो| माधव कौशिक की दृष्टि में यह
कितनी विडंबना की बात है कि “अजीब दौर में पैदा किया गया हमको/ खुदा नहीं था मगर
ऐतबार करना था|”[14]
यह कोशिश तो हो ही कि धर्म जैसे सम्वेदनशील मामले में भ्रम और संशय से दूर होकर
यथार्थ को स्वीकार करें| यदि हम यथार्थ को स्वीकर करेंगे तो धर्म की संकीर्णता
समाप्त होगी और उसके वास्तविक मर्म से हम साक्षात्कार कर सकेंगे|
हिंदी
कविता का समकाल संस्कृति और धर्म को अपने तरीके से देखने और समझने के लिए स्वतंत्र
है| यहाँ धर्म के सम्बन्ध में कही गयी बातों से कहीं अधिक देखे गये यथार्थ को
महत्त्व दिया जा रहा है| नवगीत, ग़ज़ल और कविता में जिस तरीके से आम आदमी की
आशाओं-आकांक्षाओं को धर्म की संकीर्ण परिधि से हटाकर अनावरण किया जा रहा है उससे
मात्र तर्कशील पीढ़ी को प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है अपितु समन्वयात्मक आतंक रहित
परिवेश के निर्माण में भी सहायता मिल रही है|
[3]
मिज़ाज, अशोक : समन्दर आज भी चुप है,
पृष्ठ-95
[4]
त्रिपाठी, अवनीश : दिन कटे हैं धूप चुनते,
पृष्ठ-91
[5]
विवेक, ज्ञान प्रकाश : दरवाज़े पर दस्तक,
पृष्ठ-79
[7]
कौशिक, माधव : कैंडल मार्च, पृष्ठ-33
[8]
शुक्ल, जयशंकर : तम भाने लगा, पृष्ठ-37
[9]
श्रीवास्तव, बृजनाथ : कैसी है बन्धु! यह
सदी, पृष्ठ-35
[11]
शुक्ल, श्रीप्रकाश : कवि ने कहा, पृष्ठ-75
+
[12]
काव्यांश, अंकित : कविता कोश
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